राजस्थानी संस्कृति का प्राणतत्व – राजस्थानी लोकसाहित्य

संस्कृति वह आधारशिला है जिसके आश्रय से जाति, समाज एवं देष का विशाल भव्य प्रासाद निर्मित होता है। निरंतर प्रगतिशील मानव-जीवन प्रकृति तथा समाज के जिन-जिन असंख्य प्रभावों एवं संस्कारों से प्रभावित होता रहता है, उन सबके सामूहिक रूप को हम संस्कृति कहते हैं। मानव का प्रत्येक विचार तथा प्रत्येक कृति संस्कृति नहीं है पर जिन कार्यों से किसी देष विशेष के समक्ष समाज पर कोई अमिट छाप पड़े, वही स्थाई प्रभाव संस्कृति है। 01 रामधारीसिंह दिनकर के अनुसार ‘‘असल में संस्कृति जीवन का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है, जिसमें वह जन्म लेता है। ………. अपने जीवन में हम जो संस्कार जमा करते हैं, वह भी हमारी संस्कृति का अंश बन जाता है और मरने के बाद हम अन्य वस्तुओं के साथ-साथ अपनी संस्कृति की विरासत भी अपनी भावी पीढ़ियों के लिए छोड़ जाते हैं। इसलिए संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है।02
जहां तक राजस्थान की संस्कृति का प्रश्न है, वह अपने प्राचीन इतिहास, परंपरा, रूढ़ियों तथा आदर्शों की समानता के कारण संपूर्ण भारतवर्ष की समग्र संस्कृति का ही एक हिस्सा है। इसमें भी भारतीय संस्कृति के ही मूल तत्व समाहित हैं और भारतीय संस्कृति की परंपरागत अनुकरणीय विषेशताओं का निर्वाह इसमें हुआ है। भारतीय संस्कृति के विशिष्ट एवं शास्त्रसम्मत शाष्वत आदर्श ही राजस्थान की संस्कृति के मूलाधार हैं। फिर भी विशालतम देश के अलग-अलग प्रदेशों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि तथा जनजीवन के जीवनमूल्यों में न्यूनाधिक अंतर स्वाभाविक है। उसी से हमारी विविधता में एकता वाली कहावत सत्य साबित होती है। भारतवर्ष में राजस्थान की संस्कृति को उसके महान आदर्शों के कारण विशेष श्रद्धा की दृष्टि से देखा गया है। यही नहीं कर्नल जेम्स टाॅड जैसे विदेशी अध्येता ने भी इस भव्य संस्कृति की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। राजस्थानी बातों, ख्यातों तथा वीराख्यानों में राजस्थानी संसकृति के दर्शन होते हैं, जिनमें वीरपूजा की भावना, स्वातंत्र्य प्रेम, धरती प्रेम, मरणपर्व, शरणागत वत्सलता, गोरक्षा, दानशीलता, त्याग, धर्मानुष्ठान, तीर्थव्रत, आचार-विचार और रीति-नीति मुख्य रूप से उल्लेखनीय है।
संस्कृति जन सामान्य के चित्त में संस्कार रूप में निवास करती है और पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है। इस हस्तांतरण के लिए किसी प्रकार के प्रशिक्षण विशेष की आवश्यकता नहीं होती। स्वाभाविक रूप से यह सतत और सहज प्रक्रिया के तहत सदियों से चली आ रही है। संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्य सामान्यजनों के अंतर्मन में रहते हैं, जिन्हें व्याख्यायित, प्रदर्शित या विज्ञापित करने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता नहीं रहती, वे अनायास ही अवसर के अनुरूप प्रस्फुटित होते रहते हैं। संस्कृति और सभ्यता का घनिष्ट और अटूट संबंध होते हुए भी जहां सभ्यता का झुकाव खास लोगों की और होता है वहीं संस्कृति का झुकाव आम लोगों की और होता है। यदि संस्कृति और सभ्यता के साथ शिक्षा की बात करें तो शिक्षा और सभ्यता का घनिष्ट संबंध है। सभ्यता के विकास में शिक्षा की अहम भूमिका रहती है। लेकिन यह भी सत्य है कि जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता है, स्वाभाविकता कम होने लगती है और व्यक्ति औपचारिकताओं से इतना घिर जाता है कि उसका सब कुछ बदला-बदला सा लगने लगता है।
‘‘सभ्यता की वृद्धि के साथ स्वाभाविकता का ह्रास होता है। सभ्यता का संबंध मस्तिष्क से है वहीं स्वाभाविकता का हृदय से है। बहुत कम ऐसा देखने में आता है जब मस्तिष्क और हृदय में एकता हो। प्रायः हृदय के विषय में मस्तिष्क सदा झूठ बोलता है। कितनी बार मनुष्य के हृदय में क्रोध उत्पन्न होता है लेकिन उसका मस्तिष्क शांत और विनय की बातें करता पाया जाता है। हृदय में लोभ रहता है, पर मस्तिष्क निःस्पृहता दिखलाता रहता है। बहुत ही कम उच्चकोटि के ऐसे सत्पुरुष होंगे जिनके हृदय और मस्तिष्क में मेल हो। अतएव जिसे आजकल सभ्यता कहते हैं, वह एक प्रकार की अस्वाभाविकता है।’’ 03
