सालगिरह शतक – महाकवि हिंगऴाजदान जी कविया

विक्रमी संवत 1964 की आसाढ शुक्ला नवमी को गेढा खुर्द जिला नागौर में आद्य शक्ति श्री हिंगऴाज की आज्ञा से स्वंय मातेश्वरी श्रीआवड़ माँ ने रतनूं शाखा के चारण शिवदानजी के पुत्र सागरदान जी की धर्मपत्नि श्रीमती धापूबाई की कुक्षि से शुक्रवार संध्या समय स्वाति नक्षत्र मे ईंद्रबाईसा के रूप में अवतार धारण किया।

लीला-विहारिणी की अनेकानेक लीलाएं तथा चमत्कार प्राकट्य से छोटी सी बस्ती का गांव खुड़द श्रद्धालुओं की श्रद्धा व आस्था का केंद्र बन गया।

विक्रम संवत 1988 की जेष्ठ सुदि बीज (द्वितिया) को खुड़द में श्री करनी माताजी के मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा स्वंय श्री ईंद्रबाईसा द्वारा की गई। इस पावन-पवित्र शुभ अवसर पर माँ ने कविया हिंगऴाजदान जी को श्री करनी जी के बीकानेर से संम्बधित बड़े प्रवाड़े का बनाकर सुनाने की आज्ञा दी। कवि कविया जी ने हुकम स्वरुप मेहाई-महिमा जैसे ग्रंथ को बनाकर श्री भगवती के सम्मुख सुनाया था। यथाः…..

।।दोहा।।
मोनूं सुगंध सोनूं मिल्या, बलिहारी इण बातरी।
साक्षात शक्ति इंद्र सुणै, महिमा करनल मातरी।।
।।सोरठा।।
आठ-आठ नव एक, जेठ बीज उजऴ जदिन।
बूढो कवि अविवेक, मेहाई-महिमा मुणी।।

श्रीमढ स्थापन के ठीक दस वर्ष पश्चात माँ श्री करनी जी के जन्मोत्सव को जोरदार जलसे के रूप में ईंद्रबाईसा की आज्ञानुसार मनाया गया था। उसमें भी कवि हिंगऴाजदान जी कविया आद्योपान्त उपस्थित थे व सृजन-धर्मी कवि ने सुन्दर काव्य की “साल गिरह शतक” शीर्षक से सौ झमाऴ के सरल छंदो में रचना की थी। रचना अति सरस व सुन्दर है।

।।सालगिरह शतक।।

रचना: महाकवि हिंगऴाजदान कविया (सेवापुरा)
भावार्थ एवं टिप्पणी: राजेंद्र सिंह कविया (संतोषपुरा-सीकर)

।।श्री करनी ईंद्र कृपा।।
।।गीत – झमाऴ।।

[१]

करत निरंतर निकट कट, झंकारव अलि झुंड।
विधु ललाट बारण बदन, सिंदूरारूण सुंड।।
सिंदूरारूण सुंड, धजर बिख-धारणै।
हद उजवल रद हेक, बदन रै बारणै।।
कर-मोदक करनल्ल, जनम जस गाणनूं।
जग जाहर घण जाण, नमो गणराज नूं।।

भावार्थ: जिनकी कनपटी के पास लगातार भौंरों के झुंड झंकार की ध्वनि करते रहते हैं, जिनके ललाट पर चंद्रमा है, हाथी के मुंह वाले जिनकी सूंड सिंदुरी रंग की है। सूंड सांप के फ़न की भांति शोभायमान है, जिनका एक ही दांत, जो मुँह के द्‌वार पर है, बहुत उजवल हैं। जिनके हाथ में लड्‌डू है। उन जगत-विख्‌यात व बहुविज्ञ गणनायक गणेश जी को मैं करनीजी के जन्मोत्सव का यशगान करने के लिये नमस्कार करता हूँ।


[२]

धाऴा अम्बर धारणी, धवल धराधर धाम।
भाल तिलक बीणा-भुजा, पावां तुझ प्रणाम।।
पावां तुझ प्रणाम, जयो जगदेसरी।
हर बंधव रथ हंस, पिता परमेसरी।।
तिथि सातैं तारीक, गुणीगन मातरी।
सुरसति बुधि सुधार, पुराणा पातरी।।

भावार्थ: श्वेत वस्त्र धारण करने वाली जिनका आवास धवलगिरि (हिमालय) पर है। जिनके मस्तक पर तिलक है, हाथ मे वीणा है, हे सरस्वती मै तेरे पावों मे प्रणाम करता हूँ। हे जग मे ज्येस्ठ, तुझे प्रणाम है। जिनके भाई महादेव है, जिनकी सवारी हंस है, जिनके पिता ब्रह्मा हैं। सप्तमी शुक्रवार की तिथि जो करणी माता का जन्म दिन है। उस माता की प्रशंसा का वर्णन करने के लिए, हे सरस्वती (मुझ) वृध्द चारण की बुध्दि को सुधारिये।

टिप्पणी: हिंगलाजदानजी की विनम्रता को नमन है। वीणा वादिनी मां सरस्वती से अपनी सुधरी हुयी बुध्दि को और सुधारने का वर चाहते है। जय हो पुराणा पात ऐसी बुध्दि भगवती सभी को प्रदान करै।


[३]

पांण सूऴ, रूड़ी प्रभा, बूड़ी महिख बरंग।
कमल नाऴ बीजै करग, मद पीथड़ उतमंग।।
मद पीथड़ उतमंग, धजा छत्र धारणीं।
जगड़ू साह जहाज, उदधि उबारणीं।।
आखूं जनम उछाह, तणो जस ताहरो।
चंडी पेस चढाय, मनोरथ माहरो।।

भावार्थ: जिसके हाथ मे भाला है, जिसकी छवि सुन्दर है, भैंसे के रक्त मे जो डूबी है, जिसके दुसरे हाथ मे कमल की नाल है, जिसका सिर मद्य से भारी है, जो ध्वजा का छत्र धारण किये हुये है, जिसने समुद्र में जगड़ू शाह की जहाज को डूबने से बचाया था। हे ऐसी चंडी माता मैं तेरे यश का कथन करता हूँ। तूं मेरे मनोरथ को पार लगा दे।


[४]

सातैं तिथि आसोज सुधि, वाह धनो धिन वाह।
तिण दिन मेहाई तणो, आवै जनम उछाह।।
आवै जनम उछाह, जको जग जाणवै।
उगणीसै उपरांत, संवत अट्ठाणवै।।
साल गिरै इण साल, करण रै कारणै।
तन मन धन ओतार, उछब रै वारणै।।

भावार्थ: आसोज की सप्तमी तिथि बार बार धन्य है। जिस दिन मेहाजी की पुत्री करनी जी का जन्मोत्सव आता है। यह जगत मे विख्यात जन्मोत्सव है। संवत 1998 (ई.स.1941) मे साल गिरह का उत्सव मनाने के लिये, जन्मोत्सव पर तन मन धन न्योछावर है।

टिप्पणी: चवदासैरू चमाऴसौ, सातम शुक्करवार।
आसोज मास उजाऴ पख, आई लियो अवतार।।


[५]

पावस झंडो ऊपड़्‌यो, बागो सारद बंब।
छिन्‌न भिन्‌न हूगी छटा, लोप घटा अविलंब।।
लोप घटा अविलंब, बिहायस विम्‌मलो।
नाडां खाडां न्‌हैरि, नदी जल निम्‌मलो।।
त्रण कण सातूं तूड़, छिता ओछाड़िया।
भरि फ़ल फ़ूलां भार, झुकिजी झाड़ियाँ।।

भावार्थ: वर्षा ऋतु का झंडा उखड़ गया है, शरद् ऋतु का नगाड़ा बज गया है। पावस के बादल छिन भिन हो गये है और घटाए भी लुप्तप्राय हो गयी है। आकाश निर्मल हो गया है। छोटे तालाबों, खड्‌डों, नहरों और नदियों में निर्मल जल विद्‌यमान है। सातों प्रकार के अन्न पृथ्वी पर फ़ैल गये है और फ़ल फ़ूलों के भार से झाड़ियाँ झुकी हुयी है।।

टिप्पणी: अर्थात ….मानसून विदाई ले रहा है, शरद ऋतू के आगमन का आभास हो रहा है, बादल कहीं भी नहीं दिखाई दे रहे है, सभी जगह मंद पवन प्रवाहमान हो रहा है। जैसा कि बिरखा विज्ञान की लोकमानस मे धारणा है।

सावण चाले सूंरियो, भादरवै पुरवाई।
आसोजां म पिछवा चाले, काती साख सवाई।

यही सारे संजोग उस साल श्रीकरणी जी कृपा से जुड़ रहे थे। पृथ्वी पर अनाज व फलों की बहुतायत हो गयी थी। एसे यादगार साल मे भगवती की साल गिरह का मनाना कितना सुखद आभास बन गया था।


[६]

आठूं बऴ झूल्या अबै, मधुसूदन जऴ मांहि।
पंछी खंजण प्रगटिया, निकट लुकंजण नाहि।।
निकट लुकंजण नांहि, दृगां दरसाविया।
मुक्ताचर तजि मौन, चंचां चहकारिया।।
दीठो होय उदोत, घड़ा रो डावड़ो।
रवि चढ कन्या राशि, तपायो तावड़ो।।

भावार्थ: आठों ओर झल झूलनी ग्यारस को भगवान को जल मे स्नान कराया जा रहा है, खंजन पक्षी प्रकट हुये है और लुकं जण पक्षी (वर्षा ऋतू का एक पक्षी) कहीं पास मे भी दिखाई नहीं देता है। हंसो ने मौन रहना त्याग दिया है, और चोंचों से चहचहाने लगते है। अगस्त तारा (कुंभज-घड़े का पुत्र) दिखाई देने लगा है। आसोज का सूर्य कन्या राशि मे आ गया है। और धूप तपा रही है

टिप्पणी: आठूं दिशाओं (उतर, ईशान, पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैरित्य, पश्चिम, वायव्य सभी तरफ) में भगवान मधुसुदन का जैसा कि जल झूलनी ग्यारस को जल विहार करवाया जाता है, मन्दिरों से रेवाड़ीयां (झांकीयां) निकाली जाती है। स्थानीय भाषा मे भगवान के बाल स्वरूप के पोतड़े धोना कहते है। भगवान को जन्माष्टमी के बाद अठारहवें दिन पर यह उत्सव तालाब बावड़ी या कूप पाणीकी जगह मनाया जाता है। धन्य है हिंगलाजदानजी की प्रज्ञा और उनका शब्द सौस्ठव…….


[७]

नीझर जऴ खहऴां नऴां, तारां झऴहऴ तेज।
कर रूपी ऊजऴ करां. जोड़ै चांद अजेजमा।।
जोड़ै चांद अजेज, धजाबंध धोकवै।
नौऊं लाख नखत्र, उछब अवलोकवै।।
शीतऴ मंद सुगंध, बहीजै बायरो।
फरकै लाल फतूह, रिधू सुररायरो।।

भावार्थ: पर्वतों में झरनो का पानी खऴ खऴ बह रहा है, तारों मे झलझलाहट करता तेज है, किरणों रूपी उज्वऴ हाथों से चांद शीघ्र ही हाथ जोड़ता है। वह देवी को धोक लगाता है। नौ लाख तारे उत्सव देख रहे हैं। शीतल मंद सुगंधित वायु प्रवाहमान हो रहा हैं। जिससे देवी का लाल झण्डा प्रत्यक्ष फहरा रहा हैं।।

टिप्पणी: दुर्गा बहतरी मे हिंगलाजदान जी कविया ने देशनोक मंढ के वर्णन मे तीस नम्बर के दुहाऴे मे लिखा है कि

हिंदुवाण रो घ्राण देशाण हूगो,
वणारो अलंकार प्राकार ऊगो।
बुरज्जां चंहूं जांण लोकेश बाका,
पृथी आभरो बीच भांगै पताका।।30।।

अर्थात देशनोक हिंन्दुस्तान का नाक हो गया है। और वहां का श्रीमंढ का दुर्ग अलंकृत है उदित है, और दुर्ग की चारों ओर की चारों बुरज्जैं परमपिता ब्रह्मा के चारों मुखों की भांति शोभायमान हो रही हैं तथा पृथ्वी और आसमान के बीच के शुन्य को भगवती की पताका भेद (भांग-खंडित) कर रही है। धन्य है हिंगलाजदानजी की मेधा व उनका साहित्य सृजन।


[८]

आई जनम उछाह मे, ठाई ठकुराण्यांह।
हंसहाली हाजर हुई, सुकव्यां सवासण्यांह।।
सुकव्यां सवासण्यांह, तिया कुऴवंतियां।
झाऴण कमल प्रभात, दजूजऴ दंतियां।।
दास्यां नै लख दादि, प्रजाऴै पांणियां।
जावै नांहि चरित्र, जिकां रा जाणियां।।

भावार्थ: जन्मोत्सव के उत्सव मे प्रतिष्ठित ठकराणिंयां आई। सुकवियों (चारणों) की कुलवंती महिलाएं भी हंस की गति से चलती हुई आई। दिखने मे प्रभात के कमल की भांति ऊज्वल दांतों वाली सुदंर आभा लिए हुए थी। उनके साथ दासियां भी थी जो पानी मे भी आग लगा सकती हैं उनका मंतव्य कोई भी नहीं जान सकता है, उनको लाख लाख दाद (शाबासी) है।

टिप्पणी: आदरणीय हिंगलाजदान जी महाराजा दशरथ की महांरानी कैकैयी की दासी मंथरा से लेकर जोधपुर के राव मालदेव की रूठी राणी (उमादे भटीयाणी) की दासी भारमली एंव अंग्रेजों के जमाने के राजे रजवाड़ों मे होने वाले दास दासियों की भूमिका से परिचित थे। धन्य है उनका इतिहास का ज्ञान और धन्य है उनकी सुक्ष्म दृष्टि।


[९]

हव कागां आदर हुवा, पित्र जिमावण पीक।
जनम्या किनियाणी जिकी, जाणी समय नजीक।।
जाणी समय नजीक, तिथि अवतार री।
किया अग्र कुल काम, तजुरबाकार री।।
करि सालगिरह को काम, रिधू रिझाण नूं।
देवी ईंदर याद, कियो दीवाण नूं।।

भावार्थ:श्राद पक्ष में पितरों की संतुष्टि के लिए कौऔं की गरज करके खिलाई जाने वाली सामग्री, हव्य कव्य की भी आवश्यकता महसुस हुई। क्योंकि देवी के अवतार के समय की तिथि नजदीक ही थी। इसके लिए पहले भी इस प्रकार के काम को संम्पादित किए हुए अनुभवी (तजुरबाकार) दीवाण को देवी ईंद्रबाईसा ने श्री करनी जी महाराज को रिझाने की तैयारी करने के लिए अपने पास बुलवाया।

टिप्पणी: हर जगह हर स्थान पर देशकाल की परिस्थिति के अनुसार नवरात्र स्थापन से लगभग ऐक मास पुर्व ही तैयारीयां परवान पर होने लग जाती है और उत्सव का माहौल तथा उमंग बढ जाता है।


[१०]

हीराचंद परतू हुवा, सीकर अकल समंद।
पाया देस-दीवाण पद, जीं घर रो फरजंद।।
जीं घर रो फरजंद, तिकानूं तेड़ियो।
ऊच्छब जनम उदंत, छत्राऴी छेड़ियो।।
सुणि श्रीमुख समाचार, जुगल कर जोड़िया।
चंडी रा श्रीचंद, हुकुम सिर चोड़िया।।(10)

भावार्थ: सीकर ठिकाणे के अत्यन्त बुध्दिमान दीवान हीराचंद व परतू, जिन्होने देश दीवान का पद प्राप्त किया था। उन्हीं के वंशज दीवान श्रीचंद जी को बुलाया और प्रकट रूप से श्रीकरनी जी के जन्मोत्सव की बात छेड़ी। बाईसा के श्रीमुख से आदेश सुनकर दोनों हाथ जोड़ कर श्रीचंद जी ने देवी की आज्ञा शिरोधार्य की।

टिप्पणी: दीवान श्रीचंद जी सीकर के रहने वाले थे। वर्तमान में PNB मुख्य शाखा वाले भवन के चारों और के भवन उनके वंसजों के आधिपत्य में हैं। श्रीचंद जी दीवान ने श्रीमंढ खुडद धाम मे बनाये भवन श्रीकरनी भवन, भगवती भवन, परकोटा, प्रधान पौऴ व उस पर चढी किंवाड़ों की जोड़ियां अपनी देखरेख मे सीकर के कारीगरों खातियों से बनवाये थे जिन पर शेखावाटी की कला परिलक्षित होती है।


[११]

दूजा कुल दीवाण रै, कीधा सुपरद काम।
मंढ अन्दर सुन्दरमुखी, आढी रो इन्तजाम।।
आढी रो इन्तजाम, अई दुरसावती।
भांमी चिमनकुमारि, ईंदर मन भावती।।
दास्यां पकड़ि दकालि, जकड़ि इंतजाम में।
मांगी आदि तमाम, लगाई काम में।।

भावार्थ: दुसरे समस्त काम तो दीवान के सुपुर्द किये गये। मंढ के अंदर सुंदरमुखी आढी चिमनबाई का इंतजाम था। दुरसा आढा के वंश की चिमनकुमारी जी अंन्दाता की मन भावती भक्त थी। उन पर देवी ईंद्रबाईसा की विशेष कृपा थी। उन्होने मांगी आदि कई दासियों को इंतजाम में सेवा कार्य मे लगा दिया।

टिप्पणी: आढी चिमनकुँवरी इतिहास प्रसिद्ध महाराणा प्रताप व अकबर बादशाह के समकालीन बारहठ दुरसा जी आढा जो चारणों के प्रसिद्ध आउवा गांव के धरने में भी शामिल हुये थे, उनकी वंशजा थी तथा जोधपुर महाराजा मानसिंह जी के भाषा गुरू, कविराजा, व अच्छे दोस्त आशिया बांकीदास जी के वंशज व तत्कालीन जोधपुर के कविराज मुरारीदान जी की धर्मपत्नि थी।

प्रसिध्द क्रांतिकारी केसरीसिंह जी के पिता बारहठ कृष्णसिंह जी सौदा ने महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण के ग्रंथ वंश-भास्कर की उदधि मंथनी टीका मुरारीदान की जोधपुर स्थित हवेली मे ही रह कर की थी।

उक्त ग्रंथ की टीका करते एक प्रसंग मे गलत व्याख्या हो जाने पर कविया हिंगलाजदान जी के वहां पर उसी समय उपस्थित रहने का संयोग बन गया और उसी वक्त काव्य मर्मज्ञ कविया साहब ने सौदा बारहठ बंधुओं को काव्यमय उपालम्भ दिया। जिसे मैं आप सरदारों को प्रेषित करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।

।।दोहा।।
निराधेय आधेय को, रच्यो न ब्रह्मा रूप।
ऊगाई आकास में, बेल कहां बेकूफ।।
।।सवैया।।
बेल उगाय महाबिल में, जुलमी जलयान पहार मे जोदै।
दच्छिन नाम कूं वाम लिखैं, अरू वाम कूं दच्छिन काम कूं खोदै।
पाय मुरार के आय पर्यों, उनकी बिन राय उराहन कोदै।
हा रविमल्ल महाकवि की, सब की सब काव्य बिगार दी सोदै।।

इतना सुनते ही कृष्णसिंह जी बारहठ ने कविया साहब से परिचय किया, उनका अभिवादन किया यथाजोग सम्मान किया व आगे सदैव मैत्री भाव का निर्वाह किया। ऐसे महाकवि हिंगलाजदानजी को शत शत नमन।


[१२]

मंढ सिणगारत मदत में, सावाण्यां हदसाथ।
गोण पदम पद हसत गति, हसतासण छद हाथ।।
हसतासण छद हाथ, नमो मृग नैणियां।
वीणा सुरसति बैण, बऴे पिक बैणियां।।
गावै चिरजा गीत, संगीत बिसारदा।
बोलै नारद वाह, सराहै सारदा।।

