गीता रौ राजस्थानी में भावानुवाद-सोळहवौ अध्याय

सोळहवौ अध्याय – दैवासुरसम्पद्विभागयोगः

।।श्लोक।।
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति:।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।१।।

।।चौपाई।।
निडर होय अंतस सुध सागै
थित हुय ग्यान ध्यान में लागै।
सत्व दान, मन वश, यज सै’वै
तन मन वयण शुद्ध हुय बै’वै। १।।

।।भावार्थ।।
भगवान् कह्यौ-निडर होय’र अंतस सूं शुद्ध व्हैय, तत्व ग्यान खातर ध्यान योग में लगोलग दृढ़ स्थिति होय अर सात्त्विक दान, इन्द्रियाँ रौ दमन, भगवान्, देवतावां रौ हवन कर ‘ र उत्तम कर्मों रौ आचरण, वेदां रौ पढणौ भगवान् रा नाम अर गुरुवां रौ भजन करणौ कर्त्तव्य पालण खातर कष्ट सहन करणौ सागै इन्द्रियाँ अर अंतस री सरलता।।
।।श्लोक।।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।२।।

।।चौपाई।।
सत्य, अहिंसा राख अक्रोधा
राग द्वेष अर लाग ज बोदा।
तजौ भूंडियां दया ज लावौ
लज हीणा चपला न कहावौ।।२।।

।।भावार्थ।।
मन, वाणी अर शरीर सूं कोई तरह रौ किण नै ई कष्ट नीं देणौ, साचौ अर मीठौ बोलणौ (सत्य भाषण) आपरौ निरादर करण वाळा माथै ई रीसां नीं बळणौ, घमण्ड नीं लावणौ, चित्त री चंचलता नै त्यागणौ, कोई री भूंडियां (नीन्दा) नीं करणी सगळा जीवां में दया करणौ इन्द्रियाँ रौ विषयां सागै संयोग होवण पर ई उण सूं लाग नहीं राखणौ हिया रौ कंवळा पण, नीति रै विपरीत आचरण सूं लाज आवणी अर फालतू री इच्छा राखणौ त्यागणौ पड़ै है।।
।।श्लोक।।
तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।।३।।

।।चौपाई।।
क्षमा तेज धैर्य शुद्ध देहा
वैर न मान न चाहण जेहा।
दैवी सम्पद सा गुण पावै
पार्थ इसा लक्षण नर लावै।।३।।

।।भावार्थ।।
तेज(प्रभाव), क्षमा, नेठाव(धैर्य) देह सूं शुद्ध जिण में वैर भाव रौ अभाव अर मान सम्मान री इच्छा नीं राखै हे अर्जुन! ए सेंग दैवी सम्पदा पायोड़ा मिनख रा लक्षण है।
।।श्लोक।।
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोध: पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।४।।

।।चौपाई।।
दम्भ घमण्ड गुमान ज भावै
क्रोध, कठोर न ग्यान सुहावै।
लक्षण ए आसुरी कहावै
अवगुण वै नर में मिल जावै।।४।।

।।भावार्थ।।
हे अर्जुन! जिण में दम्भ, घमण्ड अर अभिमान व्है जकौ कठोर अर क्रोध करतो व्है जिण में विवेक नीं व्है ए सगळा लक्षण आसुरी सम्पदा पायोड़ा मिनख में मिलै है।
।।श्लोक।।
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुच: सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।५।।

।।चौपाई।।
दैवी सम्पदा मुक्ति लावै
आसुरि बांधण नै इज आवै।
अर्जुन मत ना दु:ख ज लाजै
दैवी सम्पद थनै ज साजै।।५।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जन!
दैवी सम्पदा मुक्ति रै खातर अर आसुरी सम्पदा बांधण सारू मानी जी है इण खातर हे अर्जुन! थूं दु:ख मत कर क्यूं कै थनै देवी सम्पदा प्राप्त व्हियोड़ी है।
।।श्लोक।।
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरश: प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु।।६।।

