स्नेह, संवेदना व सादगी का संगम रामदयालजी बीठू

सींथल गांव का नाम आते ही मेरे मनमें गर्व व गौरव की अनुभूति इसलिए नहीं होती कि वहां मेरे समुज्ज्वल मातृपक्ष की जड़ें जुड़ती हैं बल्कि इसलिए भी होती है कि इस धरती ने साहस, शौर्य, उदारता, भक्ति, के साथ ही मातृभूमि के प्रति अपनी अनुरक्ति का सुभग संदेश परभोम में भी गर्वोक्ति के साथ दिया है–

“लिखी सहर सींथल़ सूं आगै गांम कल़कतिये”

कविश्रेष्ठ बदनजी मीसण (हरणा) मरूधरा की इधकाई बताते हुए इस धरती को अन्य प्रदेशों से श्रेष्ठ मानते हैं। बदनजी मीसण के दोहे में समाहित विशेषताएं यथा साहस, सुकृत्य, सत्यबल, स्वविवेक, शर्म, सुधर्म, सुदृढ़ता जैसे सात सकारों का जीवंत उदाहरण है सींथल। यानी दोहा सीथल के ऊपर एकदम खरा उतरता है–

सत विवेक सुकृत सरम, साहस धरम समाज।
पर-धर में नह पावजै, ऐ मुरधर में आज।।

साहस के प्रतीक पुरूष लूणोजी व हणवंतसिंहजी ने अपनी इस कर्मभूमि को अपने त्याग व बलिदान से तीर्थ सदृश बना दिया-

रतनेस लही अपकीरत राजन,
वीरत रोहड़ तैंज वरी।
सच तीरथ रूप हुवो धर सींथल़,
कीरत खाटण बात करी।

धर्मध्वजा के वाहक हरिरामदासजी महाराजा की तपोस्थली। जिनके विषय में देवकरणजी ईंदोकली अपने एक गीत में लिखतें हैं–

छूत अछूत भेद रा छेदक,
एको करण तणा आधार।
निराकार पूजक नर निमति,
सींथल़ खेड़ापा साकार।।

डिंगल़ के दिग्गज कवियों में शुमार सत्तोजी बीठू, जिनका एक दोहा ही उन्हें लोकजीव्हा पर अमर कर गया–

फिट वीदां फिट कांधलां, जांगल़धर लेडांह।
दलपत हुड ज्यूं पकड़ियो, भाज गई भेडांह।।

इसी श्रृंखला में सीतारामजी बीठू, बखतावरजी मोतीसर, दूर्गादानजी मोतीसर, जसूदानजी नगाणी के साथ ही वर्तमान में विराजमान सुखदानजी मूल़ा सरस्वती साधकों की सुदीर्घ परंपरा के संवाहक माने जाते हैं।

“सींथल़ प्राचीन सांसण है।”
“बीकानेर के सांसणां रै विगत री बही”
महाराजा सूरसिंह के समय की में लिखा मिलता है–
“गांम सींहथल़ वीठू सांगट नै सांखलां रो कदीम सांसण”
यानी सींथल जांगलू के सांखला शासकों द्वारा सांगटजी मेहावत को प्रदत गांव है।

कहतें हैं कि गांव से दक्षिण में स्थित धोरा और उस धोरे की “गल़ाछ” में आई एक जाल़ के पास एक सिंह की थाहर थी। साहस के पर्याय सिंह का विश्रामस्थल होने के कारण इस गांव का नाम सिंहस्थल रखा गया जो कालांतर में मुख सुख के कारण सींथल हो गया। बखतावरजी मोतीसर अपना परिचय देते हुए लिखते हैं-

मृगपतथल़ बसिबो मुझी, सीप-सुवन सर साख।
तात नाम मद औसथा, द्रबदत बांधव दाख।।

इसी जाल़ के पास वीरभाणजी चावड़ा का थान है। वीरभाणजी अदम्य साहस के साथ रिपुदमन करते हुए इसी स्थान पर वीरगति को प्राप्त हुए थे। कौन थे?कहां के थे?इस स्थान से इनका क्या संबंध है?आदि बातें समय की थपेडों से कालकवलित हो गई लेकिन इस महान वीर के प्रति सींथल वासियों की श्रद्धा दिन प्रतिदिन बढ़ती गई।
वास्तव में ‘सींथलियों’ ने इस दोहे को सार्थकता प्रदान की है-

कोट खिसै देवल डिगै, व्रिख ईंधण हुय जाय।
जस रा आखर जेहिया, जातां जुगां न जाय।।

सांगटजी की गौरवशाली वंशपरम्परा में मूलराजजी, पीथोजी सारंगजी व लूणोजी हुए——

सुकवी संतां सूरमां, साहूकार सुथान।
सांसण सींथळ है सिरै, थळ धर राजस्थान।।
वंश वडो धर वीठवां, गोहड़ भो गुणियाण।
जिण घर धरमो जलमियो, महि धिन खाटण माण।।
धरमै रो बधियो धरम, भोम पसरियो भाग।
जांगल़पत गोपाल़ जो, उठनै करतो आघ।।
धरमावत मेहे धरा, कीरत ली कवराव।
सांगट देव हमीर सा, आसै जिसा सुजाव।।
मही हुवो घर मेह रै, सांगट वड सुभियाण।
सांसण दीनो सांखलां, सिरहर धरा सिंहाण।।
थाहर सिंघां री थल़ी, जाहर जगमें जाण।
नाम सिंहथल्ल़ जद निमल़, कियो प्रसिद्ध कवियाण।।
मूल़ो सारंग पीथलो, सूरो लूण सधीर।
सुवन च्यार घर सारखा, वड सांगट रा वीर।।
–सींथल-सुजस-गि.रतनू

सांगटजी के पुत्र पीथोजी, जिनकी संतति सींथल में ‘पीथा’ कहलाती है। इनमें समय समय पर कीर्ति पुरूष हुए हैं, जिन्होंने अपने सुकृत्यों के बूते सुयश सौरभ अर्जित की व कुलपरंपरा की कीर्तिपताका को धवल रखा। ऐसे ही श्रेष्ठ जनों में अखजी पीथा हुए। जो भैरवनाथ के उपासक थे। उनके द्वारा स्थापित थान आज भी पीथों के बास में अवस्थित है तथा इस बात का साक्षी है–

देखो रे मतवाल़ो भैरूं,
अखैराज संग आयो रे!!

इन्हीं के वंशज गोपीदानजी पीथा की यह बहुत ही प्रसिद्ध चिरजा है। जो अमुमन रात्रि-जागरणों में हमारे यहां गाई जाती है।
इन्हीं गोपीदानजी / गोपजी पीथा के घर रामदयालजी बीठू का जन्म हुआ।

गोपजी अपने समय के प्रसिद्ध चारणों में गिने जाते थे। काव्य व चारणाचार से प्रेम तथा तन-गिनायतों से आत्मीक भाव रखना इनकी आदत में शुमार था। गोपजी कवि थे। इनकी चिरजाएं लोकविश्रुत है।

गोपजी के पांच पुत्र हुए। उन्होंने पांचों में ही अपनापन, विनम्रता, शिष्टता तथा स्वाभिमान का बीजारोपण बालपन में ही कर दिया था। सही भी है कि- “ढाल़ै ज्यूं ढल़ जावसी, काचै घड़ै कुंभार।”

लेकिन जैसा कि मैंने देखा कि इनमें यह आदत भी थी और है कि-

तुम आवो डग हेक तो, हम आए डग्ग अट्ठ।
तुम हमसे करड़ै रहो, तो हम भी करड़ै लट्ठ।।

अपरिहार्य कारणों से गोपजी अपने अन्य पुत्रों में केवल संस्कार सीचन ही कर सके, शिक्षार्जन नहीं करवा सके, लेकिन रामदयालजी को उन्होंने पढ़ाया।

पढ़ाई के बाद रामदयालजी रेलवे में सेवारत हुए। पद भलेही छोटा था लेकिन उन्होंने अपने जुनून व जज्बे की बदौलत अग्रगामी रहने में कोई कसर नहीं छोड़ी–

मेरा जुनून मुझे किस गली में ले आया,
इक इन्किलाब मेरी जिंदगी में ले आया।।(शमीम साहब)

जैसा कि डॉ.शक्तिदानजी कविया ने लिखा है कि भलेही कितनी ही विपरीत हवाएं चले लेकिन भंवरा फूलों की सुंगधी का लोभ संवरण नहीं कर पाता-

गुण सुमनां सौरभ गहर, रुके न बाधक रीत।
भंवर पारखू भेटसी, पाल़ हिये री प्रीत।।

यानी जिसमें गुण होते हैं उनकी कद्र हर कोई स्वाभाविक रूप से करता है। जैसाकि अकबर इलाहाबादी ने कहा भी है-

कमी नहीं हैं कद्रदां की अकबर,
करे जो कोई कमाल पैदा।

रामदयालजी को भी गुणग्राही लोग मिले और उन्होंने, इन्हें रेलवे यूनियन में अपना नेतृत्व करने का भार सौंपा। यहां उन्होंने समर्पण, त्याग, निष्पक्षता व कर्तव्यपरायणता के साथ कार्य निष्पादित किया जिसके कारण उनकी कीर्ति यत्र-तत्र फैल गई–

हितकर जोड़ै हाथ, आयां रो आदर करै।
जलम्या जस री रात, साख भरै जग शंकरा।।

लेकिन यह उनकी मंजिल नहीं थी। उनकी मंजिल थी समाज सेवा।

समाज ने रामदयालजी को चारण छात्रावास बीकानेर के अधीक्षक का दायित्व दिया। जो उन्होंने एक दशक तक ईमानदारी, निष्ठा, व समर्पित भाव से उस दायित्व का निर्वहन किया। निर्वहन ही नहीं किया अपितु “वार्डन” शब्द को एक नई पहचान व शोहरत दी।

वैसे इस छात्रावास के कई वार्डन बने, बनेंगे लेकिन छात्रों तथा छात्रों के घरवालों के कलेजे में किसी ने स्थाई जगह बनाई है तो वो नाम हैं- दुर्गादानजी बीठू(मूल़ा) व रामदयालजी बीठू(पीथा) सींथल। इसका सहज कारण था कि उन दोनों मनीषियों ने छात्रों के साथ दिमाग से नहीं अपितु दिल से व्यवहार किया। स्वाभाविक है कि जो बात दिल से निकलती है वो ही दिल को स्पर्श करती है। इन दोनों महामनो ने समाज में अपने पद से नहीं अपितु सेवाभाव की बदौलत “वार्डन साहब” के नाम से सुयश अर्जित किया।

यह बात हम सहज रूप से जानते हैं कि समाज यों ही किसी को विभूति नहीं मानता। समाज उन्हें विभूति मानता हैं जिन्होंने वर्षों सामाजिक जीवनयापन किया और समाज हितेष्णा से सरोकार रखा। इस मापदंड पर रामदयालजी अपने समकालीन लोगों में अग्रगण्य थे। वे जानते थे कि बाती जलकर ही प्रकाश फैलाती है यथा-

सिर राखै सिर जात है, सिर काटै सिर होय।
जैसे बाते दीप की, कटै उजाला होय।।

यही नहीं वे अधीक्षक काल में हमारे समाज के विद्यार्थियों के लिए तो उन लोगों में से थे जो ऊपर से कठोर और हृदय में मा की ममता संजोए हुए थे। लंबे समय तक वे बीकानेर करनी चारण छात्रावास के अधीक्षक रहे। उनके वार्डन काल में मैं छात्रावास का छात्र रहा हूं। यह मेरे लिए गौरव का बिंदु है।

एक सामान्य परिवार के छात्र के प्रति उनकी संवेदनशीलता वरेण्य थीं। आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों के स्वाभिमान रक्षण व व्यवहारिकता दोनों में संतुलन बनाकर उन्हें सहज वातावरण देते थे। मैंं खुद उन छात्रों में से एक हूं। जो इन मामलों में उनका स्नेहभाजन रहा।

हर छात्र के साथ बहुत आत्मीय व्यवहार रखते थे। छात्र हित में उन्होंने अपना सर्वांगीण न्यौछावर कर दिया था। उनके मुख पर मैंने सदैव स्वाभिमान की खुमारी तथा सत्य का ओज देखा था। क्योंकि उन्होंने नियम बना लिया था कि–

हर भजणा हक बोलणा, कूड़ा नाय कवल्ल।
वांरा कदै न ऊतरै, आठूं पौर अमल्ल।।

उनमें कोई औपचारिकता नहीं थी। कोई दिखावा नहीं था। क्योंकि वे वीतरागी जो ठहरे। मैं कईबार सोचता हूं कि क्या भगमा धारण से ही कोई साधू अथवा संत बनता है अथवा अपने उदात्त मानवीय गुणों के आधार पर। अगर प्रथम अवधारणा सही है तो वे महात्मा नहीं अपितु सद्ग्रहस्थ थे लेकिन अगर दूसरी धारणा सही है तो वे एक पहुंचे हुए महात्मा थे। जो ये बात आत्मसात कर चुके थे कि-

छल छदम आद हरि ते अछावा है न,
करते कर्माना कर्म तैसा फल पाना है।

अतः सेवानिवृत्ति के बाद पूरा जीवन प्रकृति, पक्षी, व पशु प्रेम को समर्पित कर दिया था। उन्होंने अपने जीवन का यही ध्येय बना लिया था कि

मना रे विरछन की मत लेह।
जो कोई आवै पथर चलावै,
ताको ही फल़ देह।
बाढण वाल़ै सूं वैर नहीं है,
सींच्यां नहीं स्नेह।।

सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने अपनी कर्मस्थली “धोरै” को बना लिया था। वो धोरा जिसका अतीत अंजसजोग तो वर्तमान कलुषित हो चूका था। जहां भोम के धणी वीरभाणजी का गौरवमय थान वीरता का साखीधर था। इसी धोरा पर कभी नाथ संप्रदाय के योगी प्रेमनाथ ने भी अपनी यथाशक्ति तपस्या की थी। वो धोरा अपने अतीत की याद में खोया “निधणीका” होकर आंसू बहा रहा था। उस धोरे की धवल कीर्ति को पुनर्स्थापित करने हेतु रामदयालजी ने कमर कसी और इसे वीरान से चमन बना दिया था। इस कार्य में उनके अनन्य सहयोगी थे मेरे मातुल मुरलीदानजी।

मुरलीदानजी उनके अभिन्न मित्र थे। वय में रामदयालजी छोटे थे लेकिन पग में बड़े। दोनों में निश्छलता थी, अतीव प्रेम था। यह निश्छलता मैंने देखी है। जब मुरलीदानजी अंतिम श्वासें गिन रहे थे तब ये मिलने आए थे। देखते ही अवसाद से भर गए। उस समय उन्होंने कहा कि “भाणू ! अब तो जमानत पर श्वासें ले रहा हूं। कैसे आ रही है भाईड़ा समझ में नहीं आती। लागै कै म्हैं मुरल़ै रो सग नीं छोडूं। उस समय उनकी यह विनोदप्रियता ही थी लेकिन वे मृत्यु के अदृश्य भय से ऊपर उठ चुके थे। शमीम बीकानेरी के शब्दों में कहूं तो-

आते आते ही जीने का हुनर आएगा।
जाते जाते ही तो मरने की झिझक जाएगी।।

उनके मन से मृत्यु की झिझक जा चुकी थी। जो दिन शेष थे उन्हें वे विशेष बनाने में रातदिन लीन रहने लगे। वे धार चुके थे कि-

जगत रा सुजस नै जाप जगदीस रा,
समझिया जिकां दुइ बात साजी।।

20फरवरी 2018 को मेरे श्रद्धेय मामोसा मुरलीदानजी ने भौतिक देह को त्याग यश देह धारण की। उस समय उनकी स्मृति में कुछ पंक्तियां लिखी थी–

सज्जन को तो सज्जन, दुर्जन को भी सज्जन थो,
सर्व को हितैषी राण रोहड़ को पेख्यो थो।
स्वाभिमानी संग एहो निरभिमानी मरद,
दिल को दरद कबू नहीं भूल लेख्यो थो।
प्रीत हूं की रीत पढी नीत हूं को नींव मान,
सबन को मीत मूल़ै मुरल़ी को देख्यो थो।।
हीमत को कोट चोट सहतो मुस्कान सथ,
मातुल हमारो अहो खोट बिन बेख्यो थो।।

अणदू की कूख मैरदान को उजागर थो,
आगर-नेह मुरली बात सर्व जानी है।
जरणा-सागर नटनागर को उपासी वो,
लातो ना उदासी कबू बात जन मानी है।
दिल को उदार सदाचार हूं की मूरती थो,
नेकी हूं की नाव को सवार सब मानी है।
सींथल को वासी निवासी भयो बैंकूंठन को,
सुजस जाको आज भ्रातन की जबानी है।

मन हूं को मोट देख्यो खरचे की खान देख्यो,
हितू को हितैषी देख्यो लार जस चाह को।
मुरली बजैया भजैया मुरलीधरन को,
सभाव शिव मुरली लैण नाम वाह को।
बालन सबन हूं को काका वो तो भेद बिन,
चल्यो सदा राख टेक एक शुद्ध राह को।
बात सब जानी गीध मातुल हमारे अहो,
आनी नहीं कबू रिदै बीह एक आह को।।

साहित को प्रेमी थो नेमी नेह लाटण को थो,
कुल को गुमान अरूं उर हर गान थो।
बिनां पढै वो तो बात ख्यात को कहनहार,
साच हरि राच ऐसे ग्रंथन को भान थो।
मीतन को मीत जाको दिलजीत सदा वो तो,
ठगाए होत ठाकर रिदै दृढ ध्यान थो।
द्वेष नहीं, नहीं रखी किसी से कटुता कबू,
मातुल हमारो साच ऐसो मुरलीदान थो।।

संयोग देखिए चार माह बाद 20जून18 को वो क्रूर दिन भी आ गया जिसने हमारे से रामदयालजी को छीन लिया। आत्मीयजनों को दर्द देने वाली इस खबर को सुनकर मुझे मिर्जा गालिब के इंतकाल पर कही शायर अल्ताफ हुसैन हाली की पंक्तियां याद आ गई कि–

एक रोशन दिमाग था न रहा,
शहर में एक चिराग था न रहा।।

हमारे बीकानेर के कीर्तिशेष शायर शमीम बीकानेरी ने शायद इन जैसों के लिए ही ये पंक्तियां लिखी हो कि–

दर्दे इन्सानियत से जो थे आशना,
ऐसे इन्सान दुनिया से जाते रहे।।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि जो सुकून व संजीदगी से जीना जानते हैं वे लोग मरकर भी अमर होने का हुनर ईजाद करके ही जाते हैं। जो उन्हें सदैव अमरता प्रदान करते हैं। ऐसे लोग तो सूर्य के समान होते हैं जो इधर अस्त होते हैं तो उधर उदय हो जाते हैं और उधर अस्त होते हैं तो इधर उदय हो जाते हैं। किसी शायर ने कहा है कि-

जहां में अहले-ईमां सूर्ते खुर्शीद जीते हैं।
इधर डूबे उधर निकले, उधर डूबे इधर निकले।

आज वे हमारे बीच नहीं है, केवल उनकी स्मृतियां शेष हैं जो सदैव उनकी उपस्थिति का अहसास करवाती हुई कहती रहेगी कि-

मैं लौटने के इरादे से जा रहा हूं मगर,
सफर सफर है मेरा इंतजार मत करना।

लेकिन जब-जब जहां-जहां सामाजिक हितेष्णा के लिए सामाजिक जन जुड़ेंगे तो एक समर्पित व संवेदनाओं से लबरेज इंसान की कमी खटकती रहेगी। उस समय अपने अनुज आवड़दानजी जुढिया की स्मृति में रचित प्रभुदानजी लाल़स(जुढिया)का दोहा सटीक लगेगा-

जुड़सी भड़ जाडाह, जपसी कव कायब जठै।
गायड़ रा गाडाह, आसी चीतां आवड़ा।।

अंत में मैं उन महामना को मेरे शब्द सुमन अर्पित करते हुए वाणी को विराम देता हूं–

परम श्रद्धेय रामदयालजी वीठू सींथल रो गीत-जांगड़ो
आई इक खबर अचाणक खोटी,
ओढै अहर उदासी।
सींथल़ सहर सचींतो सारो,
‘राम’ गयो सुखरासी।।1

रामदयाल वडो हद रैंणव,
पातां रखतो प्रीती।
पीथाहरो लाटनै पंगी,
जगत तज्यो जस जीती।।2

गोपातणो गुणां रो गाडो,
आडो सबरै आतो।
बहियो तज सींथल़ वड-वाटां
नेही तजनै नातो।।3

भ्रातां भूप रूप भलपण रो
मंजलस रो हद मांझी।
तटकै मोह तोड़नै टुरियो,
ईहग करनै आंझी।।4

गुण री जा’झ वडो गोपाणी,
भुई सबरो भलचाऊ।
थिर मूरत सैणां मन थापै,
ग्यो अणमापै गाऊ।।5

ऊजल़ करम किया नित अवनी,
सोरम जिणरी सारै।
करड़ो-मिनख रखणियो किरको,
हिव बहियो इम हारै।।6

मरणो-जनम हाथ माधव रै,
है की नर रै हाथां।
अपणां तणी याद अंतस में,
बिल्कुल उमड़ै बातां।।7

जद-जद सैण जुड़ेला जाजम,
भाल़ सको भलभासी।
उणपुल़ राम मानजै अपणा,
याद तिहाल़ी आसी।।

~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी
प्राचीन राजस्थानी साहित्य संग्रह संस्थान, दासोड़ी, कोलायत, बीकानेर।

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