संस्कृति और लोक-साहित्य के संबंध की बात करने से पूर्व लोक-साहित्य से संबंधित कुछ बातों परविचार करना जरूरी प्रतीत होता है। लोकसाहित्य हृदय का साहित्य है जिसमें नैसर्गिकता के दर्शन होते हैं। इसमें शांति, स्वभाव, आत्मैक्य और आपसी विश्वास के भाव पलते हैं। सहृदयता, सरलता, निर्भयता एवं प्रगाढ़ प्रेम के नमूने लोक साहित्य के सिवाय कहां मिलते हैं ? जिसे हम शुद्ध साहित्य कहते हैं, उसकी धारा पूर्ण रूप से तो नहीं पर काफी हद तक मस्तिष्क के तर्कजालों में फंसी हुई नजर आती है। इस साहित्य में वास्तविक व्यापार की बजाय कृ़ित्रम व्यापार अधिक नजर आने लगा है। जबकि ज्ञान-विज्ञान, व्यवहार-वाणी, वेष-भूषा आदि वास्तविक व्यापार लोकसाहित्य की जान है। लोकसाहित्य तो प्रकृति की पूजा का साहित्य है। अतः लोकसाहित्य स्वाभाविकता के अधिक नजदीक का साहित्य है। इसी कारण वह संस्कृति का प्राण-तत्त्व होने का दावा कर सकता है।
लोकसाहित्य मनुष्य-जीवन की एक चिरसंगी विशेषता है लेकिन यह सदियों से पुनीत गंगधारा की तरह लोक उद्धारक के रूप में सवेग बहकर भी विद्वानों के निकट तुच्छ वस्तु बना रहा है। पिछले कुछ समय से यह प्रत्यक्षदर्शी ‘लोकानां सर्वदर्शी भवेन्नरः’ जैसे सुवाक्यों सहित अध्येताओं के लिए नया मोड़ लेकर चली है। अथर्ववेद का सूत्र ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथ्वीव्याः’ (यह भूमि मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूं) आज विद्वद्जनों की आत्मा में लोक के अपनत्व के प्रति प्रेरणा का उजास कर रहा है। उसकी स्निग्ध ज्योत्स्ना चारों ओर फैल रही है। हमारा किसान इस सूक्त के तात्पर्य को पीढ़ियों से क्रियान्वित करता आया है। वही लोक का महाप्राण और उसके जीवन का सच्चा प्रतिनिधि है। साहित्य महोपाध्याय श्री नानूराम संस्कर्ता के अनुसार लोकसाहित्य एक तीर्थधाम है तो डाॅ. वासुदेवशरण अग्रवाल के शब्दों में ‘लोक’ हमारे जीवन का महासमुद्र है, जिसमें भूत, भविष्य तथा वर्तमान सभी कुछ संचित रहता है। लोक राष्ट्र का अमर स्वरूप है, लोक कृत्सनज्ञान और सम्पूर्ण अध्ययन में सब शास्त्रों का पर्यवसान है। अर्वाचीन मानव के लिए लोक सर्वोच्च प्रजापति है। लोक की धात्री सर्वभूत माता पृथ्वी और लोक का व्यक्त रूप मानव, यही हमारे नए जीवन का अध्यात्मशास्त्र है।
वर्तमान युग में लोकसाहित्य से अनेक रूपों का ज्ञान होता है। हिन्दी साहित्य जगत में साहित्य शब्द के साथ लोक विशेषण लगाकर लोकसाहित्य अपना पार्थक्य प्रकट करता हुआ पर्याप्त प्रचलित होता जा रहा है। यह साहित्य धारा अनवरत रूप से बहती रही है। इसका विकास मानव मन की अन्तर्मुखी प्रवृत्तियों से हुआ है। इसमें लोकगीत, लोकनाट्य, लोकानुरंजन और लोकपरंपरा आदि सम्मिलित हैं। इन तत्वों से जनसामान्य के सामाजिक जीवन आदर्शों की रचना हुई है। यह मौखिक रूप में प्रचलित साहित्य ही लोकसाहित्य कहलाता है। आजकल साहित्य में शुद्ध-साहित्य और लोकसाहित्य दो रूप माने जाते हैं। शुद्ध साहित्य का आधार शिक्षा है। मनुष्य की बाह्य प्रवृत्तियों से जो विकास होता है, उसका माध्यम शिक्षा है। लेकिन लोकसाहित्य की आत्मा; शिक्षा में नहीं होकर लोकमानस मेें निहित है और इसका शरीर सामाजिक विश्वासों तथा मान्यताओं से गठित है। लोक सरलतायुक्त है और शिक्षा प्रवंचनापूर्ण अतः स्वाभाविक रूप से लोकसाहित्य सरलतायुक्त है।
भारतवर्ष में राजस्थान प्रांत लोकसाहित्य के क्षेत्र में एक अमूल्य संपति का अखूट खजाना है। इस प्रदेश की संस्कृति ने अद्भुत शौर्य, सौंदर्य और मानवीय मूल्यों की स्थापनाएं की हैं। असंख्य अभावों से घिरी इस मरुधरा के निवासियों ने प्राकृतिक आपदाओं, अकाल, अनावृष्टि तथा खेती आदि के लिए साधन-सुविधाओं के अभावों को हंसते-हंसते स्वीकार किया है, ये अभाव यहां के निवासियों के मन से उमंग, उल्लास और उत्साह को कम नहीं कर सके। अपनी जीविका उपार्जन के लिए संतोष के पश्चात यहां के निवासियों का लगभग सारा अवकाश काल लोक-संस्कृति की उन्मेशपूर्ण गरिमा में ही लगता रहा। यहां के इतिहास में पुरुषों ने वीरत्व की अक्षुण्ण छाप छोड़ी है, महिलाओं ने इतिहास को जौहर की ज्वालाओं के अक्षरों से मंडित किया है, दातार और दानवीरों ने अपने धन को जनहितार्थ कोड़ियों के भाव बहाया और अभावों से जकड़े इस मरुप्रदेश को स्वाभिमानी बनाए रखा।
