रतनू सलिया रंग!!

महाकवि सूर्यमल्लजी मीसण रो ओ दूहो–
हूं बलिहारी राणियां, जाया वंश छतीस।
सेर सलूणो चूण ले, सीस करै बगसीस।।
मध्यकालीन राजस्थान में घणै सूरां साच करर बतायो। उणां री आ आखड़ी ही कै किणी रो लूण हराम नीं करणो अथवा अवसर आया लूण ऊजाल़णो।
यूं तो ई पेटे घणा किस्सा चावा हुसी पण चाडी रै रूपावत खेतसिंहजी री लूण रै सटै नींबाज ठाकुर सुरताणसिंहजी रै साथै प्राण देवण री बात घणी चावी है—
चाडी धणी पखां जल़ चाढै,
रूपावत रण रसियो।
वर आ अपछर नै बैठ विमाणां,
विसनपुरी जा वसियो।।
ज्यूं खेतसिंहजी, नींबाज माथै विपत पड़ियां आगेडाल़ हुय मारवाड़ री सेना सूं मुकाबलो कियो अर आपरा प्राण निस्वार्थ भाव सूं लूण रै सटै समर्पित किया, उणी गत इण मारवाड़ री धरा कुड़की रै किलै माथै आफत आयां तत्कालीन ठाकुर सांवतसिंहजी चांदावत रै बदल़ै आपरा प्राण देवणिया कुशल़जी रतनू री बात ई अंजसजोग है। पण कमती ई लोग जाणै कै उण महासूरमै किणगत आपरा प्राण फखत लूण रै बदल़ै सूंप दिया।
जीलिया चारणवास रा रतनू भैरवदासजी री परंपरा में रतनू माधवसिंह जी रा पोता अर रतनू नथजी रा सपूत कुशल़जी जिणांनै लोग सलजी रै नाम सूं पुकारता अर जाणता हा। एक’र वै सांझ री बखत कुड़की रै किलै में विसराम लेवण सारू ठंभिया। उणां दिनां अमूमन चारण कवेसर राजपूत रै घरै ई रुकता। भलांई वो मोतबर हुवो कै भलांई थाकल पण उणांरै मन में चारणां रै प्रति आदर आपरी माली हालत रै मुजब नीं उमड़तो बल्कि एक निछल़ भाव रै पाण उमड़तो। पछै कुड़की तो ठिकाणो हो! कुड़की में सलजी दूजी जागा रुकण री सोचता ई कीकर? इण संबंध में दो बातां चालै। एक तो आ कै सलजी घोड़ां रा वौपारी हा सो घोड़ा लेय’र कुड़की आया तो कोई कैवै कै सलजी तीरथजात्रा कर’र आवती बखत कुड़की रै किलै में रुकिया। भलांई कीकर ई रुकिया हुवै पण वै उठै रुकिया। ठाकुरां आपरी श्रद्धा मुजब खातरी की। हथाई जुड़ी। दातारां अर सूरां रो सुजस कवेसर री वाणी सूं प्रसरित हुयो–
रैण तल़ाई वैण वड़, कायर हाथ खडग्ग।
काली जोबन कृपण धन, कारज किणी न लग्ग।।
गिगन धरा बिच मेरगिर, धर सै अंबर धार।
जुग च्यारां ई जीवसी, सूर सती दातार।।
जलमै सो मरसी खरा, कहा राजा कहा रंक।
जस पीछै रह जायगो, कह रह जाय कल़ंक।।
सांम उबेलै सांकड़ै, रजपूतां आ रीत।
जब लग पाणी आवटै, जब लग दूध नचीत।।
खाज्यो पीज्यो खरचज्यो, करज्यो जाझा सैण।
माणसिया मर जावसी, वांसै रहसी वैण।।
हथाई रै पछै लोगबाग आप आपरी जथा जागा पोढग्या।
आधीक रात रा हेरां खबर दी कै गढ नै जोधाण धणी री सेना घेर लियो है। मोरचा मंडण री त्यारी हुवण लागी। सलवल़ सुण’र सलजी ई सचेत हुया। उठिया अर पूछियो कै झिल आधी रात रा किण माथै कटक? लोगां कह्यो- “बाजीसा कटक आंपै नीं संभ रह्या हां बल्कि कटक तो जोधाणनाथ रो आंपां माथै आयग्यो।”
“क्यूं ? ऐड़ी कांई कुठागरी हुई? पांगल़ी डाकण घर रां नै ई खावैला कांई?” सलजी कह्यो तो किणी कह्यो कै- “बाजीसा आप तो आराम सूं पोढिया रैवो। आपनै कोई तूंकारो ई नीं दे। कटक तो कुड़की माथो आयो है ! पछै आप क्यूं ओझको करो?”
आ सुणतां ई सलजी रो हाथ मांचै रै कनै पड़ी तरवार री मूठ माथै गयो। मूठ झालर कैवणियै कानी खारी मींट सूं जोवतां कह्यो-“कुण है रे थूं? कटक कुड़की रै किलै माथै आयो जणै हूं किलै में हूं कै बारै? जे किले में हूं जणै म्हनै थूं बतावैलो कै म्हनै कांई करणो चाहीजै अर कांई नीं? जे आ बात किले रै बारलै वल़ा कैतो तो जीभ काढ’र हाथ में दे देतो पण बात किले री है जणै हूं गरल़ गिट रह्यो हूं!”
सल़जी नै विभरता देख’र कैवणिये पासो लियो पण सलजी री आवाज ठाकुर सुण लीनी अर उठै आया अर कह्यो- “हुकम!जोधपुर री सेना आयगी। किलो घेरीजग्यो। आप म्हारै मूंघा मैमाण! पछै चारण सो आप लड़ाई मंडै उणसूं पैला पोल़ सूं निकल़ो परा। म्हैं नीं चावूं कै किणी चारण रै रगत रो रंग कुड़की रै किले रै लागै। आप म्हां दोनां रै बरोबर हो सो उवै आपनै धकल ई नीं देवैला।”
ठाकुर भल़ै कीं कैता जितरै सलजी बीच में ई बोल पड़िया कै- “हुकम !कांई ओ कठै ई लिख्योड़ो है कै चारण रै रगत रो रंग सुरंगो हुय, किणी किले री श्वेत कल़ी बणै तो उणनै नीं बणण देणो। कांई कोई चारण लूण उजाल़ण सारू आपरो रगत देवै तो उणनै नीं देवण देणो? कांई आप ई आ धारली कै म्हैं कुड़की रै काम पड़ियां लूण हराम कर’र अठै सूं सोकड़ मनाऊं? नीं !ठाकुर साहब नीं! म्हांरै तो आ आदू रीत है का तो किणी नै मनमीत मानणो नीं अर जे मान लियो तो पछै उण माथै विपत पड़ियां माथै रो मोह त्याग देणो चाहीजै! पछै म्हारै तो आखड़ी है कै किणी रो लूण खाय उणरै काम नीं आयो तो जीवण में धूड़ अर लख लाणत है। म्है तो कै तो उठै तरवार रै पाण जीऊं कै उठै तरवार खाय रण सेज पोढूं! कांई आप आ चावो कै म्हनै देखतां ई लोग कैवै कै लो, ऐ वै सलजी है! जिका कुड़की में थाल़ अरोग’र काम पड़ियां लारली गल़ी निकल़ग्या हा! आ बात म्हारै सारू जीवण है कै मरण? जे मिनख जीवण में जस नीं कमायो तो पछै मरण ई है-
जस जीवण अपजस मरण, कर देखो सह कोय।
कहा लंकपत ले गयो, कहा करण ग्यो खोय।।
सलजी रा उकल़ता आखरां सूं ठाकरां रो जोश दूणो हुयो। वां कह्यो- “वाह! कवेसर वाह! आपरा भाव वारणाजोग है। आप ई शक्ति-पुत्र हो ! आपरी वीरता माथै शंको नीं है पण गोह रै पाप सूं पीपल़ी रो विनास क्यूं हुवै ? पछै नीं तो आप कनै कुड़की री कोई जमी अर नीं आप कुड़की रा वासी। आप तो फखत रातवासो लियो है। म्हारो वडभाड है कै आप म्हारै घरै कुरल़ो थूकियो। इणमें म्हारी कांई बडाई। कैड़ो लूण? म्हां कांई एहसान कर दियो जको आप उतारणो चावो? आ सोच’र म्हैं आपनै अरज करी पण”
“..पण कांई?” सलजी बीच में ई बोलतां कह्यो- “हुकम! म्हैं थांनै कैवां कै ‘मरणै सूं डरपै मुदै, जिकै किसा रजपूत?’ तो पछै म्हैं डरणियै नै चारण कीकर मान सकां? अरे बडा सिरदार ! म्हारै तो आखड़ी है कै जिणरै ई घरै रुकियो कै कोई म्हारी शरण में आयो तो पैलो मरण रो वरण म्हारो हुसी! सो आप लड़ाई री त्यारी करावो ओ सलियो कायरां दांई मोत सूं कानो नीं करै बल्कि पानो पड़ियां कै तो मोत नै डकर देवै कै मोत री सेज सूवै।”
जणै ठाकरां कह्यो- “तो आपरी मरजी! म्हे आपनै सीखावणिया कुण? म्हे तो आपसूं सीखता आयां हां।”
कुड़की री पोल़ा खुली। बचकोक वीरां झालएक सेना रो मुकाबलो कियो।
सलजी आपरी घोड़ी रण में झोकी। सपड़ाक-सपड़ाक तरवार बैवण लागी। देखणिया दंग रैयग्या कै बूंगड़ी पाधरियां में नीं है!राजपूतां सूं एक पाऊंडो सलजी आगै हा। जोरदार भूटको हुयो सो कुड़की री तल़ाई कनै जावतां सलजी रो माथो किणी तरवार रै अदीठ वार सूं आगो जा पड़ियो। पण उवै वीर री धड़ इया़ं ई लड़ती रैयी। सेवट तल़ाई रै आगोर में शरीर शांत हुयो। लड़ाई रुकी जणै ठाकरां सलजी री आपरै तन ज्यूं ई जथाजुगत करी अर इण वीर रै प्रति कृतज्ञता दरसावतां एक चूंतरो गढ में चिणाय’र एक पाखाण सिर थापित कियो, तो कुड़की री जनता ई कृतघ्न नीं ही। कुड़की सारू निस्वार्थ भाव सूं मरणिये उण वीर रो एक थड़ो तल़ाई माथै उठै बणायो जठै सलजी रो शरीर शांत हुयो। गढ में थापित उण पाखाण शीश री घणै वरसां तक कुड़की रो रावल़ो तिंवारां माथै पूजन करतो हो पण बाद में शायद आ पूजा बंद करीजगी।
उण वीर रै अदम्य साहस, अर आखड़ी पाल़ण रै अडग नेम माथै समकालीन कवेसरां आपरी अजरी रचनावां सूं अमरता प्रदान करी। समकालीन कवि डालूरामजी देवल (नेतड़ास) रो एक संपखरो गीत घणो चावो है जिणमें इण गरवीली गाथा नै कवि गुमेज रै साथै गूंथी है-
राड़ै दीसतो कराल़ो सदा दोयणां घात रो कल्लो,
बेठाक अचाल़ो तेग पाथ रो बणाव।
भैरूदास दूजो सदा सुणंतां हाथ रो भल्लो,
जको केम चूकै सल्लो नाथ रो सुजाव।।
जमी लालंबरी खूटा मजीठ माटलै जेहा,
हरक्खै अच्छरां वीण वाटले हुसेर।
संभरा लूण साटै रतन्नू आंटलै सीधो,
सीस रो माहेस कीधो कांठलै सुमेर।।
ब्याव या किणी मांगल़िक टाणै माथै हुवण वाल़ी रैयाण में जद सूरां-पूरां नै कवेसर रंग देवै जद इण महाभड़ नै ई गर्व रै साथै आज ई चितारै-
काम कियो कुड़की किलै, जीत लियो हद जंग।
अमलां वेल़ा आपनै, रतनू कुशल़ा रंग।।
काम कियो कुड़की किलै, जीत लियो हद जंग।
सल्ला-मल्ला सोहणा, रतनू तोनै रंग।।
जुद्ध कुड़की जुड़ियो जदै, भिड़ियो पात अभंग।
अमलां वेल़ा आपनै, रतनू सलिया रंग।।
सटै संभरी लूण रै, कुड़की कीधो काम।
रतनू कुशल़ा राखियो, नवकोटी में नाम।।
नवकोटी नरसंमद मारवाड़ री आंटीली धरा माथै आपरो नाम अमर करणिये उण महासपूत नै म्हारा ई प्रणाम-
कुल़ ऊजल़ निज गांम कर, जुद्ध की ऊजल़ जात।
भल्ला सल्ला तो भोम पर, बांचै कवियण बात।।
~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी