गीता रौ राजस्थानी में भावानुवाद-आठवौ अध्याय

आठवौ अध्याय – अक्षरब्रह्मयोगः

।।श्लोक।।
किं तद् ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।।

।।चौपाई।।
ब्रह्म, अध्यात्म, करम ज कै है?
अधिभूत ज कुण सो वाजै है?
अधिदैव ज किसड़ौ कैवै है
ए इण देह में कठै व्है है?।।१।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण नै पूछै
-हे पुरुषोत्तम! वौ ब्रह्म कांई व्है?
है, अध्यात्म कांई व्है? अर करम किण नै कैवै है? इण अधिभूत नाम सूं कांई कह्यो है? अर अधिदैव(बड़ौ दैव) किण नै कैवै है?।।१।।
।।श्लोक।।
अधियज्ञ: कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाण काले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभि:।।२।।

।।चौपाई।।
अधियग्य ज औ कुण सो व्है है?
औ इण देह में कियां व्है है?
जो अंतस सूं जद जद जोवै
हे भगवन वश में किम होवै।।२।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे मधुसूदन! अठै अधियग्य कुण है? अर वौ इण शरीर में कीकर है? अर अंतस सूं चित्त में धारण वाळा मिनखां नै आप सेवट कीकर प्राप्त व्हैय जावौ सा?
।।श्लोक।।
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्म मुच्यनते।
भूतभावोद्भवकरो निसर्ग: कर्मसाञ्ज्ञित:।।३।।

।।चौपाई।।
अक्षर परम ज ब्रह्म बणावै
जीव रूप अध्यात्म कहावै।
करम भगत रौ उद्भव सारौ
त्याग जियां सूं उपजै न्यारौ।।३।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!परम अक्षर ब्रह्म वाजै है औ अध्यात्म रै नाम सूं जाणी जै है। अर प्राणियाँ में त्याग पैदा करण वाळा भाव है वौ कर्म कहावै है।
।।श्लोक।।
अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।४।।

।।चौपाई।।
उपन, नाश अधिभूत ज व्है है
हिरण्यमयी अधिदेव सै है।
देह धारियाँ मु सिरै वाजै
म्हूँ अधियग्य औ रूप साजै।।४।।

उपन= उत्पति
।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!
जका री उत्पति अर विनाश व्है है वै अधिभूत कहावै है अर हिरण्यमय मिनख अधिदैव वाजै है अर हे देह धारियाँ में श्रेष्ठ अर्जुन! इण शरीर में म्हैं वासुदेव ही अन्तर्यामी रूप से अधियग्य हूँ।
।।श्लोक।।
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:।।

।।चौपाई।।
म्हनैं मरण री बगत चितारै
पछै देह त्यागण री धारै।
मिनख म्हनै वौ निस्चै पावै
तिण में संशय भवै न आवै।।५।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!
जकौ मिनख म्हनैं अन्तकाल में ई सिमरै (स्मरण)मतलब सिमरण करतौड़ौ रैवै अर पछै देह नै त्यागण री व़गत वौ म्हारा साक्षात रूप में प्राप्त हुवै। इण मांय रत्ती भर संशय नीं व्है है।
।।श्लोक।।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:।।६।।

।।चौपाई।।
अन्तकाल जो जो चित भावा
उण रौ रूप उसौ बण जावा।
देह तजत सिमरै जद ग्यानी
विण विण रूप नु तय वौ जाणी।।६।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! मिनख अन्तकाल में जिण जिण ई भाव नै सिमरतौ थकौ शरीर नै तजै वौ उण अन्तकाळ रा भाव में मगन व्हैतोड़ौ उण उण रूप में इज समाय जाय है मतलब उण उण योनि में जाय परौ है।
।।श्लोक।।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।।७।।

