गीता रौ राजस्थानी में भावानुवाद-नवमो अध्याय

नवमो अध्याय – राजविद्याराजगुह्ययोगः

।।श्लोक।।
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यञ्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।१।।

।।चौपाई।।
औ है इक छानै रौ ग्यान ज
अवर औ ई विग्यान मान ज।
दोष ज दृष्टि हिणा तुझ कै ऊँ
जाण जगत सूं मुगती दै ऊँ।।१।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कह्यौ, थारा जिसड़ा दोष दृष्टि रहित भगत रै वास्तै इण परम रहस्यमय विग्यान सागै ग्यान नै पाछौ अच्छी तरियां कैऊँ ला। जिण सूं थूं इण दुःख रूपी संसार सूं मुगत व्है जायला।
।।श्लोक।।
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तमव्ययम्।।२।।

।।चौपाई।।
औ सगळी ज विधा रौ राजा
सगळौ गुपत ग्यान इत पा जा।
सिरै शुद्ध फळ इणरौ आवै
औ अविनाशी सहज ज पावै।।२।।

।।भावार्थ।।
औ विग्यान सहित ग्यान री सगळी विधावां रौ राजा है क्यूं कै इण नै अच्छी तरह जाणियां पछै लारै कीं ई जाणणौ बाकी नहीं रै्वै।
संसार में रहस्य री जितरी ई गुप्त बातां है वां सगळी बातां रौ औ राजा है। औ घणौ पवित्र अर घणौ सिरै (श्रेष्ठ) है अर इण रौ फळ ई प्रत्यक्ष व्है है। औ धर्म मय अर अविनाशी है पछै इण नै करण वास्तै औ साव सुगम है मतलब इण नै प्राप्त करणौ सरल है।
।।श्लोक।।
अश्रद्दधाना: पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।३।।

।।चौपाई।।
हे अर्जुन बिन श्रद्धा ध्यावै
वौ जन म्हनैं कदै इ न पावै।
मरतु लोक रौ वौ व्है भागी
भटकण उण रौ जद व्है सागी।।३।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन (परन्तप)! इण धर्म री महिमा माथै श्रद्धा नीं राखण वाळा मिनख म्हनैं प्राप्त नीं होय र मरतु रूपी संसार रा मारग में पाछा आवता रैवै मतलब भटकता फिरै है यानी बार बार जलम मरण रा भव चक्र में पड़ियोड़ा लाधै है।
।।श्लोक।।
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्व भूतानि न चाहं तेष्ववस्थित:।।४।।

।।चौपाई।।
निराकार साकार ज रूपा,
भगवन् व्यापत सर्व स्वरूपा।
सगळौ जगत ज म्हा में लाऊँ।
म्हैं व्हां रा में नाय समाऊँ।।४।।

।।श्लोक।।
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य में योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन:।।५।।

।।चौपाई।।
वै प्राणी नीं म्हा में जांणौ
म्हारौ औ हरि रूप पिछाणौ।
व्हां रौ धरण भरण म्हारौ व्है
पण निरलिपत स्वरूप ज औ व्है।।५।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! औ सारौ जगत म्हारा साकार अर निराकार स्वरूप में व्याप्त है। सगळा प्राणी म्हारा मांय इज रैवै है पण म्हैं व्हां में नीं हूँ अर व्है प्राणी म्हारा में नीं है क्यू़ कै व्है सगळा नाशवान है म्हैं अविनाशी हूँ अर व्है प्राणी ई म्हारा में थित नहीं है क्यूं कै म्हैं निर्विकार हूँ व्हां प्राणियां में कैई विकारि है। इण वास्तै थनै कैऊँ कै थूं म्हारा इण हरि रूप (ईश्वर स्वरूप)नै देख म्हैं सगळा जीवां नै पैदा करण वाळौ अर व्हां रौ भरण पोषण करण वाळौ होवतौ थकौ ई म्हारौ असली रूप व्हां प्राणियाँ में स्तिथ नीं है क्यूं कै म्हैं निरन्तर हूँ अर सगळा जीव परिवर्तित है।
।।श्लोक।।
यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।।६।।

।।चौपाई।।
जियां पवन उपजै नभ मांही
उत इज विचरत अर रह जा ही।
जिम मम संकल्पां सूं प्राणी
थिर रैवै इत आ थूं जाणी।।६।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! जिण भांत (जिस तरह) सब जगा विचरण वाळौ महान पवन रोजी ना आकाश में इज रैवै है इंयां ई (इसी तरह) सकल जगत रा प्राणी म्हारा में इज रैवै है आ थूं जाण लै
।।श्लोक।।
सर्व भूतानि कौन्तेय प्रकृति यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।७।।

।।चौपाई।।
अर्जुन महा प्रलय री वेळा
म्हारी प्रकृति ज पाय सकेला।
पछै कल्प जद पाछौ आवै
म्हा बिन जीव जलम नीं पावै।।७।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!(कौन्तेय) कल्पां रौ क्षय (प्रलय व्हियां) पछै सगळा प्राणी म्हारी प्रकृति में प्राप्त हुवै है। अर पाछा कल्पां रा आदि (शुरुआत) में यानी महा सर्ग री बगत म्हैं पाछौ व्हांरी(जीवां री) रचना करूं हूँ।
।।श्लोक।।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।

।।चौपाई।।
वश में हुयां यूं प्रकृति रै वौ
परवसु ज जन समुदाय व्है वौ।
पुनि धर नवा नवा आधारा
इम रचलै हरि सब संसारा।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!
प्रकृति रै वश में हो यां सूं परवसु (परतंत्र)हुयोड़ा इण सगळा प्राणी समुदाय नै कल्पां रै शुरुआत में म्हैं सगळा जीवां रै कर्मां रै मुजब सकल जगत री बार बार रचना करूं हूँ।
।।श्लोक।।
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं येसु कर्मसु।।९।।

।।चौपाई।।
हे अर्जुन जगत ज रचवा रा
कर्म किया बिन स्वारथ सारा।
अर अळगौ व्है सागै लाधै
मुझ कूँ करम बंधण नि बाँधै।।९।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! म्हैं इण जगत री रचना करती वेळा आसक्ति रहित अर अळगौ रैवतौ थको सगळी निगराणी करी इण वास्तै म्हैं वां कर्म बंधणा सूं नीं बंधूं मतलब वै कर्म बंधण म्हनैं नीं बांध सकै अर म्हैं उदासीन (तटस्थ) रैऊं हूं।
।।श्लोक।।
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।१०।।

।।चौपाई।।
देख रेख म्हैं म्हारै सारौ
हे अर्जुन जग रचियौ न्यारौ।
इहि कारण सै जोनी होवै
कर्म फलां ज्यूं जूण ज जोवै।।१०।।
जोनी= योनी ज्यूं कै चोरासी लाख योनियां

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!
आ प्रकृति म्हारी अध्यक्षता में चराचर सागै सगळा जगत री रचना करै है। हे कुन्ती नन्दन! इण वास्तै इज इण जगत रौ औ विविध रूप व्है है। जकौ जैड़ा कर्म करै वैड़ा फळ रै अनुसार उणरौ जलम मरण थापिजै अर आगला जलम री जूण भुगते है। मतलब परिवर्तन होवतो रैवै है।
।।श्लोक।।
अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।११।।

।।चौपाई।।
अग्यानी मम भाव न जाणै
मुझ तन धारि नै न पहचाणै।
योग माया रौ रूप भायौ
मम हरि नै ई जाण न पायौ।।११।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! मूरख मिनख म्हारा सगळा प्राणियॉं रै महान् ईश्वर रूप रा सिरै(श्रेष्ठ) भाव नै नीं जाण र म्हनै मिनखा शरीर रै आश्रित मान रह्या है मतलब कै सा्व साधारण मिनख गिण रह्या है अर पछै म्हारी आग्या रौ पालण नीं कर रह्या है।
।।श्लोक।।
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतस:।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता:।।१२।।

