परिचय: राजकवि खेतदान दोलाजी मीसण – प्रेषित: आवड़दान ऊमदान मीसण

चारण समाज में ऐसे कई नामी अनामी कवि, साहित्यकार तथा विभिन्न कलाओं के पारंगत महापुरुष हुए हैं जो अपने अथक परिश्रम और लगन के कारण विधा के पारंगत हुए लेकिन विपरीत संजोगो से उनके साहित्य और कला का प्रसार न हो पाने के कारण उन्हें जनमानस में उनकी काबिलियत के अनुरूप स्थान नहीं मिल पाया। अगर उनकी काव्य कला को समाज में पहुचने का संयोग बेठता तो वे आज काफी लोकप्रिय होते।
उनमे से एक खेतदान दोलाजी मीसण एक धुरंधर काव्य सृजक एवं विद्वान हो गए है।
खेतदानजी का जन्म देदलाई ता, नगर जिला थरपारकर (हाल – पाकिस्तान) में हुआ था।
अपने माता पिता की इकलोती संतान कवि खेतदानजी जब सिर्फ 10 साल के थे कि उनके पिताजी दोलाजी का निधन हो गया। घर का पुरा बोझ उनकी माता जानुबाई पर आ गया। विकट समय झेल रहे खेतदानजी को दूसरा झटका तब लगा जब एक साल बाद उनकी माता जो उनका पालन पोषण कर रही थी वो भी संसार से चल बसी।
केवल 11 वर्ष की उम्र जो आनंद की अवस्था होती है ओर जिम्मेदारी से मुक्त होती है, ऐसे में माता पिता दोनो की छत्र छाया गंवाने वाले बालक खेतदान पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा।
लेकिन इस जुझारू बालक ने हिम्मत नहीं हारी, आंसु पोंछकर खड़ा हुआ और कुछ ऐसा करने की कमर कसी जो उनको एक नयी ऊँचाई और पहचान दे सके। खेतदानजी ने निश्चय किया कि मुझे चारणत्व की पहचान यानि काव्य सृजक बनना है।
11साल की अवस्था मे पारकर के एक राजपुत का साथ लेकर वे भुज (कच्छ) की ओर निकल पड़े।
उस समय तत्कालीन कच्छ राज्य की राजधानी भुज में काव्य शास्त्र सिखाने की सर्वश्रेष्ठ संस्था थी ‘ब्रजभाषा पाठशाला’ जो ‘भुज की काव्यशाला’ के नाम से भी जानी जाती थी। महाराव लखपतजी द्वारा स्थापित इस विख्यात विद्या संकुल मे सीमित मात्रा मे ही विधार्थियों को प्रवेश मिलता था। गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश सहित पूरे भारतवर्ष से होनहार विद्यार्थी काव्य शास्त्र का अध्ययन करने इस पाठशाला में आया करते थे तथा यहाँ प्रवेश मिलने को अपना सौभाग्य समझते थे।
एक उच्च लक्ष्य के साथ भुज पहुंचे खेतदान को जब इस पाठशाला मे प्रवेश नहीं मिल पाया तो वे काफी हताश हो गए लेकिन उन्होने हिम्मत नही हारी। वे कुछ समय अपने मामा के गांव लोद्राणी रापर (कच्छ) रूके। उन दिनो ब्रजभाषा पाठशाला मे मुख्य शिक्षक धामाय (कच्छ) के हमीरदान जी खिड़ीया थे। खेतदानजी सीधे हमीरदानजी से मिले तथा उन्हें अपनी पूरी कहानी सुनाई।
खेतदानजी की बात एवं उनकी परिस्थिति पर गौर कर हमीरदानजी ने उनको भरोसा दिलाया कि वो खेंगारजी महाराव से बात करके प्रवेश क्वोटा मे एक स्थान बढाने की मांग करेंगे। इस प्रकार मुश्किलों का सामना करते हुए भुज मे कवि खेतदान को प्रवेश मिला।