।।चौपाई।।
इहि कारण मुझ नूं भज प्यारा
लगातार करलै जुध सारा।
अरपण करियाँ मन मति म्हा में
रवै न कौई संशय ज्यां में।।७।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-इण वास्तै हे अर्जुन!थारौ सगळौ बगत म्हनै स्मरण (चितारण) में लगा अर युद्ध ई कर। इण भांत म्हारा में अरपित करियोड़ी मन-बुद्धि सूं थूं निस्चै ई म्हनै पाय लै ला।
।।श्लोक।।
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।८।।

।।चौपाई।।
करत योग अभ्यास ज खासा
चित थारौ मत राख उदासा।
मगन होय इक टक नित ध्यावै
वौ जन परमेश्वर नै पावै।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे पार्थ! औ नियम है कै परमेश्वर रै ध्यान में मगन व्हियोड़ा मिनख रै योग रौ अभ्यास व्हियाँ पछै उण रौ मन अठी उठी नीं भटकै वौ मिनख परम पिता परमात्मा नै निस्चै ई पाय लै है।
।।श्लोक।।
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्य:।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमस: परस्तात्।।९।।

।।चौपाई।।
सुकवी आदु सबरा शासिता
छोटा सूं छोटा हु जाविता।
बिन चिन्ता धारक रवि रूपा
अविदया तज विदया अनूपा।।९।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! वौ, सुकवी मतलब सर्वग्य, पुराणाम् यानी अनादि (आदु), सब रा नियंता, सूक्ष्म सूं ई अति सूक्ष्म, सब नै धारण, पोषण करण वाळौ, बिना चिन्ता करणियौ, सूरज रै स्वरूप नित चेतन, अंधारा नै चीर उजास वान अर अविद्या सूं अळगौ परम पिता परमेश्वर नै सिमरण (स्मरण)करै है।
।।श्लोक।।
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यकस तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।१०।।

।।चौपाई।।
भगती पाण योग बळ धारै
भ्रकुटि बीच थिर प्राण चितारै।
देह तजै मम सिमरत ज्यांरौ
परमेश्वर मिलणौ तय व्यांरौ।।१०।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!
वौ भगत जकौ आपरा योग बळ सूं भ्रकुटि रै बीच में प्राणां नै आछी तरियां थापित कर र पछै निश्चल होय र मन सूं सिमरण करतोड़ौ उण दिव्य रूप परमात्मा सूं इज मिलै है।
।।श्लोक।।
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागा:।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं सड़्ग्रहेण प्रवक्ष्ये।।११।।

।।चौपाई।।
वै विद्वान वेद रा ग्याता
अविनाशी हरि रूप ज पाता।
ब्रह्मचारी व्है यु बड़भागी
गुण वां रा सुण करूं मुँ आगी।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!
वेद नै जाणण वाळा विद्वान जिण नै सच्चिदानन्दघनरूप परम पद अविनाशी कैवै है, जकौ आसक्ति रहित जतन वाळौ संन्यासी महात्मा जन उण मांय प्रवेश करै है। अर जिण परम पद नै पिछाणण वाळा ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य रौ पालण करै है उण परम पद नै म्हैं थारै वास्तै संक्षेप में सुनाऊं ला।
।।श्लोक।।
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम्। १२।।

।।चौपाई।।
रोक ज द्वार वै इन्द्रिय सारा
मन नै हिय में थिर करवा रा।
प्राण करै नैना विच काठा
योग धारवा रा ए आंटा।।१२।।

।।श्लोक।।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।१३।।

।।चौपाई।।
आखर ओमकार उच्चारौ
चिन्तन यु ब्रह्म निर्गुण वारौ
तज शरीर जावै उत न्यारौ
परम गति ज वौ पावण हारौ।।१३।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! सगळी इन्द्रियां रै द्वारां नै रोक र मन नै हिया में थिर कर र पछै उण जीतियोड़ा मन सूं प्राणा नै लिलाट में थापित कर परमात्मा सम्बन्धी योग धारण करण वास्तै थापित व्है। जकौ मिनख ॐ नामक आखर रौ उच्चारण करतौ थकौ अर उणरौ अर्थ स्वरूप म्हारौ, निर्गुण ब्रह्म रौ चिन्तन करै अर शरीर नै त्यागै वै मिनख परम गति नै प्राप्त हुवै है।
।।श्लोक।।
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:।।१४।।

