राजस्थानी रो पैलो जनकवि रंगरेलो वीठू

राजस्थानी डिंगल़ काव्य धारा रो इतियास पढां तो आपांरै सामी मध्यकाल़ रै एक कवि रो नाम प्रमुख रूप सूं ऊभर र आवै बो है रंगरेला वीठू रो। रंगरेला वीठू री कोई खास ओल़खाण इतियास ग्रंथां में देखण नैं नीं मिल़ै। रंगरेला रो जनम सतरवैं सईकै में जैसल़मेर रै सांगड़ गांम में होयो। कवि रो मूल़ नाम वीरदास वीठू हो। काव्य रा कणूका कवि में परंपरी सूं ई हा। कवि री रचनावां घणकरीक कुजोग सूं काल़ कल़वित होयगी पण जिकी रचनावां लोक रसना माथै अवस्थित रैयी, उणनैं पढियां वीरदास रो जनवादी कवि सरूप आपांरै सामी आवै।
जिण बगत सत्ता सूं शंकतै लोगां री जबान नैं सीयाकंपी छूटती उण बगत इण निशंक कवि खरी अर खारी कैयी। जेड़ो कै किणी कवि कैयो है ‘हूं तो देखूं जेड़ी दाखूं, हूं तो कूड़ रति ना भाखूं। ‘ री गत कवि वीरदास आपरी बात कैयी। कवि आपरी जनमभोम रै वासियां री जेड़ी गत देखी, बैड़़ी आपरी कविता में वरणी। आर्थिक विषमता, विद्रूप सामाजिक व्यवस्था, प्रकृति री उदासीनता, विकट भौगोलिक स्थिति अर कूड़ी धजा फरूकाय मूंछ ऊंची राखणियां सूं जद कवि रो सैंमूंडै मिल़ण होयो तो कवि री दीठ में उणां रै चेप्योड़ा माल़ीपाना उतरग्या। जद कवि आपरी जनमभोम री जात्रा करण निकल़ियो तो उण देख्यो कै आम आदमी कांई, !अठै तो सत्ता ई आर्थिक विषमतावां सूं जूझ रैयी है!कवि देखियो कै देवता तो दिन तोड़ै अर भगतां नैं परचा भावै!कवि बिनां किणी शंकै कैयो-
अवल भूख ऊंडै सूं ऊठी।
पुनी भेलाणी दीनी पूठी!
फिरती दहै कराड़ै फेरा।
देवीकोट भूख रा डेरा!
कवि खुद अंगेजै कै जिण राती रिड़ री धरती माथै कराल़ काल़ रो कहर हमेस रैवै, जठै थोर जेड़ो मधम रूंख ईज पनपै, जिणरै बेडूंखां में दोडा ईज बोलता सुणीजै तो पछै उठै रा सासक किणरै माथै राता माता होवैला ?-
मदासर पाखै धोल़ा माल़।
दुरब्बल़ भाटी देस दुकाल़।
राति रिड़ थोहर मध्धम रूंख।
बिचोबिच बोलत दोड बेडूंख।
जिण धरती में मोरियां रो कलरव नीं, जठै स्याल़िया कूकता सुणीजै, जठै सेहां अर गोहां रो जोर है अर जठै पीवणियै नागां रो थिर वासो है उठै रै मानखै री पांति में सिवाय दुख रै कोई दूजी चीज नीं है-
मुलक्क मंझारन बोलै मोर।
अहेनिस जंबक कूकत और।
जरक्का सेहां गोहां जोर।
चौड़ै जिण भोम अही थिर चोर।।
कवि संवेदनशीलता जद दूणी हो जावै जद उठै रो मानखो काल़ री मार सूं जूझतो दिन तोड़ण री जुगत में बा जागा देखतो फिरै जठै संवल़ाई सूं भुरट लाधै ताकि उण रा बीज कबाड़ काल़ नैं कूट र काढियो जा सकै !जद आपां ऐ ओल़्यां पढां तो सहज रूप सूं कवि री उठै रै मानखै रै साथै गहरी संवेदना दीठगत होवै। कवि बिनां किणी लाग लपट रै कैवै कै बापड़ो साधारण आदमी तो अन्न री जुगत में फिरै तो इणमें कोई इजरज री बात नीं है, क्यूं कै उठै तो धरती रा धणी ई अनाज री जुगत में फिर रैया है –
