राजस्थानी लोक मानस में गाँधी

राजस्थानी लोक जीवन में एक लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि ‘‘ज्यांरी सोभा जगत में, वांरो जीवण धन्न’’ अर्थात इस संसार में उन्हीं लोगों का जीवन धन्य माना जाता है, जिनकी सुकृति की शोभा लोकजिह्वा पर विराजमान रहती है। इस दृष्टि से विचार किया जाए तो विगत एक सदी में लोककंठ पर किसी एक व्यक्ति की सर्वाधिक शोभा विराजमान रही है तो वह नाम है- श्री मोहनदास कर्मचंद गाँधी। राष्ट्रपिता के विरुद से विभूषित महान व्यक्तित्व के धनी महात्मा गाँधी अपनी रहनी-कहनी की एकरूपता, उदात्त जीवन-दृष्टि, मानवीय मूल्यों के प्रति दृढ़ निष्ठा, सत्य में अडिग विश्वास, आत्मबल की पराकाष्ठा, राष्ट्र के प्रति अनुराग, वक्त की नजाकत को पहचानने के कौशल, अन्याय के प्रबल प्रतिकार और अहिंसा के सबल समर्थन इत्यादि वैयक्तिक विशिष्टताओं के कारण भारतीय लोकमानस पर अपनी अमिट छाप छोड़ने में साफल्यमंडित हुए। राजस्थानी लोकमानस भी इसका अपवाद नहीं है। राजस्थानी लोकमानस तो उत्कृष्ट के अभिनन्दन एवं निकृष्ट के निंदन के लिए अपनी विलग पहचान रखता है, यही कारण है कि यहां ऐसा माना जाता है कि ‘‘नर होत बडो अपनी करनी, पितु वंस बडो तो कहा करिए’’ अर्थात किसी व्यक्ति की महत्ता का कारण उसकी जाति या वंश परंपरा नहीं होती वरन उसकी स्वयं की ‘करनी’ ही उसे महान बनाती है। महात्मा गाँधी ने जो कुछ कहा, वो किया। इसी का परिणाम है कि उनकी सुकृति-सुरभि को राजस्थानी भाषा के अनेक कवियों ने अपनी रचनाओं का आधार बनाकर अपनी लेखनी को धन्य किया और यह क्रम आज भी जारी है। राजस्थानी लोकमानस के उम्दा गायक एवं डिंगल काव्य परंपरा के सबल संवाहक कवि देवकरण बारहठ ‘इंदोकली’ ने तो महात्मा गाँधी के राष्ट्रानुराग को श्रीकृष्ण के राष्ट्र-प्रेम से जोड़ते हुए लिखा कि ‘‘श्री कृष्ण एवं महात्मा गाँधी दोनों की रग-रग में राष्ट्रानुराग था, दोनों ने ही विभिन्न प्रदेशों में पैदल भ्रमण किया और जन-मन पर अपनी अनुपम छवि स्थापित की। श्रीकृष्ण अर्जुन के सखा थे तो महात्मा गाँधी हरिजनों के परम हितचिंतक’’-
राष्ट्र-प्रेम रग रग रमै, पग पग भमै प्रदेस।
सो थे अरजन के सखा, वे थे हरजन वेस।।
कवि नाथूसिंह महियारिया ने भी महात्मा गाँधी के योगदान को श्रीराम एवं श्री कृष्ण के योगदान की तरह भारतवासियों के लिए वरदान ही माना है। उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ ‘गाँधी-शतक’ के समाहार में यह कामना व्यक्त की कि वह शुभ दिन कब आएगा, जब हम भारत के मंदिरों में राम एवं कृष्ण के मध्य गाँधी की प्रतिमा को स्थापित कर सकेंगे-
कद देखांला मिंदरां, कद जोड़ांला हत्थ।
रांम कृष्ण रै बीच में, गाँधी री मूरत्त।।
राजस्थानी लोकमानस में कृतघ्नता को कलंक माना गया है और कृतज्ञता को मानवीय स्वभाव का आभूषण। इसी पावन प्रवृत्ति से प्रभावित होकर राजस्थानी कवियों ने अपने-अपने ढंग से भारतीय आजादी के अग्रदूत राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की है। यहां कृतज्ञतापूर्ण भावाभिव्यक्तियों की एक समृद्ध एवं सुदीर्घ शृंखला है। राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के मनीषी विद्वान श्री उदयराज उज्ज्वल ने संबोधन शैली की रचना ‘भांनिया रा सोरठा’ में गाँधी का स्मरण करते हुए लिखा कि ‘‘स्वतंत्रता रूपी सीता भारत भूमि से सुदूर समुद्र पार चली गई थी, उसे अपने तपोबल से महात्मा गाँधी ही पुनः भारत में लेकर आए’’, ऐसी हूतात्मा को वंदन करते हुए कवि का यह सोरठा द्रष्टव्य है-
पूगी समदां पार, सीता समो स्वतंत्रता।
तप बळ गाँधी तार, भारत लायो भांनिया।।
राजस्थानी कवि भँवरदान बारहठ ‘मधुकर’ झिणकली ने ‘गुणसबदी’ छंद में महात्मा गाँधी के भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम में योगदान को बड़े विनोदपूर्ण ढंग से चित्रित किया है। उन्होंने गाँधी को एक जादूगर एवं भारत माता का ज्येष्ठ पुत्र बताते हुए कहा कि मोहिनी मंत्र की सिद्धि प्राप्त श्री मोहनदास कर्मचंद गाँधी ने ऐसा शंखनाद किया, जिसको सुनकर पहली बार भारत के हिंदू, मुस्लिम, इसाई आदि सब धर्मावलंबी एकमत हो गए। ‘वोट’ रूपी गोली की सटीक चोट से बड़े-बड़े कोट-कीले कंपायमान हो गए और सभी राजा एवं नवाब अपने उच्चासन छोड़कर बापू के पास सामान्य लोगों की पंक्ति में आ बैठे। इसी तरह की उपमाओं के साथ यह सात स्टेंजों का बड़ा छंद है, जिसकी बानगी उद्धरण रूप में प्रस्तुत है-
मोहनी मंत्र फूंकियो मोहन, वाजिया संख विसेस।
पंडित मुल्ला पादरी सारा, हंमकै हूवा हेक।
गाँधीड़ो कामणगारो रे, मोभीड़ो हिंद माता रो रे!
भूंपड़ियां मदसार झमंती, कांपिया किल्ला कोट।
तूटण लागी भुरजां तीखी, वाजिया गोळा वोट।
गाँधीड़ो कामणगारो रे, मोभीड़ो हिंद माता रो रे!
वस्तुतः महात्मा गाँधी ने अपने जीवन में जिन आदर्शों को व्यावहारिक धरातल पर व्यवहृत किया, वह अपने आपमें अनुपम है। अहिंसा के अस्त्र वाला यह अद्वितीय योद्धा युग-युग के यौद्धाओं का आदर्श बन गया। कवि कल्याणसिंह राजावत की ये पंक्तियां कितनी सटीक हैं-
जियो जमारो जस री जोतां, जग में कर्यो उजास रे।
जुग जुग रा जोधा रै खातर, खुद बणग्यो इतिहास रे।।
कवि अतुल कनक तो सुखद आश्चर्य व्यक्त करते हुए स्वयं गाँधी से ही पूछते हैं कि हे बापू! तुम मनुष्य थे या सूरज, जो कि अकेला ही काली-अंधेरी रात्रि से भिड़ पड़ा और आजादी का उजाला निकाल लाया-
तूं मनख छो/ कै सूरज छो
जे अेकलो ही आंथड़ग्यो/ काळम्यां की/अंध्यारी रात सूं।।
यह किसी आश्चर्य से कम बात कहां है कि ‘दे दी आजादी हमें बिना खड़ग बिना ढाल’ के नायक एवं खाली ‘हांड-मांस के एक पुतले’ ने अंग्रेजी सत्ता के सूर्य को अस्त कर दिया। दो खारक की खुराक खाने एवं बकरी का दूध पीने वाले डगमगते डोकरे ने बड़ी से बड़ी ताकत वालों को झुकने पर विवश कर दिया। अल्पाहारी एवं कृशकाय गाँधी की वैश्विक साख एवं धाक पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए लिखे गए राजस्थानी कवियों श्री बदरीदान कविया बासणी एवं ठा. नाहरसिंह आउवा के दो उल्लेखनीय दोहे क्रमशः देखिए-
खारक दोय खुराक री, अजया दूध आहार।
डोकरियो डिगतो वहै, सह धूजै संसार।।
पय अजिया रो पाव ले, चाहत खारक च्यार।
डोकरियो डिगतो वहै, सह धूजै संसार।।
कवि जसकरण सूमलियाई ने एक डिंगल गीत के माध्यम से गाँधी के योगदान को रेखांकित किया। इस गीत का एक दुहाला विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिसमें कवि ने लिखा कि भूखे एवं दुखी भारतवासियों के परतंत्रता रूपी तालों को तोड़कर चरखा घुमाने वाले गाँधी ने सारा ब्रह्मांड हिला डाला-
भूखी दुखी दीन भारत रा, तूटा व्यापक ताळा।
घरटी ज्यूं ब्रहमंड घुमायो, वाह अरटियै वाळा।।
राजस्थानी इतिहास के गौरव चरित्रों को अपनी रचनाओं मे माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने वाले ‘सैनाणी’ रचना के कवि श्री मेघराज मुकुल ने अपनी एक कविता में गाँधी को लोकरंग में सृजन का सच्चा प्रतीक, युगवाणी का ज्योति-रूप एवं सटीक अक्षर बताया-
लोकरंग में सिरजण रो तूं, साचो है प्रतीक ओ गाँधी।
जुगबांणी रो ज्योति रूप तूं, अक्षर है सटीक ओ गाँधी।।
राजस्थानी साहित्य में किसी युग-पुरुष, महानायक, प्रियजन या प्रेरक व्यक्त्त्वि के निधन पर शोकसंतप्त कवि-हृदयों द्वारा ‘मरसिया’ काव्य सृजन की समृद्ध परंपरा रही है, जिसमें कवियों द्वारा दिवंगत व्यक्ति के व्यक्तित्व की विशेषताओं का बखान करने के साथ ही उसके विरह में देश-समाज सहित संपूर्ण परिवेश में छाई विरानी का मार्मिक चित्रण किया जाता है। सहृदय कवि अपनी लोकमान्यताओं एवं विश्वासों के आधार पर तरह-तरह की कल्पनाएं करते हुए अपने चरित्र नायक के गुण एवं सुयश का गान करता है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का दुखद निधन किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को आहत करने वाला था, फिर संवेदनसिक्त कवि-मन उससे आहत हुए बिना कैसे रह सकते थे? देश एवं विदेश में भी महात्मा गाँधी के देहावसान पर अनेक रचनाकारों ने अपनी भावांजलियां भेंट की, उसी कड़ी में राजस्थानी भाषा के साहित्यकारों द्वारा लिखित ‘मरसिए’ अत्यंत मार्मिक हैं। कवि डूंगरसिंह भाटी विरचित एक कवित्त यहां उद्धृत करना समीचीन जान पड़ता है, जिसमें कवि ने लिखा कि महात्मा गाँधी की मृत्यु से अनाथों की संपत्ति, सनाथों की सुमति, सनातन की नीति, सुधर्म की महिमा, अधर्म की निंदा, कुकर्म की भत्र्सना, अहिंसा की विशेषता और प्रतिहिंसा के प्रति घृणा इत्यादि का एक साथ अंत हो गया। बापू के आत्मशांति में विलीन होने से भारत में शांति के अथाह समुद्र की मर्यादित पाज जीर्णशीर्ण हो गई-
संपति अनाथन की सुमति सुनाथन की, सुनीति सनातन की जु हाय आज ऊठिगी।
महिमा सुधर्म की रु निंदा अधर्म की जु, भत्र्सना कुकर्म की सु हाय आज खूटिगी।
विशेषता अहिंसा की हिंसा की अशेषता जु, घृणा प्रतिहिंसा की सु हाय अब छूटिगी।
बापू आत्मशांति ते, अशांति हुई भारत में, शांतिरस सागर की पाज हाय फूटिगी।।
महात्मा गाँधी की मौत को राजस्थानी कवियों ने देश का दुर्भाग्य माना। ऐसे अनेक रचनाकार हैं, जिनकी कलमों ने इस जघन्य मौत पर खून के आंसूं रोए हैं। महात्मा गाँधी ऐसे विरले व्यक्ति थे, जिनकी मृत्यु पर हिंदू-मुस्लिम सहित सब लोग एक साथ विसादग्रस्त हो गए। कवि कन्हैयालाल सेठिया विरचित ये पंक्तियां कितनी मर्मभरी हैं-
ओ मिनख मर्यो क मर्यो पाखी/सै साथै नाड़ कियां नाखी।
बा सिर कूटै है हिंदवाणी/ बा झुर-झुर रोवै तुरकाणी।
इसड़ो कुण सजन सनेही हो/ सगळां रा हिवड़ा डगमगग्या।
बै कुण गमग्या, बै कुण गमग्या।।
राजस्थानी के वरिष्ठ रचनाकार श्री नानूराम संस्कर्ता ने तो अलख को उलाहना लिखते हुए कहा कि हे ईश! आपने हमें असमय पर अनाथ क्यों कर दिया?-
बिलखी सृष्टि है बाप बिना/रोवै डस डस टाबर हीना
हे अलख अजोग बखत बगस्यो/ अणसमै अनाथ कियां कीना?।।
जनकवि रेवतदान चारण ‘कल्पित’ ने तो भगवान को उलाहना देते हुए लिखा कि हे ईश्वर! यदि तुम्हारे मन में फूल तोड़ने की आई तो फिर ‘कमल’ तोड़ लेते; यदि रूप चाहिए था तो पूनम का चंद्रमा ले लेते; यदि ज्योति की इच्छा थी तो सूर्य मांग लेते; यदि इंसान ही चाहिए था तो किसी राजा को मांग लेते। कवि कहता है कि हे दुर्देव! आप गाँधी के बदले जो भी मांगते, हमारी भारत माता आपको वो-वो सब कुछ दे देती और उस पीड़ा को सहन कर लेती लेकिन आपने गाँधी को लेकर बड़ा अन्याय किया। आज हमारी भारत माता की बिलखती-रोती सूरत तुम से सवाल करती है-
हुती जे फूल री मन में, कमल नैं तोड़ लेणो हो
हुती जे रूप री मन में, पूनम रो चांद लेणो हो
हुती जे जोत री मन में, सूरज नैं मांग लेणो हो
हुती जे मिनख री मन में, तो कोई भूप लेणो हो
अरे इण अेक रै बदळै, अलेखां दान दे देती।
गांधी जे जीवतो रहतो, हिया री पीड़ सह लेती।
परीक्षा लेय नै भगवन, अजे तूं देख लै म्हारी।
बिलखणी रोवणी सूरत, हुई है आज माता री।।
राजस्थानी लोक में कवि आसा बारहठ की एक पंक्ति लोकोक्ति के रूप में प्रचलित है कि ‘‘साजनियां सालै नहीं सालै आहीठांण’’ अर्थात व्यक्ति को उसका बिछुड़ा हुआ प्रिय उतना दर्द नहीं देता, जितना दर्द बिछुड़े हुए प्रिय से जुड़ी घटनाएं, उसके गुणों की चर्चा एवं उससे संबंधित स्थान देते हैं। महात्मा गाँधी के विषय में भी यही सत्य उद्घाटित होता रहा है। जब जब देश-समाज में अशांति हुई है, किसी अच्छे व्यक्ति का साया इस देश से उठा है या सत्य, अहिंसा, शांति, नीति, मर्यादा एवं सदाचार में कमी होती दृष्टिगोचर हुई है, तब-तब राजस्थानी कवियों ने अपने चरित्र-नायक महात्मा गाँधी को याद किया है। कवियों ने गांधी को अपने मन की पीड़ा, शंका एवं आशंका बताने के साथ ही उनके प्रति अपने अपनत्व भाव को व्यक्त करते हुए राय-परामर्श तक भी दिए हैं। जहां कवियों का एक वर्ग गाँधी से भारत भूमि पर पुनर्जन्म की अपेक्षा करता रहा है तो दूसरा वर्ग गाँधी को आगाह करते हुए कहता रहा है कि हे बापू! भूल कर भी इस भारत में फिर से मत आना। राजस्थानी के मीठे गीतकार कवि कानदान कल्पित ने एक लंबा गीत महात्मा गाँधी के नाम लिखकर कहा कि ‘‘म्हांकी मानो तो गाँधीजी, भारत में भूल’र मत आज्यो/ म्हे तो मर मर कर जीवां हां, थांकी के हालत है लिखज्यो’’ तो प्रगतिशील कवि श्याम महर्षि ने भी गाँधीजी को संबोधित करते हुए कहा कि ‘‘गाँधीजी थे पाछा मत आइज्यो/ जे आओला तो दुख पाओला/अब थारी बात न जनता सुणैली/ अर न सुणैला नेता’। कवि सूर्यशंकर पारीक ने तो आजाद हिंदुस्तान के बिगड़ते हालातों पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए अंतस-पीड़ के साथ से लिखा कि ‘‘अच्छा हुआ जो राष्ट्रपिता का सही समय पर निर्वाण होग गया अन्यथा यहां की न्याय-नीति से संबंधित व्यवस्थाओं एवं लोगों के व्यवहार से बापू को बेहद निराशा होती-
सोनै रो सूरज ऊग्यो थे, समझो बापू निरवाण हुवो।
नीं देख न्याय सासन रोतो, बो भलो बाप बापू मुवो।।
गीतकार मोहम्मद सद्दीक ने समाज मेें व्याप्त विसंगतियों एवं विद्रूपताओं को संकेतित करने हेतु प्रतीक रूप में लिखा कि ‘‘फुटपाथां रा फोड़ा देखो, गांधीजी रै देस में/सुख रा सपना देख्यां जाओ, भरोसाळा भेस में’’। गाँधी के व्याज से ऐसी ही अनेक सारगर्भित एवं सटीक पंक्तियां रचकर राजस्थानी कवियों ने देश के वर्तमान हालातों पर चिंता व्यक्त की है। गाँधीजी के सपनों का भारत आज किस दिशा में जा रहा है तथा किस दशा को प्राप्त होने को अभिशप्त हुआ है, उसका उल्लेख करती रचनाएं भी राजस्थानी साहित्य में अनेक हैं। कवि पवन पहाड़िया ‘डेह’ तो मानते हैं कि इन हालातों के सुधार हेतु गाँधी को भारत में पुनर्जन्म लेना होगा और एक बार फिर हमारे लिए गोलियां खानी पड़ेगी-
आं लखणां मरस्यो मिट जास्यो/अर देस घिरैलो आँधी में।
फेरूं गोळ्यां खाणी पड़सी, इण देस महात्मा गाँधी नैं।।
कवि बंशीधर दर्जी भी यही मानते हैं कि-‘‘पथ पांतर्योड़ै मिनख नैं/मारग बतावण सारू/मानव कल्याण सारू/लेणो पड़सी पुनरजलम’’ तो कवि लालसिंह बारहठ तो करुणा निधान भगवान से अपने भारत की दुर्दशा सा हवाला देते हुए एक बार गाँधी-अवतार लेने हेतु आग्रह करता है-
करुणा निधान यही विनय हमारी आज, सदा सुखकारी नेक श्रवण सु दीजिए।
आओ अरे आओ ओ पढाओ हमें शांति पाठ, देय के भुलाओ हमें छोड़ मत दीजिए।
देस ये तुम्हारो अहो दीन दुखी भारी भयो, और ना सहारो यों किनारो मत कीजिए।
गाँधी अवतार इस भारत मंझार नाथ, अे रे करतार अेक बार फेर लीजिए।।
राजस्थानी कवि अक्षयसिंह रतनू ने लालबहादुर शास्त्री के निधन के समय शोकविह्वल भारतीय जनमानस की स्थिति देखते हुए शा़स्त्रीजी की दिवंगत आत्मा से आग्रह किया कि हे शास्त्रीजी! यह देश आपके नेतृत्व में फिर से कुछ करवट लेने लगा था लेकिन आपने इसका मझधार में साथ छोड़ दिया जबकि इस देश को आपकी सख्त आवश्यकता है। कवि ने आगे कहा कि हे शास्त्रीजी! या तो आप वापस आएं और अगर ऐसा नहीं हो सकता तो कुछ ऐसी व्यवस्था बिठाओ कि इस भारत में फिर से महात्मा गाँधी आ जाए-
आ सको न खुद थे अगर तो, दूजी जुगत सहेज दो।
थे लाल बहादुर इण थळै, भळै महात्मा भेज दो।।
सुधी समालोचक डाॅ. दीनदयाल ओझा ने महात्मा गाँधी को सत्य, अहिंसा, नीति एवं धर्म का रूंख बताते हुए लिखा कि यह ऐसा पेड़ है, जो अपनी सौरभ को बिखेरता है तथा दुर्गंध को मिटाता है। यह वृक्ष मनुष्य में मनुष्यता का भाव भरते हुए, सत्य को अपने जीवन का संगी बनाकर सत के अवतार के रूप में इस धरा पर प्रकट हुआ है-‘‘माणस में मानखै री भावना भर/साच नैं जीवण संगी बणाय’र/साच रो अवतार हुय/धरा प्रगट्यो। ’’ ‘वरदा’ पत्रिका के संपादक एवं कवि उदयवीर शर्मा ने तो महात्मा गाँधी को युग-पुरुष की संज्ञा देते हुए नमस्कार किया और लिखा कि ‘‘हे बापू! आपकी वाणी में संसार अभिव्यक्त हुआ है तो आपकी कर्मशीलता में सत्य के सागर ने स्थान पाया है। आपने पिछड़ों को उठाने एवं अहंकारी मुकुटों को भूतल पर गिराने का यशस्वी कार्य किया है अतः हे युग-मानव आपको बारम्बार नमस्कार-