सम्पूर्ण पिंगल कवि पद प्राप्त करने का 12 वर्ष का कोर्स होता था। खेतदानजी ने पूरी लगन और मेहनत से 12 वर्ष अभ्यास करके कवि पद प्राप्त किया। सम्पूर्ण पिंगल कवि पद बहुत ही कम कवियों को मिला था जिनमे से खेतदानजी एक थे जिन्होंने यह पद प्राप्त कर अपनी मेहनत को सही साबित किया।
कवि बनने के बाद दियोदर (बनासकांठा) वाघेला स्टेट मे राजकवि के रूप मे मान प्राप्त किया।
कवि खेतदानजी का विवाह गढड़ा देथा शाखा के चारणो मे हुआ। विवाह के उपरांत उन्होंने अपना सारा समय अपनी पेत्रक भूमि देदलाई (पाकिस्तान) मे रहकर गुजारा।
देदलाई रहते हुए उन्होने अनेक काव्यों, माताजी के छंद, चिरजाएं, ईश्वर के गुणगान एवं वीर-रस से भरपूर कई कृतियों का सृजन किया।
आज भी गुजरात मे जिन जिन कलाकारो के मुख पर उनकी कविताएं हैं वे गाते समय उनकी अनमोल कविताओं की भरपूर प्रशंसा करते है।
उन्होंने हजारो की संख्या मे कविताओं का सृजन किया किन्तु पिछड़े हुए ‘थरपारकर’ इलाके मे रहने के कारण उनके अनमोल सृजन को प्रसिद्धी नही मिल पाई। यदि उनका काव्य संग्रह आज प्रकाशित मिलता तो अच्छे साहित्य की प्राप्ति होती और उनकी मेहनत कारगर साबित होती।
उनके निधन के बाद उनका काव्य संग्रह मेरे पिताजी और खेतदानजी के बड़े पुत्र ऊमदानजी के पास रहा लेकिन 1971 के भारत पाक युद्ध के समय स्थलांतर होते वक्त उनका बहुमूल्य साहित्य वहीं पर छूट गया जिसका जिन्दगी भर मेरे पिताजी ऊमदानजी को भी अफसोस रहा।
उनके द्वारा सृजित जितने भी काव्य मुझे कंठस्थ है वो मै सभी बंधुओ के साथ बांटने का प्रयत्न करूंगा। उम्मीद है आप जरूर वाचा देंगे।
प्रस्तुत है उनके द्वारा रचित कुछ काव्य
इन्द्रबाई माताजी(खुड़द) का छंद
(75 साल पूर्व रचित)
।।दोहा।।
आद भवानी इश्वरी, जग जाहेर जगदंब।
समर्यां आवो सायजे, वड हथ करो विलंब।।
चंडी तारण चारणों, भोम उतारण भार।
देवी सागरदांन री, आई धर्यो अवतार।।
जगत पर्चा जबरा, रूपे करनल राय।
आवो बाई ईन्दरा, मरूधर री महमाय।।
।।छंद।।
(तो) मरंधराय महमाय, जोगमाय जब्बरा।
जठे जोधोंण नाथ ने, ओधार धार आपरा।
खमां खुड़द राय ने, अनेक रूप आपरा।
करां पुकार कांन धार, आव बेल ईन्दरा,
मां आवो साय ईन्दरा —————-(1)
डंडे घुमंड दाणवां, चोमंड रूप चोवड़ा।
प्रचंड खंड खंड मे, अखंड रूप आवड़ा।
महान चंड मुंड ने, विखंड नार वमरा।
करां पुकार कांन धार, आव बेल ईन्दरा
मां आवो साय ईन्दरा —————(2)
सजे सणगार सोळ सार, हार कंठ हिंडळे।
भळक चुड़ नंग भाळ, मेळ झुळ मंडळे।
भलो झळक भेळीयो, रतन रंग रंगरा।
करां पुकार कांन धार, आव बेल ईन्दरा।
मां आवो साय ईन्दरा ————(3)
घमंक वाज घूघरा, ठमंक नेव रंथरा।
दमंक जेम दोंमणी, धमंक पांव युं धरा।
वजे नगार वार वार, ढोल वाज धर्म रा।
करां पुकार कांन धार, आव बेल ईन्दरा।
मां आवो साय ईन्दरा ————(4)
तड़ा तड़ाक ताड़ियुं, कड़ाक वाज कंगणा।
डहक डाक डमरू, गहक राग हे घणा।
रमे केलाश रंग रास, हे प्रकाश हाजरा।
करां पुकार कांन धार, आव बेल ईन्दरा।
मां आवो साय ईन्दरा ————-(5)
हमें हिगोळ पुर हांम, तेज सुर क्रम हो।
तठे उमंग नाच तेथ, रीझ मात रम हो।
हिरा रतन ज्योत होत, दीप धुप डमरा।
करां पुकार कांन धार, आव बेल ईन्दरा।
मां आवो साय ईन्दरा —————(6)
बड़ो अचंभ बाहीयंग, रमाड़ रास रूगळी।
अरधंग कोढ मेट्या आई, राज काज रमळी।
परचा अखंड पार वार, वाट घाट वमरा।
करां पुकार कांन धार, आव बेल ईन्दरा।
मां आवो साय ईन्दरा ————-(7)
नरां नर्पाळ नेक पाळ, हाथ जोड़ हाजरी।
देवी दयाळ दुख टाळ, सुख भाळ सधरी।
संभाळ भाळ छोरुआं, ओधार धार आपरा।
करां पुकार कांन धार, आव बेल ईन्दरा।
मां आवो साय ईन्दरा ————–(8)
पड़ंत जाय माई पग, आय घाय उगरे।
नमे करग जोड़ नाग, देव हो डिगंम्बरे।
नरां नमंत प्रेम नेम, हो शक्त हाजरा।
करां पुकार कांन धार, आव बेल ईन्दरा।
मां आवो साय ईन्दरा ————-(9)
।।कळस छप्पय।।
ईन्दर बाई अवतार, मरूधर में महमाया।
आवो वाहर आज, शकत रूप सवाया।
अरीयों गोंजण एह, दास ओधारण देवी।
संकट मेटण साव, सुरनर जे नित सेवी।
तिण ठाम कोइ तारण तरण तके।
कर जोड़ दास “खेतो” कहे किरतार रूप करणी जके।।
।।करणी माता रो आवाहण गीत।।
।।गीत – साणोर।।
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अरज करुं सांभळे आव शगति अठे, गरज मुझ पडी छै एथ गाढी।
अठे मां आवजे रुप थुं आवडां, देवियाँ वडेरी देव दाढी॥1
जायबो प्रदेशां देशमां जेथमांदाखवां रक्षा कर तेथ देवी।
मनोरथ माहरां पुरण कर मावडी, सदेवां मेहासधू घणी सेवी॥2
थाण देशाण मैं थापणों थाहरो, माहरो वसीलो थुंज माता।
भीड कट सेवगाँ हवे थुंज भुजाळी, विशाळी जाणती सरव वातां॥3
डणकतो केहरि चढेने डाढाळी, चौजसुं स्हायता करे चंडी।
भळेऴे कुंडळा कान मै भवानी, झळेळे हार रो तेज झुंडी॥4
लोवडी शीश रे उपरां लखीजे, हाथ मह डम्मरु आव हाली।
झणंके बिछिया पांव मह झांझरा, वडाळी पांथुआं मात वाळी॥5
त्रिशूळां हाथ मै खडग थुं तोलती, बोलती हुंकारां होय बेली।
कंचुओ हिरामण जडेने कसेली, वसेली मरुधरां आव व्हेली॥6
धमरोळ धुंपडां जगाडे धजाळी, मायाळी भेळियो ओढ माथे।
वाजडा ढोल रणतूर थुं वजाडे, सजाडे जोगणी सरव साथे॥7
किलोळा हास किवळास मै करंती, फरंती फुंदडी चोज फेरां।
चोरासी चारणी नवेलख चंडियां, डारणां दहितां तणा डेरा॥8
सांवळां चरज्जां गावती शगत्ति, जगत्ति उपरां झुंड जामे।
अडेडे उडती वाट थुं अकाशां, सडेडे खेचरी सामसामे॥9
जोधपुर उदयपुर बीकाणा केतरा, मावडी थाहरा भुप ब्राजे।
केतरा करुं बाखाण तौ किन्याणी, आई किरत वधण घणी आजे॥10
वदे जो करनला नाम थारो वडो, भुतडा प्रेतडा जाय भागे।
धरे जो थाहरो रुप दिल कर, धडेलळे जग तेहरे पाय लागे॥11
एहडी वडी आई धरां उपरां, मो परां वीस हथ धरे माता।
धुरंधर काज मन करयां कर सिध्ध जे, उराजे अमां पर विघन आतां॥12
दाणवां केतरा दुरजनां दळे थुं, कडे कर माहरां सुकज केता।
आशरो इळा पर आपरो अंबिका, जोराळी मेटजो दोष जेता॥13
भूचरी सेवगां सद्दगा भाळ तुं, वेग आधार तुं गढवाड़ा।
जाहरां चारणां घरे जन्म ले, पवाड़े साड़ा त्रण तार पाड़ा।।14।।
दोय कर जोड़ने खेतसी दाखवे, अरज थुं सांभळे आव अंबा।
मेहासधू चारणां फतह कर मावडी, लोवडी प्रसारे हाथ लंबा।15
।।करणी मां का छंद।।
।।दोहा।।
आप अजोनी ओपनी, माजी मरूधर मांय।
देवी धन देशनोक में, मेहासधु महमाय—–(1)
असरण सरणो आपरो, सेवग करणी साय।
चौसठ भेळी चोमणी, रमणी जंगल राय—–(2)
जग धरणी करणी जके, हरणी दुख हजार।
तारण तरणी त्रेगुणी, करणी जे कर वार—–(3)
।।छंद-रेणंकी।।
(तो) करनिय घर-घर मंगल करनिय, समरण वरणिय प्रात समे।
असरण सरणीय धरणीय उपर, गगने गवनिय पाप गमे।
वरण विसोतर वाहर करनीय, भरणीय संपत रिद्धि भरो।
करगर सुण मदद रेम कर, हर-हर संकट विघ्न हरो।
देवी हर-हर संकट विघ्न हरो——-(1)टेक
अळ पर अवतार लियण जग आवड़, सतियल देवल मात सरू।
निरमळ घण रूप लिया तें नवलख, गणपत माता तुं गवरी।
उत्पत करण अमर घर आइयल, दिन-दिन जोंमण दया करो।
करगर सुण मदद रेम कर, हर-हर संकट विघ्न हरो।।
देवी हर-हर संकट विघ्न हरो—–(2)
झट-पट अवतार लियण जग जोंमण, अलख निरंजन आद सति।
झट-झट प्रगट अमट झट आइयल, घण छट चौसठ अगर गति।
कट-कट घट पाप विकट कट करनी, दिन-दिन जोमण दया करो।
करगर सुण मदद रेम कर, हर-हर संकट विघ्न हरो———–(3)
उचरत मुख चार वेद घर अंबर, कर धर सेवग अभय किया।
रुम-झुम करतिय रतनाए कर-कर, लाखोंय नवलख रूप लिया।
उणतर सर मेर वसावण इन्दर, कविजन भल वाखोंण करो।
करगर सुण मदद रेम कर हर-हर संकट विघ्न हरो————(4)
झळळक अति चुड़ निरमळ मुख गंग जळ, कळा अकळ गेंतोळ किएं।
शशियल भव उजळ वदन सुकोमळ, लोवड़ीयाळीय रूप लिएं।
मरूधर सर देव प्रबळ कळ मणधर, छन-छन माजीय मां समरो।
करगर सुण मदद रेम कर, हर-हर संकट विघ्न हरो———-(5)
गणधर नव नाग सधंतर गणपत, सुरनर किन्नर जाप समें।
अगणित नित देव ओधारण अपसर, नरकत नारद प्रेम नमें
हरि-हर भ्रम प्रेम नमें सोय हरदम, धन-धन देवी ध्यान धरो।
करगर सुण मदद रेम कर हर-हर संकट विघ्न हरो———(6)
जळ-थळ सबळ वार कर जंगल, तन मन सरणो आप तणों।
अमरत भर वादळ करतुंय उपर, शक्तिय सेवक साद सुणों।
पर दुख भंजणी देवी परसुध, जग धर परचो हे जबरो।
करगर सुण मदद रेम कर, हर-हर संकट विघ्न हरो————(7)
तारण तरण भरण भय त्रिगुणी, भुवनंग पोषण तुं भरणी।
चोमंड वरण ओधारण चारण, कर-कर मंगल मां करणी।
सरणागत सरण देयण तुं शक्ति, कर धर मों पर दया करो।
करगर सुण मदद रेम कर, हर-हर संकट विघ्न हरो ———-(8)
।।कळस छप्पय।।
विघ्न हरो वड़ देव, सेवगां नित साद सुणंता।
साय करे सूरराय, धाय झट ध्यान धरंता।
आद शक्त अवतार, वार कर लाज वधारे।
मेहासधु महमाय, आपरा दास ओधारे।।
देशनोक राय सरणो देयण, रिझीयें मात भेळा रेयो।
कर जोड़ दास “खेतो” कहे, किरतार रूप करणी जके।।
कवि श्री खेतदानजी मीसण ने शनिदेव को रिझाने (प्रसन्न) के लिए एक स्तुति की रचना की थी जो यहाँ प्रस्तुत है।
।।शनिदेव की स्तुति।।
ओम आवाहन शनि उच्चारूं, धीरज ध्यान ह्रदय मे धारूं।
धनुष आकार मंडळ धरेयो, कोड घणे प्रिती भर करेयो।
दो आंगळ भर आसण दीनो, कर सिंहासन स्मरण किनो।
आदर कर-कर नाम उच्चारूं, साफ अंतर मंतर सारूं।
आसण है पछम दिसी उत्तम, प्रेम बिराजो तुम प्रुसोतम।
प्रबळ देव हो तुम पर सिद्धि, सर्वस कांम करो मम् सिद्धि।
केशर चंदन तिलक करिजे, उत्तम जळ स्नान धरिजे।
श्याम वस्त्र पेरेया धन सुन्दर, महा श्याम आभुषण मनहर।
श्याम फुल चड़ेया सर सोभे, लखिए श्याम मुगट सर लोभे।
कांने कुंडळ सांम किलोहळ, भलो सांम रंग है भळ हळ।
देश सोरठ को मालिक दीसे, जन्म देश सोरठ को ऐसे।
कुंभ मकर को मालिक कहिएं, ह्रदय देव शनिजी रहिएं।
तेल तल वाला है तेसे, जाको सांम धेन है जैसे।
दान लोहा का उसकुं दिजे, कोडे महिखी दानज कीजे।
चतुर वाहन बेले चड़ेया, धन धन शंकर रूपज धरेया।
भला धर्म का तुम हो भाई, छाया मात सदा सुखदाई।
बलिहारी सुरज के बेटा, मेरे गुरू सबे दुख मेटा।
कृपा दास पर साय करिजे, ध्याने कांने अरज धरिजे।
जग मे है शनिदेव जोरावर, पाया प्रबळ तुम ही पावर।
आयफत मेटी करिएं ओपर, मेया शनिजी करिएं मोपर।
रोग मिटावो ग्रह के राजा, करिएं सिद्ध हमारे काजा।
दुश्मन को तुम मार हटादे, कांम हमारा उत्तम करदे।
महा दयाळु शंकट मेटो, भला शनिजी आवे भेटो।
आओ दास की मीटे उदासी, पुरण हेत सदा प्रकाशी।
मेरे घरे रक्षा कर मेरी, लज्या वधारो सदा लंबेरी।
मुठ ध्रेठ का दुख मेटाड़ो, हरो मंत्र जंत्र हटाड़ो।
पालो भुत प्रेत पिशाचा, सदा बचावो हमको साचा।
डाकण साकण दुर करिजे, राजी ग्रह शनिच्छर रीजे।
जीन जोगणी सबही जावे, उसका शंकट नहिंजी आवे।
प्रेमे झेर पियाला पालो, चतुर शनिजी ओरा चालो।
राजा पत्सा रैयत रीजे, कांम शनिजी ऐसा कीजे।
हाकम का भय मेट हटावो, मेरी चिन्ता सबे मीटावो।
कीड़ा कांटा दुर करीजे, हड़केया पाले दुर हरीजे।
ताव तप मेटीजे तैसे, अंग व्याधि मेटो ऐसे।
काळ हटावो शांत करावो, ध्यान आवाहन शनि धरावो।
सुख संपत धन दीजे स्वामी, आनन्द मंगळ अंतरजामी।
अशुद्ध मिटावे शुद्ध कर लेवे, दाता शक्ति दिन दिन देवे।
हरदे मेरे धरो हुलाशा, प्रिते शान्ति करो प्रकाशा।
पुत सपुत वधे परिवारा, सुख हमको देखावो सारा।
दिन दिन मदद करिएं सुख दाता, गुण तेरा नित सेवक गाता।
संकट मेटी करो सहाय, अकाळ मृत्यु मेटीजे आय।
वडा हमारा मांन वधारो, सदा शनिजी कांम सुधारो।
वाटे घाटे वाहर करजो, देश प्रदेश वशीला देजो।
दशे दसा शान्ति कर दाता, अभय दान देयो अखेयाता।
रात दिवस शनि हाजर रहिएं, देतां सामा सादद दइएं।
दाता मीठा भोजन दीजे, केतां पल पल रक्षा कीजे।
आओ शनिजी दास ओधारो, प्रेम पियाला शनि पधारो।
बेल शनिजी आओ वरदाई, शनि दयाळु तमे सदाई।
ध्याने अर्ज ह्रदय मे धर्यो, कर शान्ति आवाहन कर्यो।
शान्ते शान्त रहो शनिजी, सहाय हमारी करो शनिजी।
प्रबळ देव शनिजी पुरा, जिस पर राजिपा होय जरूरा।
कवा न लागे उसकुं कोय, ह्रदय घणा राजिपा होय।
शनि देव है सेण हमारा, काज शनिजी करे हमारा।
ओम शनि कोई नांम उच्चारे, सदा शनिजी कांम सुधारे।
गुण शनि कोई नित ही गावे, प्रगट चार पदार्थ पावे।
प्रसन्न शांति थाय शनिच्छर, साचे मन जपे शनिच्छर।
शंकट समय साथ तुम्हारा, शनि बोलावुं नित सवारा।
दान शनिजी ऐसो दीनो, कवि “खेत”ने निर्भय कीनो।
।।कळस।।
शनि आवाहन सांभळे, नवे ग्रह शांति सनेम।
संकट मेटे सुख दीए, ते हरदो शीतळ हेम।।
दुश्मन गळेया देखतां, सज्जन वधेयो सनेह।
दुख मेटेया शनि देवजी, दर्शन प्रसन्न देह।।
कर जोड़ “खेत” वंदन करे, शिव ओम शनिजी सहाय।
धना गाम के गांगजी मालदे सोढा रा सोरठा
कुळ हुकळ कचारियां, रजवट भूपत राण।
सोभे गंग सुजाण, मणधर सोढो मालदे।।1।।
थाट कचेरी थाय, पाराकर पंचातिया।
सावज जेम सदाय, गांजै धन्ना गामियो।।2।।
छिलरिया छलकै घणा, जे जग केवत जाण।
छलकै नहीं सुजाण, मणधर गांगो मालदे।।3।।
डायो घणो देखाय, गुण नो भरयल गांगजी।
दूजो ना वै दाय, मणधर मळेयो मालदे।।4।।
मोटप लै घण मोल, कुळ दीवो कचेरिये।
बोलै जिभ्या बोल, गंगधारां जिम गांगजी।।5।।
जस रै कारण जेह, मांगण नै मीठो मळे।
मोरां वाळो मेह, (एम)गुणियल वाळो गांगजी।।6।।
हेते पूरे हाम, माँगण नै हंसतो मळे।
धरपत धना गाम, गढवां वसीलो गांगजी।।7।।
गांगो गाहड़मल्ल, छोगो जे छत्रवट तणो।
पाको रूड़ी पल्ल, मणधर सोढो मालदे।।8।।
गांगो गाहड़मल्ल, भलपण थी भरयो रहे।
पाको रूड़ी पल्ल, मणधर सोढो मालदे ।।9।।
अंजसे अमरकोट, रतोकोट अंजस रहयो।
मालाहर मन मोट, गढपण वखाणै गांगजी।।10।।
त्राटा डगे तमाम, (जेनी)पाड़ां न होय पताळां ।
धरपत धना गाम, गिरवर डगे न गांगजी।।11।
माता धन चहुवांण, वळे पिता धन वेरसी।
डाडो कुंभ दीवाण, जे घर जन्मयो गांगजी।।12।।
अकल जाण अनूप, गुण नो भरयल गांगजी।
रियाणां हंदो रूप, मणधर दीवो मालदे।।13।।
दीवो कुळ दातार, जस लोभी गांगो जकै।
जीवो घणी जमार, मणधर सोढो मालदे।।14।।
~~प्रेषित: आवड़दान ऊमदान मीसण
सोनलनगर ता, लखपत जि, कच्छ गुजरात
मो – 9687504163