रूंख रिछपाळ री करो रिच्छा – पुष्पेन्द्र जुगतावत पारलाउ
।।गीत बडो साणोर।।
परम आसरो पामियो अठे नित पंथिये,
चरम त्रिप्ती थई पूर्ण इंछा।
बावळां नरम नाजुक घड़ी विचारो,
रूंख रिछपाळ री करो रिच्छा।
इये ने राखियों टळै दर आपदा,
सदा चाकर रहै पवन वरसा।
प्राणदा हरित ने पोखजो प्राणियों,
कुदिन निवडे़ हुवे सुखी करसा।
अगिण ओखध इये तन महीं उपजे,
जाबतो रोग सूं करै जाडो।
काळ ओटाळ ने बाळ आघो करे,
बेलियाँ ब्रिक्ख ने मती वाढो।
बाळवा जोग जाझो दिये बळीतो,
आपवे कितो विध काठ आखो।
भाईड़ां मता समपे कई भांतरी,
खातरी तरवरां तणी राखो।
आपरी चुकती देह आपी परी,
जुगोजुग हाजरी ईयां साझी।
पड॒या हुय दीण अरजां करे बापड़ा,
रहो नर रूंखड़ां हूंत राजी।
आपवे फूल फळ विविध अणमापरा,
क्रोड़ विध आपरा करे हीड़ा।
वडा सेवग तणी हिये में चीन्तवो,
‘पुष्प’ हिव वनों री हरो पीड़ा।
~~पुष्पेन्द्र जुगतावत पारलाउ
धन्यवाद मुझे इस रचनात्मक मंच की सदस्यता प्रदान करने के लिए. मैं इसके योग्य बनने का प्रयास करूंगा.
मंच से कवि की नहीं हुकम अपितु कवि से मंच की शान होती है। धन्यवाद आपका इस मंच को अपने योग्य समझने के लिए। जय श्री।