थारी वाणी में जग बोल्यो, थारै करमां में सत-सागर।
पिछड़्यां ने बेगो तूं ठाया, मुकुटां नैं ल्या गेर्या भू पर।
हे जुग-मानव मन-बळ अपार, हे जुग थरपणियां नमस्कार।
राजस्थानी साहित्य में शूरवीरों, संतों, लोकदेवताओं, महापुरुषों तथा साधारण व्यक्तियों के असाधारण सुकृत्यों को रेखांकित करते हुए उनके प्रति कृतज्ञता जाहिर करने हेतु ‘रंग देने की’ यानी लखदाद देने की परंपरा रही है। डिंगल कवि रायभाण सिंढायच ने गाँधीजी को रंग देते हुए कतिपय दोहों की रचना की, जिनमें कवि ने सौ से आरंभ करके हजार, लाख, करोड़, अरब, खरब, नील, पदम और अंत में असंख्य रंग दिए हैं, जो कि अपने आपमें विलक्षण एवं अत्यंत उल्लेखनीय प्रयोग है। कतिपय दोहे देखिए-
सहियो कष्ट सरीर में, दूर कियो दुख देस।
इणसूं गाँधी आपनै, हरदम रंग हमेस।।
गाढ छोड़गा गोरिया, जिकां कियो नहं जंग।
इणसूं गाँधी आपनै, सौ सौ रंग सुरंग।।
द्रिस्टी हेकण देखिया, सब मानव संसार।
इणसूं गाँधी आपनै, है रंग बार हजार।।
गुण वधियो मोहन गजब, पूगै गरुड़ न पंख।
इणसूं गाँधी आपनै, आखां रंग असंख।।
यह सनातन सत्य है कि इस संसार में जो आया है, उसे जाना ही पड़ेगा। यह संसार तो व्यक्ति के यश एवं अपयश को ही स्मृति में रखता है। राजस्थानी लोकजीवन में यश को जीवन एवं अपयश को मृत्यु माना गया है। महात्मा गाँधी ऐसे महापुरुष हुए, जिन्होंने अपने जीवन में अनंत यश कमाया। यही कारण है कि राजस्थानी कवियों ने महात्मा गाँधी की सहिष्णुता, धैर्य, स्वदेश-प्रेम, आत्म-विश्वास, समदृष्टि, सत्याग्रह, पंचशील आदि विशिष्ट गुणों को आधार बना कर उन्हें कहीं युग पुरुष, कहीं महापुरुष तो कहीं कलियुग का राम कहकर संबोधित किया है। कवि वेदव्यास की ये पंक्तियां द्रष्टव्य है, जिसमें वे गाँधी को कलियुग का राम बताते हैं-‘‘मिनखां रा मेळा में, गाँधी रो नाम/ भारत में जलम लियो, कळजुग रो राम।’’ इसी शृंखला में कवि विश्वनाथ ‘विमलेश’ बापू को संबोधित करते हुए कहते हैं कि ‘‘बापू तैं जोत जळाई बा जुग जुग तक जळती रैसी/मानवता का म्हैल बणैगा, दानवता का खंडहर रैसी। ’’ कवि रामेश्वर दयाल श्रीमाली ने गाँधी को नीडर, सत्याग्रही एवं परोपकारी संत बताते हुए कहा कि उन्होंने सदैव सत्य-बाड़ी की रखवाली की और कीर्ति एवं सुयश की फसल अंवेरी, उन्होंने कभी कुर्सी को प्रेय नहीं बनाया-
साच नैं कैवतां संत नहं डरपियो, कूड़ रै लार नित धूड़ वाळी।
रुखाळी थे सदा सत-मोती वाड़ियां, कीरत जस जीत, कुरसी न रुखाळी।
कवि गिरधारीसिंह परिहार ने गाँधी को भारत के नर-नारी सभी हेतु श्रद्धेय बताते हुए नेह-रूपी नारायण, निर्बलों का सहारा एवं भारत माता की आँखों का तारा बताया है-
वो संत लंगोटी वाळो हो, चाल्यो बळतै अंगारां में।
जिण करमजोग रो महामंत्र, फूंक्यो खादी रै तारां में।
वो नेह रूप नारायण हो, निबळां रो घणो सहारो हो।
धरती री आँख्यां रो तारो, भारत माता रो प्यारो हो।।
राजस्थानी जनमानस पुनर्जन्म तथा कर्मफल में विश्वास करने वाला होने के कारण यहां यह मान्यता है कि व्यक्ति की कीर्ति कभी मरती नहीं है-‘सुयस नहं मरै सैकड़ां साल’। इसी लोकविश्वास को पुष्ट करती कवि लक्ष्मणदान कविया की रचना ‘गाँधी गुणतीसी’ के समापन का यह दोहा समीचीन है-
अमर रहैली आपरी, दुनी कीरती दीह।
कथवी लक्ष्मणदान कवि, गाँधी गुणतीसीह।।
इसी बात की प्रतिपुष्टि करते हुए कवि कान्ह महर्षि तो यहां तक कहते हैं कि ‘‘वे लोग मिथ्याभाषण कर रहें हैं, जो कहते हैं कि गाँधी मर गया। वस्तुतः गाँधी तो युग-युगान्तर तक लोकमानस में जिंदा रहेंगे-
बै कूड़ा है जो गाँधी नैं, धरती पर कायम नहं मानै।
बै साव हळाहळ झूठा है, जो गाँधी नैं मरियो जाणै।।
कविमंचों के सशक्त हस्ताक्षर लक्ष्मणसिंह रसवंत तो यहां तक मानते हैं कि गाँधी तो जहां भी रहेंगे, वहां भारत-भूमि का गौरवगान ही करेंगे। यहां तक कि वे स्वर्ग में भी भारत की कीर्ति का ही गान कर रहे हैं-
मोहन सत्त अहिंसा सागै, बिंदरावन में बीण बजावै।
सुख सांयत रा बाजा बाजै, भारत माँ री कीरत गावै।।
राजस्थानी जनमानस के रग-रग में जिन जीवनमूल्यों, आदर्शों एवं नीति-नियमों ने गहरी पैठ बनाई है, उन्हीं जीवनमूल्यों, आदर्शों एवं नीति-नियमों को महात्मा गाँधी के जीवन में व्यावहारिक रूप से प्रयुक्त होते देखकर ही लोक-चित्त ने गाँधी को अपना श्रद्धेय स्वीकार किया है। चूंकि कवि तो समै का कैमरा होता है अतः जनमानस की सच्चाई को अपनी रचनाओं के माध्यम से स्वर देना ही सच्चा कवि-कत्र्तव्य है। आज लोकमानस को इस बात की पीड़ा है कि लोगों ने गाँधी को अपनी स्वार्थपूर्ति का ‘टूल’ बना लिया है अतः गाहे-बगाहे गाँधी का नाम लेकर अपना उल्लू सीधा करना आम बात हो गई है। इस आलेख के लेखक ने राष्ट्रपिता को इस सच्चाई से अवगत कराने हेतु अपनी काव्य रचना के माध्यम से बताया कि है कि ‘‘हे बापू! आज दुनिया एवं उसकी रीति-नीतियों में बहुत बदलाव आ गया है। यहां सारे लोग आपका नाम तो लेते हैं लेकिन आदर देने के लिए नहीं वरन उद्धरण देकर अपनी बात को पुष्ट करने मात्र के लिए आपको उपयोग में लिया जाता है। आज लोग या तो आपकी वंदना करते हैं या निंदा करते हैं लेकिन आपका जिक्र एवं फिक्र अवश्य ही होता है-
सारा नाम तिहारो लेवै। आदर नहीं उद्धरण देवै।
मत ना बुरो मानजे बापू! जदै कदै कानां सुण लेवै।
वंदै या निंदै पण पक्को, फिकरो जिकरो थारो बापू।
बदळ्यो टेम बदळगी दुनियां, बदळ गयो है धारो बापू।।
आधुनिक डिंगल कवि डाॅ. शक्तिदान कविया ने महात्मा गाँधी के प्रति श्रद्धासुमन अर्पणार्थ उनके समग्र योगदान को वयणसगाई युक्त दोहों में वर्णित करते हुए सत्य, अहिंसा एवं सादगी को गाँधी का शृंगार बताया है। कवि ने गाँधी को मानवता का महात्मा, दीन-प्रतिपालक, भारत का शुभचिंतक, गुणवंत आदि श्रद्धाजनक संज्ञाओं से अभिहित किया है। कवि का मानना है कि गाँधी ने आजादी की ओट में जनमानस को यह ज्ञान दिया कि छोटों की उपेक्षा करने पर बड़ों के मान-सम्मान में कभी वृद्धि नहीं हो सकती। कवि ने महात्मा गाँधी की अनेक शिक्षाओं को सरस दोहों में गूंथा है, कतिपय दोहे देखिए-
सत्य अहिंसा सादगी, गाँधी रौ सिणगार।
मिनखपणै सूं म्हातमा, सब पूजै संसार।।
छोटां नैं छिटकावियां, मोटां बधै न मान।
आजादी री ओट में, (ओ) गाँधी दीनौ ज्ञान।।
दीन हीन ऊपर दया, सदा करी वड संत।
भारत शुभचिंतक भलौ, गाँधी हौ गुणवंत।।
सवचेत रहणौ सदा, निज करतब में नेक।
सफळ होण रौ मंत्र शुभ, बडपण तणौ विवेक।।
मिळसी गामां मांयनैं, असली भारत ओप।
करसां री सेवा करण, बापू दीनौ बोध।।
राजस्थानी भाषा में ‘वीर सतसई’ जैसी ओजस्वी रचना का सृजन करने वाले प्रत्युत्पनमतित्व के धनी नाथूसिंह महियारिया ने ‘गाँधी शतक’ नाम से ग्रंथ में इस बात को स्वीकार किया कि गाँधी का व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व इतना महान एवं विशद है कि उसका समग्र वर्णन कर पाना किसी के वश का सौदा नहीं है। कवि महियारिया ने तो यहां तक कहा कि वो ही क्या? यदि आज वाल्मीकि, वेदव्यास एवं तुलसी जैसे विद्वान भी होते और गाँधी पर लिखते तो वे भी गाँधी को पूर्ण रूपेण वर्णित नहीं कर पाते-
वाल्मीक तुलसी हुता, वेद व्यास विद्वान।
तो भी कर सकता नहीं, गाँधी रो गुणगान।।
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि महात्मा गाँधी ने सादगी, सच्चाई एवं कथनी-करनी की समानता के बल पर लोकमानस में अपना अमिट स्थान बनाया है। आज हम गाँधी का 150 वां जयन्ती वर्ष मना रहे हैं। गाँधी को संसार के गए सात दशक हो चुके लेकिन गाँधी हमारे मनःमानस में निवास करते हैं। आज भी जितना गाँधी पर लिखा एवं बोला जा रहा है, उतना अन्य पर नहीं। राजस्थानी रचनाकारों ने भी इस दृष्टि से अपना बहुमूल्य योगदान दिया है। गाँधी की आत्मकथा तथा गाँधी दर्शन से जुड़ी विभिन्न कृतियों के अनुवाद की बात हो या गाँधी को केंद्र में रख कर लिखे जाने वाले साहित्य की बात हो, हर दृष्टि से राजस्थानी रचनाकारों ने सराहनीय कार्य किया है एवं कर रहे हैं। हाँ! कवियों को यह चिंता अवश्य है कि धरती कभी निर्बीज नहीं हो सकती अतः भारत-भू पर समय-समय में अनेक महापुरुषों को अवतरण तो होता रहेगा लेकिन कवि कैळासदान उज्ज्वल के शब्दों में कहूं तो गाँधी जैसा कोई महापुरुष फिर से मिलना मुश्किल है-
जुग जुग भळै सपूत जलमसी, नहं रैवै धरती निरबीज।
मुसकल है गाँधी मोहन सम, चोखी फेर पावणी चीज।।
राजस्थानी लोकमानस को अपनी काव्य रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त करने वाले विगत सात दशकों के ज्ञात राजस्थानी रचनाकारों की संख्या लगभग 100 से अधिक है। चूंकि हर अनुसंधित्सु की अपनी अन्वेषण-सीमाएं होती है अतः संभव है कि यह संख्या और अधिक हो। इस विषय पर विद्या वाचस्पति उपाधि हेतु शोध प्रबंध लिखा जा सकता है। एक आलेख की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए अंत में हर भारतवासी को कवि देवकर्णजी बारहठ इंदोकली की वाणी में यह आग्रह करते हुए इस आलेख का समापन करता हूं कि ‘‘हे भारतवासियो! महात्मा गाँधी भारत के सच्चे हितचिंतक थे अतः समय के उस महान संत एवं देवी किस्तूरा के कंत की उपादेयता एवं उपकार को कभी विस्मृत मत करना-
भारत हितचिंतक भयो, साच समै रो संत।
भारतियां मत भूलजो, किसतूरां रो कंत।।
~~डाॅ. गजादान चारण ‘शक्तिसुत’
ईमेल-shaktisut@gmail. com