।।चौपाई।।
जो अनन्य चित्त म्हनैं ध्यावै
सिमरण अष्ट पौर मम चावै।
उण योगी खातर म्हैं आऊं
सहज सुलभ उणनै मिल जाऊं।।१४।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!
जकौ मिनख म्हारै में अनन्य चित्त होय र नित दिन रात म्हनैं, पुरुषोत्तम नै सिमरता रैवै उणनै नित निरन्तर म्हा में मगन व्हियोड़ा योगी खातर सहज सुलभ मिल जाऊं हूँ।
।।श्लोक।।
मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मान: संसिद्धिं परमां गता:।।१५।।

।।चौपाई।।
उण योगी रा योग ज जागै
म्हा म्हैं निश दिन चित्त ज लागै।
क्षण भंगुर ‌ दुख सै मिट जावै
वै जन मुगती रा मग पावै।।१५।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! परम सिद्धि नै प्राप्त महात्मा जन (योगी) म्हारा में मगन व्है कर क्षण भंगुर संसार रा दु:ख रुपी पंपाळ रा मरण सूं छूट जाय अर परम गति नै प्राप्त हुवै है।।
।।श्लोक।।
आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय न विद्यते।।१६।।

।।चौपाई।।
अर्जुन, ब्रह्मलोक रैवणियौ
पुनर्जलम रौ दुख सैवणियौ।
पण जो योगी म्हनैं ज ध्यावै
जलम मरण उण रा मिट जावै।।१६।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! ब्रह्मलोक तक सगळा लोक पुनरावृत्ति वाळा लोक है मतलब उठै गयां पछै संसार में पाछौ आवणौ पड़ै है पण हे कौन्तेय! म्हनैं प्राप्त करियां पछै योगियां रा जलम-मरण मिट जाय है।
।।श्लोक।।
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदु:।
रात्रिं युगसहस्त्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जना:।।१७।।

।।चौपाई।।
सहस्र चतुर्युगि जु हिक दिन व्है।
सहस्र चतुर्युगि जु हिक रत व्है।
जो इण तत्व ग्यान नै जाणै
वै मुनि काल तत्व पहिचाणै।।१७।।
रत=रात
।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!जकौ मिनख ब्रह्मा रै एक हजार चतुर्युगोवाळै एक दिन नै एक हजार चतुर्युगोवाळी एक रात नै जाणै है, चतुर्युग मतलब सत युग, त्रेता युग, द्वापर युग अर कळयुग मृत्युलोक रा आं चार युगां नै एक चतुर्युग कैवै है ऐड़ा एक हजार चतुर्युग बीतियां पछै ब्रह्मा जी रौ एक दिन व्है है अर एक हजार चतुर्युग बीतियां पछै ब्रह्मा जी री एक रात हुवै है। दिन रात री इण इज गिणती रै हिसाब सूं ब्रह्मा जी री उमर सौ वर्षों री व्है है। सौ वर्षां पछै ब्रह्मा जी परमात्मा में लीन व्है जाय अर वां रौ ब्रह्म लोक ई प्रकृति में लीन व्है जाय। जकौ योगी इण तत्व ग्यान नै जाणै है व्है इज काळ रै तत्व रा ग्याता व्है है।
।।श्लोक।।
अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञ्ज्ञके।।१८।।

