राष्ट्रवादी चिंतन के कवि बांकीदास जी आशिया – राजेन्द्रसिंह कविया

जोधपुर महाराजा श्री मानसिंह जी के कविराजा व भाषागुरू श्री बांकीदास जी आशिया बहुत ही प्रखर चिंतक व राष्ट्रवादी कवि थे। उस समय आज से लगभग दो शताब्दी पूर्व जब संचार के साधनों का अभाव था, उस समय में ही कवि भारतवर्ष मे घटित घटनाओं पर अति सूक्ष्मदृष्टि रखता था, साथ ही अपनी कलम व कविता से राष्ट्र के साथ विश्वासघात करने वाले व्यक्तियों की पूरजोर भर्त्सना भी करता था।
भरतपुर महाराजा व अंग्रेजों के बीच हुये युध्द में जब भरतपुर के साथ रह रहे नागा साधू अंग्रेजों के साथ मिलकर भरतपुर राज्य से दगाबाजी कर धोखे से किले के दरवाजे खुलवा कर भरतपुर की प्रत्यक्ष हार के कारक बन गये, तब जोधपुर मे बैठै कवि का ह्रदय अति क्षुब्ध व कुंठित हुआ और कवि ने उनकी काली करतूत का कविता के माध्यम से विसर काव्य लिखा।
हुवी कपाटां रो खोल बोहुतै फिरंगी थाटां रो हलो,
मंत्र खोटा घाटा रौ उपायौ पाप भाग।
भायां भड़ा फाटां रो हरीफां हाथै दीनौ भेद,
ऊभां टीकां वाऴां कीनौ जाटां रो अभाग।।
अकस्मात किले के ये दरवाजे कैसे खुल गये ? फिरंगियों की सेना धड़ाधड़ किले में घुसती ही चली गई, किसी ह्रदयहीन नीच व्यक्ति ने यह उपाय सुझाया है, अपने भाई व बन्धुओं मे दुस्मनी कर अपने घर का सारा भेद दे दिया है, खड़े तिलक वाले (निम्बार्क संप्रदाय वाले) पाखंडी साधुओं ने यह दुष्कर्म किया है, इन धूर्त महन्तों के कारण ही जाटों को इस अप्रत्याशित दुर्भाग्य का सामना करना पड़ा है।
माल खायौ ज्यांरौ त्यांरौ रत्ती हियै नायौ मोह,
कुबुध्दी सूं छायो भायौ नहीं रमाकांत।
वेसासघात सूं काम कमायौ बुराई वाऴौ,
माजनौ गमायौ नींबावतां रै महंत।।
जिसका अन्न पानी खाया उसका ही इन कृतघ्न निर्मोही साधुओं नें रंचमात्र भी ख्याल नही किया, इनके ह्रदय में कपट और दुष्टता भरी है, रमांकान्त की उपासना करने वालों प्रपंचियों ने अपने कान्त (राजा, स्वामी) का जरा भी ध्यान नही दिया, देश के साथ बड़ा विश्वासघात करके इन अधर्मियों ने दुश्मन से अपना काम पटाने में ही जीवन का श्रैय समझा है, निम्बावतों के इस महन्त ने अपनी सारी मान मर्यादा और प्रतिष्ठा को धूल मे मिला दिया है।
बांकीदास जी आगे लिखते हैं कि….
भूप बियां च्यारूं संप्रदायां रो भरोसौ भागौ,
लागौ काऴौ सलेमाबाद ने गाडा लाख।
नागा मिऴै साहबां हूं भिऴायौ भरत्यानेर,
राज कंठी बंधां रो मिऴायौ धूड़ राख।।
ऐक गंदी मछली जिस प्रकार सारे तालाब को सड़ा देती है, उसी प्रकार इस संप्रदाय की वजह से दूसरे चारों संप्रदायों से भी दूसरी अन्य राज्य रियासतों के राजाओं का विश्वास उठ गया है, इन नींम्बावतों की काली करतूत की वजह से इनकी अपनी पूज्य पीठ सलेमाबाद पर भी लाखों मण कालिख पोत दी, इन लफंगों ने गोरों से मिलकर भरतपुर के किले पर शत्रुओं का कब्जा करवा दिया व अपने संप्रदाय से दीक्षित व कंठीबंध राजा व उसके राज्य को धूल में मिलवा दिया।
आगरा सूं लूट सूजै ऐकठो कियो सो आंणै,
खजांनौ अटूट ताऴां लूटीजियो खास।
कंपणी सूं भेद मोटै जोगियां पालटै किलो,
वैरागियां हूंतां हुवौ जाटां रौ विणास।।
महाराजा सूरजमल ने आगरे की लूट से जिस खजाने को भरकर समृध्द किया था, उसे लूटने मे अटूट तालों व पहरेदारों से सुरक्षित जिस मुगल शाही खजाने को वीरता से लूटकर धन व यश अर्जन किया था, उसी भरतपुर के यशस्वी खजानें को इन दुष्ट महन्तों ने दुश्मन के हाथों लुटवा दिया, गोरों की इस कम्पनी के साथ में युध्द के बीच मिलकर विश्वासघात किया इनके कृत्य से किले का भाग्य पलट गया, इन वैरागियों के कारण ही जाटों का सर्वनाश हो गया।।
इस दुष्कृत्य की कवि को अपार पीड़ा हुई और उन्होने इसे अपनी कविता के माध्यम से प्रकट किया इस प्रकार के कवि को धन्य है और उनके ऊच्च आदर्शों पर बलिहारी हैं।
~~राजेन्द्रसिंह कविया (संतोषपुरा – सीकर)