।।चौपाई।।
दोय तरह रा जीव ज जाणौ
दैवी अर आसुरि दुय मानौ
दैवी प्रकृति ज ग्यान करायौ
अब सुण असुरी तणौ ज लायौ।।६।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!
इह लोक में जीवां री सृष्टि दोय प्रकार री है एक तौ दैवी प्रकृति वाळा जीव अर दूजा आसुरी प्रवृत्ति वाळा यां मांय सूं दैवी प्रकृति वाळां री विगत तौ म्हैं थनै विस्तार सूं बताय दी अबै म्हैं आसुरी प्रकृति वाळां मिनखां री विस्तार पूर्वक सुणाऊं ला
।।श्लोक।।
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुरा:।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।।७।।

।।चौपाई।।
असुर स्वभावि न मानत दोई
करम प्रवृत्ति निवृत्ति न जोई।
नीं तिन सुध न सिरै व्यवहारा
नीं सत पालण करवा वारा।।७।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन!आसुरी स्वभाव वाळा मिनख प्रवृत्ति अर निवृत्ति दोनूं नै नीं जाणै। इण खातर वां में नीं तौ बारली शुद्धि व्है है, नीं सिरै आचरण अर सत्य पालण री इच्छा व्है है।
।।श्लोक।।
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यकामहैतुकम्।।८।।

।।चौपाई।।
असुर गिणै जग आश्रय हीणा
हरि बिन जीवां रा व्है जीणा।
जग सँग नारी पुरुष जणायौ
अवर न बीजौ कारण भायौ।।८।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! वै आसुरी प्रवृत्ति वाळा मिनख कैवै कै औ जग आश्रय रहित है इण री उत्पत्ति में ईश्वर रौ योगदान नीं गिणै है वां रौ मानणौ है कै मिनख री उत्पत्ति तौ फगत स्त्री पुरुष रै संयोग सूं इज व्है है अर काम इज इण रै उत्पत्ति रौ कारण व्है है इण रै सिवाय अवर कोई कारण नीं है।
।।श्लोक।।
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धय:।
प्रभवन्त्युग्रकर्माण: क्षयाय जगतोऽहिता:।।९।।

।।चौपाई।।
झूठा ग्यान स्वभाव विसारै
ओछी बुध अपकार ज धारै
अत्याचारी कर जग नाशा
आं मिनखां सूं आ ई आशा।।९।।

।।भावार्थ।।
इण झूठा ग्यान रै कारण वां रा स्वभाव नष्ट व्हैगा है अर ज्यांरी बुद्धि ओछी पड़गी है वै अत्याचारी सगळां अपकार करण नै अर संसार रौ विनाश करण में इज सक्षम है।
।।श्लोक।।
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विता:।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रता:।।१०।।

।।चौपाई।।
मान दम्भ मद पाळण वाळा
दुभर कामना झेलण आळा।
झूठ नेम अग्यानी पाळै
भिष्ट आचरण हिय में राळै।।१०।।

।।भावार्थ।।
एड़ा दम्भी घमण्डी मद में चूर व्हियोड़ा मिनख जकां री कामना कदै ई पूरी नीं व्है सकै उण रौ आसरौ लेय’र अग्यानता सूं झूठा सिद्धांत अपणाय नै भ्रष्ट आचरण धारण करियोड़ा फिरता रैवै।
।।श्लोक।।
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिता:।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिता:।।११।।

।।चौपाई।।
चिन्तावां पर करै भरौसौ
विषय भोग रौ है औ दोषौ।
‘इतरौ इज सुख’ गिणवा वाळौ
आखी जूण काढवा वाळौ।।११।।

।।भावार्थ।।
अर जकौ आखी जूण अणगिणत चिन्तावां रौ आसरौ लेवण वाळा विषय भोगां नै भोगण खारत उंतावळा होवण वाळा ‘इतरौ इज सुख है’ आ मानण वाळा है।
।।श्लोक।।
आशापाशशतैर्बद्धा: कामक्रोधपरायणा:।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्।।१२।।

।।चौपाई।।
आशा फांस ज फँसिया रै वै
काम क्रोध इज हिय में रै वै।
विषय भोग री अगन लगावै
धन अन्याय सुँ खूब कमावै।।१२।।

।।भावार्थ।।
वै आशा री सैकड़ाें फाॅसियाँ में बंधियोड़ा मिनख काम-क्रोध में लागोड़ा होय’ र विषय भोगां रै खातर अन्याय सूं धन भेळौ करण री लालसा राखै है।
।।श्लोक।।
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि में भविष्यति पुनर्धनम्।।१३।।

।।चौपाई।।
इतरी चीजां आज ज पायी
अबै मनोरथ करणी भायी।
इतरौ धन म्हांरै इब व्हैगौ
इतरौ अवर लावणौ रै’गौ।।१३।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे अर्जुन! वां री सोच में अष्ट पौर आ इज होवै कै वै इतरौ धन पाय लियौ है।
अर इण मनोरथ नै पूरौ कर लेवां ला। म्हारै कनै इतरी संपदा है, म्हैं इतरी संपदा आगै पाय लूं ला।।
।।श्लोक।।
असौ मया हत: शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी।।१४।।

।।चौपाई।।
उण दुसमी नै म्हां इज मार् यौ
अर दूजां नै मारण धार् यौ।
म्हां हां हरि सब भोगण वाळा
सिद्ध सक्ति सुख पावण आळा।।१४।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्री कृष्ण कैवै हे अर्जुन! असुर कैवै-
“उण दुसमी नै तौ म्हां मार दियौ हां अर वां दूजा दुसमियां नै मारण री तेवड़ ली हां। म्हां इज ईश्वर, सर्वसमर्थ हां सगळा भोगां रौ भोग करण वाळा म्हां इज हां, म्हां इज सिद्ध हां मोटा ताकतवर अर सुखी म्हां इज हां।
।।श्लोक।।
आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिता:।।१५।।

।।चौपाई।।
म्हां धनवान घणा जन म्हांरा
होड़ करै अजलग कुण म्हांरा।
घणा हवन कर दान ज दां ला
अग्यानी म्हां मौज करां ला।।१५।।

।।भावार्थ।।
म्हैं भगवान् हूँ घणा सारा मिनख म्हांरै कनैं है(म्हारै ओळादोळा फिरै है)म्हा री होड़ दूजा कुण कर सकै है? म्हैं घणा ई हवन करां ला, दान करां ला अर मौज मनावां ला इण भांत अग्यानता सूं विलमाइज्योड़ा रैवै है।
।।श्लोक।।
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृता:।
प्रसक्ता: कामभोगेषु पतन्ति नरके ऽशुचौ।।१६।।

।।चौपाई।।
भांत भांत सूं भमियौ जावै
चित्त ज मोह जाळ में आवै।
लाग ज भोग पदारथ री व्है
वै नर नरक रा इ भागी व्है।।१६।।

।।भावार्थ।।
कामना वां रै कारण तरह तरह सूं भमियोड़ा मन वाळा, मोह जाळ में पूरा फंसियोड़ा, पदार्थां रै भोगां में डूबोड़ा मिनख भयंकर नरक डूबै है।
।।श्लोक।।
आत्मसम्भाविता: स्तब्धा धनमानमदान्विता:।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्ककम्।।१७।।

।।चौपाई।।
खुद रौ पूजण चहै ज पूरौ
अकड़ू धनी मान मद चूरौ।
विधि विधान नीं जाणण आळा
हवन अहम में करवा वाळा।।१७।।

।।भावार्थ।।
खुद नै सै सूं बत्तौ पूजण वाळौ गिण’ र अकड़ राखण वाळौ, धन अर मान रा मद में चूर व्हियोड़ा मिनख घमण्ड में बिना विधि विधान जाणियां थोड़ौ सो हवन कर’र खुद नै सर्वे सर्वा मानै है।।
।।श्लोक।।
अहड़्कारं बलंं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिता:।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयका।।१८।।

।।चौपाई।।
बल अहं घमण्ड ‘र हठ क्रोधा
लेय आसरौ फिरै ज बोदा।
खुद रा अर दूजां तन धारी
द्वेष दोष मम में कढवा री।।१८।।