।।चौपाई।।
सै अव्यक्त जलम जा प्राणी,
दिन ऊगै ब्रह्मा सूं जाणी।
रात हुयां सब लीन हु जावै
ब्रह्मा जी री रात ज आवै।।१८।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!ब्रह्मा जी रै दिन री शुरुआत में अव्यक्त जीव (चराचर प्राणी) मतलब ब्रह्मा जी रा सूक्ष्म शरीर सूं उत्पन्न हुवै अर उठै ब्रह्मा जी री रात हुवतां ई वै अव्यक्त नाम वाळा जीव सगळा लीन व्है जाय। मतलब कै ब्रह्मा जी रै जागता रैवण सूं ‘सर्ग’ अर ब्रह्मांड जी रै सोवण सूं प्रलय व्है है।
।।श्लोक।।
भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवश: पार्थ प्रभवत्यहरागमे।।१९।।

।।चौपाई।।
यु प्राणी समुदाय व्है आगौ
जलम मरण रा वश में लागौ।
दिन में जगै रात में लीना
पनपत खपत करम ज्यूं कीना।।१९।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे पार्थ! वौ इज औ प्राणी समुदाय ब्रह्मा जी रै दिन ऊगतां ई उत्पन्न होय र प्रकृति रै वश व्है गौ। अर ब्रह्मा जी री रात री बगत मतलब ब्रह्मा जी री रात होवतां ई लीन व्है जाय है, अर ब्रह्मा जी रै दिनुगै पाछौ उत्पन्न व्है जाय है।
।।श्लोक।।
परस्तस्मात्तु भावऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।
य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।२०।।

।।चौपाई।।
अव्यक्त ब्रह्मा सूं ज न्यारौ
दूजो इक अव्यक्त उजारौ।
वौ सनातन अव्यक्त भावी
परम पुरुष अविनाशी छावी।।२०।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! उण अव्यक्त सूं घणौ आगै दूजो विलक्षण सनातन अव्यक्त भाव है, वह परम दिव्य पुरुष सगळा प्राणियाँ सूं न्यारौ अविनाशी है।
।।श्लोक।।
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।२१।।

।।चौपाई।।
अव्यक्त ‘अक्षर’ नाम वाजै
परम गति ज उण सूं इज साजै।
जलम मरण जद उत मिट जावै
वौ इज म्हारौ धाम कहावै।।२१।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!जकौ अव्यक्त ‘अक्षर’ नाम सूं जाणीजै है, उण इज अक्षर नामक अव्यक्त भाव नै परम गति कैवै है अर जिण सनातन अव्यक्त भाव नै पाय र मिनख आवा जावी (जलम मरण) रा पंपाळ सूं मुगत व्है जाय उठै इज म्हारौ परम धाम है।
।।श्लोक।।
पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्त: स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।२२।।

।।चौपाई।।
पार्थ जीव सब हरि अधीना
इण जग नै हरि पूरण कीन्हा।
औ परमातम सर्व समावै
अनन्य भक्ति सुँ इज यूँ आवै।।२२।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! जिण परमात्मा रै अधीन सगळा प्राणी आवै है, जिण सच्चिदानन्द घन परमात्मा सूं औ सगळौ जगत परिपूरण व्है है वौ सनातन अव्यक्त पुरुष तौ अनन्य भगती सूं इज प्राप्त व्है सकै है।।
।।श्लोक।।
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिन:।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।२३।।

।।चौपाई।।
हे अर्जुन जिण मग मुनि लागा
सो मग अनावरति रा लागा।
जौ जन आवरती रा व्है है
वै दोनू मग सुण आवै है।।२३।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!जिण काळा में मतलब जिण मारग में देह त्याग र गयोड़ा योगी (मुनि) पाछा आवा जावी रा पंपाळ में नीं पड़णिया अनावरति योगी वाजै है अर जकौ आवा जावी रा मारग माथै चालणिया आवरती वाळा जन वाजै है म्हैं थनैआगै आं दोनू मारगां री विगत बताऊं ला।
।।श्लोक।।
अग्निर्ज्योतिरह: शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम्।
तंत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना:।।२४।।

