राजल माताजी चराडवा वाळी री स्तुति – कवि जीवणदानजी डोसाभाइ झीबा (धांगध्रा)

॥दोहा॥
आदि जोगमाया अकळ,सोहत जोत सरुप।
तारण कुळ चारण तणी,राजल प्रबळ सरुप॥
॥छंद नाराच॥
मंदोर मस्त जोरका भरेल दैत मारणी।
प्रचंड दुष्ट झुंड पै त्रिशूल की प्रहारणी।
जिन्नात भूत प्रेत को हराणहार जोपियं
अखंड जोत रुप आई राजबाई ओपियं॥1॥
पहेलवान म्लेच्छ मार वार रूधिरं पिये।
करोर ब्रहम राखसां विलोकतां डरे हिये।
दहीत दास के तमाम नाश सब्ब है कियं।
अखंड जोत रुप आई राजबाई ओपियं॥2॥
किवी दिली मही हुंकार आप राड़ जो सुणी।
विलोक नी सकात वीकराळ सिंहणी बणी।
ध्रुजै महल्ल मानि हार पादशा डरप्पियं।
अखंड जोत रुप आई राजबाई ओपियं॥3॥
पृथी परां घणा घणा परच्चा आप पुरिया।
हमेश सेवगां सुणंत साद आप आविया।
रणांगणां कराळ काळ जेम पाँव रोपियं।
अखंड जोत रुप आई राजबाई ओपियं॥4॥
शरीर दाणवां तणा घडी घडी डकारणी।
धरुं हुं ध्यान आपरो अमारे हेक तुं धणी।
कृपा कटाक्ष सुं हमेश आफतं हटावियं।
अखंड जोत रुप आई राजबाई ओपियं॥5॥
निहार नै प्रताप आप भूपति वडा नमें।
समस्त जोगणी समेत रंग रास तुं रमै।
करे जो सेव ताह तेह नौ निधि समप्पियं।
अखंड जोत रुप आई राजबाई ओपियं॥6॥
दुवारका जतो हुतो दुःखी बिकाण भूपति।
चलंत बीच थान देख आवियो अधिपति।
मिटाय कष्ट ताप पीथळं नृपं जदे नमं।
अखंड जोत रुप आई राजबाई ओपियं॥7॥
तमाम ठाम कष्ट की घडी सहाय कीजिए।
ह्रदे धरंत ध्यान ता परे बहोत रीझिये।
कवि जिवन्नदान प्रेम युक्त स्त्रोत्र तौ कियं।
अखंड जोत रुप आप राज बाइ ओपियं॥8॥
~~कवि जीवणदानजी डोसाभाइ झीबा (धांगध्रा)