कड़क्कैय जोर पड़ै नित काल़।
भमै बिन नाज घणा भूहपाल़।
हुंचेरांय तालर आवत हेर।
म्है दीठाय जादम जैसलमेर।।
इण कविता री लोगां जैसलमेर महारावल़ हरराजजी नैं शिकायत करी। दरबार ई कविता रा खरा अर खारा आखर सुण रीस में भाभड़ाभूत होयग्या हा पण हाथोहाथ कीं करणो ठीक नीं समझ्यो। कवि धाट धरा रो ई सजीव वर्णन कियो है। आगै ताल़ाबां सूं पाणी ढोवती लुगायां अर मा नै घरै उडीकतै अर विलखतै टाबरां रो कवि कारूणिक वर्णन कियो है –
पदम्मण पाणिय लैण प्रभात।
रुल़ंतीय आवत आधी रात।
विलखाय टाबर जोवै वाट
धिनो धर धाट धिनो धर धाट।।
कवि जिकी बात लिखी है उणरै एक एक आखर में संवेदना अर करुणा झलक रैयी है। धाट री लुगाई आपरै धणी नै पूछ रैयी है कै “म्हारो कांई दोष है, जिको गांम सूं ढाई कोस आगै कुए सूं म्है पाणी लावूं अर लारै भूखां मरता म्हारा टाबर रोवता रैवै” –
कहै कंथ कामण कैड़ो दोस।
कुए सोंय गांम अढाइय कोस।
मरंताय बाल़ झिलै नहीं माठ।
धिनो धर धाट धिनो धर धाट।।
आज आपां जिकी स्त्री रै हकां अर इणरै पक्ष री बात करां उणनै लेयर सतरवैं सईकै रो कवि कितरो सचेत हो उपरली ओल़्या सूं सपाट निगै आवै।
जैड़ोक कैय दियो कै रंगरेलै री रग रग में आम आदमी री व्यथा नैं लेयर गहरी संवेदनशीलता ही। रंगरेलै वा ईज कैयी जिकी उणआंख्यां देखी। सुणी सुणाई कैवण में कवि रो विश्वास नीं हो। आजरा कवि जिण संचित वृत्ति नैं शोषण री प्रतीक मानर अबार बात करै वा रंगरेलै सतरवीं शदी में कैयदी ही। कवि लिखै कै जैसलमेर जैड़ै राज में एक गढ लारै तीन हजार तथाकथित साहूकार है जिकै फगत खांपण रै वौपार में ईज विश्वास राखै, क्यूँ कै कराल़ काल़ री मार सूं मरतै मानखै नै ढकण खातर आ तो जरूरी है-
हेकै गढ ऊपर तीन हजार।
कोड़ीधज सक्कज साहूकार।
दिनांय तेथ मरै दस्स दस्स।
विणजै खांपण ले सरवस्स।।
ऐड़ै में उण राज री आर्थिक विकट स्थिति रो सजीव वर्णन कवि कियो है। भलांई इणनैं केई लोगां कवि री कुंठित अभिव्यक्ति कैयर विगोवण री कोशिश करी है अर कैयो कै “रंगरेलै विष रेल़ियो, माडधरा मांह।” पण म्है इणनै कवि री निर्भीकता ई कैवूंलो कै उण, राज कै राजा रो जैड़ो हाल देखियो वो कैय दियो। दरबार में चिलमां रै धूंवै रा उठता गोट अर नसै में झेरां खावता सामंत जिण जाजम माथै बैठै उणनै ई लापरवाही सूं चिलम रै खीरां सूं जागा जागा सूं बाल़ देवै। सुभाविक है कै उण जाजम नैं बदल़ण री स्थिति राज री नीं ही। ऐड़ै में बगारां वाल़ी जाजम माथै ई दरबार जुड़णो सुभाविक हो। जिको राज जाजम नीं बदल़ सकै बो आपरा मरियल घोड़ा कीकर बदल़ेला! बिनां खेवटा घोड़ा बुगां सूं भरिज्योड़ा ई रैवैला –
बल़्योड़ीय जाजम मांय बगार।
