पुस्तक समीक्षा – प्रकृति-संस्कृति री ओपती सुकृति-‘रूंख रसायण’ – महेन्द्रसिंह सिसोदिया ‘छायण’

पोथी परख: प्रकृति-संस्कृति री ओपती सुकृति-‘रूंख रसायण’

डॉ.शक्तिदान कविया डिंगळ रा शिखर-कळश हैं। राजस्थानी साहित्य नै रातो-मातो करण में श्री कविया रौ महत्त्वपूर्ण अवदान रैयो हैं। वां री आलोच्य कृति ‘रूंख रसायण’ प्रकृति-संस्कृति री ओपती सुकृति हैं। राजस्थानी री डिंगळ शैली में सोरठा छंद में लिख्यौड़ी इण पोथी में अेक कांनी डॉ.कविया रौ वृहद् चिंतन वरेण्य हैं, तो दूजी कांनी प्रकृति रौ पुरातन अर आधुनिक रूप में मणिकांचन मेळ सरावणजोग हैं। 334 सोरठा में रच्यौड़ी आ कृति दो खंडां में विभक्त हैं। पैले खंड में ‘रूंख रसायण, पुरातन पेड़ प्रसंग’ अर ‘रूंख भाखरां रौ रूपग’ शीर्षक सूं सोरठा हैं। दूजै खंड में ‘रूंख रसायण, समापन रा सोरठा’ शीर्षक सूं रचनावां हैं। पाठकां सारू सुविधा री दीठ सूं पोथी रै अंत में परिशिष्ट भी दियौ हैं। जिणमें अेक ओर महत्त्वपूर्ण टिप्पणियां हैं तो दूजी ओर शब्दार्थ हैं।

डॉ.कविया परम्परा, लोक-संस्कृति, मानवीय-मूल्यबोध रा संवाहक कवि हैं। वर्तमान समै में पर्यावरण माथै आयोड़ो संकट कवि-मन नै झिंझोड़ नांखै। इण सारूं वै हियै में सहज उतरती भाव-धारा नै सोरठा में ढाळै अर मांनखै नै पर्यावरण संरक्षण सारू चैतावे। पोथी री शुरुआत वंदना सूं करीजी हैं। जथा-

अलख निरंजण आप, कुदरत-पत उतपत करण।
सुरसत उकत समाप, दरसत रा गुण दाखवूं।।

रूंख वसुधा रौ सिणगार, प्रकृति रौ प्रांण, मांनखै सारू पूजनीक हैं। भारतीय परम्परा में अेक पेड़ नै सौ पुत्रां रै बराबर मांनीजै। रूंख रै बिना धरती विडरूप लागै। मरू-धरती रै मांयनै रूंखां नै विसेस आदर री ठौड़ दिरीजी हैं। डॉ.कविया अनेकूं दाखलां रै साथै वैदिक काल सूं लैय’र आज तक रै पेड़-प्रकृति अर पर्यावरण संबंधी विचार काव्यात्मक रूप में प्रकट करिया हैं।

डॉ.कविया री भासा री ठसक घणी ओपती हैं। विसेस मुहावरे आळौ वांरौ सबद-चयन घणौ ठावकौ हैं। खळकतै खाळां, सरवर री पाळां, हरियळ जाळां री आखरमाळा पौवता थकां डॉ.कविया विगतवार रूंख री महत्ता बतावै। वै रितुवां रौ मनहरणौ वरणाव करता लिखै कै—

झंगी रूंखां झाड़, लेत सुरंगी लूहरां।
पंगी सिखर पहाड़, चंगी छिब चत्रमास में।।
विरछां रखवाळैह, पाळै सींचै प्रेम सूं।
भगवत त्यों भाळैह, बरसाळै नवनिध ब्रवै।।

डॉ.कविया पेड़ां रा पुरातन प्रसंग ई बताया हैं। देवी-देवतावां अर महापुरखां रौ रूंखां सूं गै’रो संबंध रैयो हैं। महात्मा बुद्ध नै बोधि वृक्ष नीचै आत्मग्यान हुवौ। इणी तरै कईयां रौ नाम रूंखां रै साथै जुड़ियोड़ो हैं– मालाजाळ, कैरली नाडी, जाळां जूनी जोगणी आद। डॉ. कविया लिखै कै–

खड़ी खेजड़ी खास, राजै चिमनीरांम री।
रिखियां रौ रैवास, धरा गड़ै धोळी धजा।।
रूंखां री रखवाळ, हिरण पाळणा हेत सूं।
जांभै धरम उजाळ, समराथळ धोरै सही।।

सुरंगै राजस्थान में सगळै देवी-देवतावां रा थांन रूंखां तळै। रूंख पूजन री अठै प्राचीन परम्परा हैं। हर गाँव रै कनै ओपती ओरणां पर्यावरण संरक्षण रौ सुभग संदेश देवै। अठै बरात चढ़ती बखत ई कांकड़ पूजण रै साथै छौटे हरियै रूंख नै नाळैर वधावै। डॉ.कविया लिखै–