।।भावार्थ।।
बल अहंकार, हठ, घमण्ड लाग(कामना) अर क्रोध रौ आसरौ लेवण वाळा मिनख खुद अर दूजां रा देह में रैवण वाळासब रै मन री जाणण वाळा मम परमात्मा में द्वेष भाव देखे है, म्हारा अर दूजां रै गुणां में दोष-निजर राखै है।
।।श्लोक।।
तानहं द्विषत: क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्त्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु।।१९

।।चौपाई।।
वै दुष्ठी पापाचारी व्है
अत्याचारी नीच धुणी व्है।
भिष्ट व्हिया नर जद जद पाऊं
जूण राक्षसी में पटकाऊं।।१९।।

।।भावार्थ।।
वै द्वेष करण वाळा, निर्दयी स्वभाव वाळा संसार रा नीच धुणी अपवित्र (भिष्ठ) मिनखां नै म्हैं वार वार राक्षसी योनी में इज गिरावतौ रै’वूं हूँ।
।।श्लोक।।
आसुरीं योनिमापन्ना मूढ़ा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्।।२०।।

।।चौपाई।।
अर्जुन !मूरख मुझ नीं पावै
वार वार राक्षस बण जावै।
वै तद नीच गती अपणावै
घोर नरक भोगण इत आवै।।२०।।

।।भावार्थ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कैवै-हे कुन्ती नंदन वै मूरख मिनख म्हनैं प्राप्त नीं होय ‘र जलम-जलमान्तर में राक्षसी योनी में इज जावै अर उण सूं ई बत्ती नीच गति में यानीं घोर नरक में जावै है।
।।श्लोक।।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारा नाशनमात्मन:।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।२१।।

।।चौपाई।।
काम क्रोध अर लोभ ज लावै
तीन नरक रा द्वार दिखावै।
जीवात्मा रौ नाश करावै
त्यागै जै नर तौ तर पावै।।21।।

।।भावार्थ।।
काम क्रोध अर लोभ ए तीन तरह रा नरक रा द्वार है जकौ जीवात्मा रौ पतन करण वाळा है इण कारण यां तीनां रौ त्याग कर देणौ चहिजै।
।।श्लोक।।
एतैर्विमुक्त: कौन्तेय तमोद्वारै स्त्रिभिर्नर:।
आचरत्यात्मन: श्रेयस्ततो याति परां गतिम्।।२२।।

।।चौपाई।।
तीनूं द्वार नरक ठुकराया
नर कल्याण आचरण ठाया।
अर्जुन! त्रय द्वारै नीं आयौ
परम गती इज वौ नर पायौ।।२२।।

।।भावार्थ।।
हे कुन्ती नंदन! यां नरक रा तीनूं दरवाजां रहित व्हियोड़ौ मिनख खुद रै कल्याण रौ आचरण करै है। इण कारण वौ परम गति पाय लै है।
।।श्लोक।।
य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।२३।।

।।चौपाई।।
तज विधि शास्त्र करै मनमानी
उठै सिद्धि अंतस नीं आणी।
सुख ‘र शान्ति रा लगै न थागा
मिलै न परम गती उण जागा।।२३।।

।।भावार्थ।।
जकौ मिनख शास्त्र विधि नै त्याग’ र आपरी मरजी सूं मनमाना व्यवहार करै वौ नीं तौ सिद्धि, नीं सुख शान्ति अर नीं ई परम गति नै पाय सकै है।
।।श्लोक।।
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।२४।।

।।चौपाई।।
कर्म अकर्म रु शास्त्र प्रमाणा
जोगा थूं कर कर्म विधाना।
इण लोक ज में कर रख ध्याना
जाणत सगळा शास्त्र विधाना।।२४

।।भावार्थ।।
इण कारण थारै वास्तै कर्त्त्वय, अकर्त्तव्य री व्यवस्था में शास्त्र इज प्रमाण है। आ जाण’र थूं इण लोक में शास्त्र विधि सूं निमत कर्त्त्वय कर्म करण जोगौ है इण वास्तै थनै विधि विधान रै अनुसार कर्त्त्वय कर्म करणौ चहिजै।
।।चौपाई।।
औ अध्याय सोळवौ ठायौ
देवासुर संवाद जचायौ।
कथी विरेन् भाव अनुरूपा
अर्जुन किशन सँवाद अनूपा।।


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