इस प्रदेश के गांव-गांव और ढाणी-ढाणी में राजस्थानी लोककला और लोकसाहित्य की स्पंदनपूर्ण थाती के दर्शन मिलते हैं। प्रेम और अनुराग की उमंगपूर्ण कथाओं में ढोला-मारू, जलाल-बूबना, नागजी-नागवंती, रिसाळू-नोपदे, सुल्तान-निहालदे की कथाएं, विद्वता और बुद्धिमानी से परिपूर्ण राजा भोज, राजा विक्रम, क्रोड़ी और क्रोड़ीधज सेठों की कथाएं, लोकगाथाओं के रूप में बगड़ावत और पाबूजी जैसे वीरात्मक महाकाव्य, पणिकारी, सूवटियो, जलौ, सुपनौ, ओळूं जैसे सरस मुक्तक गीतों का अखूट भंडार राजस्थान के लोकसाहित्य का अनुपम वैषिश्ट्य है। इन लोक सांस्कृतिक उपलब्धियों में सहज मनोभाव, चारित्र्यपूर्ण नीतियां और जीवन की नानाविध अनुभूतियों के हीरे-मोती बिखरे पड़े हैं। 04
राजस्थान की संस्कृति सुरंगी संस्कृति है। यहां की धरती राग और रंग की धरती है। लोकगीत और लोकनृत्य के संगीत के साथ सारा मंडल झूमता है। सुरीले स्वरों में माढ राग में केसरिया बालम, रतनराणा, मूमल, ओळूं, सपनों, कुरजां, काछबियो, बायरियों इत्यादि गीतों के एक-एक बोल जीवन रस को अमृतमयी करते से लगते हैं। सगाई-विवाह के समय बन्ना-बन्नी, बधावा, जल्लो, सोळो, मेहंदी, कोयलड़ी और सीखड़ली जैसे गीत लोकजीवन का ज्ञान तथा लोकव्यवहार की शिक्षा देते हैं। रात्रि जागरण-जम्मों में हरजस, बाणी, महापुरुषों के जीवनचरित्र, पाबूजी एवं बगड़ावतों की पड़ ख्यात आदि सरस राग-रागिनियों में प्रस्तुत किए जाते हैं। लोक संगीत की सुरंगी और अंजसयोग्य परंपराओं को यहां की कुछ खास जातियों यथा मांगणियार, दमामी, ढोली, ढाढी, लंगा आदि ने अनवरत रखा है, जो कि आज विश्वस्तर पर अपनी पहचान बनाकर लोगों की चहेती बनी हुई है। लोकवाद्यों में मोरचंग, मुरला, नड़, अलगोजा, कमायचा और सांरंगी जैसे वाद्य सबको मोहित करते हैं। रावणहत्थे पर भोपा जाति के लोग लोकदेवताओं तथा आदर्श महापुरुषों की कीर्ति का बखान करते हैं।
संस्कृति, सभ्यता, लोक-साहित्य तथा इससे जुड़े तमाम तथ्यों पर जितना-जितना गहराई से विश्लेषणात्मक दृष्टि से विचार करते हैं तो लगता है कि किसी भी देश की संस्कृति का प्राण तत्व उसका लोक साहित्य होता है। राजस्थानी संस्कृति भी इसका अपवाद नहीं है। यदि राजस्थान की संस्कृति की एक-एक विशेषता को लेकर विचार करें तो पाएंगे कि हर विशिष्टता को लोक ने सींचा है। राजस्थानी संस्कृति की महत्त्वपूर्ण और अनूठी विशेषता ‘शरणागत रक्षा और मर्यादा पालन’’ है, जिसके कारण यह संस्कृति विश्व में प्रतिष्ठापित हुई। इस विशेषता को लोकसाहित्य ने अपनी कहावतों, लोकगीतों, लोकाख्यानों तथा मौखिक बातों का अभिन्न हिस्सा बनाया। ‘‘मां जायो अर घर आयो बराबर हुवै’’ इस अनूठी भावना को संस्कार रूप में प्रतिष्ठापित करने का श्रेय लोक को ही है। राजस्थानी संस्कृति में जीवन-मूल्यों की चर्चा करें तो यहां कर्तव्य-पालना को जीवन का अहम मूल्य माना गया है। इस संस्कृति को मानने वाले लोगों को संस्कार रूप में सिखाया जाता है कि यदि उनकी मातृभूमि, उनके धर्म या किसी स्त्री पर कोई संकट आए तो उस समय उनकी रक्षा करना प्रत्येक व्यक्ति का परम कर्तव्य है।
राजस्थानी संस्कृति कहती है कि उस रक्षा के दौरान यदि मरने पड़े तो भी पीछे नहीं हटना है और ऐसा अनेक बार हुआ इसलिए यहां के सांस्कृतिक जीवन में मरण त्योहार जैसी परंपरा को मान्यता मिली और वह भी शासन-सत्ता या विशेष व्यक्तियों के लिए नहीं राव और रंक सबके लिए समान रूप से यह त्योहार मनाने की आवश्यकता पर बल दिया गया। परंपराएं तथा प्रथाएं इतिहास की देन हुआ करती हैं। लोकमानस में कुछ मान्यताएं बनती हैं, जो कि लोक के लिए ‘महाजनो येन गतः सः पंथा’ के आदर्श के आधार पर जन-जन के लिए ग्राह्य हो जाती है। राजस्थानी जनमानस में ऐसी ही कुछ मान्यताएं है- जैसे कब और कैसी परिस्थिति में आदमी को अपने कर्तव्यनिर्वहन हेतु मरने से भी नहीं हिचकना चाहिए, कब और कैसी परिस्थिति में खुशी मनाने में पीछे नहीं रहना चाहिए, कब और कैसे जीवन का आनंद लेना ही चाहिए। ऐसी भावना के परिचायक और लोक में आदरप्राप्त दो आधारभूत दोहे उल्लेखनीय है-