जुड़ै जंह रावल़ रो दरबार।
घोड़ां ढिग लाख बुग्गांराय ढेर।
म्है दीठाय जादम जैसलमेर।।
कवि आम जन ई नीं अपितु सामंतां री दयनीय दशा रो दाखलो देतां लिखै कै –
भलांभल नूर उड्योड़ीय भूर
पल़ैटाय खाग पाखै घण पूर
फटोड़ोय धोतियो पोतियो फेर।
म्है दीठा जादम जैसलमेर।।
कवि जैसाण धरा री विकट भौगोलिक स्थिति नैं लेयर कितरी सही अर सटीक कैयी है कै इण धरा रो मारग घणो आंझो है। उठै हरेक रै जावणो बूथै सूं बारै है। उठै तो बो ई जा सकै जिण कनै काठ रा घोड़ा, लोह रा गाभा, भाठै रो शरीर होवै। एकै कानी आ बात जैसाण री घोर आलोचना लागै तो दूजै कानी आ बात इण धरा रै वासियां री जीवटता, सहनशीलता, अर आंडबरहीनता नै दरसावै। इणी खातर समकालीन आलोचकां आ कैवण में शंको नीं करियो कै “रंगरेलै रंग रेलिय़ो, माडधरा रै मांह।” कवि कैवै-
काठ तणा केकाण व्है, पिंड होवै पाखांण।
लोह तणा व्है लूगड़ा, जद पूगै जैसाण।।
इणी जैसाण धरा सूं लागती धाट धरती री जठै दूजै कवियां “धरा सुरंगी धाट।” कैयर बाखाण किया है उठै ई रंगरेलै अठै रै वासियां रै अभिशिप्त जीवण कानी उण कवियां रो ध्यान खांचियो है। कवि लिखै कै जठै गधां माथै लायर पाणी पीवै उणनै सराप्योड़ी धरती ई मानणो समीचीन रैसी-
अरोगै नीर गधां सिर आंण।
सरापस देस धरा सोढाण।
परक्खैय ऊंन बरोबर पाट।
धिनो धर धाट धिनो धर धाट।।
इणगत री कवितावां करतो कवि एक दिन जोग सूं जैसलमेर पूगो अर महारावल़ नैं कवितावां सुणाई। किंवदंती है कै उण कविता रो भाव ओ हो कै जिकी वुसतां शारदा, इंद्र, कुबेर अर धर्म कनै नीं है बै महारावल़ हरराज कनै है! उठै जैसलमेर रा कोई रतनू कवि बैठा, उणां रावल़जी नैं कैयो “हुकम! आ कविता इयां कैय रैयी है कै आपां रै अठै अज्ञान, अकाल़, दाल़िद अर अधर्म है !” आ सुणतां ई वीरदास नै कैद रो आदेश होयग्यो।
जद बीकानेर महाराजा रायसिंह हरराजजी री बेटी गंगाकंवरी सूं ब्याव करण (1649 फागण बदि2) गया उण बगत कैद कोठरी रै कनै सूं जान जाय रैयी अर ढोली गीत गाय रैया “रासो म्हांरो राठवड़, लाख वरीसणहार।” ओ गीत जद वीरदास सुणियो तो साथलै कैदियां नैं कैयो “डोफां! थोड़ो ऊ़चो करो तो आज सगल़ां नैं छोडावूं! साथलां कवि नैं आपरै कांधै चाढ ऊंचो कियो तो उण महाराजा रायसिंह नैं आपरी ओजस्वी वाणी में ओ गीत सुणायो –
आसा असपति गजपत जे रासा
छत्रै छिल़ंतो छाजै।
कोड़ां बगसणहार कलावत
लाख दियंतो लाजै।।
ज्यूं ई रायसिंहजी रै कानां ऐ आखर पड़िया, उणां सवारी रो गज रोकाय पूछियो कै ओ कुण है?अर अठै क्यूं?
साथलां पूरी बात बताई। दरबार चंवरी उतरियां तिणी रो दस्तूर कियो तो हरराजजी कैयो “मांगो जिको हाजर!”
दरबार कैयो “वीरदास”!
रावलजी कैयो “वीरदास नीं दूं, बाकी आप जिको मांगो !”
दरबार कैयो “तो ठीक है वीरदास म्हनै लैणो आवै!”
बीकानेर री ताकत सूं डरर रावल़जी वीरदास नैं छोड दियो। महाराजा रायसिंहजी वीरदास नैं आपरै साथै बीकानेर ले आया अर अठै कवि नैं रैवण नैं हवेली अर लाख पसाव दियो। महाराजा रायसिंह री उदारता नैं दरसावतां वीरदास कितरी सहजता सूं लिखियो है कै जिण कवियां री आर्थिक स्थिति बकरी बांधण री नीं ही उणां रै घरै रायसिंह हाथी बंधा दिया –
रायसिंघ नां जच्चियो, पाधर रो पतसाह।
जिण घर अजा न बंधती, सो गजबंध कियाह।।
जल़ ऊंडा थल़ ऊजल़ा, पातां मैंगल़ पेस।
बल़िहारी उण देसरी (जठै) रायांसिंघ नरेस।।
जद सिरोही सुरताण दुरसा आढा नैं कोड़ पसाव देयर सम्मानित किया उण रै पछै देशाटण करतो वीरदास ई उठै पूगियो। राव सुरताण, वीरदास रो साचपणो अर अबीहपणो जाणता हा तो साथै ई आ ई जाणता कै अबार ऐड़ै कवि नैं पूगतो माण देवै जेड़ी सिरोही री दशा नीं है। सो वीरदास आय अभिवादन कियो तो बै नीं तो उठिया अर नीं आवकारो दियो। कवि समझग्यो कै सुरताण कांई सोचर नीं उठ रैयो है! उण, उणी बगत सुरताण नैं संबोधित करतां कैयो कै “म्है जाणूं कै तूं क्यूं नीं उठियो ! क्यूं कै दुरसै जेड़ै विजनोल़ियै करोड़ पसाव रै मिस थारा सगल़ा आंतड़ा काढ लिया, सो थारै पिंड में उठण री ताकत ई नीं रैयी-
कोड़ दई अंतस कढै, पिंड रैयो न पांण।
दुरसै वीजू डंकियो, सो बैठो सुरताण।।
किंवदंती है कै राव सुरताण इण दूहै नैं सुणर उठियो अर कैयो “कविवर आज इण सिरोही रै टाल़ म्हारै कनै आपनै देवण नैं दूजो कीं नीं है सो आ लिरावो।” इतरी कैय उदारमना सुरताण आपरै सिंघासण सूं नीचै उतरग्यो। पण कवि कैयो कै “आप दी सो म्है ली! ओ सिंघासण आपनै ई सोभै”। उण बगत कवि सुरताण नै उणरी वीरता विषयक गीत सुणाया-
सुरताण जितै घमसाण बहै सत्र
चोल़ थई रिण मांसचर।
छटकै रुधर पहाड़ां छिलिया
पाखां पावस तणी पर।।
कवि वीरदास ‘बहता पाणी अर रमता साधू निरमल़ा’ री गत कठै ई एक जागा टिकर नीं रैयो। एकर जाल़ोर रै किणी सरवर या कुए री पाटवाल़ माथै कवि आपरा कपड़ा धोवै हो जितै उठै जाल़ोर नवाब कमालखां बिहारी आय निकल़ियो। बो आपरो घोड़ो पावै अर वीरदास कपड़ा धोवै।
पाणी रो छांटो ज्यूं ई कमालखां रै लागो तो उण कैयो “ऐ कुट्टण(धोबी) बंद कर!”
बिनां सामी देखियां कवि कैयो “कुट्टण थारो बाप!” कैयर सामो जोयो तो देखै कै नवाब कमालखां है!
उण आपरी बात नैं बिनां रोकियां कैवणो शुरू कियो-
कुट्टण तेरा बाप, जिकै सिरोही कुट्टी।
कुट्टण तेरा बाप, जिकै लाहोरी लुट्टी।
कुट्टण तेरा बाप, जिकै बायड़गढ बोया।
कुट्टण तेरा बाप, जिकै धूबड़ा धबोया।
कूटिया प्रसण खागां किता, धूजै अर संकै धरा।
मो कूटण मत कह कमालखां, तूं कूटण किणियागरा।।
नवाब, कवि री उक्ति चातुर्य सूं अचंभित होवतां कैयो “वाह भई वाह! तुम तो रंग के रेलै हो। बात को कहां से कहां ले गए। उणी दिन सूं कवि वीरदास रो नाम रंगरेलो वीठू चाव़ो होयो।
कवि एकर उदयपुर गयो अर उठै री लुगाइयां री सुहागण अर विभागण री एक ई जेड़ी वेशभूषा देखर कैयो –
दीठौ राण तमीणोय देस।
विभागण भागण एकै वेस।।
इणी गत कवि ढूढाड़ धरा गयो तो देखियो कै अठै खावण नैं फगत गाजर अर कांस है अर लोगां री हालत आ है तन ढकण नैं पूरो कपड़ो ई नीं है तो लोक रै लेखै लिखणियै कवि सूं चुप नी रेयज्यो –
गाजर मेवो कांसफल़, पुरख ज पून उगाड़।
ऊंधै ओझर अस्त्री आ ई ज धर ढूढाड़!
कवि रंगरेला बिनां किणी लालच बिनां किणी लाग लपट रै खरी खरी खल़काई। इण कवितावां नैं पढियां जे आपां रंगरेला नै राजस्थानी रो पैलो जनकवि कैयदां तो कोई अजोगती बात नीं लागै। आवश्यकता है ऐड़ै साचड़ियै कवि री कवितावां नैं शोधी जावै अर आम पाठक तक पुगाई जावै।
~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी