रंग रे दोहा रंग – रंग! फागण

रंगो की दुनिया का खेल ही निराला है। हर इक शख्श ने इसे होली का नाम दे डाला है। प्रकृति भी भला उससे कैसे अछुती रहती, डार डार और पात पात मनोहारी पुष्प बसंत में ऐसे लगते है मानो कोई रंगशाला है। बसंत को ऋतुराज कहा गया है। तो शृंगार रस को रसों का राजा कहा गया है। अगर मैं ब्रजभाषा के कवि “देव” के शब्दों में कहूं तो “बानि को सार बखान्यो सिंगार, सिंगार को सार किशोर किशोरी”। कहने का मतलब है कि रसों का सार शृंगार है और शृंगार का सार श्री कृष्ण और राधा रानी है। श्री कृष्ण भले ही श्याम वर्ण हो पर उनका भी एक नाम “रसराज” है। श्री कृष्ण और श्री राधा रानी की कल्पना मात्र से ही हम ब्रजमंडल की करीलकुंजों में खुद को खोया हुआ महसूस करते है। श्री कृष्ण और राधा रानी सदैव लीलालीन रहते है। वह रास, और होली, फगुवा आदि खेलते रहते है।

रँग फागण रँग राधिका, रंग कोटि रसराज।
रँग रँग कर दी कल्पना, रँग बरसे ब्रज आज।।
इस फागुन को रंग है, राधा रानी को रंग है और कोटिश:रंग रसराज श्रीकृष्ण को है जिनकी वजह से मन की कल्पनाओं में रंग भर दिया है। ब्रजमंडल में रस की झडी बरस रही है।

एक ब्रज भाषा के प्रसिद्ध कवि के शब्दों में कहूं तो “सखी कारी घटा बरसे बरसाने पे गोरी घटा नंदगाँव पे री”

बसंत में अगर प्रकृति सुसज्जित होकर अभिराम सौंदर्याभिमुख हो रंग बिरंगी फूलों के परिधान धारण करती है तो भला पामर मनुष्य की क्या बिसात?उसने इसको बसंतोत्सव या होली का नाम दे डाला और वह भी रंगो की दुनिया का हिस्सा बनने की चाहत रखता है।

आज हम होली के इस पावन पर्व पर दोहों का गुलाल एक दूजे पर मलकर होली खेलते है।

फागण औ घण फूटरो, पिचकारी पचरंग।
खेलत होली राधिका, सदा श्याम रे संग।।
फागुन बडा ही सुंदर है, पचरंगी पिचकारी है। राधा और कृष्ण संग संग होली हमेशा खेलते रहते है।

पिचकारी मारी खरी, दूलारी वृषभान।
मुरलीधर भींज्या मधुर, सुंदर श्याम सुजान।।

मुझे बरबस ही ब्रजभाषा के एक प्रसिद्ध कवि “दयाराम” के गुजराती पद का स्मरण हो आया है। जिस में राधा, कृष्ण को खुद से दूर रहने का निवेदन करती है। और कहती है कि हे कुंवर कन्हाई! आप मुझसे दूर रहिये आप को छूने पर मैं श्याम हो जाऊँगी।

“कान्ह कुंवर छो काल़ा अडतां हुं काल़ी थइ जाऊँ!”

कृष्ण फिर भी राधा से होली खेलने की जिद करते है और काली बनने पर राधा अपना गौर वर्ण वापिस कैसे प्राप्त कर सकेगी उसका तोड भी बताते है। दयाराम कृष्ण के मुख से कहलवाते है –

तुं मुजने अड़तां श्याम थइश, हुं तुजने अडतां गोरो।
फरी मल़तां रंग अदलाबदली, मुज मोरो तुज तोरो।।
कृष्ण कहते है “तुम मुझे छुओगी तो तुम नीलवर्ण की हो जाओगी और मैं गौर वर्ण का हो जाऊँगा। एक बार वापिस हम एक दूसरे को परस्पर मिलेंगे तब मेरा खुद का रंग मुझे वापस मिल जाएगा और आपका गौर वर्ण आप को।”

लाल, कसुंमल, जांबली, उडे रंग उछरंग।
खेले राधा श्याम खुब, रंग रे फागण रंग।।
लाल, कसुंबल और बैंगनी रंग उड रहा है और उत्सव और उल्लास मय वातावरण छाया हुआ है। राधा और कृष्ण होली खेल रहे है। हे फागुन तुझे लाख लाख रंग है।

कागद है वृषभानुजा, कलम श्याम मसि कान।
नवरँग नवरस नीपजै, अंतस रे बरसान।।
कागज गौर वर्ण राधारानी की तरह है और स्याही युक्त कलम श्री कृष्ण है। ह्रदय के बरसाना गाँव में नवरस रुपी नवरंग की निष्पत्ति होती रहती है।

कलम तणी पिचकार सूं, नवरस करे निचोड़।
कागद-राधा, कवित-रस, कवि श्याम दे छोड़।।
कलम की पिचकारी से नवरस निचोड़ कर कवि रूपी श्री कृष्ण कागज़ रूपी राधा पर कविता रूपी रंग डाल देता है।

तन रँग मन रँग रंग रँग, अँग अँग मोंय अनंग।
चँग मृदंग डफ बाजिया, रंग रे फागण रंग।।
तन रंग से सराबोर हो गया है, और मन भी रंग से सराबोर हो गया है, हर सू रंग ही रंग नज़रों में दिखाई जान पडता है। अंग अंग में अनंग(कामदेव)ने निवास कर दिया है। चंग, मृदंग और डफ बजने लगे है। फागुन को लाखों रंग है।

फागण आयो फूटरो, बजिया चंग मृदंग।
किंशुक री बिगसी कल़ी, सब जग रंग बिरंग।।
सुंदर फागुन का आगमन हो गया है। चंग, मृदंग बजने लगे है। पलाश पर किंशुक की कलियाँ विकसित हो उठी है। पूरा संसार रंग बिरंग हो गया है।

फागण फूल उछाल़तो, अलबेलो अणपार।
आयौ मन रा आंगणै, करै प्रेम मनुहार।।
रंग बिरंगे अपार फुलों को उछालता हुआ अलबेला फागुन मन के आंगन में आ गया है और प्रणय निवेदन कर रहा है।

होल़ी में झोल़ी भरे, रंगो री अणपार।
सह टोल़ी फागण सखी!, आयो आपण द्वार।।
होली में रंगो की अपार झोली लेकर अपने दोस्तों की टोली लेकर फागुन अपने द्वार पर दस्तक दे रहा है।

साजण तन भल रंग मत, पण मन रंग दो जोर।
तन रंग मिटसी झीलतां, मन रंग मेटण दोर।।
नायिका नायक से कहती है हे प्रियतम आप भले ही मेरे तन को मत रंगिये पर मन को अपने प्यार से जरूर रंग डालो। तन का रग तो स्नान करने के उपरांत मिट जाएगा पर मन अगर आपने स्नेह के रंग से रंग डाला फिर वह कोटि उपाय करने पर भी मिटने वाला नहीं है।

मन चुनरी मन भावणी, तन री रेशम कोर।
पिचकारी भर प्रेम री, ढोल़ो रे चितचोर।।
मन की मनभावन चुनरी पर तन रूपी रेशम की कोर लगी हुई है। अपनी प्रेमरूपी पिचकारी भरके हे चितचोर प्रियतम आप मुझपर रंग डालिये।

तो ठीक इससे विपरीत फागण में विरहिणी के मन के भाव जरा देखिये।

तन तो पिव मैं रंग लूं, मन रंगूं किण भाँत।
इण फागण आया नहीं, धणी करी घण घात।।
नायिका तन तो कैसे भी रंग लेगी पर मन बिना प्रियतम के कैसे रंग सकती है। अपने प्रियतम से उपालंभ देकर कहती है कि आप ने इस फागुन में परदेस से घर का रूख न कर कर मेरे साथ बडा छल किया है।

फागण इतरो फाट मत, फूल न मौ पर फेंक।
बिरहण धण री वेदना, समझ करे सुविवेक।।
बिरहणी को लगता है कि फागुन बौरा गया है। तो वह उससे उसकी मर्यादा में रहने का निवेदन करती है। और उसपर पुष्प न फेंकने का निवेदन करती है और विरहिणी के मन की वेदना को समझने हेतु निवेदन करती है।

फागण औ फाट्यौ घणौ, फाट्यां फिरतां फूल।
फाट्यौ बिरहण काल़जो, फाट्या चीर दुकूल।।
फागण बौरा गया है, सारे फूल भी बौरा गये है। बिरहिणी का कलेजा प्रियतम के विरह में फट गया है और उस के चीर दुकूल भी लंबे समय से बदलने के कारण जर्जरित होकर फट गये है। इस दोहे के चारों चरण में “फाटा” राजस्थानी शब्द का बडा ही सुंदर प्रयोग किया गया है।

फागण थूं घण फूटरो, मत कर मन्न गुमेज।
थूं रंगो रो राजवी, (तौ)मौ राजंद रंगरेज।।
हे फागुन में मानती हुं कि तुम बहुत ही सुंदर हो पर इस बात का अभिमान करना ठीक नहीं है। हां!तुम रंगो के राजा हो, पर मेरे प्रियतम भी रंगरेज है।

फिर फिर फागण आवतो, वल़ वल़ फेर वसंत।
फिर फिर होल़ी रंग री, साजण सुधि न लहंत।।
बसंत और फागन की बार बार पुनरावृत्ति होती रहती है। बार बार होली आती रहती है पर साजन है कि मुझे याद ही नहीं करते।

फागण आयो हे अली!, चित री बाजी चंग।
आज पिया बिन एकली, किण सूं खेलूं रंग।।
हे सखी फागुन का आगमन हो गया है। मेरे चित्त की चंग बजने लगी है। आज मैं प्रियतम के बिना अकेली बैठी हूं, अब किससे रंग खेलूं।

लेखण पिचकारी करे, कागद पर मसी धार।
नवरँग नवरस नीपजै, कविता रा अणपार।।
लेखिनी की पिचकारी कागज पर स्याही की धारा छोड रही है जिससे नवरस रूपी कविता के नवरंग की निष्पत्ति होती है।

कागद जिम मम काल़जो, कोरोमोरो साव।
पिचकारी लेखण पकड, लिख फागण रा भाव।।
मेरा कलेजा बिलकुल कोरे कागज की तरह अनछुआ है। हे प्रियतम इस में कलम रूपी पिचकारी से फागुन के कुछ भाव लिख डालो।

कलम तणी पिचकारियाँ, बिलकुल ई बेरंग।
जदलग इण में है नहीं, नवरस कविता रंग।।
कवियों की कलम रूपी पिचकारीयाँ बिलकुल ही बेरंग और बेजान है जब तलक इस में नवरस से भरी कविता का रंग न हो।

~~नरपत आसिया “वैतालिक”

डी-404, श्री धर सेन्च्युरी,
सीटी पल्स सिनेमा रोड,
बी ए पी एस गल्स स्कूल के पास,
रांदेसन, गांधीनगर, गुजरात।

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