भावार्थ: मंढ के श्रृगांर में मदद देने के लिए चारण महिलाओं ने बहुत सहायता की, उन सभी की चाल गजगामिनी (हाथी की गति) के समान थी। उन मृगनयनियों को प्रणाम है। उनकी वाणी सरस्वति की वीणा के समान थी और वे कोकिलकंठी थी। उन विशारद महिलाओं ने चिरजायें (देवी की स्तुति के गीत) इतनी अच्छी तरह गाई कि नारद भी वाह वाह करने लगे और मां सरस्वति शारदे ने भी सराहना की।

टिप्पणी: जागावत हिंगलाजदान जी निवासी बुढऴा चारणवास जो कि अन्दाता ईंद्र बाईसा के मामाश्री थे व कविया साहब से लगभग बीस वर्ष छोटे थे। दोनो उच्च कोटि के कवि थे। दोनो मे अटूट प्रेम था। दोनो पिता पुत्र, गुरू शिष्य जैसे सनातन का पालन करते थे। दोनो समसमान रचना बनाते थे। एक दुसरे को दिखाने के बाद बहुत प्रसन्न होते थे (काश आज हमारे समाज के सरस्वति साधक स्वर उपासक चिरजा गायक बंधुओं मे भगवती वही प्रेम बनाये)। जागावत जी ने मंढ के श्रृंगार के विषय मे लिखा है-

।।सोरठा।।
आछा सह इंतजाम, हित थारै कीन्हा हुता।
हुवो सुरग सो धाम, ओमंढ आखिर ईश्वरी।।
।।सवैया।।
जय थान खुरद्द धिनो जननी, घनि मंदिर की अति सुंदरता।
धनि भोर दुपैर रू साँझ धुनि, हुव जोत उद्दोग ज्यों भै हरता।
जगदंम्ब यहाँ पर ब्राजत है, कमलासन आदिहु के करता
कर जोर कवि हिंगलाज कहै, नृप आवत पावन में परता।।

उस समय समाज के अन्य कवि कोविदों ने भी विपुल साहित्य सृजन किया था


[१३]

सुंदर मंढ सिणगारियो, अन्दर सूंज अनेक।
चढती बढती चोगणी, ये कण हूंता येक।।
ये कण हूंता येक, महारऴियामणी।
देखै अमृत दीठी, जिकां जग जामणी।।
गाजै धुनि गंभीर, मृंदगां मादऴां।
बाजै नोबत गौड़, गुड़ावै बादऴां।।(13)

भावार्थ: ये महिलाएं शोभा में आभा में एक एक से बढ चढ कर चौगुणी थी। इन्होने श्री मंढ को अन्दर से सौन्दर्य पुर्वक सजाया। इन महिलाओं को जगत जननी अम्बा ईंद्रबाईसा ने अमृत दृष्टि से देखा। वहां मृदंग और बड़े नगारे गम्भीर ध्वनि से ऐसे गर्जना करने लगे जैसे बादऴों में गर्जना की होड़ लगी हो।


[१४]

जा सीकर भेज्यो जवण, दीनखान दीवाण।
पांण तसब्बी बिण पढै, मुख नब्बी रहमाण।।
मुख नब्बी रहमाण, अकल में एहड़ो।
बीरब्बल की बुध्दि, भरै जऴ बेहड़ो।
जो लुऴै कपि जेम, कबूलै चाकरी।
नह भूलै नम्माज, रसूलै पाकरी।।

भावार्थ: श्रीचंद जी दीवान ने सीकर जाकर अपने दीवान दीनखाँ को भेजा। वह अपने हाथ मे माला लिये बिना ही नब्बी और रहमान का नाम लेता रहता था। वह बहुत अधिक बुध्दिमान था, उसकी बुद्धि के आगे बीरबल की बुद्धि भी पानी भरती थी। वह कपि (हनुमान जी जो श्रीरामचंद्रजी के सम्मान मे) के समान झुककर अदब से प्रणाम करता था और सेवा करना स्वीकारता था। वह रसूले पाक (मोहम्मद) की नमाज कभी भी नहीं भुलता था।

टिप्पणी: अंदाता ईंद्रबाईसा ने आयोजन का काम श्रीचंदजी दीवान को बता दिया व श्रीचंदजी दीनखाँ को अपने साथ लेकर सारे काम को सफलता से संम्पन करने मे जुट गये। सारा काम यथा योग्य सम्पन्न होने की संरचना तैयार हो गई। मां भवानी के जन्मोत्सव की वेला नजदीक आ गई।।


[१५]

दूरी नेड़ी देवियां, तेड़ी ईंद्र तमाम।
खड़ि सिंहां आई खुड़द, गेढा नामक गाम।।
गेढा नामक गाम, अखाड़ै ईंद्ररै।
जऴ माऴावण जाण, दुग्ध सांमदरै।।
सामां ईंद्र सिधाय, मिऴै घण मोदहूँ।
आखै मुख आदूश, बिसेस बिनोदहूँ।।

भावार्थ: अंदाता ईंद्रबाईसा ने पड़ोस ओर दूर की समस्त देवियों को बुलाया, जो गेढा खुर्द (खुड़द) ग्राम मे ईंद्रबाईसा के मुख्य स्थान पर अपने सिंहो को हांकते हुये ऐसे आई जैसे क्षीर सागर से जऴ की मेघमाऴाएं आती है। ईंद्रबाईसा ने उन देवियों के सामने जाकर उनका सम्मान किया, और उनसे अति प्रसन्नता से बातचीत की व ससम्मान श्रीमंढ खुड़द धाम मे लेकर आये।

टिप्पणी: जागावत हिंगलाजदानजी ने भी इस पर लिखा है कि-

।।सोरठा।।
झड़ै मुखां सिंह झाग, बोले शिवा नकीब ज्यूँ।
मावै नह इक माग, वाहण अड़वड़ता बहै।।
खड़ि सिंहां उड़ै खेह, दीह हुय गयो धुंधऴो।
आई शकति अछैह, आवड़ साथे ईश्वरी।।

अर्थात: शेरों के मुखों से झाग झड़ रहे है व युध्द के नकीबों जैसी आवाजों का शोर हो रहा है। शेरों के चलने के लिये रास्ता छोटा पड़ रहा है।
शेरों के चलने से उनके पांवों से उडने वाली रज धुली से दिन का उजास भी फीका पड़ गया है। आज मां भगवती आवड़जी के साथ अनेकानेक शक्तियां आई है।

धन्य हैं उस काल के चारण कवि जिन्होने इस सृजन को समाज के लिये धरोहर के रूप में छोड़ा।


[१६]

भेऴा बावन भैरवां, लीधां खेऴा लार।
संग जोगण बत्तीस सूं, दूणी ताबादार।।
दूणी ताबादार, नंह चूकै नौकरी।
नारां अग्न नकीब, फबीजै फ्योकरी।।
आवै देव्यां ऐम, चसक्यां चूमती।
दाढां चाढत दाब, घणै मद घूमती।।(16)

भावार्थ: देवियों के साथ बावन भैरव थे और पीछे सेवक भी थे। साथ मे चौसठ (बत्तीस से दुगुणी) जोगणियां भी थी। जो सेवा मे थी तथा सेवा करने मे कभी भी चूक गलती नहीं करती थी। देवियों के वाहन सिहों के आगे सतर्कता की आवाज बुलन्द करने वाले नकीबों के रूप में श्रृगाल भी शोभा दे रहे थे। ये देवियां मद की चुसकियां चूमती, अपनी दाढों मे नमकीन चबैना दबाये मद मे झूमती हुई श्री मंढ खुरद मे आई। (पदार्पण किया)।

टिप्पणी: जागावत हिंगऴाजदान जी ने भी सुंदर वर्णन किया है कि-

।।सौरठा।।
चांमुड छपन करोड़, डाढाऴी संग डोकरी।
म्हादैव्यां सिर मौड़, आगे सब के ईश्वरी।।
छिटक नाथ छिलाण, ईंदू ने कीन्ही अरज।
प्रतिबिम्ब सुरज प्रमाण, आय रह्या है ईश्वरी।।

अर्थात: जब मां ईंद्रेष भवानी शक्ती समूह की अगवानी करने सामैऴा पधारे तो छिलाणनाथ भैरव ने बाईसा को अरज किया कि देखो बाईसा सूरज का तेज व रोसनी मंदी पड़ गई है क्योंकि चामुंड छप्पन करोड़ देवियों को साथ लेकर श्री करनी मां जो देवियों की सिरमौड़ है सबसे आगे चलती हुई आ रही है। (जोगीदान जी की चिरजाः अम्बायै मौरी सह सकत्याँ सिरमौड़ देवि देशाणै बिराजै जी बहुत ही प्रसिध्द रचना है तथा चारणों के गांवो मे मातृ शक्ती द्वारा गाई जाती है। सीकर चारण छात्रावास मे इस चिरजा को सन 2010 के जागरण मे एक मुसलमान गायक ईकबाल भाई ने बहुत ही सरस तरीके से गाया था।)
नकीब – पहले जब राजा महाराजा, नवाब बादशाह आदि दरबार मे या युध्द के मैदान मे जाते थे, तो नकीब लोग ऊंची आवाज मे उनके आने की घोषणा करते थे।


[१७]

कूट मेर भाखर किधो, खुड़द रिधू मढ खास।
भिड़त नींव बासक भ्रकुट, अड़त धजा आकास।।
अड़त धजा आकास, फरूकै फूटरी।
ले झऴ लाय बलाय, खुबी अणखूटरी।।
बलिहारी धुजदंड, बिसेस बिसाल री।
लाजै कुज लावण्य, लखे धुज लालरी।।

भावार्थ: यह मंढ निश्चित रूप से खुड़द का है तथा इसका शिखर सुमेरू पर्वत का है। इस मढ की नींव पाताऴ मे वासुकी नाग की भृकुटि से मिल गई है, और इसके शिखर की ध्वजा आकाश को छू रही है। आकाश को छूती हुई यह ध्वजा सुन्दरता से लहरा रही है। लहराती हुई ध्वजा अग्नि की लपटों की बलिहारी ले रही है। उसकी सुन्दरता अणखूट है। जिस दण्ड पर ध्वजा है उस दण्ड की विशेष विशालता की भी बलिहारी है। ध्वज दण्ड पर लगी लाल ध्वजा की लालिमा के आगे मंगऴ ग्रह की लालिमा भी लज्जित हो जाती है।।

टिप्पणी: माननीय कविया साहब ने मेहाई महिमा मे देशनोक मंढ वर्णन मे बताया है कि-

पड़ै दीठ आसेर ज्यों मेर पब्बै।
दुति देखियां सुर्ग रो दुर्ग दब्बै।।
सिला रा किला द्वार चित्राम सोहै।।(31)
कपाटां तणी गाढता बज्र कीसी।
बणी भालि ज्यों जज्र बाकै बतीसी।।
कसै ब्याऴ हूं नींव पाताऴ कानै।
महा उच्चता भाखरां तुच्छ मांनै।।(32)

अर्थात: देशनोक के (आसेर-किला) मंढ पर दृष्टि पड़ती है तो पर्वतीय किलानुमा दिखाई देता है, और उसकी आभा शोभा देख कर स्वर्ग का दुर्ग भी दबता है। मकराणा पत्थर की सिलाओं पर चित्राम बणाकर द्वार पर लगाया गया है जो अति शोभायमान हो रहा है। श्रीमंढ की शौभा अलौकिक जो कई लोकों को लुभाती है।
कपाट किंवाड़ों की मजबूती ईंद्र के बज्र के बराबर है। बणावट यमराज के मुंह की दांतो की बत्तीसी जैसी है। किलै की नींव पाताऴ की गहराई तक कसी हुई है, और ऊँचाई मे भाखरों पर्वतों को भी मात करती है।

धन्य है ठाकुर हिंगऴाजदान की उपमाएं लगाने की कला। साधारण आदमी तो यह बातें सोच भी नहीं सकता। एसी विभूति को बारम्बार नमन।


[१८]

सातूं दीपां सेहरो, धू छोगो चंहुं धाम।
तीनूं लोकां रो तिलक, गेढो खुड़द गाम।।
गेढो खुड़द गाम, बऴे बाखाणजै।
नाकपुरी रो नाक, जिकानूं जाणजे।।
बसती नांहि बिसेस, सदन छै सात हूं।
ईंद्र लियो औतार, बड़ो इण बात हूं।।(18)

भावार्थ: गेढा खुड़द गाँव सातों द्वीपों का सैहरा है और चारौं धामों का छोगा है। यह तीनों लोकों का तिलक है। गेढा खुड़द गाँव का मैं फिर (बऴे-दुबारा) वर्णन करता हूं। इस गाँव को (नाकपुरी) स्वर्गपुरी का भी नाक मानना चाहिए। इस गाँव मे केवल छह सात ही घर हैं। विशेष बड़ी सघन बस्ती नहीं है। परन्तु यह गाँव इसलिए बड़ा है क्योंकि इसमें ईंद्रबाईसा महाराज ने अवतार लिया है।

टिप्पणी: दुर्गा बहतरी छंद संख्या (44) में बताया गया है कि-

अभै-दान जैसाण बीकाण अप्पै।
तिका आज जोधाण रै राज तप्पै।।
आई आवड़ा नाम विख्यात येऴा।
बजै ईंद्रबाई जिका येण बेऴा।।(44)

अर्थात: जगत जननी भगवती माँ हिंगऴाजा ने अपने आवड़ मां के रूप मे अवतार लेकर जैसलमेर को अभयदान दिया और श्रीकरनी मां के रूप मे अवतार लेकर बीकानेर को वरद हस्त अभय किया। वही आई आवड़ा मां आज पृथ्वी पर जोधपुर राज मे अवतरित हुई है और ईंद्रबाईसा नाम से विख्यात है।


[१९]

हरख हगामा होकबा, विधि विधि राग विधान।
मन चाया मंगऴ धमऴ, थाया खुड़द सुथान।।
थाया खुड़द सुथान, अलोकिक ऐहड़ा।
माण तजै उपमाण, कहीजै केहड़ा।।
जां आगे छिप जाय, सुरग सुरराज रो।
रंक जिसो सुरराज, इसो दिन आज रो।।

भावार्थ: यहाँ हर्षपूर्वक हल्ला व चहल पहल हो रही है और विविध प्रकार की राग रागिनियाँ गाई जा रही है। खुड़द स्थान मे मन चाहे मांगऴिक उत्सव हो रहे हैं। ये उत्सव ऐसे अलौकिक हैं कि जिनको कोई उपमा दी जाये तो उपमान भी अपना मान तज (छोड़) देता है। ऐसे अनुपमेय स्थान को किसके समान कहा जाये, किसके समान उपमा दी जाये, कैसे इस उछब का बखाण किया जाये। आज खुड़द के सामने देवराज ईंद्र का स्वर्ग भी छिप जाता है। आज खुड़द के वैभव के आगे देवराज ईंद्र भी दरिद्र दिखाई देता है।

टिप्पणी: आप सरदारों मे से कई श्रीमंढ खुड़द धाम मे संपन्न ”श्री आवड़ करनी ईंद्र” महायज्ञ जो तीन बार ईस्वी स.1992, 1994 व 2007 मे आयोजित हुये थे में गए होंगे। उस समय भी खुड़द धाम का वैभव कल्पनातित व अनिवर्चनिय था और मुझे तीनों महायज्ञों के समय श्रीमंढ खुड़द धाम जाने का सौभाग्य भवानी कृपा फल से प्राप्त हुआ था।

कवि कविया हिंगऴाज रो जस कथियो नंह जाय।
अबिढा लछणां व्यंजणा, शब्दां म न समाय।।

गाडण शम्भुदान जी ने हिंगऴाजदान जी की कविता बनाने की मरोड़ व उपमा लगाने की कला से प्रभावित होकर उक्त दोहा उन को अर्पण किया था। कविया जी जैसा विराट व्यक्तित्व व गहरी समझ बूझ का धनी कवि भी उछब की उपमा लगाने मे असमर्थता प्रकट करता है तो पाठक गण आयोजन की महत्ता व शोभा आभा का अनुमान अपने आप लगा सकते हैं।
नमन है मां श्रीकरणीजी व ईंद्रबाईसा को व आभार है कविया हिंगऴाजदान जी को।


[२०]

तेज पुंज मूरति तणी, एहड़ी सूरति आज।
भाखि न सक्कै भारती, रटि थक्कै गणराज।।
रटि थक्कै गणराज, इसी छबि आपरी।
हीमति कथण न हो, सहस फण सांपरी।।
सोचो सुकवि समाज, अकल अंदाज हूं।
भाखीजै किण भांति, जिकी हिंगऴाज हूं।।

भावार्थ: वहाँ आज करनी माँ की ऐसी तेजोमय मूर्ति देखी जिसकी प्रशंसा और वर्णन सरस्वति भी नहीं कर सकती तथा गणनायक गणेश जी भी प्रशंसा करते थक जाते हैं। माता की छवि का वर्णन करने की हिम्मत सहस्त्र फणधारी शेषनाग की भी नहीं हो सकती। इसलिए चारण समाज अपनी बुध्दि के अनुमान से सोच कर कहिये कि मैं हिंगऴाजदान उस छवि का बखाण व वर्णन किस प्रकार कर सकता हूँ।

टिप्पणी: आदरजोग हिंगऴाजदान जी का बड़प्पन कितना है कि अपनी आत्मश्लाघा से कौसों दूर कभी भी अपनी महत्ता प्रकट करने की कामना नहीं। श्रीमँढ खुड़द की प्राण प्रतिष्ठा व मूर्ति स्थापना जब संवत 1988 जैठ सुदि बीज (द्वितीय) को हुई थी तब अन्नदाता श्रीईंद्रबाईसा महाराज को हिंगऴाजदान जी ने मेहाई-महिमा ग्रँथ बनाकर सुनाया था। तब भी उन्होंने अपनी लघुता व अपना बाईसा को सुनाने का सौभाग्य इन दो दोहों द्वारा प्रकट किया था।

मोंनू सोनू सूगंध मिल्या, बलिहारी इण बातरी।
साक्षात शक्ति ईंद्र सुणै, महिमा करनी मातरी।।
आठ आठ नव एक, जैठ बीज उजऴ जदिन।
बूढो कवि अविवेक, मेहाई महिमा मूणी।।

जय माँ श्रीकरणी जय माँ ईंद्र। धन्य कवि रचनाकार कविया जी।


[२१]

खुद इन्दर हाजर खड़ा, थऴवट राय सथान।
नव कोड़्याँ ताबीन में, जोड़्याँ भुज आजान।।
जोड़्याँ भुज आजान, फबै धज फूटरी।
मंडण पांण कृपाण, सुनैरण मूंठरी।।
हद मद प्याला हूंत, ललाई लोयणां।
राती दऴ कुरबाण, प्रभाती पोयणां।।

भावार्थ: वहाँ खुद ईंद्रबाईसा थऴवट राय मां श्री करनी जी की हाजरी मे खड़े हैं साथ ही नव करोड़ देवियाँ भी कोहनी तक हाथ जोड़े हुए करनी जी की ताबेदारी मे खड़ी हुई हैं। उनकी सुंदर छवि देखते ही बनती है। ईंद्रबाईसा ने अपने हाथ का आभूषण, सोने की मूंठ की तलवार हाथ मे ले रखी है। मदिरा के प्याले खूब पीने से आँखों मे रक्तिम आभा की ललाई आ रही है। ऐसे नयनो पर लाल दल वाले प्रभात के कमल पुष्प भी न्योछावर किये जा सकते हैं।


[२२]

अति रूड़ोपति आसियो, राजगणां कविराज।
सो आढी ठाढी सबै, काज सुधारण काज।।
काज सुधारण काज, हुकम मैं हालणी।
सेल अणी कऴिराज, कऴेजै सालणीं।।
मांण तजै उपमाण, सबै यण सामनै।
जीभ कबूले जाप, न भूलै नामनै।।

भावार्थ: वहाँ राजागणों के राजा कविराजा आशिया वंश के चारण जोधपुर राज के कविराज जी की धर्मपत्नि चिमन कँवर आढीजी सब कार्य सुधारने के लिए तत्पर खड़ी है। वह देवी की आज्ञा मे चलने वाली है और कलियुग के कलेजे मे सैल की नौंक की तरह खटकने वाली है। इसके सामने उपमान अपने मान को तज देते हैं अर्थात वे अनुपमेय है। वह देवी के नाम को कभी भी नहीं भूलती है और सदा अपनी जिव्हा पर जपती रहती है।

टिप्पणी: चिमन कँवर जी आढी भगवती श्रीकरनी ईंद्रबाईसा की अनन्य भक्त थी। वह अपने पीहर पक्ष मे दुरसा जी आढा की वंशजा थी। दुरसा जी अकबर के दरबारी कवि थे परंन्तु उन्होंने महाराणा प्रताप पर विपुल रचना लिखी थी। और चारणों के प्रसिध्द आउवा के धरने मे अपने पेट मे कटारी से वार किया था किन्तु होनहार भावी के बऴ जीवित बच गए थे।

ससुराल पक्ष मे प्रसिध्द कवि बाँकीदास जी आशिया की परंपरा की कुलवधु थी। कवि बाँकीदास जी देशभक्त कवि थे। अंग्रेजों की गुलामी के लिए भारतवर्ष के समस्त राजन्य वर्ग को कविता में फटकार लगाई थी। एक बार भरतपुर महाराजा के साथ गौरौं की लड़ाई मे प्रकट रूप से भरतपुर के साथ रह कर संन्यासियों की जमात ने गौरौं से मिल कर धोखा किया तब बांकीदास जी ने डिंगऴ गीत के माध्यम से साधुओं को कड़ी फटकार लगाई थी।

इस प्रकार के दोनों ही उजऴे खानदान की पुत्री व कुलवधु का काम शोभायमान ही होना था।


[२३]

हंसहाली केहरी कड़ी, पंकज नयण प्रतच्छ।
तन ओपै अच्छी तरां, लच्छी रा सह लच्छ।।
लच्छी रा सह लच्छ, गयंद गति गामणी।
लाजै लखि लावण्य, मनोभव कामणी।।
लीधा भूखण लाज, बत्तीसूं लच्छणी।
बारह बीस बत्तीस, कऴां वीलच्छणी।।

भावार्थ: उनकी कमर सिंह की कमर के समान है। वे हंस की गति के समान चाल से चलती हैं। उनके नयन प्रत्यक्ष कमल के समान हैं। उनके शरीर पर लक्ष्मी के सभी लक्षण अच्छी तरह शोभित होते हैं। वे हाथी की तरह मंद मंद चलती हैं। उनके सौन्दर्य को देख कर कामदेव की पत्नि रत्ति भी लज्जित हो जाती है। वे लाज का भूषण लिए हुए हैं और बत्तीसों लक्षणों और विलक्षण चौसठ कलाओं को धारण किये हुए हैं।

टिप्पणी: हिंगऴाजदानजी की परख अत्यन्त पैनी व पहचान शक्ती गहरी त्तीक्ष्ण थी। सँख्याँऔं के जोड़ का तरीका भी अद्भुत व बयण सगाई युक्त था। जैसे 12-20-32 अर्थात तीनो का योग चौसठ, वह भी बयण सगाई के साथ।


[२४]

घण जांणग आढा घरै, पीहर मांहि न पाछ।
ससुराऴो घर आशियां, तुरंग कनोती ताछ।।
तुरंग कनोती ताछ, दहूं पख दाखिजै।
दुरसो र बांकीदास, भला कवि भाखिजै।।
एकण बंस उतन्न, बिये कुऴ बींनणी।
होवै किण हूं होड, तीकी आढी तणी।।(24)

भावार्थ: बहविज्ञ आढा खाँप के चारणों के यहाँ उनका पीहर है, ससुराल आशिया चारणों के घर है, दोनो पक्ष घोड़े की कनौती की तरह बराबर है, जिनमें कोई कसर नहीं है। दोनो पक्ष दर्शनीय है। एक मे दुरसा आढा जैसे और दुसरे मे बांकीदास जैसे उच्च श्रेणी के कवि कहलाते है। ऐसी आढीजी की तुलना मे और कोई नहीं है।

टिप्पणी: दोनो महान कवियों द्वारा रचित दो दो दोहा व सौरठा आप सभी की सेवा मे ज्ञापित है।

वीर विनोद बांकीदास रा दोहा:….
नरहरि थंभ विदारियौ, सेवग हंदी चाढ।
हेक थाप चूरण हुवा, हिरणाकुस रा हाढ।।
वीरां काज वणावियौ, बांकै वीर बिनोद।
वधसी सुणियां बांचियां, मनमैं वीरां मोद।।

अब दुरसा का राणा प्रताप पर रचित:….
अकबर पथर अनेक, कीं भूपत भेऴा किया।
हाथ न लागो हेक, पारस राण प्रतापसी।।
अकबर संमद अथाह, तिण डूबा हिंदु तुरक।
मेवाड़ो तिण मांय, पोयण फूल प्रतापसी।।

दोनों ही आढा व आशिया के बढे चढे खानदान की परंपरा से थी चिमन कुँवरी आढी जी।


[२५]

चाढी श्री आढी चिमन, भगवती रै भेंट।
तन मन धन कमरा तिका, व्है भोजण जां हेट।।
व्है भोजण जां हेट, कई परकार रा।
आलीसांन उदार, भवन घण भार रा।।
जो कमठांणां जोय, मुहूंगा मोतियां।
दुरसावति नै दाद, दई दैसोतियां।।(25)

भावार्थ: आढी चिमनबाई ने भगवती को समर्पण भाव (तन मन धन) से भेंट चढाई वहां कमरों मे भोजन बन रहा था, वह कई प्रकार का था। कमरे व भवन भी बड़े और आलीशान थे। इन कमरों को महंगे मोतियों की तरह देखा गया और दुरसावती जी (आढीजी) को देशपतियों ने दाद दी। प्रशंसा की।

टिप्पणी: चारण समाज मे ईतर समाज से अलग मान्यता यह है कि महिला विवाह के पश्चात भी अपने पीहर कुऴ के गौत्र से पहचान कायम रखती है जो महिला के मान सम्मान का प्रतीक है। वर्तमान समय में जब बीरम या ढोली चारणों घर के आँगन में आते हैं तब महिलाओं को उनके पीहर पक्ष के पुरखों की एतिहासिक व सम्मानित विरूदावली से ही दुआ शुभराज करते हैं। यह चारण समाज की बहत बड़ी उदारता का द्योतक है।

भारतीय संस्कृति भी नारी समान की बात करती है पर चारण समाज सदियों से इसे चरितार्थ करता आ रहा है।


[२६]

चांदी रा पट चाढिया, आछा कंवरी अनूप।
मांहि मनोहर मूरत्यां, सुन्दर अधिक सरूप।।
सुन्दर अधिक सरूप, भणै जिण भांतरी।
बुझै कवण बखाण, कलानिधि कांतरी।।
सेवक करवा सेव, खमा भणि खोलही।
जद ऐ मूरति जांण, बदन हूं बोलही।।

भावार्थ: अनोपकंवरजी (नीमराणा की बाईजी) ने चांदी के किंवाड़ चढाये। अंदर मनोहारी सुंदर मूर्तियां बनी हुई हैं, उन मुर्तियों की सुंदरता के लिए क्या कहा जाये। उनकी कला के सामने चँद्रमा की काँति को भी कौन पुछता है। इन किंवाड़ों को जब सेवकगण ”खम्मा-खम्मा” कहते हुए खोलते हैं तो मुर्तियां ऐसी दिखाई देती हैं जैसे मुंह से बोलने लगेंगी।

टिप्पणी: नीमराणां ठिकाणे के ठाकुर की पुत्री अनूपकँवरी जो जन्मजात पैरों से पांगऴी थी, उसे जब ईंद्रबाईसा के चमत्कारों का पता चला तो बेताब खुड़द चली आई और वहां पर मात्र दस दिवस मे माँ की कृपा से भली चंगी हो गई थी। तब उसने लकड़ी का अति सुंदर मंदिर बनाकर भगवती को अर्पण किया था तथा कालान्तर मे उसने मंदिर के गर्भ गृह पर चांदी से निर्मित सुंदर किंवाड़ों की नव दुर्गाओं के चित्र बनी जोड़ी चढाई थी और वह ताउम्र भगवती की अनन्य उपासिका रही थी। हिंगऴाजदान जी ने वही यहाँ वर्णन किया है।


[२७]

बाऴां आई बामण्यां, बरसाऴा री बीज।
शाहां कामणि शाहण्यां, ते सांवण री तीज।।
ते सांवण री तीज, खरी हिरणाखियां।
भूंहां छबि अदभूत, धजर धानंखियां।।
जोवण उच्छब जांण, जगत मां जामणा।
रति कीधा बहुरूप, घणा रऴियामणां।।

भावार्थ: ब्राह्मणौं की महिलाऐं ऐसी आई जैसे वर्षा काल की बिजलियां हो। सेठो की महिलाएं भी सावण की तीज की तरह आई। वे सभी मृगनयनियां थी और उनकी भौंहौं की अदभुत छवि धनुष की शोभा के समान अदभुत थी। ऐसा लग रहा था जैसे जगत जननी माँ करनी जी के जन्मौत्सव को देखने के लिए कामदेव की पत्नि रति कई सारे रूप धारण करके आई हो।

टिप्पणी: आदरणीय कवि महोदय ने उत्सव मे पधारे सभी श्रदालुओं का विवेचन बहुत ही बारीकी व सुंदरता से किया है। वैसे भी श्रीमंढ खुड़द धाम की अपनी विशेषता है कि जो मर्यादा अन्दाता ईंद्रबाईसा ने कायम की थी उसे अनुशासन सहित आज भी पालन किया जाता है। वर्तमान समय मे भी ब्राह्मणों, बणियों, सोनारों, ओसवाऴों व मेहरा आदि जातियों के श्रदालुऔं की सँख्या सर्वाधिक है तथा इनमे से कई महानूभाव तो भगवती के अनन्य भक्त हैं। उदाहरणार्थ लक्ष्मीनारायण जी सोनी श्रीडूंगरगढ, ये दिनरात भगवती के भजन में ही लीन रहते हैं। और भी अनेक अनन्य उपासक हैं, उनकी चर्चा कभी समयानुसार आगे की जायेगी।


[२८]

जाटां सागै जाटण्यां, सझि आई सिणगार।
काच जड़्योड़ी कांचऴ्यां, हांचऴ ढाकणहार।
हांचऴ ढाकणहार, लसै सिर लोइयां।
रूड़ी काजऴ रेख, कढ्योड़ी कोईयां।।
लागै नजर बिलोकि, धजर कड़ि धाबऴां।
बप सौदागर बांह, समोबड़ साबऴां।।

भावार्थ: जाटों के साथ उनकी जाटनियां भी श्रृंगार से सजी हुई आई। उनके वक्ष-स्थल काँच से जड़ी हुई काँचऴियों (चोलियों) से ढके हुए थे। उनके सिर पर भारी ओढनियां थी। उनकी आँखो के कोनों मे काजऴ की सुंदर रेखाएं थी। उन्होने कमर मे जो धाबऴे (भारी घाघरे) पहन रखे थे उनको देखते ही नजर लग जाती थी। उनका शरीर सौष्ठव सौदागर के हाथ के सब्बऴ (सैल-भाला) की तरह मजबूत लग रहा था।

टिप्पणी: मध्यकाल मे सौदागर लोग सब्बऴ सैल बेचा करते थे जिनकी माँग सैनिक जातियों में बहुत थी। आपको ज्ञातव्य हो कि माँसा श्री करनी जी भी लोई, लांबी बाँह की आँगी तथा धाबऴो ही धारण करती थी जो कि बहुत से स्तुति काव्य मे वर्णित है। दुसरा तथ्य आपमे से कई बुजुर्गों को ज्ञात है कि श्रीमंढ खुड़द धाम मे अंनदाता श्रीईंद्रबाईसा के देवलोकगमन के पश्चात जाट सुरजा बाबा ही मंदिर की तीनों समय प्रातः, दोपहर व साँय आरती पूजन करते थे। जो अपने आप मे एक मिसाल है तथा वर्तमान मे पुजा श्रीमान भैरूँ सिंहजी करते हैं उन्होने सुरजा बाबा की भी बहुत सेवा शुश्रुषा की थी।


[२९]

आचां चूड़ा ऊमदा, रूड़ा खांचा रूप।
ढाऴा सांचां में ढऴ्या, बाचा में बैकूप।।
बाचा में बैकूप, निगै नैठाव में।
दिल जांरा जगदंबि, भगतिरा भाव में।।
छा ज्यूं का ज्यूं छोड़ि, बिभा घरबार का।
देखण आई दोड़ि, उच्छब अवतार का।।

भावार्थ: उनके हाथों मे बढिया चूड़े थे व भुजाओं मे खांचे पहने हुए थे, जैसे सांचो मे ढाले हुए हों परंतु बोली मे विवेकहीन थी। उनकी दृष्टि धीर, स्थिर व मर्यादा युक्त थी। उनके मन जगदंबा की भक्ति भाव में लगे हुए थे। वे घर बार के काम काज व वैभव को जैसा था वैसा ही छोड़ कर देवी के अवतार के समारोह को देखने के लिए दौड़ी आई थी धन्य है भक्ति भाव।

टिप्पणी: भगवती के जन्मोत्सव का जलसा देखने की श्रदालुऔं की ललक कितनी लालायित थी कि अपने काम धंदे, ढोर डांगर, खेत खलिहान, दोहणा बिलोवणा, बुहारणा झाड़ना, चाकी चुल्हा, सारा वेभव धन सब को छोड़ कर श्रीमंढ खुड़द धाम की और जन मानस का तांता बंध गया था। नमन ऐसी श्रध्दा व आस्था को।


[३०]

अंकावऴि पढ आविया, भड़ बंका अदभूत।
कविजण बंका कायबां, रण बंका रजपूत।।
रण बंका रजपूत, चरण रज चारणां।
बऴू दूवापर बीर, कऴू दूतकारणां।।
तेज तिकां मुख जेठ, दिवाकर तावड़ा।
धोम चखां निरधोम, अंगीरा धावड़ा।।

भावार्थ: निमंत्रण-पत्रों को पढकर बांके योध्दा और रणबांकुरे राजपूत आये, जिनकी सराहना कविजनों ने अपनी कविता में की है। ये बांके राजपूत चारणों के सम्मुख उनकी चरणरज की तरह विनम्र रहते हैं। ये वीर द्वापर के वीरों की भाँति लग रहे थे, और कलियुग को दुत्कारते थे। उनके मुख पर तेज ऐसा दिखाई देता था जैसे जेठ मास की धूप हो उनकी आँखे धोक की लकड़ी के अँगारों की भाँति बिना धुँएं के चमकती हुई थी।

टिप्पणी: पिछले पंद्रह सौ सालों से चारणों व राजपूतों दोनों जातियों का भाईचारे का सम्मान चलता आया था। आजादी के बाद मे स्थितियां बदल गई है, परंन्तु हिंगऴाजदान जी का तत्कालीन राजपूत राजे रजवाड़े बहुत अधिक आदर सम्मान करते थे, यहां तक कि बूड़सू ठाकुर लक्षमणसिंह तो जब भी उनसे मिलते थे तो कविया जी को कुरसी पर बैठाकर खुध उनके चरणों मे बैठते थै। कविया जी ने अपनी प्रसिध्द रचना दुर्गा बहतरी में आखिरी छंद मे भगवती से प्रार्थना की है कि-

कल्पब्रच्छ म्हाराज रा सेवकां को।
बण्यौं राखिजै बूडसू भूप बांको।।

बूडसू की अपेक्षा कुचामण बड़ा ठिकाणा था वहां के ठाकुर शेरसिंह ने शेर की शिकार तलवार से की थी। उस पर मृगया-मृगेंद्र नामक एक शानदार रचना कविया जी ने सृजित की थी पर कुचामण कभी नहीं गये तब शेरसिंह ने उनको बुलाने अपने कामदार को भेजा तो कविया जी ने वजन नापने की प्राचीन ईकाई एक सेर लाख मण तौल के भाव का दौहा सुनाकर कामदार को वापस भेज दिया था।

बैड़ो मदझर बूड़सू, कुण जिण हौड करेह।
जांणू लखमण जांचबा, (म्हारे) सेरां केम सरेह।।

चारण समाज के गौरव ऐसे कविया जी को शत शत नमन


[३१]

खाँगीबंध गेढै खुड़द, आयो प्रथम उमेद।
जाणें सकती रा जको, भकती रा सह भेद।।
भकती रा सह भेद, चढ्योड़ा चेत में।
जोयो मोको जेण, खड़ो व्है खेत में।।
तेड़्या पाड़ि तलास, मजूराँ मीनखाँ।
मेल्यो सल्ला मांहि, दुबाहो दीनखाँ।।

भावार्थ: सबसे पहले गेढा ग्राम के राजपूत (खांगीबंध-तलवार बांधने वाले) ठा. उमेदसिंह आये, जो शक्ति और भक्ति के सब भेदों का जाननै वाले हैं। भक्ति के सब भेद उसके चित में चढे हुए हैं। उन्होने खेत में खडे होकर मौका देखा। उन्होन मजदूरो को तलाश करके बुलाया और बहादुर दीनखां को सलाह के लिए भेजा।

टिप्पणी: आप को ज्ञातव्य हो कि गेढा का ही एक अन्य आतातायी ठाकुर गुमान सिंह अन्दाता ईंद्रबाईसा के ही कोप व क्रोध से बाईसा की भविष्य वाणी के ठीक नौवें दिन अपने गढ की छत पर मृत पाया गया था। और बाईसा के उक्त प्रवाड़ा चमत्कार की चर्चा जन मानस मे सभी जगह फैल गई थी, उसके विपरित उमेदसिंह बाईसा के अनन्य भक्त थे।


[३२]

दीनखांन उमेद रा, पिंड उभय हिक प्राण।
जां आगे घणजांणगर, माण तजै लुकमाण।।
मांण तजै लुकमाण, सिकंदर साह रो।
हर कायमखां हेक, दुवो दूदा हरो।।
दोनूं अकल दराज, सकल रा सींह सा।
सल्ला मोहि सरीक, जहरधर जीह सा।।

भावार्थ: दीनखां और उमेदसिंह के दोनो के शरीर तो दो थे परन्तु प्राण एक ही थे, जिनके आगे सिकंदर बादशाह का लुकमान भी मान छोड़ देता है। एक तो कायमखां का वंशज है तथा दुसरा दूदाजी मेड़तिया का वशज मेड़तिया राजपूत है। दोनों ही बुध्दि में बड़े और सूरत में सिंह से थे। वे सभी सलाहों में शेषनाग की जीभ के समान शामिल थे।

टिप्पणी: डोकरा कवि हिंगऴाजदान जी की लोम-विलोम, सव्य-अपसव्य दोनो गति है। साल-गिरह शतक में हिंदु मुसलमान दोनों जाति धर्म वालों से समान भाव से पूर्णनिष्ठा से काम संम्पन करने का वर्णन करवाते हैं तथा दूसरी तरफ मेहाई-महिमा महाकाव्य में दोनों धर्म के उपासकों राजपूतों व मुसऴमानों के बीच लड़ाई का सुंन्दर वर्णन करते हैं। यथाः-

मियां पतसाह पखै मजबूत, राजा छऴ छोह छकै रजपूत।
लड़ै दहुं काबुल जंगऴ लज्ज, उदंगऴ जांण दिल्लि कनवज्ज।।(77)

काम शान्ति समय व युध्द के मैदान दोनों जगह पुरी निष्ठा व समर्पण से यह खासियत थी कविया सा के काव्य की।


[३३]

भूवार्यौ दोनूं भड़ां, खुद निगरानी खेत।
रंग मजूरां रावतां, रऴि मिऴि सोधी रेत।।
रऴि मिऴि सोधी रेत, बड़ा त्रण बाढिया।
दंताऴा दोड़ाय, कजोड़ा काढिया।।
भूवारां भरभूंट, छिता रा छांणिया।
रूड़ा खूंटा रोपि, तंबूड़ा तांणिया।।

भावार्थ: दोनों वीरों ने मैदान अपनी निगरानी में साफ करवाया। मजदूरों और साथ के ठाकुरों दोनों को रंग (शाबासी) है। जिन्होने हिलमिलकर रेत को साफ करवाया। उन्होंने बड़ा घास कटवा दिया, दंताऴियाँ द्वारा (घास फूस इकठ्ठा करने वाली दाँतों वाली लकड़ी) फेर कर कचरा बाहर कर दिया, पृथ्वी के भरभूंट भी अलग कर दिए और सुंदर खूंटे रोप कर अच्छे तंम्बू तान दिए।

टिप्पणी: रंग मजूरों व रावतो को ही नही है। माननीय हिंगऴाजदान जी सा को भी बहुत बहुत रंग है सुंदर रचना सृजन करने के लिए। देशज भाषा का प्रयोग भी (कजोड़ा काढिया) अवलोकनीय है।


[३४]

ज्यांमें ढाऴी जाजमां, सऴवट काढ्या सेज।
आरोप्या जां ऊपरै, मुड्ढा कुरसी मेज।।
मुढ्ढा कुरसी मेज, ढऴीज्या ढोलिया।
मां-सेवक जा मांहि, कमरबंध खोलिया।।
दरज्यां दीजै दाद, गुणी पट गेहड़ा।
पार न होय पुणंग, मुड़ै मद मेहड़ा।।

भावार्थ: उन तंम्बुओं में जाजमों के सऴ (सलवट) निकाल कर बिछा दिये, ओर उन पर मुड्डे, कुरसी और मेजें लगा दी तथा वहां पर पलंग भी लगा दिए। उन तम्बुओं में देवी के सेवकों, भक्तों ने अपने कमरबंध खोले। दर्जियों को शाबासी दीजिये कि वे कपड़े के ऐसे उम्दा तम्बु बनाने में दक्ष हैं। उन तम्बुऔं में एक बूंद भी पानी नहीं गिर सकता है। और मेह का मद भी वापस मुड़ जाता है।

टिप्पणी: आप सभी पाठक गण गौर कीजिये कि महाकवि हिंगऴाजदान जी ने छोटी से छोटी व बारीक से बारीक बात का वर्णन रोचकतापूर्ण व उपमायुक्त किया है। उनकी मेधा व प्रज्ञा को नमस्कार है प्रणाम हैं अभिवादन है।


[३५]

पट गेहां घट पूगिया, छाणे जऴ छिलियाह।
चुरट तंमाखू मांचसां, बीड़्यां बंडऴियाह।।
बीड़्यां बंडऴियाह, चिमन पंहुचाविया।
डेरा डेरा दीठ, तिकां बरताविया।।
जऴ कोठ्यां बाजोट, तगी नह दातणां।
जुड़ि जुड़ि दीप जुहार, थईजै आपणां।।

भावार्थ: तम्बुओं में छने हुए जल से छलकते हुए घड़े भी पहुंच गये। चुरूट (जर्दा) तम्बाखु, माचिसें और बीड़ियों के बंडऴ भी चिमनकंवर जी ने पहुंचा दिए। हर डेरे के अनु सार यह सामग्री पहुंचाई गई। जल की कोठियाँ, बाजोटों और दातुंनों की कोई कमी नहीं थी। सभी लोग संध्या के समय दीपक जलने पर मिल मिल कर आपस में एक दुसरे का अभिवादन करते थे।

टिप्पणी: श्रीमंढ खुड़द धाम मे आपा धापी के आज के जमाने में भी यात्रीयौं व भक्तों का सभी का विशेष ध्यान भोजन पानी आदि का रखा जाता है। भंडारा वर्ष भर चलता ही रहता है। आवास व्यवस्था भी अच्छी बनी हुई है। श्रीईंद्रबाईसा ने ही मर्यादा कायम की थी वही यथावत चलती आरही है।


[३६]

दूदावत भड़ दाबड़े, रावत गाढे राव।
खांगीबंध आया खुड़द, मन आणंद अणमाव।
मन आणंद अणमाव, बऴे रण बांकड़ा।
हर दो गेढा हूंत, सदा रह सांकड़ा।।
देवी रै दरबार, हमेसां हाजरी।
माथै पूरण म्हैर, रिधु महाराज री।।

भावार्थ: दाबड़ा गाँव के वीर मेड़तिया राठौड़ ठाकुर भी खुड़द आये। उनके मन में अपार आनन्द था। ये रणबांकुरे गेढा गांव के समीप ही रहते हैं। और देवी के दरबार में सदा, हमेशा हाजरी देते हैं। उन पर निश्चय ही देवी करनी जी व ईंद्रबाईसा की कृपा है।

टिप्पणी: हिंगऴाजदान जी श्रीमंढ खुड़द के जितने भी विशिष्ठ भक्तगण थे सभी से परिचित थे। भगवती की भारी कृपा वाले भक्तों का उन्हे भान था।


[३७]

भूपाऴो गढ भांवतै, सुज लंकाऴो सीह।
भगवती वाऴो भगत, बिरदाऴो अणबीह।।
बिरदाऴो अणबीह, उजाऴो बंस रो।
बदन रजोगुण बार, सदन साहस्स रो।।
आयो लखण उछाह, जगत माँ जामणा।
जंग दिवाना जोध, भवानां भामणा।।

भावार्थ: भांवता गांव के भोपालसिंह भी जो सिंह के समान हैं, भगवती के प्यारे भक्त हैं, व कीर्तिवान व निडर है, वंश के उजाले हैं, उनका चेहरा रजोगुणपूरित व साहस की विश्रामस्थली है, वे जगत की माता के जन्मोत्सव को देखने के लिए आये, उन पर युध्द के दीवाने योध्दा न्योछावर किये जा सकते हैं।


[३८]

सहर नीमराणै सुपह, चित ऊजऴ चहुंवाण।
मिऴियां कवि त्रसणां मिटै, पिसणां धूजै प्राण।
पिसणां धूजै प्राण, वऴै रण बावऴो।
माता सेवा मांहि, अधिक उतावऴो।।
दूजो कुण दैसोत, तराजै तैण रै।
मन जोड़ै गिर मोर, भुजां भीमेण रै।।

भावार्थ: नीमराणा नगर के उज्जवल चित वाले चौहान वीर, जिनसे मिलकर कवियों की तृष्णा मिट जाती है और शत्रुओं के प्राण धूजने लगते हैं, ये रण के दीवाने माता की सेवा में भी अधिक उत्सुक हैं। इस देशपति के समान और कोन है, उनका मन सुमेर पर्वत के समान तथा भुजाएं भीमसेन की भुजाओं के समान बलिष्ठ व ताकत वर है।

टिप्पणी: अनूपकंवरी चौहान जो इन्ही की पुत्री थी जन्मजात पांगऴी व चलने में लाचार थी, माँ भगवती ईंद्रबाईसा की कृपा से उसके पांव भले चंगे हो गये थे तथा वह चलने फिरनें में समर्थ हो गई तो उसके घरवाले भगवती के अनन्य भक्त बन गये तथा आजीवन उपासक रहे। ये वही चौहान खानदान है।


[३९]

छऴबऴ धऴधूकऴ छतो, सूदतो करण समान
मढ आयो आपह मतो, भूप फतो कुऴ भाण।।
भूप फतो कुऴ भाण, पती आसोप रो।
पिंड पहराण पसंद, बकत्तर टोप रो।।
देवै श्रीमुख दाद, धणी जोधाण रो।
सांचो इस्ट सदीव, खुड़द दैशांण रो।।

भावार्थ: अपने कुल का सूर्य आसोप ठिकाणें का स्वामी फतेहसिंह, जो छल, बल व युध्द में दक्ष व दानवीरता में कर्ण के समान है, अपनी मर्जी से मंढ में आया, उसके शरीर पर उसीकी पसंद का पहनावा था, जिसमें बख्तर व टोप भी था। आसोप के स्वामी को जोधपुर के महाराजा भी अपने श्रीमुख से शाबासी देते है। इसको खुड़द की देवी (ईंद्रबाई) और देशनोक की देवी (श्रीकरनी माँ) का सदैव ही अनन्य व सच्चा इष्ट रहा है।

टिप्पणी: मारवाड़ के आसोप, आउवा, भखरी, पौकरण, निमाज, रियां जितने भी छोटे बड़े ठिकाणेदार थे उन सभी को देशनोक तथा खुड़द की विशेष मान्यता रही है।


[४०]

भड़ां तिलक मींडै भमर, अणियां भमर अबीह।
असिभर रीझां आगऴो, समर अगंजी सींह।।
समर अगंजी सींह, सत्रां उर सालणों।
हालै कटक हरोऴ, चंदोऴ नह चालणों।।
चसम कऴू पर चोऴ, बऴू गौ बामणां।
उच्छब दीठा आय, जगत मा जामणां।।

भावार्थ: योध्दाओं का तिलक मींडाका भंवर, जो सेना का भी निडर भंवर है। तलवार व त्याग दोनों में अग्रणी व युध्द में न हारने वाला है (खाग त्याग राजपूतों के भूषण गिने जाते हैं) वह शत्रुओं के ह्रदय में चुभता है, वह सेनामें आगे (हरोऴ में) चलने वाला है, पीछे (चंदोऴ में) नहीं चलने वाला है, उसकी आँखे कलियुग पर लाल रहती है, वह गौ ब्राह्मणों का रक्षक है। वह जगत माता के जन्मौत्सव को देखने आया।

टिप्पणी: आमने सामने के युध्दमें सेना के हरौल में चलने को वीरता का प्रतीक माना जाता था, व एक बार मेवाड़ में उँटाला किले को विजय करने की बात पर हरौल, चंदौल को लेकर कई वीरों ने अपना बलिदान देकर किला विजय किया था।


[४१]

जस जैंरो जाहर जगत, हद हूं बाहर हाथ।
छोगो नाहर छत्रियां, नर नाहर हरनाथ।।
नर नाहर हरनाथ, सुछत्री सांतरो।
जो जमराज खिजाय, भिड़ै इण भांतरो।।
सो आयो बीकांण, सबाबां साथ में।
माटीपण नह मांहि, मणां हरनाथ में।।

भावार्थ: जिसका यश संसार में प्रसिध्द है, जो आजानबाहु है (दातारी में भी उसका हाथ ढीला है) क्षत्रियों का तुर्रा कर्नल हरनाथसिह जी शेखावत डाबड़ी, वह नर नाहर जो क्षत्रियों हेतु श्रैष्ठ है, और यमराज को भी चुनौति देकर भिड़ सकने वाला है, जिसमें वीरता की कोई भी कमी नहीं है, वह बीकानेर से शामियाना तंम्बु आदि का सामान असबाब लेकर आया।

टिप्पणी: माटीपण न मांहि एक मुहावरा है, अर्थात हर कार्य चुस्ती स्फुर्ति व सावधानी से करता है। अच्छी योग्यता के बल पर ही उस समय बीकानेर महाराजा की सेना में कर्नल का पद हासिल कर पाये थे।


[४२]

मेऴो भरतां खुड़द मढ, आयो करतां यादि।
धायो ऊगासण धजर, दुरगा बीठू दादि।।
दुरगा बीठू दादि, दुनी स्हो दाखवै।
रछ्या जंगऴराय, रयण दिन राखवै।।
भुज आजानां भार, लियां कुऴ लाजरो।
ढोऴै चंवर सुढंग, कंवर कविराज रो।।

भावार्थ: बीकानेर राज के कविराज का कंवर दुर्गादान बीठू भी याद करते ही दौड़कर आया। इस उगते हुए सूर्य को शाबासी है, उसे सब दुनियां ने देखा, उसकी रक्षा रातदिन करनी माता करती है। वह अपने आजानबाहुओं पर कुऴ की लाज का भार लिए चलता है। वह देवी पर चंवर योग्यता से ढोऴ रहा है।

टिप्पणी: बीकानेर के कविराजजी का मूल गांव सींथल था। आज भी श्रीमंढ खुड़द के उपासक सबसे अधिक नापासर, सींथल, बीकानेर व श्रीडूंगरगढ, सरदारशहर, लूणकरणसर, सुजाण गढ नौखा आदि स्थानों से ही आते हैं।


[४३]

तालाबर करनां तणै, आल्हा पत्तन औक।
सुरजदान बाल्हा सजन, झोक बिलाला झोक।
झोक बिलाला झोक, मुकट मणि मारवां।
पेस उबारा पांण, दुबारा दारवां।।
जै करनी जगदंबि, भणै बोहो भाव हूं।
भरि प्यालो दै भोग, चढीजे चाव हूं।।

भावार्थ: कविया करनीदान जी के प्रसिद्ध गांव आलावास तहसील सोजत जिला पाली से सूरजदान जो भगवती का लाडला सज्जन एवं उदार ह्रदय है वह मारू चारणों का मुकुट है वह दुबारा (भट्टी से दोबार खींची गई) शराब को श्रद्धा भाव से श्रीकरनी माता की जय बोलते हुए हाथ बढाकर पेश करता है और स्वंय भी चाव से माँ भगवती के प्रसाद को ग्रहण करता है।

टिप्पणी: प्रसिध्द ग्रंथ सुरजप्रकाश, जिसमें जोधपुर महाराजा अभयसिंह जी ने अहमदाबाद के सुबेदार सरबुलंद खाँ को हराकर मुगल बादशाह के अधीन किया था, उस लड़ाई मे कविया करनीदान जी स्वंय भी लड़े व युद्ध का आँखो से देखा हाल लिखा। श्रीकरनीदान जी अलूदासोत कविया थे। सूरजदानजी उनके ही वंशज थे।


[४४]

पार नको सोहड़ पणै, तड़ रोहड़ सिर ताज।
बावड़ती बाजी बसू, इण हिज ठोहड़ आज।।
इण हिज ठोहड़ आज, सको बछवास में।
उच्छब जोया आय, खुड़द मंढ खास में।।
घड़ियो बेह सुघाट, हरी सिंह केहरी।
मान्यो सेवक मुख्य, तंनजा मैहरी।।

भावार्थ: चारणों की रौहड़िया शाखा का सिरताज बच्छवास निवासी हरीसिंह भी आया जिसकी वीरता का कोई पार नही है। वह पृथ्वी पर हारी हुई बाजी को आज इसी जगह वापस जीत सकता है। हरीसिंह नरनाहर के शरीर को बैमाता विधाता ने सुंदर आकार में बनाया हुआ है। वह मेहाजी की पुत्री श्रीकरनी माता का माना हुआ सेवक है। आज वह खुड़दके खास श्रीमंढ में उत्सव को देखने हेतु उपस्थित हुआ है।


[४५]

सांसण जास सुहावणो, पुर नासणवां पास।
आयो कवियो ईसरो, देवी रो निज दास।।
देवी रो निज दास, न भूलै नांम नै।
हाजर जोड़्यां हाथ, सभा मंढ सामनै।।
देखै जोवै जोत, घणा आल्हाद हूं।
बोलै छंद कवित्त, सतोलै साद हूं।।

भावार्थ: जिसकी सुहावनी सांसण भूमि नासणवां ग्राम जिला सीकर के पास है, वह देवी का बड़ा भक्त ईसरदान कविया भी आया। वह देवीके नामको नहीं भूलता है, वह मंढ के सामने हाथ जोड़े हाजर खड़ा रहता है, वह देवी की जोत को बहुत प्रसन्नता से देखता है और भारी में छंद व कवित्त बोलता है।

टिप्पणी: सांसण स्वशासन का अपभ्रंश स्वरूप है। चारणों की जागिरों के जितने भी गांव थे उनमें चारणों का ही शासन चलता था। राजा या ठाकुर का दखल कभी भी नहीं होता था। चारण सदैव निति पर चलते थे, अपनी प्रजा पर कभी भी अन्याय नहीं करते थे। इस छंदमें काछवा गांव के पास बड़ा गांव की ढाणी का वर्णन आया है।


[४६]

हरमाड़ा वाऴो हुवो, हाजर गाडण हेक।
दादा आवड़ दान रो, नाती भूरो नेक।।
नाती भूरो नेक, उछब में आवियो।
पदमाकर हद पेलि, पदम पद पावियो।।
तिण कारण तारीफ, करी कवि डोकरै।
झालर लंका मांहि, बजाई झौकरै।।(46)

भावार्थ: हरमाड़ा गाँव (जयपुर के पास) का गाडण चारण आवड़दान का पौत्र भूरदान भी उत्सव में आया। वह तालाब के कमल की भाँति था, इस कारण वृध्दकवि स्वयं हिंगऴाजदानजी ने उसकी प्रशंसा की है, उसे शाबासी है, क्योंकि उसने लंका में झालर बजाई। (शायद हरमाड़ा से ये अकेले ही आये थे, इसलिए कवि ने हरमाड़ा पर व्यंग्य करते हुए इनको शाबासी दी है।)

टिप्पणी: हरमाड़ा गाँव पर हिंगऴाजदान जी का विशेष प्रेम था। इस गाँव की विशेषताओं का बहुत ही सुंदर वर्णन छप्पय नामक छंद मे किया है और इस गाँव के चारणों से मजाक व चुहलबाजी भी बहुत ही गूढ तरीके की करते थे।
हरमाड़ा गांव के विषय में।

वर्तमान में जयपुर शहर का नगर निगम का वार्ड बन गया हरमाड़ा पहले गाडण चारणों की जागीर, स्वशासन गांव था, इस गांव की सरसता, सजलता, सम्पनता व संमृध्दता पर महाकवि हिंगऴाजदानजी कविया नें छप्पय की एतिहासिक रचना की थी जो आज की नवयुवा पीढी के अवलोकनार्थ मैं संप्रेषण कर रहा हूं।

।।छप्पय।।
किल्ला ज्यों कोटड़ी, दूर हूँताँ दरसावै।
बीथ्यां सहित बजार, पार शोभा कुण पावै।।
जऴ अमृत जेहड़ो, केई कूपाँ कासाराँ।
बागां तणी बहार, अजब सहकार अनाराँ।।
सातही तूड़ निपजै सदा, जोड़ै नह सांसण जुवो।
जैसाह भूप दीधो जिको, हरपुर जगजाहर हुवो।

अर्थात: किले के समान पर्वत पर स्थित कोटड़ी दूर से ही दिखाई देती है। गलियां सहित बाजार की शोभा का पार कौन पा सकता है। कई कुओं व बावड़ियों का जऴ अमृत जैसा मीठा है। बागों की अजब बहार है। जहां के आम अमरूद विचित्र हैं, जहां सात ही प्रकार के धान पैदा होते। इस गांवके जोड़ का कोई भी सांसण दूसरा नहीं है। यह गांव मिर्जाराजा जयसिंह जी ने दिया वह विश्व में प्रसिध्द, विख्यात हो गया। महाकवि की मूल्यांकन की अद्भुत क्षमता व समष्टि थी।
आज भी हरमाड़ा गांव की भूमि जो कि अब गज के भाव से मूल्य निर्धारण होती है, यह राजस्थान के समस्त चारणों के गांवों में सबसे अधिक मूल्यवान है।


[४७]

जोगो सहबातां जको, बुध होगो अलबत्त।
कवि लोकां छोगो कमल, जोगो जागावत्त।।
जोगो जागावत्त, ऊच्छब में आवियो।
सूजो दूजो साल-गिरै, गुण गावियो।।
कोविद बीजो कोण, जिकारी जोड़ रो।
हिरदै ध्यान हमेस, करै नव क्रौड़ रो।।

भावार्थ: सब बातों में योग्य कवि लोगों के मस्तक का छोगा (तुर्रा) जागावत गोत्र का चारण जोगीदान उत्सव में आया। (यह बिशनपुरा, चौमूं के पास का निवासी था, यह गाँव आमेर नरेश बिशनसिंह जी ने सूजा जागावत को स्वशासन में दिया था) यह जोगीदान दूसरा सूजा है, इसने सालगिरह का सुंदर गुणगान गाया, इसकी जोड़ का दूसरा दक्षकवि कौन है, जो नौकरोड़ देवियो का ध्यान हमेशा ह्रदय में रखता है।

टिप्पणी: चारण समाज के चिरजा रचना के सिध्दहस्त कवियों में जोगीदान जी जागावत भी विशेष स्थान रखते थे, तथा महाकवि के भी कृपापात्र थे, आपस में प्रगाढ मैत्री भाव था।


[४८]

बूढा चारणवास रो, जागावत हिंगऴाज।
गहरी चिरजा गांण नै, आण पहूंतो आज।।
आंण पहूंतो आज, भगत्ती भौत हूं।
सोम चकौर सनेह, जकारो जौत हूं।।
कीमत कंठमिठास, कठा लग कीजिये।
पिक गालीरस पांन, दलाली दीजिये।।

भावार्थ: चारणवास (गोविन्दगढ जिला जयपुर के पास) का हिंगऴाजदान जागावत भी देवी की प्रशंसा में गहन चिरजाएं गाने के लिए आज आ पंहुचा। वह बहुत भक्ति भाव से आया। देवी की जोत से उसका स्नेह चंद्रमा के प्रति चकोर के स्नेह की भांति था। उसके कंठ के मिठास की कीमत कहां तक की जाए, कोयल के कंठ की सरसता को दलाली में दिया जा सकता है, ऐसा मधुर कंठ है।

टिप्पणी: जागावत हिंगऴाजदान जी, कविया हिंगऴाजदान जी के सबसे प्रिय प्रिति पात्र थे, उन दोनों में बीस वर्ष का वय अन्तर था। कविया साहब बड़े थे। दोनों पिता-पुत्र, गुरू-शिष्य के भावसे मिलते थे। धन्य है पुर्वज चारणों को।


[४९]

सेवापुरा वाऴा सुकवि, ध्यान रिधू चितधारि।
आया जनम उछाह में, मैं मो भ्रात मुरारि।।
मैं मो भ्रात मुरारि, तथा कवि तीसरो।
जोगो छोगो जाति, बरंग सौ बीस रो।।
सकतो केसोदास, बखाण बताविया।
पाबूदान गोपाल, अता मंढ आविया।।

भावार्थ: सेवापुरा के कवियों मे, चित में निश्चित ध्यान धारण करके जन्मोत्सव में मैं व मेरा भाई मुरारीदान आये, तीसरा कवि जोगीदान (मुरारीदान का पुत्र) जो चारण जाति की 120 शाखाओं का छौगा (तुर्रा) है। शक्तिदान व केसो दास ने भी देवी की प्रशंसा में कविता बनाई, व पाबूदान (जोगीदान का छोटा भाई) व गौपाल (स्वंय कवि का छोटा पुत्र) भी श्रीमंढ आये।

टिप्पणी: महाकवि की सूक्ष्म व पैनी दृष्टी से कोई भी विषेश वर्णन योग्य वृतांत अछूता नही रहा है। सरसता भी रूचिकर है।


[५०]

आसी बिख काऴा अगै, जगै न दीपक जोत।
कविया रवि जोगा कनै, दबिया कवि खद्योत।।
दबिया कवि खद्योत, बिया इण बार रा।
बरण्या गीत कवित्त, रिधू अवतार रा।।
कायम रैसी काव्य, जतै बहे जाह्नवी।
इण जोड़े कुण और, मनीसी मानवी।।

भावार्थ: जैसे विषैले काले नाग के आगे उसकी फुंफकार से दीपक की जोत जली हुई नहीं रह सकती उसी प्रकार सूर्यके समान जोगीदान के सामने इस कालके अन्यकवि जुगनूं की भांति दब गये। जोगीदान ने देवी के अवतार के गीत व कवित्त वर्णन किये, जब तक गंगा बहती रहेगी कवि का काव्य कायम रहेगा, इस कवि की जोड़ का अन्य कौनसा मनीषी है।


[५१]

मोतीसर ठाकर मिल्या, पदमाकर प्रत्येक।
जांमें रत्नाकर जसो, आयो भाखर ऐक।।
आयो भाखर ऐक, कवि नग क्रोड़ रो।
जां रे मांहि हुवो न, जुवो इण जोड़ रो।।
छप्पै दोहा छंद, बणाया बांकड़ा।
त्रसकती तूठांण, अनूठा आंकड़ा।।

भावार्थ: काव्य के जलाशय में समुद्र जैसा मोतीसर (चारणों की प्रशंसक व याचक एक जाति) भाखरदान आया और सबसे मिला, वह करोड़ नगों जैसा मूल्यवान कवि है। उसके जोड़ का उसकी जाति में दूसरा कोई भी पैदा नहीं, उसने त्रिशक्ति (महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती) को प्रसन्न करने के लिए अनूठे व बांके छप्पय, दोहे, छंद आदि बनाये।

टिप्पणी: पहले मोतीसर चारणों के गाँवो मे आया करते थे। चारण उनका बहुत सम्मान करते थे और उनको जाते समय दक्षिणा भेंट आदि दिया करते थे। मोतीसर बहुत ही विद्वान जाति रही है, जिन्होंने आठवीं सदी में भगवती माँ आवड़ जी की आज्ञा से राजपूतों से निकलकर सहर्ष चारणों के याचक बनना स्वीकार किया।


[५२]

आं आदिक आया अवर, बोहो सेवक इणबार।
मावै नंह मंढ मात रै, पात न पावै पार।।
पात न पावै पार, जुड़्यौ थट जोर रो।
दीहड़ द्रुपद दुकूल, दुसासण दोर रो।।
पारावार अपार, तरंगां तेण री।
सकै कुण गिण समत्थ, कुसलता केणरी।

भावार्थ: इनके अतिरिक्त और भी बहुत से सेवक इस बार आये, ये माताजी के मंढ में समाते नहीं है। चारण कवि इनका पार नहीं पाता। इन कवियो का समूह बड़े जोर से जुड़ा है। दुसासन के काल में जैसे द्रोपदी का चीर बढा वैसे ही यह भीड़ बढी। इस जन समूह की तरंगें अपार समुद्र जैसी है। इसकी गिनती करने का सामर्थ व कुशलता किसमें है।


[५३]

दूंजा आयो आठ दस, दिन पैली दीवांण।
बांध्यो सो बंदोबसत, माता हुकुम प्रमाण।।
माता हुकुम प्रमाण, सवाई साथ में।
दारू पऴ बऴदान, थकां खग हाथमें।।
करणावत कम काय, मती कैमास हूं।
भेज्यो गण भूतेस, किनां कैलास हुं।।

भावार्थ: श्रीचंद दीवान सीकर, आठ दस दिन पहले आया। उसने माता की आज्ञा अनुसार सारु व्यवस्था की। साथ में सवाईसिंह कर्णावत भी आया व दारू, बलिदान आदि लाया तथा उसके हाथ में बलिदान करने की तलवार भी साथ थी। सवाईसिंह की बुध्दि कैमास से भी अधिक थी। जैसे महादेवजी ने कैलास से किसी गण को भेज दिया है।

टिप्पणी: आज के परिवेष व परिस्थितियों में बलिदान की रूधिर छाक देने की आदि बहुत सी बातें संभंव नहीं है, पर इतिहास में तो बहुत सारा अजब अनोखा खजाना भरा हुआ है।

आज से लगभग चालीस पैंतालीस वर्ष पहले मेरे गांव संतोषपुरा में भी मैने अधिकतम इक्कीस बकरों का बलिदान दुर्गाअष्टमी के दिवस पर होते हुए देखा परन्तु अब इस प्रथा को बन्द कर दिया है और सात्विक राजसोप पूजन प्रचलन होता है।


[५४]

लाया मैंगा मोलरो, थेट झलाया थान।
आया देव्यां वासतै, दिल चाया बऴदान।।
दिल चाया बऴदान, बड़ाऴा बक्करां।
चंड्यां खून चठीठि, सराह्या चक्करां।।
बेबे टूक बणीजि, सुया भुव सेजड़ी।
खालां बानरवाऴ, बिलूमी खेजड़ी।।

भावार्थ: वह सवाईसिंह महंगे मोल के बकरे देवियों के बलिदान के लिए लाया और उन्हें थान पर संभला दिया। इन बड़े डील डौल वाले बकरों का खून पान करके उनके चक्करों की सराहना चंडियों ने की। इन बकरों के दो दो टुकड़े हो गये, ये पृथ्वी रूपी शय्या पर सो गए। इनकी खालों की बानरवाल बनाकर खेजड़ियों पर लटकाई गई।

टिप्पणी: हमारे गाँव संतोषपुरा में तो दो वर्ष पहले तक बलिदान होता था, अब इसको बंद कर दिया है। बकरे छोड़ना, झिलना, कक्कर करना, बांदरवाल बनाना, दाबवसूऴों का प्रसाद बनाना आदि कई भाँति के काम बलिदान का ही अंग होते थे, पर बदले जमाने में यह सभी बातें समझ से परे होती जा रही है।


[५५]

आया मांस रसोवड़ां, देखि रसोईदार।
होसियार चित में हुवा, तीवण करण तयार।।
तीवण करण तयार, छूरां हूं छूंदिया।
चूल्हां देगां चाढि, भुजावां भूंदिया।।
गरम मसाला गेरि, सुधार्या सांतरा।
बावन चौसठ बाह, भणै यण भांतरा।।

भावार्थ: रसोवड़ों में मांस आया हुआ देखकर रसोईदार सचेत हुए और व्यंजन बनाने की तैयारी करने लगे। उन्होंने छुरों से मांस काटा, चूल्हों पर देगें चढाकर भूना, गरम मसाले डालकर ऐसा अच्छा सुधारा कि बावन भैरव और चौसठ योगिनियाँ भी ‘वाह’ कह उठे।


[५६]

रातिब कैई रीत रा, पैलो नांव पुलाब।
सद सूऴा हद सोहिता, देव्यां जीमण दाब।।
देव्यां जीमण दाब, कऴेजा बूकड़ा।
ले खीरा भरलेत, हमासत हूकड़ा।।
रांध्या मांस बिराट, क बेटो बाय को।
जीमि न भूले जीभ, जिकां रो जायको।।

भावार्थ: उन्होने कई प्रकार के मांस बनाये, जिनमें पहला पुलाव था, अच्छे सूऴे और सोहिते (बाजरी और मांस के बने हुए) और देवियों के लिए चुरमण (ठूंग) भी बनाई। यह ठूंग उन्होने कलेजी और बूकड़ों के टुकड़ों से बनाई। ये बूकड़े ऐसे थे, जिनको हम जैसे तो खीरे समझ कर उनसे हुक्के भर लेते। मांस एसे पकाया जैसे विराट (अज्ञातवास के समय) वायु पुत्र (भीमसेन) ने पकाया हो। उसे खाकर जीभ उसके स्वाद को भूलती ही नहीं है।

टिप्पणी: इस प्रकार की अनूठी ऊक्तियों से युक्त उस समय की श्रीमढ खुड़द की रसोईयों की कला का अनूठा वर्णन श्री हिंगऴाजदान जी ने किया है।


[५७]

रंग की देवां बबरच्यां, करगा काम कमाल।
त्यां कीधा फरका तथा, मीठा चरका माल।।
मीठा चरका माल, तिका बोताज रा।
मेल्या छै रस मांहि, उचित अंदाज रा।।
आढी रौ इंतजाम, रसोड़ै सोद रै।
तींवण तेथि तयार, हुवै जऴ होद रै।।

भावार्थ: दोनों बाबर्चियौं को हम क्या रंग (शाबासी) देवें, उन्होने कमाल का काम किया। उन्होने फरके, मीठे, तथा चरके माल बनाये और माल भी बहुतायत से बनाये, जिनमें छवों रस भी उचित अनुपात में मिलाये, शाकाहारी रसोवड़े का इंतजाम आढी चिमनबाई के हाथ में था, जहां हौज के जऴ से व्यंजन तैयार हो रहे थे।


[५८]

सह डेरा भेजी सुरा, श्रीयुत आढी साह।
आंख्यां रंगकरणी अरूण, वरूण तनंजा वाह।।
वरूण तनंजा वाह, भठी भरताऴ री।
थुं हीज ऊगां थाय, जरूरत थाऴ री।।
जमता छता जोय, सराही सेवकां।
पीधी दाखि प्रणाम, कदम ईंद्रदेव का।।

भावार्थ: श्रीमती आढी ने सब डेरों पर शराब भेज दी। आँखों का रंग लाल करने वाली वरूण की पुत्री (सुरा) मदिरा का क्या कहना। तेज भठ्ठी से कढी हुई मदिरा, तेरे उगने (नशे) से भोजन के थाऴ की जरूरत होती है। शराब के प्यालों पर छता जमता देखकर सेवकों ने सरा हना की और देवी ईंद्रबाई के चरणों में प्रणाम बोल कर प्रसाद के रूप में पी ली।


[५९]

मूंघा खासा मोलरा, आसा हद ऊगाह।
हूगा थाऴ तयार हव, पट गेहां पूगाह।।
पट गेहां पूगाह, चढ्योड़ा चोकायां।
सूंज घणै सामान, बणै अवलोकियां।।
जीमै पाक छतीस, छंऊं रस जातरी।
माल चरव्वड़ भात, बिरव्वड़ मातरी।।

भावार्थ: महंगे मोल की आसा नामक मदिरा खूब चढी। जब सब थाऴ तैयार हो गये तो कपड़े से ढककर डेरों में पहुँचाये गये, वहाँ चौकियों पर रखे गये। बहुत सी सामग्री का दृश्य देखते ही बनता था। छत्तीस प्रकार के व्यंजन और छह रस का भोजन इतना पर्याप्त था, जैसे बिरवड़ी माता की चरवड़ी में हों।

टिप्पणी: बिरवड़ी माँ चारण शक्ती थी, व एक बार गुजरात के नवघण राजा की कटक को सिंध के सूमरा शासक पर हमला करने को जाते हुये एक छौटे से चरे में भात बनाकर पुरी फौज को भरपेट भोजन करा दिया था। नवघण राजा विजयी होकर आये थे। उसी प्रकार माँसा करनी जी ने भी शेखा भाटी की फौज को दही की छोटी कुल्हड़ी व दो रोटी से पुरी फौज को जिमा दिया था। सभी देवियां साक्षात अन्नपूर्णा का ही अवतार थी।


[६०]

और घणेरा आदमी, अण नूत्या गा आय।
जांरी बीस हजार हूं, संख्या किंयक सिवाय।।
संख्या किंयक सिवाय, जकां जीमाविया।
भोजन मीठा भोत, खुसी व्है खाविया।।
जऴ पावण इंतजाम, जऴासय जूजुवा।
आछा देखि उछाह, बऴे पाछा बुवा।।

भावार्थ: और बहुत से आदमी बिना निमंत्रण के भी आगये, उनकी संख्या 20 हजार से अधिक ही होगी। उनको भी भोजन कराया गया। उन्होने मिष्ठान्नों के साथ खुशी से भोजन किया। जल के हेतु भी अलग अलग इंतजाम किया गया। अच्छे जन्मौत्सव के उछाह को देखकर वे लोग अपने अपने घरों को वापिस लौट गये।

टिप्पणी: जिन स्वजनों ने श्रीमंढ खुड़द धाम के तीनो महायज्ञ देखे हैं उन्हे इस बात का भान है कि तीनों यज्ञों के समय प्रतिदिन बीस बीस हजार जनता का भोजन भगवती के भण्डारे से लगातार नो नो दिवस तक चलता रहता था। माँ अन्नपूर्णा के दरबार में अष्टसिध्दि नवनिध्दि का वास मौजुद रहता था। जय हो माँ तेरी माया।


[६१]

भगवत्यां तीनूं भगत, जोतां मुख जीमंत।
खट तीसूं बिंजण खिवौ, नो कोड़ां नीमंत।।
नो कोड़ां नीमंत, चिमन रा चाड़िया।
थावै हाजर थाऴ, छद्या ओछाड़िया।।
भोजण दच्छण जोत, भखै ब्रह्माणियां।
उत्तर जोति अरोगि, रही रूद्राणियां।।

भावार्थ: छत्तीसों व्यंजन नौ करोड़ देवियों की जोतों पर चिमनबाई आढी द्वारा चढाये गए। कपड़े से आच्छादित थाल उपस्थित किए, दक्षिण की जोत का भोजन ब्रह्माणियां (वे देवियां जो मांसाहारी नहीं है) खा रही है व उत्तर की जोत का भोजन रूद्राणियां खा रही है (जो कि शाकाहारी नहीं है)।

टिप्पणी: आप सभी सुधिजन पाठकों से मेरा करबद्ध निवेदन है कि आगे के वृतान्त को आप विशेष ध्यान से पढें बड़ा रोचक व सरस वर्णन मान्यवर हिंगऴाजदानजी कविया साहब ने किया है।


[६२]

दाढाऴी मंढ आज दिन, सोहै सकति समाज।
जांनै कवि हिंगऴाज री, लाखां बातां लाज।।
लाखां बातां लाज, जयो जग जामण्यां।
पलकां देती पांव, पधारी पांमण्यां।।
भगवत्यां परभात, चितारूं चीत में।
नाना जां रा नाम, गिणाऊं गीत में।।

भावार्थ: दाढी वाली (श्रीकरनी जी, जिनकी ठुड्डी पर दाढी उगी हुई थी) के मंढ मे आज के दिन शक्तियों का समाज शोभा दे रहा है। इन शक्तियों के हाथ में कवि हिंगऴाजदान की लाखों बातों की लाज है। इन जगत माताओं की जय हो, ये देवियां पलकों पर पांव देती हुई मेहमानों की भांति पधारी। मैं इन भगवतियों का प्रातःकाल चित में स्मरण करता हूँ। इनके अनेक नाम हैं जिनको मैं गीतों में गिनाता हूँ।

टिप्पणी: महाकवि ने अनेक जगह अनेक शक्तियों के नामों की चिरजाऔं की रचना की है। एक चिरजा में तो एक सौ आठ शक्तियों का वर्णन किया है। कवि की प्रज्ञा व मेधा को नमन। चिरजा रचना सृजन के बड़े नामों में महाकवि की भी गिनती होती है। एक अति प्रसिध्द व सुन्दर रचना “करनल किनियाणी धिन-धिन धिनियांणी जांगऴ देसरा” इनकी ही रचना है।


[६३]

धिनियाणी जंगऴ धरा, किनियांणी करनल्ल।
महमाया छकि फूलमद, आया खुड़द अव्वल।।
आया खुड़द अव्वल, दुरग देसांण हूं।
सोहे हाथ त्रिसूऴ, सुधार्यो साण हूं।।
पूजै इन्दर पांव, रिधु भुज धू परै।
कवि होवै कुरबाण, इणी छवि उपरै।।

भावार्थ: चारणों के किनियां गौत्र की जंगऴ धरा की स्वामिनी करनी माता हल्की मदिरा से तृप्त होकर सबसे पहले श्रीमंढ खुड़द पधारी। वे देशनोक (जिला बीकानेर) से आयी। उनके हाथ में सांण पर सुधारा हुआ त्रिशूऴ शोभा दे रहा था। ईंद्रबाई निश्चय ही हाथों व सिर से इनके पांव पूजती है। ईंद्रबाई की इसी दृश्य छबि पर कवि कुरबान (न्यौछावर) होता है।

टिप्पणी: महाकवि कविया हिंगऴाजदान जी की अदभूत उपमाऔं से युक्त माँ करनी जी का वर्णन अति सुन्दर बना है। इन तीन झमाऴों में करनी की छवि का वर्णन है। और मातेश्वरी की महिमा का पारावार नहीं पाया है।।


[६४]

धू लोई कड़ धाबऴो, आंगी पोस उरोज।
मोड़ पुरंदर मोचड़ी, सुन्दर चरण सरोज।।
सुन्दर चरण सरोज, जिकां री रंज रो।
लालच भाण लगांण, करै सुत कंज रो।।
हम्मो करै न होड, रिधू पद रंज री।
मंद प्रभा मंदार, महीरूह मंज री।।

भावार्थ: सिर पर लोई (लूगड़ी) है। कमर में लहंगा पहना है। वक्षस्थल को ढंकने वाली आंगी पहने हुए हैं। देवराज इंद्र के सैहरे के समान इनकी जूतियां हैं। चरण सुन्दर कमल के समान हैं जिनकी चरण रज को ब्रह्मा (कमल का पुत्र) भी अपने ललाट पर लगाने का लालच रखते हैं। निश्चय ही इनके चरण रज की बराबरी हम्मा (एक पक्षी जिसकी छाया मनुष्य पर पड़ते ही कोई भी व्यक्ति राजा बन जाता है) भी नहीं कर पाता है। इनकी प्रभा के सामने कल्पवृक्ष की मंजरी की प्रभा भी मंद दिखाई पड़ती है।

टिप्पणी: माँ सा करनी जी के जीवन के नाना भाँति के प्रवाड़ा (चमत्कार) हुए हैं जिनको देखते हुए हम्मा पक्षी व कल्पवृक्ष की औकात तो बहुत ही बौनी है। मृत लाखण पुत्र को वापस जीवित करना अकेला प्रवाड़ा ही बड़ा भारी व आलौकिक है व संसार भर में कहीं नहीं है।


[६५]

सेवक आं चरणां सरण, आय करै आणंद।
कविलोकां ऐही कदम, दूर करै दुख व्दंद।।
दूर करै दुख व्दंद, समापे संपती।
बहरी जोगणि बांह, चरण रह चंपती।।
आंहिज पांवां इंद्र, लुऴे लपटायगी।
भेऴी पांचू भैन, अता ने आयगी।।

भावार्थ: सेवकगण इन चरणों की शरण में आकर ही आनन्द मनाते हैं। कवि लोगों के दुख द्वंद्व ये ही चरण दूर करते हैं। ये ही चरण संपत्ति प्रदान करते हैं। बहरी योगिनी इनके चरण दबाती रहती हैं। इन्ही पाँवों पर श्रीईंद्रबाई झुक कर लिपट गई। इतने में श्रीकरनीजी की पाँचों बहनें भी आई।

टिप्पणी: समस्त भारत व भारत से बाहर के सेवकगण आज भी माँ सा श्रीकरनीजी के चरणों की शरण में जाकर आनन्द का अनुभव करते हैं तथा माँ की असीम कृपा पाते हैं।


[६६]

लालां गैंद गुलाब अर, फूलां केहरि फेर।
डाऴामत्था डांखिया, सझि नौ हत्था सेर।।
सझि नौ हत्था सेर, छछोहा छेड़िया।
पंजा कूरमपीठ, भुजंग फण भेड़िया।।
सीहां सार संभाऴ, भुऴाई भैरवां।
होफर भेऴा होत, डमंका डैरवां।।

भावार्थ: लालां, गेंद, गुलाब, फूलां, और केसर पाँचो बहने बड़े सिर वाले नौ हत्थे शेरों को सजाकर आई, इन शेरों को तेज चलाया। इनके पंजे कच्छप (कछुआ जिस पर पृथ्वी टिकी हुई बताई जाती है) और शेषनाग के फणों से जा भिड़े। सिंहों की देखरेख भैरवों को संभऴा दी। हल्ला करके और डमरू बजाकर के भैरव सारे एक जगह इकठ्ठे हो गये।

टिप्पणी: पृथ्वी के आधार की तीन मान्यताएं कच्छप की पीठ, शेषनाग के फण व बराह की डाढ पर टिकी होने की है। तीनों ही आधार जब भगवती अपने वाहन पर विराजित होती है तो कंम्पायमान होते हैं। इस आशय का सुन्दर दोहा रामनाथ जी कविया सटावट ने भी कहा है।

बड़कै डाढ बराह, कड़कै पीठ कमठ्ठ री।
धड़कै नाग धराह, बाघ चढो जद बीसहथी।।

धन्य है प्राचीन काल के चारण कवियों की रचना व उपमाएं व उनकी प्रज्ञा व मेधा को।


[६७]

आछी छेछी आवड़ा, होलां लांग गहल्ल।
गजरिपु हांक्या दिग्गजां, चितहुवा हलचल्ल।।
चितहुवा हलचल्ल, खड़ी संग खोहड़ी।
रथ बबरेल क रेल, लकीरां लोहड़ी।।
मांयां मैफिल मांहि, मिऴि कर मंजणां।
मिल्या मयंदां मांहि, गयंदां गंजणा।।

भावार्थ: आछी, छेछी, आवड़, होल, लांगी, गहल व खोड़ियार सातों बहनों ने खुड़द में आने के लिए सिंहों को हांका जिससे दिग्पालों के चित में भी हलचल मच गई। इनकी द्रुतगति से खैह उड़ी, गति का अनुमान सहज नहीं है कि ये सिंहों के रथ हैं या लोहे की लकीरों पर चलने वाली रेल है। यहां आने के बाद देवियां स्नानादि मार्जन करने के बाद महफिल मे शामिल हुई तथा सिंह दुसरे सिंहों मे मिल गए।

टिप्पणी: गजरिपु सिंह का पर्यायवाची है। मयंदां भी सिंह का ही पर्यायवाची है। गयंदां हाथी का अन्य अर्थ है। अर्थात गयंदां पर गर्जना करने वाले मयंदों ने अपनी बिरादरी में मिलकर अपना स्थान ग्रहण कर लिया। आज के समय के अनुरूप जैसे गाड़ियों की पार्किंग होती है वैसै ही सिंहों की पार्किंग जिसके रखवाऴे दोनों भैरव थे वहां सिंहों को रोक दिया गया था। ऐसा अनोखी उपमाएं युक्त रौचक व सरस वर्णन करना महाकवि हिंगऴाजदान जी कविया की काव्य कौशलता की क्षमता से ही सभंव बन सकता था। धन्य है उनकी मेधा को।


[६८]

सिंहचढी भवणेसुरी, लै नौ दुरगा लार।
ताऴी बाजी तीसरी, दाढाऴी दरबार।।
दाढाऴी दरबार, पधारी प्रीत हूं।
त्यां रै आनन तेज, अधिक आदीत हूं।।
दोनूं भैरव दाब, दुबारा ला दिया।
पत्र रगत्तर पाय, छत्तर आछादिया।।

भावार्थ: भुवनेश्वरी देवी नव दुर्गाओं को साथ लेकर सिंह पर चढी, और तीसरी ताऴी बजते ही श्रीकरनी जी के दरबार में प्रेम से आ गई, उनके चेहरे का तेज सूर्य से भी अधिक था। दोनों भैरवों ने उनको दुबारा शराब व दाब, ठूंग चुरमण लाकर हाजिर कर दिया। रक्त का पात्र भरकर पिलाया और छत्र औढा दिया।

टिप्पणी: नव दुर्गा में प्रथमा शैलपुत्री, द्वितीया ब्रह्मचारणी, तृतीया चंद्रघंटा, चतुर्थी कुष्मांडा, पंचमी स्कंदमाता, षष्टी कात्यायनी, सप्तमी कालरात्री, अष्टमी महागौरी, तथा नवमीं सिध्दिदात्री। इन नव दुर्गाऔं को लेकर भुवनेसरी माँ उत्सव में शामिल होनें के लिए आई। वहां पर भैरव ने सभी का यथोचित स्वागत किया।


[६९]

मातंगी बगुलामुखी, हरि सिध्दि हिंगऴाज।
देवी तारा सुन्दरी, बेग सझ्या बणराज।।
बेग सझ्या बणराज, चढी संग चावंडा।
दूख्या सूकर दाढ, पंचानन पावंडा।।
आई माई ओर, कुमख्या कामही।
मोत्यां माऴा मेर, जुवाऴा जां मही।।

भावार्थ: मातंगी, बगुलामुखी, हरिसिध्दि, तारा व सभी देवियों की शिरोमणी हिंगऴाज व सुन्दरी आदि देवियों ने सिहों को शीघ्र सझाया। चामुंण्डा भी साथ में चढी। सिंहों के कदम रखने से बाराह की दाढों में भी दर्द होनें लगा। फिर आई माता, कामैही माता, कामाख्या माता आई। मोतीयों की माला में सुमेरू के समान ज्वालामुखी देवी भी आई।

टिप्पणी: नवदुर्गा के साथ दसों महाविद्याएं व बावन शक्ति पीठ की अधिष्ठात्री देवियां भी महान उत्सव में पधारी। कविराजा की मेधा व प्रज्ञा को बारम्बार नमन है।


[७०]

मग छैड़्या डालामथा, जीण तथा जमवाय।
ईंदोखा सूं आयगी, गाँव खुड़द गीगाय।।
गाँव खुड़द गीगाय, सकत्ती सारदा।
जव मिल जत्ती जेज, न कीधी नारदा।।
पऴ घातण जऴपांण, निगै करि नाहरां।
होवण लागी हेम, छत्रां नोछाहरां।।

भावार्थ: जीणमाता जिनका मंढ सीकर जिले में है ओर जमुवाय माता का मंढ जयपुर जिले में है, उन्होने सिंहों को हांका। ईंन्दोखा मारवाड़ की गीगाय माता भी खुड़द आगई। नारदा देवी ने भी जौ व तिल जितनी भी देरी नहीं की। सिहों के जलपान के लिए मांस डाला गया और सभी देवियों पर सोने के छत्रों की न्यौछावर होने लगी।

टिप्पणी: जमुवाय माता जी कच्छवाहों की कुलदेवी है। जीणमाता चौहान कुल में जन्मी हुई शक्ति है। सीकर में हर्षनाथ भैंरू जी पहाड़ के पास की पहाड़ी पर मां भवानी का भव्य व सुन्दर मंदिर बना हुआ है। भगवती भँवरों की भवानी के नाम से भी पूजी जाती है।

एक बार मुगल बादशाह औरंगजेब की सेना ने जब मंदिरों पर आक्रमण किया उसी समय पर शेखावाटी के मंदिरों को तोड़ती हुई जब हर्षनाथ व जीण माताजी भी आ।गई थी, उसी समय भगवती के भौंरों ने मुगलों पर आक्रमण करके घायल करके भगा दिया था।


[७१]

चढत हकाल्यो चंडिका, हाल्यो मारू हैल।
तो बाहण चाहण तणां, रंग घणा बब रैल।।
रंग घणां बब रैल, धनो मग धावतां।
लागी नांहि विलंम्ब, इन्दर रै आवतां।
हांक्यो चांपर हूंत, खह ढाक्यो खेह हूं।
आयो खुड़द अबीह, छबी अणछेह हूं।।

भावार्थ: चंडिका का हांका हुआ सिंह हवा के वेग के समान चला। हे चाहण देवी तेरे सिंह को बहुत शाबासी है। वह रास्ते में दौड़ते हुए धन्य है। उसे ईंद्रबाई के यहां आने में देरी नहीं लगी। वह शीघ्रता से हांका हुआ था ओर उसकी तेज गति से आकाश खेह, रज से ढक गया। वह निडर सिंह अपार छबि से पूरित चंडिका को लेकर खुड़द आया।

टिप्पणी: हिंगऴाजदान जी कविया की एक चिरजा के एक अन्तरा में लिखा गया है कि

दाढाऴी देशाण सूं बेग चढो बबरैल।
हाँको नाहर ऐहड़ो राह न पुगै रैल।।1।।

अर्थात: सिंह को द्रुतगति से चलावो ओर फुरती से चढ कर देशनोक से आवो इस प्रकार उपमा लगाने के सिध्दहस्थ कवि थे कविया साहब।


[७२]

चंदू सैणी बैचरा, मां माल्हण महमाय।
सीमी गूंगी संभरा, ऐ सै पूगी आय।।
ऐ सै पुगी आय, बऴै बिंधबासणी।
बंबे अंबे बूट, सिला कमलासणी।।
हाली आबू हूंत, अरबुदा ईसुरी।
आई खुड़द उमाहि, सबै जगदीसुरु।।

भावार्थ: चंदू, सैणी, बहुचरा, माल्हण, महामाया, सीमी, गूंगी, संभरा, ये सब देवियां आ पहुंची। विंध्यवासिनी, अम्बे, बम्बे, बूट शिला माता आमेर की, कमलासणी, आबू से चली हुई अर्बुदा माता आदि सब जगदीश्वरियां उत्साह के साथ खुड़द ग्राम में पधारी।

टिप्पणी: आज से 75 वर्ष पहले जब स्कूली शिक्षा का लगभग अभाव था। संचार के साधन भी सीमित थे, ऐसे समय मे कविश्वर को विभिन्न शक्तिपीठों की भौगौलिक जानकारी होना आश्चर्ययुक्त विषय है। अभी आगे भी बहुत सी शक्तियों व स्थानों का विवरण आयेगा।


[७३]

केहरि हांक्या कोट हूं, राय सुरां सिखराय।
खिणसरिया हूंता खड़्यौ, कंठीरव कैवाय।।
कंठीरव कैवाय, मिऴी दंहूं माग में।
बाकी बाघां बेग, न राखी नाग में।।
बूझी दोनां बात, बऴे मिल बूट हूं।
छोटो गेढो छै क, बड़ो बैकूंट हूं।।73।।

भावार्थ: कोट से देवियों में शिरोमणी माँ सिखराय नें सिंह हांका। किणसरिया से कैवाय माता ने भी अपना सिंह हांका। दोनों देवियां मार्ग में ही मिली। सिंहों की तेज चाल ने शेषनाग पर भी कोई कसर नहीं रखी। फिर दोनों ने मिलकर बूटराय देवी से बात पूछी कि आप बताओ कि गेढा (खुड़द) वैकुंण्ठ से छोटा है या बड़ा।

टिप्पणी: किणसरिया नागौर जिले में कैवाय माताजी का व शाकम्भरी शक्तिपीठ सीकर जिले में पहाड़ी क्षैत्र में स्थित है। दोनों ही बहुत ही सुरम्य व जागृत स्थान है। आजकल माँ सिखराय में राजनेता भी अपना सम्मेलन कर शक्ति प्रदर्शन दिखाने लगे हुए हैं।


[७४]

चुड़ियाऴा हूं तां चढी, उच्छब जोवण आज।
हद हूं ज्यादा हालियो, राजल रो बणराज।।
राजल रो बणराज, सतेजो सांतरो।
भांगि कियो खिण भंग अतीसय आंतरो।।
भोत सराही भाऴि, फुरत्ती फाऴ री।
तारखिये तारीफ, करी लंकाऴ री।।

भावार्थ: चुड़ियाऴा गाँव से राजबाई देवी उत्सव देखने हेतु चढी। उनका सिंह हद से अधिक चला। उस तेजवान और श्रेष्ठ सिंह ने क्षण भर में अत्यन्त दूरी को समाप्त कर दिया। सिंहो के चलने की कूदने की व फाल भरने की फुर्ती को देखकर तारखिये (गरूड़ जी) ने भी सिंह की प्रशंसा की।

टिप्पणी: श्रीराजल बाई शक्ति ने अकबर बादशाह द्वारा चलाये गये नौरोज बाजार जिसमें कुलीन राजघराने की महिलाएं और बाजार को संचालित करने वाली भी महिलाएं ही होती थी, जो कि एक अपमानजनक परंपरा थी। उस में बीकानेर महाराजा रायसिंह के भाई पृथ्वीराज की पत्नी को भी बुलाया। पृथ्वीराज राजल बाई का उपासक था। राजल बाई भक्तों की भीर हरने वाली भक्त वत्सला भगवती थी। एक पुकार में चुड़ियाऴा से आगरा पहुंच कर सिंह रूप धारण कर अकबर को सबक सिखा कर नौरोज बाजार की परंपरा को ही बंद करवा दिया था। उस संदर्भ की सुविख्यात चिरजा है। “राजल धर मृगपति को रुप भूप की लाज बचाई है”।


[७५]

सकति नागबाई सज्यो, बाघ किना बजराग।
रितु ग्रीसम सूरज रसम, चास्यां चसम चराग।।
चास्यां चसम चराग, हवा जव हालियो।
लीधी झंफ भलीक, बली निधि बालियो।।
सालगिरै उतसाह, सिधी निधी सालरो।
नीरज नेतां नाग, लख्यो धुज लाल रो।।

भावार्थ: नागबाई शक्ति ने जिस सिंह को सझाया वह सिंह था या बज्राग्नि। उसकी आँखे ग्रीष्म ऋतु के सूर्य की किरणों के समान तथा चिराग की भाँति चमक रही थी। उसने जो छलांग भरी उससे बलि राजा की छवि भी धूमिल हो गई। सालगिरह का उत्सव अष्ठ सिध्दि नव निधि की साल अर्थात संवत 1998 (ईस्वी सन 1941) को नाग देवी ने नेत्रों से लाल ध्वज (श्रीकरनी जी का) देखा।

टिप्पणी: बलिराजा जिसका मान मर्दन करने के लिए भगवान ने वामन अवतार लेकर त्रैलोक्य को तीन पग में ही नाप दिया था। तथा डिंगऴ कवियों का साल संवत वर्णन का तरीका भी अजब अनूठी विधा लिए होता था जिसके महाकवि हिंगऴाज दान जी सिध्दहस्थ थे।


[७६]

पंचानन आसापुरा, खासा जद खड़ियोह।
नावड़ियो पवमाण नह, पचि फीटो पड़ियोह।।
पचि फीटो पड़ियोह, प्रकंपण बापड़ो।
हाथऴ धक्का हूंल, सह्यौ दुख सांपड़ो।।
हरि हांक्यो इण हूंत, किसो कम काऴिका।
पेख्या उछब उपेत, दरस दाढाऴिका।।

भावार्थ: आशापुरा (चौहानों की कुऴदेवी) ने जब वेग से अपने सिंह को हांका तो उसे वायुयान भी नहीं पासका ओर प्रयास करने पर भी बेचारा लज्जित हुआ। बेचारे वायु ने सिंह की तेज गति का प्रकम्पन सहा तथा शेषनाग ने भी सिंह की हाथऴ का धक्का सहा। कालिका देवी ने भी जो सिंह को चलाया वह भी क्या कम था उन देवियोंने उत्सव सहित श्रीकरनी (दाढाऴी) जी के दर्शन किए।

टिप्पणी: मेहाई महिमा ग्रंथ में हिंगऴाज दान जी नें कामरान की फौज के घोड़ों के वेग का वर्णन किया जो दृष्टव्य है-

हद डांण मृगां अभिमाण हरै।
प्रलंबी कुरबाण उडाण परै।।
घट सुंन्दर ग्रीव कबाण घटी।
पवमांण विमाण समाण पटी।।20।।

अर्थात: घोड़े आरामदायक पीठ कबाण सी गोलाकार गर्दन हरिणों को मात देने वाली उडाण लिए है जिन की चंचलता चपलता पर मर्कट भी कुरबाण (न्यौछावर) हो जाता है।


[७७]

नागणेच आण्यू निकट, बाहण बिकट बुलाय।
चढि हांकण में चंडिका, कसर न राखी काय।।
कसर न राखी काय, दकाल्यौ दोगुणूं।
चोघण ऊछब चाव, चढिज्यो चोगुणुं।।
मेहाई अवतार, लियो उण मास री।
भाऴी छवि अदभूत, खुड़द मढ खासरी।।

भावार्थ: राठौड़ों की कुऴदेवी नागणेची जी ने अपने विकट व भयंकर वाहन को पास में मंगवाया और चंडिका ने उस पर चढकर हाँकने में कोई कसर नहीं रखी। उसने सिंह को दुगुना दकाला। उत्सव देखने हेतु चित में चौगुना चाव चढ गया था। मेहाई श्रीकरनी जी नें जन्म लिया उस माह आसोज में श्रीमढ खुड़द की विशेष छवि का अवलोकन व दर्शन किया।

टिप्पणी: जन मानस में एक दोहा प्रचलित है जिसमें चार प्रसिध्द अवतरित शक्तियोंने चार प्रमुख राजवंशों पर विशेष कृपा करके उनको राज्य स्थापन में मार्ग दिखाया व समय समय पर विपत्तियों से बचाव भी किया था।

आवड़ तूठी भाटीयां, कामैही गौड़ांह।
श्री बिरवड़ी शिशोदियां, करनी राठौड़ांह।।

श्रीकरनी जी की राठौड़ राजवंश पर विशेष कृपा थी और नागणैची उनकी कुऴदेवी थी।


[७८]

मूरति में मेहासधू, जोतां भीतर ज्वाऴ।
करढाऴक में काऴका, ढाहै अज डाढाऴ।
ढाहै अज डाढाऴ, रू भैंसा ऊरणा।
रिध्दि मांहि प्रवेस, कियो अनपूरणा।।
छै रस पाक छतीस, बणावै बरवड़ी।
चावो जै रौ भात, विख्यात चरव्वड़ी।।

भावार्थ: मूर्तियों में करनी जी (मेहासधू) की मूर्ति, जोतों में ज्वालामुखी की जोत, खडगों में कालिका का खडग और बकरों के बलिदान में करनी जी की प्रसिध्दि है। करनी जी के खडग से बकरे व भैंसे का चक्कर किया जाता है। रिध्दि मे अन्नपूर्णा नें प्रवेश किया है। बिरवड़ी जी षडरस के भोजन बनाने में सिध्दहस्त है। तो उनकी चरवड़ी अणखूट चावल बनाने के कारण विख्यात है। उन्होनें एक ही देग मे बने हुए चावलों से नवघण राजा की पूरी सेना को भात का भोजन खिलाया था।

टिप्पणी: माँ सा करनी जी की भी अनेकानेक सिध्दियों में से ऐक अन्नपूर्णा सिध्दि भी लोकिक जन में सुविदित है कि मां ने राव शेखा भाटी की सारी फौज को मात्र दो बाजरै की रोटी और दही की ऐक छोटी कुल्हड़ी (हंडिया) से ही भरपेट तृप्त भोजन करवाकर भिजवा दिया था तथा तभी से दही का आचमन करके शुभ कार्य प्रस्थान की परंपरा प्रचलन हो गई है।


[७९]

बरणी आं आदिक बहोत, आई सकत्यां ओर।
तेजाऴ्यां धनधन तिकां, दिनदिन बधता दोर।।
दिन दिन बधता दोर, जिकां रा जाणजै।
हूं भाखी जां हूंत, बिसेस बखाणजै।।
स्वागत डूंगरराय, सबां रा साजिया।
अन्नागत नौ क्रोड़, सरूप अंदाजिया।।

भावार्थ: इन आदिशक्तियों के, जिनका कि वर्णन किया गया है, के अलावा भी अन्य बहुत सी शक्तियां आई। इन तेजस्वतियों को धन्य है। जिनका प्रभाव दिन-दिन बढता जा रहा है। इनके बढते प्रभाव को जानकर ही मैंने इनकी विशेष प्रशंसा की है। डूंगरराय ने सभी के स्वागत करने की विशेष व्यवस्था की और यहां आये हुए नौ करौड़ स्वरूपों का अनुमान लगाया गया।

टिप्पणी: इतने बड़े आयोजन में अनेकानेक शक्तियां पधारी जिनका वर्णन करने मे माननीय हिंगऴाजदान जी जैसे विलक्षण मेधा वाले कवि भी अपने को समर्थ सक्षम नहीं मान रहे है तो फिर तो उस आयोजन की शोभा वर्णन कौन कर सकता है।


[८०]

अम्बा जन्म उछाहरा, सारा कारज सारि।
ईंद्र भवानी नूं अरज, कीनी चिमनकुमारि।।
कीनी चिमनकुमारी, जुगल कर जोड़ियां।
कूंच करण ताकीद, करै नव कोड़ियां।।
ओढी फरद उतारि, अपोढी ह्वीजिये।
सकत्यां मांगे सीख, बिदा बकसीजिये।।

भावार्थ: देवी के जन्मोत्सव के सारे कार्य सम्पन्न हो जाने पर चिमनकुमारी ने दोनो हाथ जोड़कर ईंद्रबाई से अरज की कि नौ करोड़ देवियां विदाई के लिए शीघ्रता कर रही हैं। आप आढे हुए दुशाले को उतार कर जागिए। शक्तियां सीख (विदाई) का निवेदन कर रही है उन्हें आप पधार कर विदाई दीजिये।

टिप्पणी: अपने अपने धाम पर पधारने की जब देवी और देवताओं को भी शीघ्रता रहती है तो फिर मानव को तो उलाहना ही कहां हे, वह तो वैसे भी मोह माया लालच लोभ आदि के बंन्धन से बंधा ही रहता है। अन्दाता ईंद्रबाईसा को पोढी-अपोढी (राजस्थानी भाषा में शयन को पोढी व जागने को अपोढी होना कहा जाता है) के समय पर हाजरी में सदैव चिमनकुंवरी जी ही रहती थी इसलिए जन्म उत्सव की संम्पूर्णता अर्थात तिथ आसोज सुदी अष्टमी संवत 1998 को प्रातः काल की वैऴा में सभी सभासद पधारी देवियों को विदाई की सीख देने के लिए जगाया।

भारतीय सनातन संस्कारों मे किसी भी प्रकार के आयोजन ने उपस्थित होने के बाद विदाई में मेजबान की आज्ञा या विदाई लेना आवश्यक होता है। और विदाई, घर या स्थान विशेष का प्रधान अथवा मुख्य स्वामी ही देता है। इस मनोभाव से आढी चिमनकुमारी जी ने ईंद्रबाईसा को जगाया अन्यथा इस कार्य का बाकी प्रभार तो वह देख ही रही थी।


[८१]

सोचो अनदाता समै, तोछो दीपक तेज।
कश्यप बेटे री किरण, मेटे तिमिर मजेज।।
मेटै तिमिर मजेज, किलक्कै कूकड़ो।
अब अदीत उगांण, कहीजै ढूकड़ो।।
उगूणै आकास, अरूणता ओतरी।
धूप्यां त्यागी धूम, तयारी जोत री।।

भावार्थ: हे अनदाता समय का विचार कीजिये, दीपक का तेज मन्द पड़ गया है। और कश्यप के पुत्र सूर्य की किरणें अंधकार की मरोड़ (अकड़ाई) मिटा रही है। मुर्गा बांग लगा रहा है। अब सूर्य का उगना समीप ही है। पूर्व के आकाश में ललाई प्रकट हो रही है। और धूपियों ने भी धुआं त्याग दिया है, जोत प्रज्वलन की सम्पूर्ण तैयारी हो गई है।

टिप्पणी: चारण समाज के कई नामचीन रचनकारों ने भगवती के प्रभाती (भैरवी राग) भजन चिरजाऔं की रचना सृजन की है जो कि अपने आप में एक बड़ा संग्रह है। जिनमें से भी पांच सात कवि कौविदों की रचनाएं तो अजब अनूठी व अद्वितीय है। विषयान्तर की वजह से कभी आगे उनका संप्रेषण करने की कोशिश करने की माँ भगवती से कृपा चाहता हूं।


[८२]

बागी माट बिलोवणा, झेरणियां री झाट।
दाढाऴी मढ व्दार रा, खूटा सजड़ कपाट।।
खूटा सजड़ कपाट, चहक्कै चीड़ियां।
चकव्यां कीधा चाव, नरां व्है नीड़ियां।।
फूल्या पंकज फूल, तऴावां तालरां।
भवरां पांख भणकि, झणकि झालरां।।

भावार्थ: बिलोवणियों, दही मथने की मिटी की हांडी, में मथणियों, झेरणियों की फटकार लग रही है। श्रीकरनी जी के मढ के मजबूत व सजड़ किंवाड़ खुल गये हैं। चिड़ियां चहचहाने लग गई हैं। चकवियों ने अपने नरों के पास जाने का चाव किया है। तालाबों व छोटी तलैयाओं मे कमल फूल खिल रहे है। भौंरों के पंखों की भणकार हो रही है और मंन्दिरों में झालरों की झणकार हो रही है।

टिप्पणी: आदरणीय कविया जी को प्रकृति का ज्ञान व लौकिक जीवन ज्ञान परिपूर्ण था (कहा जाता है कि चकवा चकवी रात्रि को एक स्थान पर नहीं रहकर बिछुड़े हुए रहते है) और अनुप्रास अलंकार की छटा तो निराऴी ही है जैसै माट, झाट, कपाट, किलक्कै, चहक्कै, चीड़ियां, नीड़ियां, भणंकी, झणंकी आदि बैण सगाई के बिना तो पुराणे चारणों की रचना की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। आज तो उनकी व्याख्या विवैचना करना भी दुष्कर व श्रमसाध्य कार्य है।


[८३]

जोतिजुगल ज्वाऴाजऴत, बऴत अगरबतीह।
मेहाई मढ मंगऴा, उतरै आरत्तीह।।
उतरै आरत्तीह, नगारा नीधसै।
दीप झऴामऴ द्रोण, लयो कपि ज्यौं लसै।।
घंटा झालर घोख, गुणीजण गावता।
अमृत जोति उजास, लखीजै आवता।।83।।

भावार्थ: दो जोतों की ज्वाला और अगरबत्तियां जल रही है। करनी जी के मढ में मंगला आरती उतर रही है। नगारे गुंजित हो रहे हैं। व झलामल की आरती के दीप ऐसे लग रहे हैं जैसे हनुमान ने द्रोणाचल पर्वत को उठा लिया हो। घंटा झालर की तीव्र ध्वनि हो रही है, गुणीजन चिरजा, छंद, दौहा, सौरठा, गीत, झमाऴ आदि स्तुति पाठ का गायन गा रहै हैं और अमृत समान ज्योति का प्रकाश आता हुआ दिखाई दे रहा है। इस प्रकार नाना विधि उच्च अलंकार से सृजित विभुषित प्रार्थना से चिमन कुमारी जी ने ईंद्र बाईसा को जगाया।

टिप्पणी: हिंगऴाजदान जी के मतानुसार भगवती की दो दो जोति होती थी। उनके प्रसिध्दगीत के नो नम्बर के दुहाऴै में वर्णन आया है कि-

झलै सिर छत्र चमरां हुवै झापटां,
हमेसां दोपहर सांझ होतां।
बंबरी घोख कवि लोग बोलै बिरद,
जगै जगदम्बरी दोय जोतां।।9।।
धूपिया धकै चिट्टकां घीरत धकधक्के,
बारूणी डकडक्के तरफ बामी।
बकबक्के बीर जोगण छके दो बखत,
भकभक्के हुतासण हेत भामी।।10।।

धन्य धन्य है आदरणीय कविया साहब जिन्होनें अपने बाद में चारण समाज की आने वाली कई पीढियों के लिए इतिहास, भक्ति, साहित्य तथा दुर्लभ रचनाओं का ऐक बड़ा संग्रह करके छोड़ दिया जो कि आज व आगे भी बराबर प्रासंगिक रहेगा।


[८४]

आढी चिमनां री अरज, बीजां राग बिहाग।
सुणि कीधो सागर सुता, तंद्रा निंद्रा त्याग।।
तंद्रा निंद्रा त्याग, खमा द्रग खोलिया।
करनादे करनल्ल, बयण ऐ बोलिया।।
जोई आंख्यां जोति, भभूति भाऴ रे।
आ अमृत अरोगि, दरस दाढाऴ रे।।

भावार्थ: चिमनकुंवर आढी की अर्ज व बिहाग (प्रभाति) राग सुनकर सागरदानजी की पुत्री ईंद्रबाईसा ने निंद्रा व तंद्रा का त्याग कर दी। उन्होने अपने नेत्रों को खोला व उनके मुख से “हे करनी जी” यह वचन निकला। आँखो से उन्होनें ज्योति के दर्शन किए और ललाट पर जोत की भभूति लगाई व चरणामृत का पान कर श्रीकरनी जी के दर्शन करने चले गए।

टिप्पणी: दुर्गा बहत्तरी में हिंगऴाजदान जी ने आठवें दुहाऴै में लिखा है कि-

बड़ै प्रात री मात मंजीर बागै,
जरां गात जम्भात जम्मात जागै।
सुणीजै अलंकार झंकार श्रूतां,
हुवै नींद बिक्षेप ताकीद हूंतां।।8।।

यह उनकी बलूचिस्तान स्थित देवी मा हिंगऴाज की यात्रा के समय की प्रभाति समय की वेला की याद का वृतान्त है। तब यह यात्रा बहुत दुर्गम व श्रमसाध्य होती थी। सौभाग्य से आपने भी यह यात्रा की थी। प्रभात वेला में गाई जाने वाली चिरजाओं का भी अलग ही तरीका व राग साज आदि है, और अध्दनिंद्रित अवस्था में यह बहुत ही कर्णप्रिय लगती हैं।


[८५]

पूज्या जंगऴराय पद, राय खुड़द इंदरेस।
भगवती कीधी भऴे, अनि देव्या आदेस।।
अनि देव्यां आदेस, हमें सिंघ धाहुड़्या।
चंड्यां चाढि विदा, करि बाहुड़्या।।
सकत्यां छोड्या सेर, छकि मद छाक री।
ईंद्र सराही आय, चिमन री चाकरी।।

भावार्थ: खुड़द की धिणियाणी ईंद्रबाईसा ने जंगऴधर की धिणियाणी माँ करनल के पांव पूजे व अन्य देवियों को भी नमस्कार किया। उनकी सवारी के सिंह दहाड़ने लगे। मद में छकी हुई शक्तियों ने अपने सिंहों को हांका, ललकारा। सभी देवियों को विदा करके ईंद्र बाईसा पधारे और वहां आकर चिमनकुमारी की सेवा की सराहना की।

टिप्पणी: अनि देव्यां आदेस। आदेश शब्द विशेषतः नाथपंथियों के द्वारा नमस्कार के लिए प्रयोग किया जाता है। एक नाथ दूसरे को आदेश कहकर अभिवादन करता है तो उसका प्रतुत्तर दो बार आदेश-आदेश कहकर अन्य नाथ देता है। अतः शक्तियों ने भी अपनी परंपरा से अभिवादन स्वीकार कर विदाई ली।


[८६]

सालग्रह दाढी सुकल, चाढी पेस चिमन्न।
चीर र काढी चांद मां, धन रै आढी धन्न।।
धन रै आढी धन्न, धनो दिल धारणां।
निज भुज बांध्या नेत, बयण ऊबारणा।।
आं बातां बिच बात, उपज्जी आप नै।
करस्यां मैफिल काल्ह, धनो धणियापनै।।86।।

भावार्थ: श्रीकरनीजी (सफेद दाढी वाली) की सालगिरह का यह उत्सव चिमनाबाई ने इस सफलता से पेश किया जैसे चांद में से चीरकर निकाला हो। आढी आपको धन्य है। आपके मन की श्रध्दा को धन्य है। तुमने अपने बाहुओं के बल पर यह सह वचन प्राप्त किये हैं। इन्ही बातों के बीच ईंद्रबाई (आपको) को यह बात उपजी की कल महफिल करेंगें। चिमन बाई ने कहा कि हे माँ आपके स्वामित्व को धन्य है। आपका आदेस शिरोधार्य है।

टिप्पणी: अन्नदाता ईंद्रबाईसा की सदैह विद्यमानता में महफिल में स्वंय उंचे आसन पर विराजकर अपने सामने सभी पुरूष भक्तों को अपने सामने बैठाकर अनुशासित व मर्यादित रूप से वारूणी का प्रसाद वितरण किया जाता था, तथा भक्तगण डिंगऴ छंद गीतोंका पाठ भी करते रहते थे यह विवरण श्रीमान रामनाथदान जी रतनूं साहब ने मुझे सन 1985 में बताया था।


[८७]

चाढी पेस मुराद चित, रंग रै आढी रंग।
यूं कहि बाढी ईंद्र उर, मैफल करण उमंग।।
मैफल करण उमंग, हुकम फरमावियो।
दिन जाणै दरियाव, उझेलां आवियो।।
ऐ बातां कुण और, सिखावै आप नै।
बोलै सेवक वाह, धनो धणियाप ने।।

भावार्थ: चित की इच्छा को पूर्ण कर दिया, इसके लिए आढी चिमनकुंवर को शाबास है। ऐसा कहकर ईंद्रबाईसा के मनमें महफिल करनें की उमंग बढी। उन्होनें हुकम फरमाया तो, जैसे कि समुद्र में उफान (ज्वार भाटा) आया हो। अन्नदाता ईंद्रबाईसा को यह बातें और कौन सिखावै, सेवकगण वाह वाह बोल रहे हैं और ईंद्रबाई के स्वामित्व को धन्य धन्य कह रहे हैं।

टिप्पणी: ऐक प्रसिध्द रचना (चिरजा) जो हिंगऴाजदान जी कविया की ही है उसमें पूरा विवरण ही महफिल पर ही चलता है उसके नाम, अन्तरे बड़े भाव व भावना प्रधान है और लगभग सभी जगह महफिल के समय इसको गाया जाता है इसका स्थाई अन्तरा निम्न है-

दुबारै छक्ख आज्यो जी दाढाऴ।
अम्बा थानै घण खम्मा घंटियाऴ।।
दाखांरी कादम्बरी, काढी चतुर कलाऴ।
सो पीवो मेहासदू, बांका कोट बिचाऴ।।
आछा राखण इंन्द्रनै, आज्यो खुड़द ऊंताऴ।
सुरराया निज शेरनै, फैरूं भराज्यो फाऴ।।
है कविया हिंगऴाजरै, बिलकुल धौऴा बाऴ।
आं धौऴां री आबरू, राखीज्यो छत्तराऴ।।


[८८]

कमरो मरदानो करयो, परिषद रचण पसंद।
हद जाजम गादी बिहद, सद उपधान मसंद।।
सद उपधान मसंद, घणा हद घाट री।
नीकी नरम निराट, चरम बणराट री।।
छाजत सुच्छ बिच्छात, हिफाजत बासतै।
राजत पायंदाज, प्रवेसण रासतै।।

भावार्थ: मरदाने कमरे को परिषद (सभा, महफिल) आयोजित करने के लिए तय किया गया। बहुत अच्छी जाजम, बड़ा गद्दा व उपर की चद्दर व बड़े आकार की मनसद लगाई गई। उस पर अच्छी नरम, नई व स्वच्छ सुन्दर सिंह की खाल बिछाई गई। हिफाजत के लिए प्रवेश द्वार पर पायदान सुशोभित हुए।

टिप्पणी: उस समय की पीढी के भक्तगणों में से अभी तक एक भी व्यक्ति विद्यमान नहीं है जो आज उस समय की महफिल का वृतान्त व आँखो देखा हाल बयान कर सके। माननीय श्री हिंगऴाजदान जी कविया का लिखा इतिहास ही हमें इतनी बारीकी का दर्शन करवा रहा है। उदयराजजी उज्जवल ने कहा है कि-

सत उजऴ संदेश, उदैराज उजऴ अखी।
दीपै वांरा देश, ज्यांरा साहित जगमगै।।


[८९]

गादी पर धारयां गुमर, ईंद्र बिराज्या आंण।
अग उदियाचऴ ऊपरै, जगचख ऊगो भांण।।
जगचख ऊगो भांण, मकर सकरांत रो।
परम हितू सतपत्र, सभासद पांत रो।।
बप मरदाणूं बेख, इसी छवि आपरी।
दाखि सकै मकदूर, किसी कवि बापरी।।

भावार्थ: गद्दी पर गौरव धारण किये हुए श्रीईंद्रबाई आकर विराजे, जैसे उदयाचल पर्वत के उपर सूर्य उदय हुआ हो और सूर्य भी मकर सक्रांति का। परम हितैषी सभासदों की पंक्ति भी कमल के समान सुशोभित है। ईंद्रबाईसा के शरीर पर मर्दाना भेष है और उनकी इस छवि का वर्णन कर सके ऐसी क्षमता किसी कवि के बाप के बस की बात नहीं है।

टिप्पणी: मेहाई महिमा ग्रंथ मे माननीय श्री हिंगऴाजदान जी कविया ने लिखा है कि

।।छन्द मोतीदाम।।
बिधूंसण जांणक हांणक भूप।
रच्या अप्रमांण सुदस्सण रूप।।
घणी जगदंम्बि धकै घमसाण।
बूढो कवि दाखि सकै न बखाण।।85।।

अर्थात: जैतसी भूप के शत्रुओं का विध्वंस करने के लिए भगवती ने अप्रमाण रूप से कई सुदर्शन चक्र चला कर घमासान मचा दिया था। जिसका बूढा कवि हिंगऴाजदान वर्णन करने में असमर्थ है।

यह कवि की महानता का द्योतक है वरना तो इस बूढे कवि जैसा सृजन संसार के कई कवि मिलकर भी नहीं बना सकते हैं।


[९०]

श्री इन्दर जोड़ी सभा, जोड़ी पात झमाऴ।
जाणकयणथाणक जुड़ी, माणकमोत्यांमाऴ।।
माणक मोत्यां माऴ, तराजो तैण रो।
फूल्यो क्यार फबंत, किना ऐफैण रो।।
लंबो चोड़ो लोक, बणायो बेहड़ी।
मैफल आण मिलै न, जिलै इण जेहड़ी।।

भावार्थ: श्रीईंद्रबाईसा ने सभा जोड़ी, और चारण कवि हिंगऴाजदानजी ने झमाऴ नामक छंद जोड़ी। मानों इस पवित्र स्थल पर मोतियों की माला जुड़ गई हो, इसको आप सब देखो व परखो, मानो अफीम की बड़ी क्यारी फूली हुई शोभा व खुशबु दे रही हो, बैहमाता, विधाता ने लम्बा चौड़ा लोक बनाया है, परन्तु इस जैसी व शोभावाली महफिल अन्य किसी भी जिले में नहीं मिल सकती है।

टिप्पणी: सभा (महफिल) में एक चिरजा जोकि बहुत ही प्रसिध्द है तथा इस की रचना भी इन कवि की ही है इसका एक अन्तरा यहां पर बतौर बानगी प्रेषित किया जाता है।

।।चिरजा।।
दुबारै छक्क आज्योजी दाढाऴ।।टेर।।
दाखाँ री कादम्बरी काढी चतुर कलाऴ।
सो पीवो मेहासदू बाँकै कोट बिचाऴ।।(1)

अर्थात: हे माँ आप देशनोक के बांके गढ से चतुर कलाऴ की दाख डालकर के निकाली हुई आसव आरौग कर मेहाजी की पुत्री करनी जी आप पधारज्यो। कितने उच्चकोटि के भाव हैं चारण परंपरा के।

इस प्रकार की पांच चिरजाओं को एक कैसैट में आज से लगभग दसवर्ष पहले श्रीमान कल्याणसिंहजी कविया संतोषपुरा ने बालीवुड के गायक कलाकारों से भरवाकर सभी स्वजनों को भेंट किया था उसमें संगीत लय ताल गायन का अच्छा संयोग बना था कई भक्तों के पास अभी भी मिल सकती है।


[९१]

मोल महूंगा फूलमंद, दाटा कीधा दूर।
झोक्यां बोदै झूंपड़ै, जावै जूप जरूर।।
जावै जूप जरूर, इसा मद आकरा।
अधका कैफ उगांण, धका बजराकरा।।
आसा खासा आप, अरोगे अम्बिका।
जोही पीवै बाऴ, बचा जगदम्बिका।।

भावार्थ: महंगे मोल की मदिरा के दाटे दूर किये गये, यह मदिरा इतनी तेज थी कि यदि पुरानें झोंपड़े पर डाल दी जाये तो वह अवश्य ही जल जाये। ऐसी तेज मदिरा वज्र के धक्के की भांति विशेष नशा उगाति है। आशा (राजस्थान की एक विशेष मदिरा) अम्बा (ईंद्रबाईसा) स्वंय आरोग रही है। वही मदिरा ही जगदम्बा के सभी बाल बच्चे (भक्तगण) पी रहे हैं।

टिप्पणी: ऐसी महफिल की इस जमानें में तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है। कहां उस जमानें का अनुशासन और कहां वैसा मर्यादित आचरण, अब तो यह सब इतिहास की बातें बन गई है।


[९२]

छत्री कवि भेऴा छकै, छऴता प्याला छाक।
तोनै सद दाखां तणां, रंग घणा ऐराक।।
रंग घणां ऐराक, दुबारा दाद रै।
आ मद प्याला ईंद्र, सभासद सादरै।।
पूरब दिस कवि पात, छत्री दिस पच्छमी।
पिंडां नजरि प्रवेसि, लखै छवि लच्छमी।।92।।

भावार्थ: क्षत्रिय व चारण दोनों एक साथ ही छलकते हुए प्याले पी रहे हैं। हे दाखों की बनी अच्छी मदिरा तुझे बहुत-बहुत रंग है, और दुबारा (दो बार काढी हुई शराब) दारु तुझे रंग है। इन प्यालों को सभासद ईंद्रबाईसा का प्रसाद व उनकी कृपा समझ कर सआदर ग्रहण करते हैं। पूर्व दिशा में चारण व पश्चिम दिशा में क्षत्रिय बैठे हैं। पिंडां (ईंद्रबाईसा) की दृष्टि जिन पर पड़ गई मानों साक्षात लक्ष्मी की ही दृष्टि पड़ गई।

टिप्पणी: राजपूताना के रियासती काल में बैठने का विशेष नियम बना हुआ था जिसका अलग-अलग रियासत के हिसाब से थोड़ा थोड़ा अन्तर था। यह महफिल भी मारवाड़ के चलन के अनुरूप ही आयोजित थी, जिसमें दोनों ही जातियां अपने नियम के अनुसार बैठी थी। भगवती माँ भवानी दोनों को ही समान भाव से देखकर अपनी कृपादृष्टि से कृतार्थ कर सकती थी, कैसी मनोहारी मन-भावन रही होगी अन्नदाता की सानिध्य की महफिल, जय हो।


[९३]

बधिका मदरी बोतलां, पीवण हद प्यालाह।
फऴ कैरां पापड़ फऴी, नुकलां नीवालांह।।
नुकलां नीवालांह, तऴ्योड़ा तासकां।
सुंदर अधिक सुबास, निवाजै नासकां।।
हर सेवक मनुहार, महर ईंद्र मात री।
सांसण खुड़द सवाय, खठै ऐ खातरी।।

भावार्थ: उच्चकोटि की मदिरा की बोतलें है, पीने के लिए सुन्दर प्याले हैं। कैर के फल, तले हुए पापड़, ग्वारफली, आदि के ठूंम के निवाले हैं। तली हुई ठूंम तस्तरियों में रखी हुई है, इसकी सुन्दर व भीनी सुगन्ध नाक में अच्छी लगती है। माता ईंद्रबाईसा हर सेवक को मनुहार रूपी आदेश करती है। खुड़द सांसण के अतिरिक्त ऐसी खातरी और कहां है।

टिप्पणी: सांसण (स्वशासन) चारणों के राजपूताना की किसी भी रियासत के गांव तथा ढाणियां अपने आप में स्वशासन हुआ करते थे। उनमें अमल, अधिकार वहां के चारणों का ही चलता था। चारणो के किसी भी गांव के ठाकुर या जागिरदार ने कभी भी अपने किसान, काश्तकार को लगान या लाग-बाग के लिए परेशान नहीं किया और जरूरत पड़ने पर हर संभव व यथा-योग्य मदद भी किया करते थे।


[९४]

मैफल हूं धायो न मन, छवि नहं पायो छेह।
आंख्यां मद छायो अतै, आयो जोति अनेह।।
आयो जोति अनेह, धगीज्या धूपिया।
पंखा रै जग प्रांण, जगामग जूपिया।।
जंत्र घड़ी साढीक, इग्यारा बाजिया।
गूंज्यां मादऴ बंब, के बादऴ गाजिया।।

भावार्थ: महफिल से मन नहीं भरा, शोभा का अन्त नहीं पाया। आँखों में नशा आया इतने में जोत करने का समय आ गया। धूपिये प्रज्वलित किए गए, हाथकी पंखी से हवा करने पर धूपिये ज्योतिमान हुए। घड़ी के यंत्र में लगभग साढे ग्यारह बज गए और नोबत नगारे ऐसे गूंजे जैसे बादल गरजायमान हो रहे हों।

टिप्पणी: श्रीमढ खुड़द धाम में दोपहर साढे ग्यारह बजे की जोत का बड़ा ही महत्व है तथा इस जोत के दर्शन सभी भक्तगण व श्रध्दालु बड़ी तन्मयता से करते हैं। यह जोत भोग की प्रसिध्द जोत है तथा ज्योति दर्शन के भाद में खुड़द में सदा सर्वदा से चलने वाले रसोवड़े में आये हुए सभी यात्रियों को भोजन करवाया जाता है।


[९५]

सादाना काना सुण्यां, सरणाई साधार।
पेखण जोति पधारिया, दाढाऴी दरबार।।
दाढाऴी दरबार, सभासद साथ में।
तीखण तरऴ त्रसूऴ, थईजै हाथ में।।
माता गमण मरोड़, महंगी मोतियां।
जोई जागत जोड़, जगामग जोतियां।।

भावार्थ: वाद्ययंत्रों को कानों से सुनकर शरणागतों की आधार (ईंद्रबाई) श्रीकरनी जी के दरबार (मंदिर) में जोत देखनें पधारे। साथ में सभी सभासद थे। उनके हाथ में तेज चलने वाला तीखा त्रिशूल था। माता की चलने की मरोड़ मोतियों से भी मंहंगी है। उन्होनें दोनों हाथ जोड़कर जगमगाती हुई जोतों के दर्शन किए।

टिप्पणी: श्रीभगवती भव-भय भंजन भवानी माँ करनल किनियांनी की जोत आरती होती है तब झालर, घण्टा, मादऴ, ढोल, नक्कारा तथा सामुहिक रुप से आरती व चिरजा गायन की समवेत ध्वनि से वातावरण शक्ति-भक्तिमय बन जाता है। ऐसा ही मनोहारी दृष्य ईंद्रबाई सा की कृपा से उस समय के भाग्यशाली भक्तगणों को भी मिला होगा।


[९६]

अचि पयूस ईंद्र भवन, ईंद्र बिराज्या आय।
अड़वड़िया मढ आंगणै, पड़ियासेवक पांय।।
पड़िया सेवक पांय, ललाटां लोऴियां।
पदमा कदम पराग, मिऴाई मोऴियां।।
भाऴि भऴे अदभूत, प्रभा ईंद्र भोंण री।
अरज गुजारी एम, गरज प्रतिगोण री।।

भावार्थ: चरणामृत का पान करके ईंद्रबाईसा इंद्र भवन में आकर बिराजे। मढ के आंगन में सेवक दौड़कर उनके पाँव में पड़े। उन सभी ने पाँवों में अपने सिर झुकाये और चरण-रज पराग अपनी पगड़ियों में मिलाई, और फिर इंद्र भवन की अदभूत कांन्ति को देखकर वापिस लौटने की भगवती से प्रार्थना की।

टिप्पणी: सभी भक्तगणों को अपने अपने घर जाने की उतावली लग गई व सभी ने श्री माँ भगवती भवानी से आज्ञा लेनी चाही। (मिनखा जूण में घर गिरस्थी रो पंपाऴ तो लागियो ई रेवे अर तीर्थ यात्रा के बीजा कामां सूं घर छोड़ने जावणो पड़े तोई उठै बैठियां ने ई घर री केई भांत री समस्यांवां दिखबो करे अर छुटतां पांण भागणों चावै आ है मोहमाया) खैर यह सब ही में लागू है।


[९७]

बांध्या छाया बाड़िया, दिल आया घर दीख।
सह महमाया सेवकां, सुरराया द्यो सीख।।
सुरराया द्यो सीख, दुवाती देस री।
बऴिहारी सो बार, मरद अल भेस री।।
सुणि सुणि अरज समापि, बभूती श्री भुजां।
कीधा ईंद्र कुमारि, बिदा कवि बाहुजां।।

भावार्थ: देवी के सब सेवकों को अपने छाए हुए व पक्के मकान व बाड़े अपने दिलों में मन में दिखाई दिये, उन्होने देवी से विदा देने की अर्ज की, उन्होने कहाकि हे देवी, हमें अपने देश जाने की आज्ञा दीजिए। देवी के मर्दाने वेश की सौ-सौ बार बलिहारी है। अर्ज सुन-सुन कर देवी ईंद्रबाई ने अपने शुभ हाथों से जोति की विभूति दी और चारणौं, राजपूतों व भक्तगणों को आज्ञा देकर विदा किया।

टिप्पणी: माँ भगवती भवानी के भक्तगणों की मनःस्थिति अजीब हो रही थी। माँ के दरबार में भी रहना चाह रहे थे व अपनी घर गृहस्थी की व्यवस्था का सुचारु संचालन करनें की चिन्ताएं भी सताए जा रही थी। और साथ ही साथ माँसा से पुनः अपने दरबार में शीघ्र बुलाने की कामना करते हुए जा रहे थे। वाह रे मन माँ भगवती के दरबार में रहना भी चाहता है और घर गृहस्थी के लफड़े का भी बोझा मन से निकालना नहीं चाहता। यही है दुविधाजनक स्थिति, पर इससे कोई भी उबर भी नही सकता। पर माँसा तो दयालू है सब समझती है व प्रतिपल पुत्रो की पालना करती है।


[९८]

करणी सालग्रह करी, असरण सरणीं ईंद।
तिथि ओतरणी मातरी, बरणी काव्य कविंद।।
बरणीं काव्य कविंद, प्रभा अणपार री।
तिण अंदर तारीफ, रिधू अवतार री।।
कीधी सीधी काव्य, जनम महाराज री।
दीधी ताबा दार, हिंगोऴै हाजरी।।

भावार्थ: अशरण-शरण ईंद्रबाईसा ने करनी जी की सालगिरह (वर्षगांठ) मनाई, श्रीमाताजी के अवतार लेने की तिथि (आसोज शुक्ला सप्तमी शुक्रवार) कवि ने काव्य रूप मे वर्णित की। अपार कान्ति वाली आभायुक्त देवी माँ के अवतार की निश्चय ही इस काव्य में प्रशंसा है। कवि ने जगदम्बा के जन्मोत्सव की सीधी सी ही कविता झमाऴ के रूप में की है। आज्ञाकारी व भक्त हिंगऴाजदान ने इस काव्य द्वारा अपनी भी उपस्थिति दर्ज कराई है।

टिप्पणी: झमाऴ, यह राजस्थानी काव्य का मासिक छंद है। इसमें प्रथम दो पंक्तियां दोहे की व आगे की चार पंक्तियां चंद्रायणी की होती है। अर्थात प्रत्येक पंक्ति में 11+10=21 मात्राएं होती है। इस प्रकार दोहे के बाद चंद्रायण फिर उल्लाला छंद रखकर सिंहावलोकन रीती से पढा जाता है। झमाऴ के अलावा झूलणा भी ऐक अन्य छंद बहुत से चारण कवियों ने लिखा है। झमाऴ छंद भी कई कवियो ने लिखे हे जिनमें अलवर की षटरितु झमाऴ प्रसिध्द झमाऴ है।


[९९]

किनियाणी बाणी कदम, जोगेसर फरजंद।
सुर येता बंदया सुरु, अब बंदू पद इंद।।
अब बंदू पद इंद, सटाधर सिंदणी।
दीपति देह उदार, नदीपति नंदणी।।
अम्बा आदि अनादि, अजोणी ईश्वरी।
रंग धोऴां री राखि, सरम जगदीश्वरी।।

भावार्थ: पहले करनीजी, सरस्वतीजी व महादेवजी के पुत्र (गणेशजी) इन देवताओं की वंदना आरंभ में की, अब ईंद्रबाई के चरणों की वंदना करता हूँ। ईंद्रबाई सिंह की सवारी करने वाली है, जिनकी उदार देह लक्ष्मीजी की भाँति दीप्तिमान है। अम्बा, आदि शक्ति, अनादि शक्ति, अजन्मा ईश्वरी, जगदीश्वरी मेरे सफेद बालों की (वृध्दावस्था) की लज्जा रखना।

टिप्पणी: मान्यवर हिंगऴाजदानजी ने अपने काव्य में कई बार माँ भगवती भवानी से अपने वृध्दावस्था की ईज्जत रखने की प्रार्थना बहुत ही सरस व सटीक रूप से की है जिसके कुछ उदाहरण अवलोकनीय हैं।

।।चिरजा।।
है कविया हिंगऴाज रै, बिलकुल धौऴा बाऴ।
आं धौऴां री आबरू, राखिजै छत्तराऴ।।
दुबारै छक्क आज्योजी दाढाऴ।।टेर।।
।।दोहा।।
श्री दाढाऴी रा सुरु, बंद्या पद अरबिन्द।
अब बन्दू अवसाण में, ऐ पद पंकज इन्द।।
।।छंद।।
घणी जगदम्बि धकै घमसाण।
बूढो कवि दाखि सकै न बखाण।।

जवाहरदानजी रतनू गांव थूँसड़ा ने भी अपनी ऐक चिरजा में मातेश्वरी से अरदास किया कि..

।।चिरजा।।
बुढापा री बिनति म्हारी तो सूं मात।
सम्हऴादी सारी सरम अब थारैई हाथ।।

चारण कवियों की अरदास अर्पण की विधा व हटोटी अजब अनूठी ही होती आयी है।


[१००]

तूं प्रतपाऴक ताहरो, हूं बाऴक हिंगऴाज।
तो बाऴक वाऴी तनै, लंब भुजाऴी लाज।।
लंब भुजाऴी लाज, रूखाऴी राखिजै।
मद मतवाऴी माय, दयाऴी दाखिजै।।
सोनांवाऴी साय, धजाऴी धावजै।
हेकण ताऴी हूंत, उताऴी आवजै।।

भावार्थ: माँ तूं प्रतिपालक है, और मैं (हिंगऴाजदान) तेरा पुत्र, बालक हूं, हे माता, मेरी रक्षा करना, हे मद मतवाली माता, दयालुता दर्शाना, सोनाबाई की सहायतार्थ हे लाल ध्वजा वाली दौड़कर पधारना, एक ताली बजाते अति शीघ्रता से पधारना।

टिप्पणी: सोनाबाई का पीहर गांव डांडूसर में था तेरा वह नारायणसिंहजी गाडण की नजदीकी रिश्ते में भुआ लगती थी व ससुराल पालावतों के गांव कठूमरा में था तेरा इनके पति का देहान्त हो गया तथा दो कन्या संतान थी जिससे इनके जेठ के लड़के ने उनकी भूमि जबरन छीन ली थी। वह बहुत दुखी औरत थी।

हिंगऴाजदान जी कविया जो कि अपनी पूरी उम्र गरीबों के हक में कानूनी लड़ाईयां लड़े और अपना माँ भगवती की सेवा में बनाया हुआ छंद भी सोनाबाई की सहायता में अर्पण कर दिया। धन्य है उनके ह्रदय की उदारता व दयालुता को। धन्य है उनकी प्रज्ञा, मेधा, प्रतिभा उपमाएं व अलंकार वर्णन आदि उन महान विभूति को कोटि-कोटि नमन अभिवंन्दन प्रणाम।

।।इति श्री कविया हिंगऴाजदानजी कृत साल-गिरह शतक सम्पूर्णम शुभम भवेत।।

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