रण चढण, कंकण बधण, पुत्र बधाई चाव।
अै तीनूं दिन त्याग रा, कहा रंक कहा राव।।
धर जातां, ध्रम पलटतां, त्रियां पड़ंतां ताव।
तीन दिहाड़ा मरण रा, कहा रंक कहा राव।।
हमारी संस्कृति के इसी भाव को परिलक्षित करते हुए लिखा गया कि अवसर पर मरने वाले को इस लोक में सुयश मिलता है तथा परलोक में प्रभुता प्राप्त होती है-
अठै सुजस प्रभुता उठै, अवसर मरियां आय।
मरणों घर रै मांझियां, जम नरकां ले जाय।।
मर्यादा पालन, वचन-पालना तथा शरणागत-वत्सलता के उदाहरण राजस्थानी लोकजीवन में कदम-कदम पर देखने को मिलते हैं। यहां के लोकजीवन में ऐसे अनेक चरित्र हैं, जो इन्हीं खूबियों के कारण लोक-देवता, लोकसंत, जूझार, भोमियां, पीर आदि संबोधनों से गांव-गांव और घर-घर में पूजनीय हैं। इन महापुरुषों ने अपने जीवन से लोगों को त्याग तथा समर्पण के साथ-साथ स्वाभिमान के साथ मर्यादा-पालन का सन्देश दिया। इन पुण्यात्माओं की यह विशेषता रही कि इन लोगों ने जन सामान्य को जाति-पांति, संप्रदाय तथा उच्च-निम्न के दायरों से बाहर निकालने की पुरजोर कोशिश की। राजस्थानी लोकजीवन में प्रचलित एक दोहा इस बात की साख भरता है कि यहां के पांच लोक देवता जो कि हिंदू परिवारों से संबंधित रहे हैं, उन्हें पंचपीर कहा जाता है, जो कि मुस्लिम संस्कृति के संतों के लिए संबोधन है –
पाबू, हड़बू, रामदे, मांगळिया मेहा।
पांचूं पीर पधारिया, गोगाजी जेहा।।
पर्यावरण संरक्षण के लिए यहां के लोकसाहित्य में पेड़ों में देवत्व स्थापित किया गया। अलग-अलग देवताओं के नाम से अलग-अलग वृक्षों की पूजा का विधान किया गया। ‘गांव-गांव में खेजड़ी अर गांव-गांव में गोगो’ कहावत इस बात की साक्षी देती है। देवताओं के नाम से एक-एक पेड़ ही नहीं पूरे के पूरे खेत के खेत संरक्षित किए गए हैं, जिन्हें गोचर, बणी, ओरण इत्यादि नामों से पुकारा जाता है। इन संरक्षित वनों में से कोई व्यक्ति हरे वृक्ष को काटना-छांगना तो दूर रहा, वहां से सूखी लकड़ी तक नहीं उठाता। राजस्थान के गांव-गांव में ऐसे उदाहरण आज भी मौजूद हैं। यहां के लोकगीतों में वृक्ष काटने वाले को सामाजिक स्तर पर फटकार लगाकर ऐसा नहीं करने की शिक्षा दी जाती है, यहां खास प्रचलित बिनाणीड़ो लोकगीत की ये पंक्तियां उल्लेखनीय है, जिनमें पेड़ के मानवीकरण के साथ लोकमानस की संवेदना प्रकट हुई है-
तूं तो खाती रा बेटा गजब गुजारी, रस्तै रो काट्यो हरियो रूंखड़ो।
आवता-जावता छायां रै बैठता, थाक्योड़ा लेता विसरामड़ी
चक-चक करती चिड़ियां बैठती, गायां बैठती ओ पूरी डोढ सौ।।05
राजस्थान की संस्कृति में स्वामिभक्ति को बहुत उच्च स्थान पर रखा गया है। यहां लोकजीवन में एक कहावत प्रचलित है- ‘सौ सुक्रत इक पालड़ै अर एको साम-धरम’ अर्थात सौ सुकृत्य के बराबर एक स्वामिभक्ति का मूल्य होता है। पन्ना धाय, वीरवर दुर्गादास राठौड़ जैसे उदाहरण हमारे सामने है, जिन्होंने स्वामिभक्ति के अमर उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। पन्ना धाय यदि अपने राजपरिवार के राजकुमार को बचाने के लिए अपने जिगर के टुकड़े को मौत के मुंह में सुलाने की हिम्मत कर पाई तो इसके पीछे संस्कारों की ताकत काम कर रही थी। दुर्गादास के मन में एक पल के लिए भी राज्य सत्ता के प्रति मोह का भाव नहीं जगा और वास्तव में राजकाज चलाने के बावजूद भी अपने आपको अहंकार से दूर रख सका तो इसका कारण हमारी संस्कृति के ये संस्कार ही हैं, जिन्होंने उनके मन में इतनी दृढ़ता के भाव भरे। लोकसाहित्य में ऐसे ही महान चरित्रों को सदियों-सदियों तक याद रखा जाता है। स्वामिभक्ति के अनूठे कर्तव्य के कारण पन्ना धाय तथा दुर्गादास को लोक ने पलकोें पर बिठाया है। हर कहीं गीत-संगीत में, बातों में, नीति-व्यवहार में यह दोहा सुनाई दे ही जाएगा-
माई जणै तो दोय जण, के दाता के सूर।
नीं तो रिजै बांझड़ी, (थारो) मती गमाजे नूर।।
माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा दुरगादास।
माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राण प्रताप। आदि
इसी तरह महाराणा प्रताप, अमरसिंह राठौड़, जगदे पंवार, राव लूणकरण, हाडी राणी, वीरवर जयमल्ल, वीर पत्ता, खींवो-बीजो, राजा भोज, खापरो चोर, दीपालदे, कूंगरा बलोच, सोनगरा-मालदे, गोरा-बादल, वीरमदे सुल्तना, ऊको भाणेज, चूंडो, सादूळो, बलूजी चांपावत, अनाड़सिंह, ल्हालर, सजना, ऊमा भटियाणी, सांथल-सोम, दूदौ जोधावत, जगमल मालावत जैसे सूरवीरों को जनमानस ने अपनी पलकों पर बिठाया है, जिनकी लोककथाएं जनमानस की पथप्रदर्शक बनी हैं। मर्यादापालन, वचन प्रतिपालन तथा वीरोचित कृतत्व के कारण पाबूजी राठौड़, तेजाजी, गोगाजी आदि चरित्रों को लोगों ने लोकदेवता मानकर अपने हृदय मंदिर में स्थापित किया है। लोकसाहित्य का अहम हिस्सा है- लोकगीत। जनमानस ने अपने राष्ट्र, समाज तथा परिवेष में से ऐसे चरित्रों को अपने लिए आदर्श माना जो उनके जीवन को धन्य कर सकते थे। ऐस चरित्रों को प्रसंगवशात सुख, दुख, पर्व-त्योंहार हर उत्सव पर याद किया जाने लगा, जो पीढी दा पीढी आज भी प्रचलित है।
लोकगीत विषाद को मिटाने, शोक को समेटने और दुख को मेटने वाले नित नए उपदेश हैं। विवाह, त्यौहार, पुत्र जन्म पर हर्ष का भाव है वहीं कहीं बेटी की विदाई के समय ये लोकगीत लोकिक दुख की तीव्रता को सहन करने की शक्ति प्रदान करते हैं। कहीं-कहीं मृत्यु के अवसर भी लोकगीत तथा भजन आदि गाकर शोकसंतप्तों को उस असहनीय संकट को सहन करने का संबल देने का काम किया जाता है। राजस्थान में वृद्धों की मृत्यु पर हर के हिंडौळै तथा शिशु की मृत्यु पर छेड़ै गाए जाते हैं। ये मूलतः विरहगीत है, जिन्हें झुरावा कहा जाता है। ये लोकगीत विशुद्ध भावों से परिपूर्ण होते हैं। इनमें कोई दिखावा नहीं कोई कृत्रिमता नहीं, कोई बड़े या छोटे का भाव नहीं। गांव की सभी औरतें एक साथ मिलकर गाती हैं। तीज तथा भात के गीत किसी भी भाई-बहिन को विह्वल कर देते हैं। ओळूं, आंबो, इमली, इकथंभियो महल, उमराव, निहालदे, नींबू, नारंगी, नीमड़लौ, नीमड़ली, नागजी, नींदड़ली, बड़लो, बांवळिया, बदळी, पीपळी, पपैयो, पन्नामारू, पनजी, मरवो, मूमल, मिरगो, महल, सूवटो, सपनो, कुरजां, कसूंबो, लहरियो, जल्लो, हिंडौळो आदि लोकगीतों का दाम्पत्य-प्रेम तथा आनंदित जीवन के लिए जितना महत्व है, उतना अन्य किसी काव्य का नहीं है।
राजस्थानी संस्कृति का प्राणतत्त्व यहां का लोकसाहित्य है तो इस लोकसाहित्य का प्राणतत्त्व यहां के लोकजीवनमें में प्रचलित शील और साहस के कथात्मक गीत हैं। सुपियार दे, हंजर, बेना बाई, चंद्रावळी, निहालदे, जसमल, सजनां जतणी, उदली भीलणी के गीत ऐसे प्रसिद्ध तथा उज्ज्वल कथानक हैं, जो कि किसी भी सहृदय को सहज आकर्षित करते हैं। इन गीतों की नायिकाएं कोई महारानियां, सेठानियां या बड़ी ठकुरानियां नहीं थीं लेकिन सामान्य हैसियत वाली इन महिलाओं ने अपने शील और साहस के बल पर हंसते-हंसते मृत्यु तक का आलिंगन कर लोक के मन को मोहा और आज युगोंयुग बीतने के बाद भी लोक के हृदय की अतल गहराइयों में बड़े सम्मान का पद पाए हुए हैं। जन-जन का कंठहार बनीं ये कथाएं गीत बनकर गूंजती हैं। राजस्थानी लोकसाहित्य की इन कथाओं को पढ़कर या सुनकर लगता है कि नारी साहसोदधि में पातिव्रत धर्म की हिलोंरें बड़े वेग से प्रवाहित होती हैं। उनकी भाव लहरियां दृढ़ता, सबलता और बड़े धैर्य के साथ तरंगित होती हैं, जिनमें अनेक राजा-महाराजाओं की लोलुपता विलीन हुई है। ऐसी-ऐसी सती नारियां हुई हैं जिन्होंने अपने पति के समक्ष राजा ही क्या देवताओं तक का तिरस्कार कर दिया। वे अपने स्वामी के सामने किसी को कुछ भी नहीं मानतीं। इन्होंने अपने घर, खेत, पशु तथा परिवेश में भले ही कितने अभाव हो, संकट और परेशानियां हो लेकिन अपनी चीजों के सामने दूसरों की धन-संपत्ति और रूप-यौवन को तृणवत समझ कर ठुकराया है।
राजस्थानी लोकगीतों में से एक गीत ‘जसमल ओडणी’ का गीत है, जिसकी नायिका जसमा का चरित्र कठिन परिश्रम करके अपने आत्मबल के द्वारा राजप्रासाद के ऐश्वर्य को सहज ही ठुकरा देती है। जसमल एक ओड जाति की स्त्री थी, जो अपने परिवार के साथ तालाबों की खुदाई का कार्य करती थी। जोधुपर के राव खंगार ने जब जसमा को देखा तो वह उसके रूप-सोंदर्य पर मुग्ध हो गया। राजा ने जसमां को अपनी रानी बनने का प्रस्ताव दिया तथा ओड परिवार के साथ उसके संकटों के सामने अपने राज परिवार के सुखों की एक-एक बात कहते हुए जसमल को अपनी रानी बनने का आग्रह किया। जसमा को खंगार की बातों में कोई रुचि नहीं थी क्योंकि वह अपने पति को ही परमेश्वर मानती थी। चूंकि गरीब परिवार राजा का विरोध नहीं कर सकता था अतः जसमां ने अपने परिवार सहित रात को उस स्थान से किसी अन्य स्थान की और प्रस्थान कर दिया। राव खंगार तो जसमां के प्यार में पागल था तथा उसे अपनी अकूंत धन-संपदा तथा राजसत्ता का नशा भी था अतः वह जसमा क्या संसार की किसी भी मोहक स्त्री पर अपना हक मानता था अतः राव खंगार जसमां के दल के पीछे चढ़ा और शीघ्र ही उसने जसमां को आ पकड़ा जसमां ने राव खंगार को विनती की कि मैं आपकी बेटी जैसी हूं आप मेरे पिता तुल्य हो। लेकिन राव खंगार की कामुकता कम होने का नाम नहीं ले रही थी।
जसमां ने अपने शील की रक्षार्थ हाथ में तलवार उठाई और मरने मारने को उतारू हो गई। जसमां और राव खंगार के बीच हुए वार्तालाप में जसमां के उज्ज्वल विचारों से राजा का हृदय साफ हो गया। उन्होंने अपनी फौज को घर लौटने का हुकुम देकर स्वयं वहीं जीवित समाधि ले ली। गीत की कतिपय पंक्तियां देखिए-
राजाजी बुलावै अै जसमल ओडणी अे जसमल महल जोवण म्हारा आव,
कांई तो जोवां थांरै महलां रो ओ, भूल्या राजा म्हांनै म्हांरी सरक्यां रो कोड।
राजाजी बुलावै अै जसमल ओडणी अे जसमल कंवर जोवण म्हारा आव,
कांई तो जोवां थांरै कंवरां रो ओ, भूल्या राजा म्हांनै म्हांरै ओडड़ियां रो कोड। …..
ठरक्योड़ो राजा फौज बणायर, चढ़ियो वार, कांकड़ जांवतां नरपत नावड़यो ओ।
म्हूं छूं राजाजी थारी धीवड़ी ओ, बाबल राजा थैं म्हारा जळहर जामी बाप।
मरण-मारण नै मच गई ओ कोपी जसमल हाथां में झांप दुधार।
राजा ने अपनी रानियों का, घोड़ों तथा और अन्यान्य ऐशोआराम का लालच दिया लेकिन जसमां अपने परिवार के सामने सारे ऐष्वर्य को धत्ता बताती रही। जसमां का स्वाभिमान और शील इतना उच्च है कि जहां राव खंगार उसे प्यारी, तनक मिजाजण, ऊजळदंती, केसर-वरणी आदि नामों से संबोधित करते हैं वही जसमल राव खंगार को अकल अलूणां राजवी, भूल्या राजा, भोळा भूपत, कांमी राजा, पापी राजा, कुबधी राजा, जुलमी राजा, ठरक्योड़ा ठाकर, बगनों राजा आदि संबोधन से संबोधित किया है। किसी भी सहृदय की इस गीत को सुनकर इसके मर्म को महसूस करके स्वाभाविक सी प्रतिक्रिया होगी वाह! गीत क्या है, गीता के संपूर्ण अध्यायों का सार है। सुख-संपत्ति में शील का पालन करना कोई बड़ी बात नहीं है, उसमें भी बहुत बड़ा समर्पण अपेक्षित है तो जहां अभावोें तथा दुभर परिस्थितियों में जसमां ओडणी की तरह अपने स्वत्व और सतीत्व की रक्षा करना कितना कठिन काम है, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। यही लोक की विशेषता है। प्रलोभनों, स्वार्थों तथा लालचों के वषीभूत होकर प्रतिपल संसार में मर्यादा को तार-तार करने वाले लोग बहुत हैं, जो कीड़े-मकोड़ों की तरह जन्मते और मरते हैं लेकिन जसमां की तरह उज्ज्वल चरित्र विरले ही होते हैं, जिन्हें लोकजिह्वा पर आसन मिलता है। हर कहीं आदर्श पतिव्रता तथा शीलवान नारी के रूप में जसमल खड़ी नजर आती है।
मानवमन की विराट आत्मानुभूतियां लोकसाहित्य में पग-पग पर स्वर्णाक्षरों में मिलती हैं। बालक के लिए मां की सुमधुर लोरियां, प्रियतम के लिए विरह में तड़पने वाली नववधू की तड़पन, विधवा की कसक, कन्या का हास्य, झूले की बहार, पति-पत्नी के मिलन-विरह की स्थितियां, उलाहने, पहेलियां आदि मानव जीवन से एकात्मकता रखते हैं। इन गीतों तथा बातों में बालविवाह, वृद्धविवाह तथा बेमेल विवाह के दुष्परिणामों की सूचनाएं समाज के एक-एक जन को दे दी जाती है। लोकसाहित्य का आदर्श और ज्ञान मानव व्यवहार में छाया की भांति साथ-साथ चलता है। वह रिकार्ड बजने, रेडियो सुनने, सिनेमा देखने या हमारे मनोरंजन मात्र के लिए साधन मात्र नहीं है वरन जन-जन की मनोरंजित और जागृत व्याख्या है। वह जीवन के हर एक पहलू का परम प्रतिष्ठित गौरव है। समाज की ऊंची से ऊंची चोटी से लेकर नीची श्रेणी तक इसकी शिक्षा का प्रसार है। वह केवल गिने-चुने प्रथायुक्त विषयों के पीछे ही नहीं रहता। वह तो लोक के स्वस्थ तथा निश्छल अभिव्यंजनास्वरूप मानवीय तत्त्वों का प्रदर्शन करता है। उसका वास्तविक लक्ष्य जीवन के जटिल मार्ग का रसमय निर्देशन करना एवं भावों को सरल भाषा में उतारकर अपने पवित्र सामाजिक उद्देश्यों को पूरा करना है। 06
लोकसाहित्य में कितनी ही ऐसी काव्य व्यंजनाएं हैं, जो हमारे पारिवारिक संबंधों को सशक्त बनाती है। लोकसाहित्य प्रत्येक राष्ट्र की आत्मा होता है। इसके द्वारा प्राकृतिक प्रवृत्तियों का परिष्कार करके सुख से गाए जाने वाले लोकगीत अत्यंत रंजक और रमणीय होते हैं। कृत्रिम सौंदर्य की व्यवस्था के अभाव में मनुष्य को अपने मनोरंजन की स्वयं ही व्यवस्था करनी पड़ती है। छोटे नाडों पर, मोटे टीबों पर, खेतों और खोड़ों में, पगडंडियों एवं पहाड़ों पर, सीरसांझे में इेके-चेजे पर, संयोग-वियोग में रम्मत-रास के रागात्मक अवसर पर सृष्टि के नाना रूपों के साथ मानव भावनाएं गीत बनकर लोककंठ से निकलती है। खेती में हल चलाते हुए तेजा-गायन, श्रमकार्यों में राम-भणत, कुओं पर दूहों का संगीत, पशु चराते हुए डोरी का गाना, फाल्गुन के महिने में धमाळ बोलना मानव प्रकृति के नाना रूपों का सहज प्रकटीकरण है। मनुष्य के इन्हीं गानों का नाम लोकगीत है। मानव जीवन की, उसके उल्लास की, उसकी उमंगों की, उसकी करुणा की, उसके रुदन की, उसके समस्त सुख-दुख की कहानी गीतों में चित्रित है। मानवीय जीवन की प्रसन्नता, झुंझलाहट, क्रोध, राग, विराग, प्रेम या नफरत के सभी भाव अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में लोकसाहित्य के विविध रूपों यथा लोकगीत, लोकवार्ता, लोक-मान्यताएं, लोकव्यवहार आदि में देखने को मिलते हैं। जनजीवन में व्याप्त रहने वाली इच्छाएं तथा आकांक्षाएं जितनी लोकसाहित्य में स्पष्ट तथा सजीव होती है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है।
राजस्थानी लोककथाओं में लोकव्यवहार की सीख के लिए लाखीणा दोहा कहने की परंपरा रही है, जो कि गाहे-बगाहे सभी कथाओं में किसी न किसी बहाने सीख-उप्देशार्थ आ ही जाता है। एक लाखीणा दोहा देखिए-
बैठक बैठज्यो, पाव ठामज्यो, त्रिया मारग टाळ।
पहरो देतां साचो दीजै, आई रीस निवार।।
घर से रवाना होते हुए व्यक्ति को उसके परिजनों द्वारा दी जाने वाली यह सीख है कि कहीं भी अनजान जगह पर बैठते हुए सतर्कता जरूरी है, बैठने के स्थान को पांव मार कर जांच लेना जरूरी है, रास्ते में मिलने वाली पराई स्त्री से बचकर रहना चाहिए, पहरे की वक्त कोई लापरवाही नहीं हो, काम के समय क्रोध को रोक कर सही अंजाम तक पहुंचना चाहिए। यह नीतिपूर्ण बात किसी भी व्यक्ति को लोकव्यवहार की अनायास ही शिक्षा दे जाती है। कुछ ऐसी भी परिस्थितियां आती हैं, जहां बड़े से बड़े नुकसान को सहन करके आगे के जीवन को संभालने-सहेजने की आवश्यकता पड़ती है। राजस्थानी लोकजीवन में विनोद-विनोद में ऐसी असंभव बात कहकर यह उपदेश दे दिया जाता है। इन बातों मेें नीति के मूल अभिप्राय बुद्धिव्यवहार सहित चित्रित रहते हैं। दो उदाहरण देखिए-
जाट कहे सुण जाटणी, ईं गांव में रहणोे।
ऊंट बिलाई ले गई, हां जी हां जी कहणो।।
किसान के ऊंट की चोरी पर बुलाई गई पंचायत में पंच परमेष्वरों से निर्णय सुनाया कि किसान के ऊंट की किसी ने चोरी नहीं की बल्कि इसके ऊंट को तो बिल्ली ले गई। कितनी असंभव, बेतुकी और पीड़ादायक बात है लेकिन किसान अपनी दुखी पत्नी को धीरज रखकर आगे के जीवन की सरसता का जुगाड़ करता है। इसी तरह सोने के कीड़ा लगने तथा बच्चे को चील द्वारा उठा लेने की बात है-
करता रै संग कीजिए, सुण रै राजा भील।
सोनै रै घुण लागग्यो, छौरो लेगी चील।।
लोकसाहित्य का एक अहम हिस्सा लोक कहावतें हैं, जो कि जनता के दैनंदिन व्यवहार में प्रयुक्त होने वाले सारगर्भित एवं शोधपरक छोटे-छोटे कथन हैं। इनमें जीवन की तीक्ष्ण आलोचना देखने को मिलती है।
ये कहावतें ज्ञानीजनों की उक्तियों का निरूपण है। इन्हें व्यावहारिक जीवन के लिए माढ़दर्शक वचन कहें तो भी उपयुक्त ही होगा। स्थानीय स्तर पर घटित घटनाओं, परिवेश में उपलब्ध रीति-नीतियों को लेकर कैसे सारपूर्ण वाक्य हैं, बिना किसी व्याख्या के सारे माजरे को खोल कर रख देते हैं। कतिपय उदाहरण देखिए-
- ठाकरां खळ खावौ ? कै आ ही गंडकां कनै सूं छुड़ाई है।
- ठाकरां ठाडा किसाक ? कै कमजोर रा तो बैरी ही पड्या हां।
- चैधरी टांडै किया है ? कै सांड हां। तो पछै छेरा कियां करै ? कै नेट नै गऊ रा जाया हां।
- सीतळा माता घोड़ो देई। अरे मूर्ख मैं तो खुद ही गधै चढूं।
- मकोड़ो बोल्यो मां गुड़ री भेली ल्याऊं ! मां कैयो बेटो कड़तू कांनी देख।
- बोल्यो निकासी नै घोड़ो चाईजै। कै भाईड़ा घिरतो लेज्याई।
- सेठां के गोता ? बोल्या करणी पोता। पूछ्यो दस्सा का बीसा ? बोल्या ना दस्सा ना बीसा, करस्यां चळू’र देस्यां तेतीसा।
सहज, सरल और सामान्य सी लगने वाली बातों में क्या जीवन की सच्चाई और सार है। इससे ना राजा बचा ना रंक। इनकी खासियत यह भी है कि से राजा, ठाकुर, चौधरी, सेठ, बारठजी या ऐसे ही सामान्य से कुछ अपने आपको बड़ा समझने वाले लोगों को सम्बोधित करके कहे गए हैं। संस्कृति का एक-एक मूल्य कितना सहजता से इन उक्तियों के माध्यम से परिलक्षित होता है।
लोकसाहित्य की खासीयत यह है कि इसका कोई व्यक्ति-विशेष रचयित नहीं होता या यूं कहें कि भले ही कोई व्यक्ति विशेष के मुंह से कही हुई बात ही क्यों ना हो लोक का हिस्सा बनकर वह व्यष्टि से समष्टि का अंग बन जाती है। यही कारण है कि लोक साहित्य में कृत्रिमता के लिए कोई जगह नहीं होती। व्यक्ति हो या समूह यदि किसी कार्य के साथ उसका नाम जुड़ रहता है तो उस व्यक्ति या समूह विशेष की अच्छाइयां और कमियां दोनों उस कार्य में झलकते ही हैं लेकिन लोकसाहित्य इस बाध्यता से देर है क्योकि लोकसाहित्य पर किसी व्यक्ति विशेष का व्यक्तिगत अधिकार नहीं होता वरन वह सभी व्यक्तियों का सामूहिक प्रतिनिधि है। संस्कृति की भी यही पहचान है, वह व्यक्ति या समूह विशेष की नहीं बल्कि जन सामान्य की परिचायक होती है। सांस्कृतिक मूल्यों के सामने व्यक्तिगत अहं या बड़े-छोटे के भाव का कोई महत्त्व नहीं रहता। ये मूल्य राजा तथा रंक सभी के लिए सहज स्वीकार्य होते हैं। यही कारण है कि हम लोकसाहित्य को राजस्थानी संस्कृति का प्राण तत्त्व कहते हैं। लोकसाहित्य के अंग स्वरूप लोकगीत, लोककथा, लोकवार्ता, लोकमान्यताएं, कहावतें, लोकोक्तियां, पहेलियां तथा नीति और लोकव्यवहार से संबंधित संवाद साहित्य राजस्थानी संस्कृति के अभिन्न तथा नियामक अंग हैं। ये जन-जन के कंठ से उद्भूत होकर पीढ़ी दर पीढ़ी को सदुपदेश देते हैं। राजस्थान के जनजीवन की ये अभिव्यक्तियां उसकी सच्ची आत्मा है। राजस्थान और लोकवाङ्मय का संष्लिष्ट वर्णन इतिहास की शोभा है।
निष्कर्षतः गरबीले राजस्थान की गरबीली रीति-नीतियों एवं प्रीति-प्रतितियों को जानना-समझना हो तो यहां की लोकसंस्कृति, लोकसाहित्य एवं लोकमानस को समझना होगा। अस्तु।
संदर्भ:
01. डाॅ. विक्रमसिंह राठौड़: राजस्थान का सांस्कृतिक इतिहास, पृ. 03
02. पी.सरीन: भारतीय सभ्यता और संस्कृति की रूपरेखा, पृ. 02
03. पंडित रामनरेष त्रिपाठी: कविता कौमुदी, पांचवां भाग
04. श्री नानूराम संस्कर्ता: राजस्थानी लोकसाहित्य, पृ.सं. 11
05. लाखीणा लोकगीत: पुष्पादेवी सैनी, पृ. 38
06. श्री नानूराम संस्कर्ता: राजस्थानी लोकसाहित्य, 101
~~डाॅ. गजादान चारण ‘शक्तिसुत’
विभागाध्यक्ष एवं सहायक आचार्य- हिन्दी विभाग
राजकीय बाँगड़ महाविद्यालय, डीडवाना राजस्थान।