🌺रातै भाखर बाबै रा छंद🌺 – जनकवि ब्रजलाल जी कविया

संतो पीरों और मुरशिदों की वंदना स्तवन हमारी कविता की एक परंपरा रही है। कवि ब्रजलाल जी कविया बिराई के थे।आप नें जालंधरनाथ की एक जगह जो कि पश्चिमी राजस्थान में रातै भाखर बाबे के नाम से जानी जाती है और उस लाल पहाड़ी पर जालंधर नाथ जी का मंदिर है जिसकी आप नें सरस सरल और सुगम्य शब्दों में वंदना की है।
🌷दूहा🌷
देसां परदेसां दुनी,क्रीत भणें गुण काज।
स्याय करै सह सिष्ट री, रातै गिर सिधराज।।१
वाल़ां री वेदन बुरी,इल़ ऊपर दिन आज।
हे सांमी!संकट हरे, राते गिर सिधराज।।२
🌸छंद रेणकी🌸
हर हर मुख हरफ ऊचारत हर दम, फर फर कर रूद्राक्ष फबै।
जग मग नग जोत श्रवण हद कुंडल़,सोहत भसमी अंग सबै।
ओपत जट मुगट सुगट सिर ऊपर, जप तप कर निज नांम जपै।
संकर सोही रूप सज्यो द्रिढ आसण, तन-मन सूं सिधराज तपै।।
जिय तन मन सूं महाराज तपै।।१
रहती मुण्डमाल़ गल़ा बिच राजत,पीतांबर पट अंग पुरै।
चणणण दे चूंप ओपकर चींपट ,गणणण रातो पाड़ घुरै।
तणणण इकतार तणी बज तांतव,खणणण दांणव दैत खपै।
संकर सोही रूप सज्यो द्रिढ आसण, तन-मन सूं सिधराज तपै।।
जिय तन मन सूं महाराज तपै।।२
दरसण कज देस विदेसां दुनिया,मेल़ा भादव मास मंड़ै।
चढ चढ गघ चाल झुण्ड मग झांपत,चंचल़ नर उमराव चढै।
परसण तोय पांव पालकी पैदल,मारग ज्यूं खगराज मपै।
संकर सोही रूप सज्यो द्रिढ आसण, तन-मन सूं सिधराज तपै।।
जिय तन मन सूं महाराज तपै।।३
केइ केइ अवधूत स्नयासीय क्रोड़ां,गोरख गोपीचंद गहै।
पांचूं मिल़ पीर भरतरी पंडव,रावल़ जोगी आय रहै।
तपतां अविनास बैरागी त्यागी,धांनक रातै पाड़ धपै।
संकर सोही रूप सज्यो द्रिढ आसण, तन-मन सूं सिधराज तपै।।
जिय तन मन सूं महाराज तपै।।४
वींजो वड़ पाड़ जिकौ अघ विचमां,जाल़ंधर मौजूद जठै।
आखै सब लोग इसौ इल़ ऊपर,अड़सठ तीरथ एक अठै।
मेवा मिष्ठान जल़ेबी जिनसां,धूणीं पर इनसान धपै।
संकर सोही रूप सज्यो द्रिढ आसण, तन-मन सूं सिधराज तपै।।
जिय तन मन सूं महाराज तपै।।५
वीणा सुर बणण तणण बज तालन,घणणण नौबत जेथ घुरै।
झणणण झणकार हुवै हद झालर, पणणण कम्बुक सांझ पुरै।
गणणण गिरिगाज गयण धर गूंजत,जय जय नर सुर नाग जपै।
संकर सोही रूप सज्यो द्रिढ आसण, तन-मन सूं सिधराज तपै।।
जिय तन मन सूं महाराज तपै।।६
घम घम केई संत अगाड़िय घूमत,धम धम नग चढ़ चरण धरै।
खम खम मुख वयण जातरिय बोलत, कुम कुम पग डण्डौत करै।
खिम खिम इम अगर कपुरन खेवत,निम निम आगल़ नाथ न्रिपै।
संकर सोही रूप सज्यो द्रिढ आसण, तन-मन सूं सिधराज तपै।।
जिय तन मन सूं महाराज तपै।।७
सांमी कर स्याय निशि दिन सिमरूं,सांभल़ नाथ पुकार सही।
बैहरो कन वृद्ध हुवौ भव बाल़क, गिर.ऊपर पल लाग गही।
दूजौ कोई वैध दवा नहीं दीसत,कव री वेदन तूंज कपै।
संकर सोही रूप सज्यो द्रिढ आसण, तन-मन सूं सिधराज तपै।।
जिय तन मन सूं महाराज तपै।।८
🌸छप्पय🌸
भगत ऊजागर भेख,रात दिन सायब रट्टै।
करां दरस गुण क्रीत, क्रोड़ दोसण सब कट्टै।
तापस अज अवतार,जगत जाल़ंधर जप्पै।
प्रगट नाम दधि पार,थांन राते गिर थप्पै।
धिन भाग देस थल़वट धरा,रिण बालेसर सिध रमै।
कर जोड़ “विजो”विनती करै, नाग देव नर सब नमै।
~~कवि ब्रजलाल जी कविया
विजय विनोद से, संपादक गिरधरदान रतनू दासोड़ी
प्रेषित: नरपतदान आसिया “वैतालिक”