।।चौपाई।।
ज्योति अगन री अधिपति होवै
सुकल पक्ष अगनी रौ सोवै।
उतरायण में जो मर जावै
ब्रह्म लोक जा अमरत आवै।।२४।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!जिण मारग में प्रकाशवान अगनी-अभिमानी देवता है, दिन रा अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष रा अभिमानी देवता अर उत्तरायण रा छ: महीनां रा अभिमानी देवता है, उण मारग में मरियोड़ा ब्रह्मवेत्ता योगी लोग जथाजोग देवां सूं क्रम सूं लेजाय र ब्रह्मा जी नै प्राप्त व्है है।
।।श्लोक।।
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण: षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।।२५।।

।।चौपाई।।
धूम अंधारौ पख यूँआवै
सूरज दिखणायण में जावै।
विण पख में मरिया जो जोगी
चन्द्र ज्योति पा सुरग ज भोगी।।२५।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! जिण मारग में धूमाभिमानी देवता व्है, रात्रि अभिमानी देवता व्है, अर अंधारा पख (कृष्ण पक्ष) रा अभिमानी देवता व्है अर दक्षिणायण रै छ:महीना रा अभिमानी देवता व्है, उण मारग में मर र गयोड़ा सकाम कर्म वाळा योगी सूं जथाजोग देवतावां कान्ही सूं क्रम सूं गयोड़ा चन्द्रमा री ज्योति नै पाय र सुरग में आपरै शुभ कर्मां रौ फळ भोग र पाछौ आवै।
।।श्लोक।।
शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगत: शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः।।२६।।

।।चौपाई।।
जीव मुगत रा दो मारग व्है
देवयाण अर पितरयाण व्है।
हिक मग रौ मुनि फिर नीं आवै
अर दूजो मग पाछौ लावै।।२६।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! क्यूं कै जीव रै मुगती रा ए दो तरह रा मारग बताया है एक सुकल पख अर दूजो कृष्ण पख मतलब देवयाण अर पितरयाण मारग सनातन मारग वाजै है। इण में एक मारग सूं गयोड़ा नै पाछौ नीं आणौ पड़ै, वौ उण परम गति नै पाय लै पण दूजा मारग सूं गयोड़ौ पाछौ आवै है मतलब उणरौ जलम मरण होव तो रैवै।
।।श्लोक।।
नैते सुती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।।२७।।

।।चौपाई।।
तत्व ग्यान रौ ग्याता योगी
मोहित नीं व्है मग में जोगी।
अर्जुन बण सम बुद्धि ज वाळौ
सो म्हारा में प्राण बिछाळौ।।२७।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे पार्थ! इण तरह आं दोनां मारगां नै तत्व में जाणियां पछै कोई योगी मोहित नीं व्है इण वास्तै हे अर्जुन! थूं सब मारगां सम बुद्धि स्वरूप योग सूं युक्त है मतलब रोजी ना म्हनैं पावण खातरि प्रयास करतो रै जै
।।श्लोक।।
वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव
दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा
योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।।२८।।

।।चौपाई।।
जोगी में जद तत्व ज जागै
वेद दान यग् तप फळ त्यागै।
सदा सनातन करम सुहावै
वौ योगी परमेश्वर पावै।।२८।।
यग्=यग्य

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! योगी पुरुष इण रहस्य नै तत्व सूं जाण र वेदां नै पढण सूं यग्य करण सूं, तपस्यारत व्हैवण सूं अर दान पुण्य करण सूं जकौ फळ मिलै वां सगळां रौ त्याग कर र योग धारै वौ योगी परमेश्वर नै पाय लै है।
।।चौपाई।।
औ अध्याय आठवौ ध्यायौ
अक्षर ब्रह्म योग समझायौ।
ॐ तत् सत् रा नाम ज जपिया
विनय विरेन्दर कर इम अपिया।।


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