।।चौपाई।।
व्यर्थ आस अकरम अग्यानी।
बिगड़ौ चित आसुर अभिमानी।
राक्षसी रूप धरणौ जाणी
बिलमावण नै आ लय ठाणी।।१२।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!
जकौ राक्षसी, आसुरी अर मोहिनी प्रकृति रौ इज आश्रय लेवै है व्हां अविवेकी मिनखां री सगळी आसावां बिरथा (व्यर्थ) जाय परी है व्हां रा सगळा शुभ कर्म बिरथा
होवै है, सगळौ ग्यान खारज व्है जाय है यानी वांरी आशावां, कर्म अर ग्यान साचौ फळ देवण वाळौ नीं हुवै है।
।।श्लोक।।
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।१३।।

।।चौपाई।।
म्हनैं भगत हे अर्जुन ध्यावै
दैवी प्रकृति कुँ आश्रित आवै।
अवर अनन्य भाव अपणावै
अविनाशी गिण मम भज जावै।।१३।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! देवी प्रकृति रै आश्रित अनन्य मन वाळा भगत (महात्मा लोग) म्हनै सगळा जीवां रौ आदि अर अविनाशी गिण र म्हारौ भजन करै है।
।।श्लोक।।
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता:।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्य युक्ता उपासते।।१४।।

।।चौपाई।।
जतन कियां मुझ दृढ हिय धारै
लाग राख दिन रात चितारै।
भजन प्रेम रै साथ सुणावै
नम नम नित पूजा कर जावै।।१४।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे!नित लगोलग (निरन्तर) म्हारा में लागोड़ा मिनख दृढ वृति होय र लगन सूं म्हारी साधना मैं लागोड़ा मिनख प्रेम पूर्वक म्हारौ कीर्तन (भजन) करता रैवै अर म्हनैं बार बार नमन करतोड़ा लगोलग म्हारी पूजा करता रै्वै है।
।।श्लोक।।
ज्ञानयज्ञेय चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।१५।।

।।चौपाई।।
ग्यान यग्य सुँ कैइ मुनि ध्यावै
दूजा रूप विराट ज भावै।
न्यारा न्यारा भाव जगावै
पूजण मुझ निर्लिप्त ज आवै।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!कैई ग्यान योगी साधक ग्यान यग्य सूं परमात्मतत्व अर आपरा वास्तविक स्वरूप नै एक मानता थका म्हारा निर्गुण निराकार स्वरूप नै ध्यावै (उपासना, पूजा करै)अर दूजा कर्म योगी खुद नै भगत जाण र इण संसार नै हरि रौ विराट रूप गिण र सगळा प्राणियाँ री निर्लिप्त होय र सेवा करण लाग जाय मतलब प्राणी मात्र री उपासना भगवान् जाण र करण लाग जाय।
।।श्लोक।।
अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वधाहममौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमन्गिरहं हुतम्।।१६।।

।।चौपाई।।
यग्य स्वधा ज क्रतु म्हनैं मानै
ओखद मन्तर घृत मुझ जाणै।
अवर अगन सब जागा म्हैं हूँ
हवन रूप री किरिया म्हैं हूँ।।१६।।
स्वधा= पितरां खातर जको अन्न अर्पण करै उणनै स्वधा कैवै

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!क्रतु म्हैं हूँ, स्वधा म्हैं हूँ, यग्य म्हैं इज हूँ, ओखद (औषधि) म्हैं हूँ, मन्तर म्हनैं इज गिण, घृत म्हैं हूँ अर हवन रूप क्रिया ई म्हैं इज हूँ।
।।श्लोक।।
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:।
वेद्यं पवित्रमोड़्कार ऋक्साम यजुरेव च।।१७।।

।।चौपाई।।
पूरा जग रौ धाता म्हैं हूँ
करम फळां रौ दाता म्हैं हूँ।
पिता मात’र पितामह म्हैं हूँ
ऋग, साम यजुर्वेद ह म्हैं हूँ।।१७।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! इण सकल जगत रौ धाता यानी धारण करण वाळौ अर करमां रै फळां नै देवण वाळौ, पिता, माता, पितामह, जाणणजोग पवित्र ओंकार अर ऋग्वेद, सामवेद अर यजुर्वेद ई म्हैं इज हूँ।
।।श्लोक।।
गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत्।
प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।१८।।

।।चौपाई।।
परमधाम जग पोषत म्हैं हूँ
शुभ र अशुभ नै देखत म्हैं हूँ।
सब रौ वास निवास ज म्हैं हूँ
जलम प्रलय अविनाश ज म्हैं हूँ।।१८।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! प्राप्त होवण जोग परम धाम, भरण-पोषण करण वाळौ, सब रौ स्वामी, शुभ अर अशुभ नै देखण वाळौ, सगळां रौ वास स्थान, शरण देवण जोग हित करण वाळौ, सगळां री उत्पति-प्रलय वास्तै स्थिति रौ आधार निधान अर अविनाशी कारण म्हैं इज हूँ।
।।श्लोक।।
तपाम्यहमहं वर्षों निगृह्वाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।१९।।

।।चौपाई।।
सूरज बण म्हैं तपूं ज जाणौ
जळ नै म्हैं इज खपूं ज मानौ।
हे अर्जुन औ बरसत म्हैं हूँ
मिरतु असत सत इमरत म्हैं हूँ।।१९।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! इण जग रा भला खातर म्हैं इज सूरज रै रूप में तपूं हूँ, म्हैं इज जळ नै खींचूं हूँ अर पछै उण जळ री बिरखा म्हैं इज करूं हूँ आगै कांई बताऊं इमरत नै मिरतु, सत् र असत् ए सगळा म्हैं इज हूँ।
।।श्लोक।।
त्रैविद्या मां सोमपा: पूतपापा-यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-मश्नन्ति दिव्यन्दिवि देवभोगान्।।२०।।

।।चौपाई।।
तीन वेद रौ विधान म्हैं हूँ
हवन करावण ध्यान ज म्हैं हूँ।
सोम पान कर पाप भगाऊं
सुरग रौ सुख देवां सुँ पाऊँ।।२०।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! तीनां वेदां में करणियाँ सब सकाम उछब नै करण वाळौ म्हैं हूँ। सोम रस नै पीवण वाळौ, बिना पाप करियोड़ा मिनख यग्य सूं इन्द्र रा रूप में म्हारी पूजा करै अर सुरग पावण खातर म्हारी अरदास करै। वै मिनख पुण्य रै फळस्वरूप पवित्र इन्द्रलोक नै प्राप्त कर लै है अर उठै देव लोक में देवतावां रा दिव्य भोगां नै भोगै है।
।।श्लोक।।
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं-
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना-
गतागतं कामकामा लभन्ते।।२१।।

।।चौपाई।।
वौ विशाल सुर लोक ज पायौ
पुन खुटियां मृत लोक ज आयौ।
पण स्वारथ रै वश में आया
जलम मरण रा फेरा खाया।।२१।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!
जद उण सुरग लोक रा पुण्य क्षीण (खुट जाय, खतम )व्है जाय उठै तीनां वेदां रा कहयोड़ा सकाम कर्म रौ आसरौ लेवणिया यानी स्वारथ रै वशीभूत होवणिया भोग भोगणिया मिनख पाछा बार बार आवा जावी रा फैरा में पड जाय मतलब कै पुण्य रौ प्रभाव व्है जठा तक तो सुरग में अर पुण्य खुटतां ई मिरतु लोक में आय जाय।
।।श्लोक।।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।२२।।

।।चौपाई।।
अनन्य प्रीत सूं म्हनैं ध्यावै
बिन स्वारथ नित भजन करावै।
योगक्षेम ज सुख वै पावै
वां नै वहन नाथ कर जावै।।२२।।
योग=अप्राप्य री प्राप्ति
क्षेम=प्राप्त सामग्री री रक्षा

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!जको अनन्य भगत म्हारा में लीन व्हैतो थकौ म्हारी आछी तरियाँ सूं भगती भाव करै। वां म्हारा में लगो लग लीन हुयोड़ा भगतां रौ योगक्षेम (अप्राप्य री प्राप्ति अर प्राप्त री रक्षा) म्हैं वहन करूं हूँ।
।।श्लोक।।
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धायान्विता:।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।२३।।

।।चौपाई।।
दूजा देव श्रद्धा सुँ ध्यावै
अर्जुन वै ई म्हनैं ज पावै।
स्वारथ रै मिस सिमर रया है
पण औ करै विवेक बिना है।।२३।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे कुन्ती नन्दन! जकौ भगत श्रद्धा सूं दूजा देवताओं नै ध्यावै मतलब व्हां री पूजा करै है पण अविधि पूर्वक यानी स्वारथ रै वशी भूत होय र अविवेकी ढंग सूं देवताओं नै न्यारा फळ देण वाळा मानै है।
।।श्लोक।।
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।।२४।।

।।चौपाई।।
सब हवनां रौ स्वामी म्हैं हूँ
भोगण वाळौ ग्यानी म्हैं हूँ।
पण वै म्हनैं तत्व सुँ ऩ जाणै
इहि कारण रहगा अणजाणै।।२४।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! क्यूं कै सगळा हवनां रौ भोगण वाळौ अर स्वामी (मालिक) म्हैं ई हूँ पण वै म्हनैं तत्व रूप में नीं जाणै है इण कारण इज वै इण दसा नै नीं पाय सकै।
।।श्लोक।।
यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यान्ति पितृव्रता:।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।२५।।

।।चौपाई।।
देव पूज देवां में जावै
पितर पुजणिया पितर ज पावै।
जीव पूज जीवां में जावै
म्हनैं पूजणिया म्हनैं पावै।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! सकाम भाव सूं देवताआं री पूजा करणियौ देह छोड़ियां पछै देवताआं में इज जावै है। पितरां री पूजा करणियौ देह त्याग नै पितरां री योनी पावै। अर प्राणियां री पूजा करण वाळौ देह त्याग नै मिनखा जूण नै प्राप्त हुवै है। पण म्हारी पूजा करण वाळौ म्हनैं इज प्राप्त व्है है।
।।श्लोक।।
पत्रं पुष्यं फलं तोयं यो में भक्त्या प्रच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:।।२६।।

।।चौपाई।।
पात फूल फळ जळ ज चढ़ावै
भगत म्हनैं निष्काम ज ध्यावै।
अंतस सूं अरपित सै करियौ
वौ सब भोग म्हनै इज मिलियौ।।२६।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! जकौ भगत पत्र, फूल, फळ, जळ आदि नै घणा नेह सूं म्हनैं अरपित करै है उण अंतस सूं भोग चढावणिया भगत रौ भोग म्हैं लै लिया करूं हूँ।
।।श्लोक।।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।२७।।

।।चौपाई।।
करै कर्म जो खावै जो कीं
हवन ज करै दान दै जो कीं।
अवर जो अर्जुन तप ज करजा
ए सगळा मुझ अरपण करजा।।२७।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!थूं जको कीं (कुछ) कर्म करै, जको कीं खावै, जको कीं हवन करै, जको कीं दान करै अर जको कीं तप करै वै सगळी चीजां म्हनै अरपण कर दै।
।।श्लोक।।
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै:।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि।।२८।।

।।चौपाई।।
जै सब कर्म ज अरपण करियाँ
कर्म बंधण शुभ अशुभ तजियाँ।
इसो जोग धारणिया जोगी
म्हनै पाय लै अवस सुयोगी।।२८।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!
इण तरह सूं म्हनैं अरपित करण सूं कर्म बंधण सूं, शुभ अर अशुभ सगळा कर्मां रा फलां सूं मुगत व्है जावणिया ऐड़ा जोगी जको खुद नै अर सगळी चीजां नै म्हनै अरपित कर दै अर सगळां सूं साव मुगत होयोड़ौ थूं म्हनै प्राप्त व्है जाय ला मतलब म्हैं थनै अवस प्राप्त होऊँ ला।
।।श्लोक।।
समोऽहं सर्वभूतेषु न में द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।२९।।

।।चौपाई।।
सब जीवां में म्हैं ज समाना
नीं द्वेषी नीं नेही जाणा।
मन सूं भजियां म्हैं हूँ थारौ
अर हो जावै उत थूं म्हारौ।।२९।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!
म्हैं सगळा प्राणियाँ में एक समान हूँ। व्हां जीवां में म्हैं नीं तो कोई सूं राग द्वेष राखूं हूँ अर नीं कोई म्हारौ अति प्रिय है। पण जकौ घणा प्रेम सूं म्हनैं ध्यावै(म्हारौ भजन करै) वै म्हारा में अर म्हैं वां में समाय जाऊँ हूँ।
।।श्लोक।।
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य:सम्यग्व्यवसितो हि स:।।३०।।

।।चौपाई।।
व्है ज दुराचारी जगती रौ
पण ध्यावै ज म्हनैं अति धीरौ।
उणनै मानौ साचौ साधू
क्यूं कै वौ थिर व्हैगौ आदू।।३०।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! जै कोई अणूतो दुराचारी ई अनन्य भगत होय र म्हारौ भजन करै है तो उणनै साधु इज मानणौ चाहिजै क्यूं कै वौ अबै पाछौ दुराचार नीं करण रौ निश्चय कर लियो है।
।।श्लोक।।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति।।३१।।

।।चौपाई।।
वौ वेगौ धरमी बण जावै
थिर रैवै अर शान्ती पावै।
नीं मम भगत नाश व्है मानौ
हे अर्जुन दृढ़ निस्चै जाणौ।।३१।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! वौ उणी बगत धर्मात्मा व्है जाय है अर लगौलग रैवण वाळी शान्ति पाय लै। हे कुन्ती नन्दन ! म्हारा भगतां रौ कदै इ नाश (पतन) नीं व्है है ऐड़ौ थूं दृढ़ विश्वास राख।
।।श्लोक।।
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।३२।।

।।चौपाई।।
अर्जुन!वैश्य शूद्र अर नारी
पाप योनियाॅं ऄ व्है सारी।
वै म्हारा शरणां में आवै
परम गती निस्चै मिल जावै।।३२।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे पृथानन्दन! जकौ ई पापयोनि वाळा व्है है, ज्यूं नारियां वैश्य, शूद्र हमेशा म्हारी शरण में आयां पछै नि:संदेह (बिना शक) परम गति नै पाय सकै है।
।।श्लोक।।
किं पुनर्ब्राह्मणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्त भजस्व माम्।।३३।।

।।चौपाई।।
विद् क्षत्रिय राज ऋषी जैड़ा
कर मम भगती मुगती नैड़ा।
थै अनित्य बिन सुख तन धारौ
म्हारौ भजन करौ नित न्यारौ।।३३।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! जकौ पवित्र आचरण करण वाळौ ब्राह्मण अर राज ऋषि रूप क्षत्रिय भगवान् रा भगत व्है तौ लै परमगति नै पाय लै। इणरौ तौ कैवणौ ई कांई। इण वास्तै थूं अनित्य अर बिना सुख री चाहणा रै देह नै पाय र म्हारौ भजन कर।
।।श्लोक।।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:।।३४।।

।।चौपाई।।
नमस्कार कर नित मम ध्यावै
मन सूं पूजण अवस करावै।
होय लीन जै म्हा में आ जा
बिन चिंता थूं म्हनैं ज पा जा।।३४।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! थूं म्हारौ भगत व्है जा, म्हारा में मन लगावणियौ बण जा, म्हारौ पूजण करण वाळौ हुय जा अर म्हनैं नमस्कार कर। इण भांत खुदो खुद नै म्हारै साथै लगाय र म्हारौ परायण व्हीयौ थूं म्हनै इज पावै ला।
।।चौपाई।।
औ नवमो अध्याय ज ठायौ
योग शास्त्र ब्रह्म ग्यान पायौ।
पार्थ किसन संवाद सुणायौ
विद्या राज योग नित भायौ।।


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