बरात चढ़ती बेर, दुहा देत आशीष दे।
लळ लूंबां नाळैर, फळज्यो चंपा फूल ज्यूं।।

आपणै अठै लोक-गीतां, अखाणां अर कहावतां में रूंख रूखाळी री बातां अजैई सुणीजै। जथा–

घात्यौ नथमल बोरड़की रै घाव, बोरड़की कुरळाई नैने बाळ ज्यूं।

अैड़ा कई लोक-गीत आपणी संवेदना री सशक्त अभिव्यक्ति हैं।

आज रै भौतिकवादी यांत्रिक जुग में पर्यावरण माथै संकट आयग्यौ हैं। बाखळ अर बाड़ा रै साथै ओरणां दिनोंदिन कम व्हैती जा रैयी हैं। च्यारूंमेर हरियै रूंखां नै वाढ़ण री जुगत होय रैयी हैं। वनस्पति बचावण री महत्ती दरकार हैं। डॉ.कविया इण संकट नै सोरठा रै माध्यम सूं इणगत प्रकट करै–

रूंख कटै दिन रात, हटै झूंपड़ां भवन व्है।
जठै तठै ही जात, नीर घटै वसुधा नरां।।
लालच चाळै लाग, पाळै कुण पर्यावरण।
अफसर करै अभाग, भाव धरै जेबां भरण।।
दिया तळावां दाट, जळ नदियां घोळै जहर।
क्रोड़ां दरखत काट, विकृत पर्यावरण वन।।

उक्त सोरठा रै माध्यम सूं डॉ.कविया आज रौ हकीकती चित्रांम मंडियौ हैं। लोगां नै सीख अर चेतावनी दैवता थकां जथारथ सूं रू-ब-रू पण कराया हैं।

डॉ.कविया रौ कला अर भाव पक्ष घणौ रूपाळौ अर सांतरौ हैं। यथार्थ अर कल्पना रौ सरावणजोग योग कृति नै प्रासंगिक अर उपादेय बणावै। ‘सोरठियो दूहो भलौ’ उक्ति मुजब सोरठो सबांसूं सिरै। आ पोथी ई सोरठा छंद रौ अनुपम उदाहरण हैं। कवि रा निजूं भाव पढ़ेसरां रै हियै ढूकता थकां उणरा’ई बण’र रैय जावै। भासा रौ संप्रेषण जबरदस्त प्रभाव छौड़े। पूरी कृति में अनुप्रास, रूपक, उपमा, यमक, श्लेष, पुनरुक्तिप्रकाश रै साथै मानवीकरण आद अलंकारां रौ जोरदार प्रयोग व्हियौ हैं। समग्र सोरठां में वयणसगाई रौ मनहरणौ प्रयोग पण हैं। कीं अलंकारां रा दाखला इणभांत हैं—

थळी रळी घण थाय, कळी-कळी खिल कुसुम री।

विध-विध वेलड़ियांह, पुसपां री लड़ियां पुळक
(पुनरुक्तिप्रकाश)

बिरछां लूंबी बेल, घैघूंबी अंबर घटा।
झूंबी डाळां झेल, बरण कसूंबी ज्यूं बनी।।
(मानवीकरण)

परणेतण धण प्रीत, सासरियै में सैंग सुख।
चित पण आसी चीत, रे पीहर रा रूंखड़ा।।
(वयणसगाई)

इणी तरै सोरठा मांयनै तिकड़िया, चौकड़िया, छकड़िया अनुप्रास री चित्तहरणी छटा सरावणजोग हैं। जथा–

गुणकारी रुत गेड़, संसारी जीवां सकळ।
पर उपकारी पेड़, जटधारी जोगेस ज्यूं।।
गूंजै धरती गीत, मेहळियां मन मीत रा।
पणिहारी री प्रीत, रीत मेह तरू नेह री।।
छटा रूंख छाजंत, मेघ घटा छायां मही।
सरस थटा साजंत, मोर सूवटा व्है मगन।।
फूलै अरणा फोग, मन-हरणा मगरां मही।
सुख करणा संजोग, वीसरणा ग्रीखम विखम।।

इण तरै कैयो जा सकै कै आ पोथी राजस्थानी लोक-रंग सूं रंग्यौड़ी, औपते आखरां सूं मड़ियौड़ी, भळकतै भावां सूं जड़ियौड़ी, रोस-आक्रोस सूं तणियोड़ी हैं। इणमें पेड़-प्रकृति अर पर्यावरण नै बचावण रौ जाझो जतन व्हियौ हैं। निश्चित रूप सूं डॉ.कविया रौ वंदन करणजोग सिरजण राजस्थानी साहित्य में महताऊ ठौड़ राखै।
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पोथी- रूंख रसायण
लेखक- डॉ. शक्तिदान कविया
समीक्षा- महेन्द्रसिंह सिसोदिया ‘छायण’
संस्करण-2014, पृष्ठ-96, मौल- 200रु.
प्रकाशक- थळवट प्रकाशन, जोधपुर

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