गीता रौ राजस्थानी में भावानुवाद-इग्यारवौ अध्याय

इग्यारवौ अध्याय – विश्वरूपदर्शनयोगः

।।श्लोक।।
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मससञ्ज्ञितम्।
यत्त्वयोक्तां वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।।१।।

।।चौपाई।।
औ छानै रौ ग्यान गुड़ायौ
अर अध्यातम इम समझायौ।
म्हारै पर कर कृपा सुणायौ
हे माधव!अग्यान मिटायौ।।१।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे माधव! म्हारै माथै मेहरबानी कर र जकौ घणौ छानै रौ आध्यात्मिक विषय माथै आप उपदेश दियौ उण सूं म्हारौ अग्यान मिटगौ है।
।।श्लोक।।
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत्त: कमलपत्राक्ष माहात्म्य मति चाव्ययम्।।२।।

।।चौपाई।।
जलम नाश जीवां ज सुणायौ
हे नाथ!विस्तार यौ भायौ।
अविनाशी महिमा यूँ भाई
आप ग्यान बिरखा बरसाई।।२।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे कमल नेत्र! म्हैं आपरै श्रीमुख सूं जीवां री उत्पत्ति अर प्रलय विस्तार सूं सुणियौ अर आपरी अविनाशी महिमा ई सुणी।
।।श्लोक।।
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।।३।।

।।चौपाई।।
अर्जुन कह्यौ सै सांचौ है
सब वौ परमेश्वर !आछौ है।
भरम मिटा धन वीर्य बताओ
ग्यान शक्ति बल तेज दिखाओ।।३।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे परमेश्वर! आप आपनै जैड़ा कैवौ हौ ठीक वैड़ा इज हौ;पण हे पुरुषोत्तम! आपरौ ग्यान, धन सम्पत्ति, शक्ति, बल, वीर्य अर तेज सूं सुशोभित आपरा सीधा रूप नै म्हनै दरसावौ सा। म्हारै दरसण करण री इच्छा है।
।।श्लोक।।
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो में त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्।।४।।

।।चौपाई।।
हे प्रभु! जै व्है देखण जोगौ
मम वौ रूप दिखाव अमोगौ।
आप म्हनै अविनाशि लखावौ
हे योगेश्वर यूँ दरसावौ।।४।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे प्रभु! जै म्हारा सामर्थ्य में आपरौ वौ विराट रुप देखण री क्षमता व्है, ऐड़ौ आप मानौ, तौ हे योगेश्वर ! उण अविनाशी रूप रा म्हऩैं दरसण करावौ।
।।श्लोक।।
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्त्रश:।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।५।।

।।चौपाई।।
भगवन कयौ ज अर्जुन! जाणौ
घणा रूप म्हारा पहचाणौ।
न्यारा-न्यारा रूप ज म्हारा
अवर अलोकिक जाण ज सारा।।५।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! अबै थूं म्हारा सैकड़ाें-हजारां भांत-भांत रा रूप, वर्ण अर आकृतियाँ वाळा अलोकिक रूपां नै देख।
।।श्लोक।।
पश्यादित्यान्वसून् रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत।।६।।

।।चौपाई।।
बारह रवि सुत, अठ वसु सारा
ग्यारा रुद दु अश्विनि कुमारा।
मरुदगणा गुणचास गिणाया
इचरज रूप ज देख बताया।।६।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! थूं म्हारा में सूरज रा बारह पुत्रां नै, आठ वसुआं नै, ग्यारा रुद्रांश नै, दो अश्विनी कुमारां नै अर गुणपचास मरुदगणां नै देख पछै म्हारा कैई दूजा इचरज वाळा रूपां नै देख।
।।श्लोक।।
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि।।७।।

।।चौपाई।।
सकल जगत म्हारा में देखौ
पारथ थित व्है लै लै लेखौ।
अवर देखवा री व्है आसा
आ म्हैं अवस दिखाऊँ खासा।।७।।

।।भावार्थ।।
*भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे गुड़ाकेश!( अर्जुन नींद नै जीतण वाळौ होण सूं गुड़ाकेश वाजै) अबै म्हारा इण शरीर में एक ठौड़ थित चराचर सकल जगत नै देख पछै फेर ई कीं देखणा री इच्छा व्है तौ थूं देख।
।।श्लोक।।
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्चरम्।।८।।

।।चौपाई।।
पण इण आंख्यां नीं दीखेला
दिव्य नयन थूं म्हां सूं लै ला।
इण सूं योग शक्ति मम जाणौ
अर युँ अलोकिक रूप पिछाणौ।।८।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! पण थूं म्हनै थारी आं कुदरती आंख्यां सूं नीं देख सकेला इण खातर म्हैं थनै दिव्य यानी अलोकिक आंख्यां देवूं ला जिण सूं थूं म्हारी ईश्वरीय प्रभाव अर योग शक्ति नै पिछाण
।।श्लोक।।
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्चरो हरि:।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्चरम्।।९।।

।।चौपाई।।
सञ्जय कैवै-राजन ! जाणौ
हरि कुँ-महायोगेश्वर मानौ।
तद अर्जुन नै रूप दिखायौ
धन वैभव री छवि में छायौ।।९।।

।।भावार्थ।।
सञ्जय कैवै-हे राजन! महायोगेश्वर अर सब पापां नै नाश करण वाळा भगवान् आ कैय र पछै अर्जुन नै परम ऐश्वर्य वाळौ दिव्य रूप दर्शायौ।
।।श्लोक।।
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्।।१०।।

।।चौपाई।।
जिण रा कैई मुख आंख्यां व्है
कैई तरह सूं ज दीठा व्है।
तरह तरह रा ई गहणा व्है।
अर शस्तर भांत भांत रा व्है।।१०।।

।।श्लोक।।
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं देवमन्तं विश्वतोमुखम्।।११।।

।।चौपाई।।
अर गळै दिव्य माळावां व्है
पै’रण नै अदभुत गाभा व्है।
डील र लिलाट पै चंदन व्है
सब मुख धारी हरि इचरज व्है।।११।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन भगवान् रौ अनेक मुखां वाळौ, अनेख आंख्यां वाळौ, भांत भांत रा दरसणा वाळौ, घणा दिव्य आभूषणां वाळौ, हाथां में दिव्य शस्तरां नै धारण करण वाळौ, दिव्य फूल माळावां पै’रण वाळौ, दिव्य वस्त्र धारण करण वाळौ, आखा शरीर माथै दिव्य सुगंध रौ लेप करण वाळौ, लिलाट माथै चन्दन लगायोड़ा सगळी तरह रा इचरजां सूं सुशोभित हरि रै विराट रूप रा दरसण करिया।
।।श्लोक।।
दिवि सूर्यसहस्त्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भा: सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मन:।।१२।।

।।चौपाई।।
रवि हजार सम जिसौ उजासौ
नाथ उगात इसौ परकासौ।
परमातम सम हुयौ न कोई
औ परकाश हुवै बिरलो ई।।१२।।

।।भावार्थ।।
सञ्जय कैवै-हे राजन! आकाश में हजारां सूर्यां रै एकण सागै ऊगण सूं जकौ उजास हुवै है वौ प्रकाश ई इण परमात्मा रै प्रकाश रै सामी फीकौ लागै है। परमात्मा रै ऊजास रै जैड़ौ ऊजास कठैई नहीं व्है है।
।।श्लोक।।
तत्रैकस्थं जगत्कुत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा।।१३।।

।।चौपाई।।
पाण्डु सुत अर्जुन औ पायौ
भांत-भांत हरि रूप दिखायौ।
देह ज हरि रा में सब मावै
थिर व्है आखौ जग दरसावै।।१३

।।भावार्थ।।
सञ्जय कैवै-हे राजन! पाण्डु पुत्र अर्जुन उण बगत सब देवां रा देव भगवान श्री कृष्ण रा भांत-भांत रा न्यारा-न्यारा रूप शरीर में थिर व्है नै देखै।
।।श्लोक।।
तत: स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जय:।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत।।१४

।।चौपाई।।
विश्व रूप सूं चकित ज होयौ
इचरज सूं अर्जुन घण मोयौ।
हाथ जोड़ नै माथ निमायौ
कृपा कीन प्रभु दरस दिरायौ।।१४।।
मोयौ= रोमांचित होयौ
।।भावार्थ।।
भगवान् रौ विश्व रूप देख र अर्जुन घणौ अचम्भौ करियौ अर इण इचरज रै कारण उणरा शरीर री कळी कळी खिल गी (रोमांचित होय गौ) वै हाथ जोड़ र विश्व रूप देव नै माथौ नमाय र प्रणाम कर र बोल्या।
।।श्लोक।।
पश्यामि देवांस्तव देव देने सर्वांस्तथा भूतविशेषसड़्घान्।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्।।१५।।

।।चौपाई।।
खास खास समुदाय ज माया
कमलासन ब्रह्मा जी छाया
ऋषि, शंकर अर साँप ज भाया
अर्जुन नै हरि सब दरसाया। १५।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे देव! म्हैं आपरै शरीर में सगळा देवताआं नै, प्राणियाँ रा खास खास समुदायाँ नै, कमल रै आसण माथै बिराजियोड़ा ब्रह्मा जी नै, शंकर जी नै सगळा ऋषियाँ रै सागै यां रा दिव्य साँपां नै देख रह्यौ हूँ।
।।श्लोक।।
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप।।१६।।

।।चौपाई।।
हे नाथ! विश्वरूप ज थै हौ
अर विश्वेश्वर रूप ज थै हौ
घणा हाथ, पेटां मुख वाळा
आदि मध्य अन्त नीं दिठाळा।।१६।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे परमेश्वर! हे विश्वरूप! हे विश्वैश्वर! म्हैं आपरौ घणा हाथां वाळौ, पेटां वाळौ, मुखां वाळौ, नैना वाळौ अर सब कानी अनन्त रूपां वाळौ विराट स्वरूप नै देख रह्यौ हूँ। म्हैं आपरै आदि, मध्य अर अन्त री अनन्त सीमा वाळा रूप नै ई देख रह्यौ हूँ। मतलब औ है कै अर्जुन आ बताय रह्यौ है कै हे भगवन्!आप इज (विश्वरूप) शरीर है अर (विश्वेश्वर यानी शरीर रा मालिक) ई आपा इज है।
।।श्लोक।।
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तान लार्कद्युतिमप्रमेयम्।।१७।।

।।चौपाई।।
मुकुट गदा बल तेज दिखाया
चहुँ दिस रवि सम प्रकाश पाया
मम नैनन सह नह कर सकिया
अणचीता हरि रूप ज दिखिया। १७।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे परमेश्वर! आपरौ म्हैं मुकुट, गदा, चक्र धारण करण वाळौ रूप देख रह्यौ हूँ। आपरै तेज री राशि सब कानी प्रकाशवाळै चमकतोड़ा अगन अर सूरज रै समान प्रकाशमान आंख्यां सूं दौरौ दीखण वाळौ, सब कानी सूं अणचिता रूप नै देख रह्यौ हूँ।
।।श्लोक।।
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्यय: शाश्वत धर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषों मतों में।।१८।।

।।चौपाई।।
जाणण जोग आप इ ब्रह्म हौ
सकल जगत रा परम सबद हौ।
धर्म सनातन रक्षक वाजौ
अविनाशी ई आप ज साजौ।।१८।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे परमेश्वर! आप इज जाणण जोग परम अक्षर-ब्रह्म हौ, आप इज इण सकल जगत (सम्पूर्ण विश्व) रा परम आश्रय हौ, आप इज सनातन धर्म रा रक्षक हौ अर आप इज अविनाशी सनातन पुरुष हौ। ऐड़ौ म्हैं मानूं हूँ।
।।श्लोक।।
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।१९।।

।।चौपाई।।
आदि मध्य अन्त बिना जाणौ
रवि शशि रूप नैन ए मानौ।
इण जग नै तपतौड़ौ पायौ
आप तणौ औ तेज समायौ।।१९

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै हे-माधव! आपनै म्हैं आदि मध्य अन्त बिना अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजावां वाळौ, शशि अर रवि रूप नैनां वाळौ, प्रज्वलित अग्नि रूप मुखां वाळौ अर आपरा तेज सूं इण संसार नै तपावतोड़ौ देख रह्यौ हूँ।
।।श्लोक।।
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वा:।
दृष्ट्वाद्भ़ुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्।।२०।।

।।चौपाई।।
सुरग धरा बिच जितरी छेटी
अर सगळी ज दिशावां सेंठी।
युँ सब रूप में आप समाया
व्याकुल तीनूं लोक दिखाया।।२०।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे महात्मन्! इण सुरग अर पृथ्वी रै बीच रौ आंतरौ अर सगळी दिशावां फगत आप सूं इज पूरण व्है है। आपरा इण अदभुत उग्र रूप नै देख परो र तीनूं लोक चिंतित(व्यथित) होय रया है।
।।श्लोक।।
अमी हि त्वां सुरसड़्घा विशन्ति केचिद्भीता: प्राञ्जलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसड़्घा: स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभि: पुष्कलाभि:।।२१।।

।।चौपाई।।
वै समुदाय देव तव माया।
हाथ जोड़ डरता गुण गाया।
ऋषि मुनियां रा भला करावै
यां छंदां री इस्तुति गावै।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे माधव! वै इज देवतावां रा समूदाय आप रै मांय आय रह्या है जिणां मांय सूं केई तौ डर र हाथ जोड़तोड़ा आप रै गुणगान रा जाप, कीर्तन कर रह्या है। महर्षी अर सिद्ध पुरुषां रा समुदाय हाथ जोड़ र कैय रह्या है कल्याण हो, मंगळ हो अर आछा आछा (स्तोत्रां) छंदां सूं आपरी इस्तुति कर रह्या है।
।।श्लोक।।
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसड़घा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे।।२२।।

।।चौपाई।।
रुद्र वसू आदित्य साध्यगण
विश्वेदेव अश्विनि मरुदगण।
पितृ यक्ष गन्धर्व समुदाया
सगळां नै हरि चकित कराया।।२२।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे माधव! इग्यारा रुद्र, बारा आदित्य, आठ वसु, बारा साध्यगण, दस विश्वेदेव, दो अश्विनी कुमार गुणपच्चास मरुदगण अर पितरां सागै ई गन्धर्व, यक्ष, असुर अर सिद्धां रा समुदाय है वै सगळा चकित होय र आपनै देख रह्या है।
।।श्लोक।।
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम्।
बहुदरं बहुदंष्ट्राकरालंं दृष्ट्या लोका: प्रव्यथितास्तथाहम्।।२३।।

।।चौपाई।।
बहु मुख नैन भुजावां वाळौ
जांघां पग घण उदरां वाळौ।
बहु विकराळ दाढ़ भव देखै
सब जीव र म्हैं चकित ज वैखै।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे महाबाहो!आपरा घणा मुखां नै, नैनां नै, घणी भुजावां नै, जंघांवां, चरणां नै, घणा उदरां वाळा, बहु विकराळ दाढांवाळा महान रूप नै देख र सगळा प्राणी व्यथित होय रया है अर हे माधव! म्हैं ई व्यथित होय रयौ हूँ।
।।श्लोक।।
नभ:स्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धर्तिं न विन्दामि शमं च विष्णो।।२४।।

।।चौपाई।।
पळकंता घण वर्ण ज साजै
आभा रै अड़गौ है राजै।
मोटा मुख विशाल ए नैना
देख डरुं नेठाव न व्हैणा।।२४।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे विष्णौ! आपरा दैदीप्यमान घणा ई वर्ण (काळा, पीळा, श्याम, गोरा) है। आप आभा सूं अड़तोड़ा दीसो हो, आप मोटा मूंडा वाळा हौ, आपरी मोटी मोटी आंख्यां पळक रह्यी है। आपरा इण रूप नै देख र म्हैं अंतस सूं डर रह्यौ हूँ अर नेठाव नीं व्है रह्यों है मन में शान्ति नीं है।
।।श्लोक।।
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास।।२५।।

।।चौपाई।।
परळै व्हियां अगन ज्यूं बळतौ
मुख डाढां डकरेल युँ खळतौ।
दाटक मुख देख्यां दिस विसरै
जक न पड़ै माधव खुश हुय रै।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे माधव! आपरो रूप परळै व्हियां अगन री झाळ रै जैड़ौ अर डाढां रै कारण आपरा विकराळ मुखां नै देख र म्हनै नीं तौ दिशावां रौ ठाह पड़ रह्यौ हैअर नीं ई हिया में शान्ति पड़ रयी है इण खातर है देवेश! हे जगन्निवास! आप राजी व्है जाओ।
।।श्लोक।।
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्रा: सर्वे सहैवावनिपालसडघ्ड़ै:।
भीष्मो द्रोण: सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यै:।।।२६।।

।।चौपाई।।
वै धृतराष्ट्र ज पूत समाया
सगळा राजा तव मुख माया।
भीष्म द्रोण करण ज सम जोधा
तव मुख सगळा दीठा सोधा।।२६।।

।।श्लोक।।
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि।
केचिद्विलन्गा दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाग्ड़ै:।।२७।।

।।चौपाई।।
तव विकराळ डाढ़ मुख आया
जिम जळ नाळा तव मुँ समाया।
किताक जोध डाढ़ बिच फसिया
किचरिज्या सिर दांतां धसिया।।२७।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे परमेश्वर! ए सगळा धृतराष्ट्र रा बेटा राजाओं रै समुदाय सागै आप में प्रवेश कर रह्या है अर भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कर्ण रै सागै आपां रै पक्ष रा प्रमुख जोधावां रै सागै सगळा रा सगळा आपरी दाटक डाढां रै कारण विकराळ मून्डां में खाता दौड़तोड़ा आप में समाय रह्या है। किताक किचरिज्योड़ा माथा सागै आपरा दांतां बीच में धँसियोड़ा दीख रह्या है।
।।श्लोक।।
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगा: समद्रमेवाभिमुखा: द्रवन्ति।
यथा तवामी नलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।।२८।।

।।चौपाई।।
जिम नदियाँ घण वेग ज आवै
जाय समद में ए मिळजावै।
तिहि नर लोक मुँ वीर सिळगता
इण मुख आप में आय भिळता।।२८।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे परमेश्वर! जिण भांत नदियाँ रौ घणौ सारौ जळ खातौ बैवतोडौ समुद्र कानी जावै है, वैड़ा इज नर लोक रा ए जोधा आपरै झाळ उठता मूण्डा में प्रवेश कर रह्या है।
।।श्लोक।।
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतग्ड़ा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगा:।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगा:।।२९।।

।।चौपाई।।
कीट इ ज्यूं अगनी में जावै
नाश व्हैण नै दौड़त आवै।
तिहि नर मौ’वश दौड़ लगावै
ज्यूँ हरि रै मुख मांय समावै।।२९।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे भगवन्! जिण तरह कीड़ा मकोड़ा मोहवश खाता दौड़तोड़ा धधकती अगन में फगत नाश व्हैवण वास्तै आय पड़ै है व्यूं इज इण लोक रा ए सगळा मिनख फगत मोहवश आपरौ नाश करण खातर घणा छेका दौड़तोड़ा आप रा श्रीमुख में आय रह्या है।
।।श्लोक।।
लेलिह्यसे ग्रसमान: समन्ता ल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भि:।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्रा: प्रतपन्ति विष्णो।।३०।।

।।चौपाई।।
हे प्रभ! तव बळबळता मुख में
सब लोकां नै गिटता पल में।
अवर चहुँफेर चाटत लागै
जग पऴकै इण तप रै आगै।।३०।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे विष्णु! आप आपरा प्रज्वलित मुखां सूं सगळा लोकां नै गिटतोड़ा चारुंकानीं सूं चाट रह्या हौ। आपरौ प्रचण्ड प्रकाश सगळा जग नै तपाय रह्यौ है।
।।श्लोक।।
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तुते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।।३१।।

।।चौपाई।।
उग्र ज रूप वाळा तव कुण हौ
हाथ जोड़ नै वंदन गिण हौ।
कर किरपा कारण ज बताओ
आदि पुरुष हे हरि समझाओ।।३१।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे माधव! आप म्हनैं औ बताओ कै ए उग्र रूप वाळा आप कुण हौ? हे देवां में सिरै (श्रेष्ठ)! आप नै सादर वंदन है। आप मेहरबानी कर र राजी व्हैवौ, आदि पुरुष आपनै म्हैं खाश रूप सूं जाणणी चाहूं हूँ। क्यूं कै म्हैं आपरी प्रवृति नै नीं जाणूं हूँ।
।।श्लोक।।
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवत्त:।
ऋतेऽपि त्वां न भविश्यन्ति सर्वे येऽवस्थिता: प्रत्यनीकेषु योद्धा:।।३२।।

।।चौपाई।।
लोकन कुँ महाकाल ज म्हैं हूँ
आयौ करणवा नाश म्हैं हूँ।
जोधा थारै सामी ऊभा
बिन लड़ियां मरबा ई ऊभा।।३२।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!
म्हैं सगळा लोकां रौ नाश करण वाळौ महाकाळ हूँ अर इण बगत म्हैं आं सब लोगां नै नष्ट करण खातर आयौ हूँ। थारै सामी था सूं युद्ध करण वाळा जकौ जोधा ऊभा है वां री मौत युद्ध करियाँ बिना इज व्है जाय ला।
।।श्लोक।।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भड़्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैतेनिहता: पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।।३३

।।चौपाई।।
इहि कारण थूं ऊभौ व्है जा
निमत जीत रौ ई औ रै जा।
आं सगळां रौ तौ वध होगौ
इण दाटक सम्राज्य नै भोगौ।।३३

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!इण खातर थूं युद्ध करण खातर ऊभौ व्है जा अर दुसमियाँ नै जीत र जस कमा पछै सगळा राज्य नै भोग क्यूं कै आं सगळां नै म्हैं पैली इज मार दिया है हे सव्यसाचिन!(अर्जुन) थूं फगत निमत मात्र है।
।।श्लोक।।
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्।
मया हतांस्तवं जहि व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्।।३४।।

।।चौपाई।।
द्रोण, भीष्म, जयद्रथ सब जोधा
करण सगै घण बीजा योधा।
म्हैं यां रौ वध कर लीधौ है
मत पछता जुध जय सीधौ है।।३४।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह, जयद्रथ, कर्ण अर बीजा सगळा जोधां रौ म्हैं पैली इज वध कर दियौ है। इण खातर थूं पछतावौ मत कर अर युद्ध कर। इण युद्ध में थूं निस्चै दुसमियाँ नै हरावै ला। मतलब औ युद्ध खरौ थूं इज जीतै ला।
।।श्लोक।।
एतच्छुत्वा वचनं केवस्य कृताञ्जलिर्वेपमान: किरीटी।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीत: प्रणम्य।।३५।।

।।चौपाई।।
केशव रा ए वचन ज सुणतां
अर्जुन कर जोड़ र काँपनतां।
गदगद होय र वयण ज कहिया
वार वार मम वंदन सहिया।।३५।।

।।भावार्थ।।
सञ्जय कैवै-हे राजन! भगवान् श्रीकृष्ण रा ए वचन सुण र मुकट धारी अर्जुन हाथ जोड़ र काँपतोड़ौ नमस्कार कर र गदगद वाणी सूं बोल्यौ।
।।श्लोक।।
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसड़्घा:।।३६।।

।।चौपाई।।
भजन तिहारा सूं जग राजी
सगळां रा अनुराग ज ताजी।
असुर सैंग डरतोड़ा भागै
सिद्ध ज वंदन करता लागै।।३६।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे माधव! आ आछी बात है कै आपरा कीर्तन सूं आखौ जग राजी व्है रह्यौ है। सगळां में अनुराग पैदा हो रह्यौ है। राक्षस सगळा डरतोड़ा भाग रह्या है अर सिद्धगण आपरौ वंदन करता लागै है
।।श्लोक।।
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्
गरीयसे ब्रह्मणोऽयादिकत्रें।
अनन्त देवेश जगन्निवास
त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्।।३७।।

।।चौपाई।।
ब्रह्मा रा इ आदिकर्ता हौ
ब्रह्म असत् सत् नीयन्ता हौ।
क्यूं न नमे तव जग औ सारौ
आप अनन्त जगत आधारौ३७।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे महात्मना आप ब्रह्मा जी रा ई आदिकर्ता अर सगळां सूं बड़ा हौ आप नै वै क्यूं नीं प्रणाम करै क्यूं कै हे अनन्त!हे देवेश! हे जगन्निवास! जो सत्, असत् अर वां रा सूं ई परै अक्षर यानी सच्चिदानन्दघनब्रह्म सब आप इज हैं।
।।श्लोक।।
त्वमादिदेव: पुरुष:पुराण-स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप।।३८

।।चौपाई।।
आदिदेव ज सनातन वाजो
सकल जगत रा आश्रय साजो।
आप इ जाणण जोग परम है
आप सुँ ई सब जग व्यापत है।।३८।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे अनन्त रूप! आप आदिदेव अर सनातन पुरुष हो, आप इण जगत रा परम आश्रय दाता अर जाणण वाळा हौ, जाणण जोग परम धाम हौ। आप सूँ इज औ सकल जगत व्याप्त यानी परिपूर्ण है।।
।।श्लोक।।
वायुर्यमोऽग्रिर्वरुण : शशाक्ड़: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्त्रकृत्व: पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते।।३९।।

।।चौपाई।।
आप पवन, यमराज ज अगनी
अंबुराज शशि परजा ज धणी।
ब्रह्मा अवर ब्रह्मा-पिता है
वारमवार नमन करणा है।।३९।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे परमेश्वर!
आप पवन, यमराज, अगनी, वरुण, चन्द्रमा, प्रजा रा स्वामी ब्रह्मा जी अर ब्रह्मा जी रा पिता ई आप इज हौ। आप खातर हजार वार वंदन, नमस्कार!नमस्कार! हो आपरै वास्तै तो ई बारम्बार नमस्कार! नमस्कार! है सा।
।।श्लोक।।
नम: पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एवं सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्व:।।४०।।

।।चौपाई।।
हे अनन्त सामर्थ्य ज वाळा!
आगै-लार नमण गिणवाळा।
चहुँदिस नमणौ मम स्वीकारौ
सकल जगत् नै आप ज धारौ।।४०।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे अनन्त सामर्थ्यवाळा! आपनै आगै अर पाछै सूं ई नमस्कार! है, हे सर्वात्मन्! आप खातर चारुं कानी सूं नमस्कार है। क्यूं कै अनन्त पराक्रम वाळा आप सकल जगत् नै धारण करियोड़ा हो इण सूं आप इज सर्वरूप हो।।
।।श्लोक।।
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्त-हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि।।४१।।

।।चौपाई।।
सखा जाण जै वचन ज कहिया
मिंत किशन यादव हरि रहिया।
आळस प्रीत हठी बण ताणी
आप ज महिमा म्हैं नीं जाणी।।४१।।

।।श्लोक।।
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षंतत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्।।४२।।

।।चौपाई।।
किया अनादर हँस बिन धारा
जावत सोवत खावत वारा।
कै मितरां सँग कै ज अकेला
कर अपराध माफ गिण चेला।।४२।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे परमेश्वर! आपरै इण प्रभाव नै जाणियाँ बिना आप म्हारा सखा हौ आ जाण र प्रेम सूं या गफळत(प्रमाद) सूं ई हे कृष्ण!, हे यादव!, हे सखे! इण तरह जको कीं बिना सोचियाँ समझियाँ माडाणी कह्यौ है अर हे अच्युत! आपरौ म्हैं हँसी-ठिठोली करतां, आवतां-जावतां, सोवतां, बैठतां, खावतां-पीवतां, एकला या मित्रां सागै आपरौ अपमान करियौ है-वै सगळा अपराध गफळत सूं, अजाण वश करिया आप कृपा कर म्हारा सौ ई गुना माफ करावजो।
।।श्लोक।।
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिक: कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव।।४३।।

।।चौपाई।।
पूज्य जोग हरि जगत पिता हौ
आप इ गुरुआं रा गुरु दा हौ।
तीन लोक तव सम नीं बीजो
युँ कुण बत्तो हो सकै तीजौ।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे नाथ! आप इण चराचर संसार रा पिता हौ, आप इज पूजनीक हौ अर आप इज आं गुरुआं रा ई मोटा गुरु हौ। हे अनन्त प्रभाव वाळा हरि! इण त्रिलोक में आपरै जैड़ौ कोई दूजो नीं है तौ आप सूं बत्तौ तौ कोई कियां व्है सकै।
।।श्लोक।।
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड़्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्यु: प्रिय: प्रियायार्हसि देव सोढ़ु सोढ़ुम्।।४४।।

।।चौपाई।।
जिम मैणा पितु पूत ज सै’लै
जियाँ मीत मिंतर रा झैलै।
पति ज्यूँ धण रा मैणा खावौ
व्यूँ ज माफ हरि मम करवावौ।।४४।।
मैणा=अपमान

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे परमेश्वर! इण खातर स्तुति करण जोग आप भगवन् नै म्हैं दंडवत प्रणाम कर र राजी करणी चाहूँ हूँ। पिता ज्यूँ पूत्र नै, मित्र ज्यूँ मित्र नै, पति ज्यूँ पत्नी रौ अपमान सहन कर लेवै है व्यूँ इज हे हरि! आप म्हारै कानी सूं करियोड़ा अपमान नै माफ करावाड़ौ। म्हारा सौ ई गुना माफ करण में आप समर्थवान हौ।
।।श्लोक।।
अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्द्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देवरूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास।।४५।।

।।चौपाई।।
इसो रूप पैली नीं दीठौ
हरख हुवै औ देख अदीठौ।
पण म्हारौ मन व्याकुळ होवै
हे हरि! असली रूप ज सौवै।।४५।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे परमेश्वर! म्हैं आपरौ ऐड़ौ रूप पैली कदै ई नीं देख्यौ, पण इण अदभुत रूप नै देख र म्हनैं घणौ हरख हुयौ। सागै ई सागै म्हारौ मन मांय रौ मांय घणौ व्याकुळ होय रह्यौ है। इण कारण आप म्हनैं आपरा उण इज चतुर्भुज विष्णु रूप रा दरसण करावौ। हे देवेश! हे जगन्निवास! आप मेहरबानी करावौ।
।।श्लोक।।
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते।।४६।।

।।चौपाई।।
मुकुट गदा अर चक्र औ धारौ
असली रूप ज कर’र पधारौ।
हे विश्वरूप ! सहस्रबाहो !
रूप चतुर्भुज मम दरसाहौ।।४६।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे परमेश्वर! म्हैं आपनै उण इज मुकुटधारी, गदाधारी, हाथ में चक्र धारण करियोड़ा रूप नै देखण री चाहणा राखूं हूँ। हे विश्वमूर्ते! हे सहस्रबाहो ! आप पाछा उण चतुर्भुज रूप में प्रकट होण री कृपा करावौ।
।।श्लोक।।
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।।४७।।

।।चौपाई।।
राजी व्है म्हैं योग दिखायौ
परम तेज रौ रूप बतायौ।
इण सूं पैली कोइ न जाणै
जिसा रूप मम थूं पहचाणै।।४७।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! थारा माथै राजी होय र म्हारी योग शक्ति रा प्रभाव सूं म्हारौ औ परम तेज वाळौ अर अनन्त विराट रूप थनै दिखायौ हूँ। जिणनै थारै सिवाय पैली कोई औ रूप नी देखियौ।
।।श्लोक।।
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रै:।
एवंरूप:शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर।।४८।।

।।चौपाई।।
न वेद पढ़ण ज हवन करण सूं
नीं दान र नीं तप्प करण सूं।
मम औ रूप देख नीं पायौ
विश्व ज रूप युँ थनै दिखायौ।।४८।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे कुरूप्रवीर(अर्जुन)! मिनखा जूण में थारै सिवाय म्हारा इण विश्वरूप नै नीं तौ वेदां नै पढ़ण सूं नीं हवन करण सूं, नीं दान देवण सूं अर नीं ई उग्र तप करण सूं देख सकै है
।।श्लोक।।
मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृड़्ममेदम्।
व्यपेतभी: प्रीतमना: पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ४९।।

।।चौपाई।।
उग्र रूप देख’र मत छीजै
अर मूरख बण मत ना रीझै।
निरभै व्है खुश होय’र जाणौ
रूप चतुर्भुज मम पहचाणौ।।४९।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! औ म्हारौ इण भांत रौ उग्र रूप देख’र थनै परेसान नीं व्हैणौ चाहिजै अर ऐड़ौ मूरख भाव रौ ई नीं होणौ चाहिजै। अबै निरभै व्है, राजी मन वाळौ होय’र थूं म्हारौ वौ इज चतुर्भुज रूप नै अच्छी तरह-देख लै।
।।श्लोक।।
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूय:।
आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा।।५०।।

।।चौपाई।।
वासुदेव अर्जुन ज सुणायौ
देव रूप पाछौ अपणायौ।
पछै सौम्य रूप हरी पायौ
अर अर्जुन रौ डर मिटवायौ।।

।।भावार्थ।।
सञ्जय कैवै-हे राजन! भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन नै ऐड़ौ केय’र आपरौ देव रूप (चतुर्भुज रूप)प्रकट करियौ अर पछै महात्मा श्री कृष्ण सौम्यमूर्ति होय’र इण डरतोड़ा अर्जुन नै धीरज दिरायौ।
।।श्लोक।।
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन।
इदानीमस्मि संवृत्त:सचेता: प्रकृतिं गत:।।५१।।

।।चौपाई।।
जनार्दन!यूँ सौम्य नर रूपा
देख र थिर चित होय अनूपा।
असल दसा आ हरि मम भाई
किरपा कर हरि तव दरसाई।।५१।।

।।भावार्थ।।
अर्जुन कैवै-हे जनार्दन! आपरा इण अति शान्त मिनख रूप नै देख र अबै म्हैं थिर चित वाळौ व्हैगौ हूँ अर म्हूँ म्हारी थितु (स्वाभाविक )दसा पाय ली हूँ।
।।श्लोक।।
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाड़्क्षिण:।।५२।।

।।चौपाई।।
मम औ रूप चतुर्भुज ठायौ
औ युँ सुर्दशन रूप दिखायौ।
रूप यु दुर्लभ जाण ज प्यारा
तरसै देव देखवा सारा।।५२।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! म्हारौ जकौ चतुर्भुज रूप नै थूं देखियौ है औ सुदर्शन रूप वाजै है यानी इण रा दरसण घणा दुर्लभ है। देवता ई इण दरसण खातर लालायित, तरसता रैवै है।
।।श्लोक।।
नाहंवेदैर्न तपसा न दानेन न चेञ्यया।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।।५३।।

।।चौपाई।।
जिम थूं म्हनै देखियौ ऐड़ौ
जिसो चतुर्भुज रूप सगेड़ौ।
हवन दान तप वेद न दीसै
वौ मम रूप ज अर्जुन ई सै।।५३।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! जिण रूप में थूं म्हनै देखियौ है-ऐड़ा चतुर्भुज वाळा रूप में म्हनै नीं तौ वेदां रा ग्याता, नीं तपस्या करण वाळा, नीं दान देवण वाळा अर नीं ई हवन करण वाळा देख सकै है।
।।श्लोक।।
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं दृष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टु च परन्तप।।५४।।

।।चौपाई।।
इसौ रूप म्हारौ जो जाणै
तत्व रूप में मम पहचाणै।
इकरायौ हरदम जो रैवै
जाण म्हनै वौ अर्जुन लैवै।।५४।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे परन्तप(अर्जुन)! पण जिण रूप (अनन्य भक्ति सूं) में थूं म्हनै चतुर्भुभा वाळा रूप में साक्षात्् देखण खातर, तत्व रूप नै जाणण खातर म्हारै मांय समाय सकै यानी इकरायौ होय र म्हनै पाय सकै है।
।।श्लोक।।
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्त: सड़्गवर्जित:।
निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्डव।।५५।।

।।चौपाई।।
म्हारौ हित चित चाढण वाळौ
करवा मम सब अरपण वाळौ।
जीव बिना हित वैर ज चावै
वौ अनन्य भगत ज मम पावै।।५५।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! जकौ मिनख फगत म्हारै खातर इज सगळा कर्त्तव्य कर्म करै, म्हारा में लीन है, म्हारौ भगत है, बिना वैर अर बिना स्वारत सगळा प्राणियाँ रौ हित चाहणियौ अनन्य भगती वाळौ मिनख म्हनै इज पावै है।
।।चौपाई।।
औ अध्याय ग्यारवौ ठायौ
विश्वरूप दरसण करवायौ।
अबखा दरसण इम कर पाया
पार्थ किशन संवाद सुणाया।।


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