सहजता और संवेदना को अभिव्यंजित करती कहानियां।

राजस्थानी कहानियों की गति और गरिमा से मैं इतना परिचित नहीं हूं जितना कि मुझे होना चाहिए। इसका यह कतई आशय नहीं है कि मैं कहानियों के क्षेत्र में जो लेखक अपनी कलम की उर्जा साहित्यिक क्षेत्र में प्रदर्शित कर अपनी प्रज्ञा और प्रतिभा के बूते विशिष्ट छाप छोड़ रहे, सरस्वती पुत्रों की लेखनी की पैनी धार और असरदार शिल्प शैली से प्रभावित नहीं हुआ हूं अथवा उनके लेखन ने मेरे काळजे को स्पर्श न किया हो। निसंदेह किया है। इनकी कहानियों ने न केवल मेरे मर्म को स्पर्श किया है अपितु इनकी लेखन कला, भाषा की शुद्धता तथा भावाभिव्यक्ति के कारण इन लेखकों की एक अमिट छवि भी मेरे मानस पटल पर अंकित हो गई है।

हां यह बात में स्पष्टता से स्वीकारता हूं कि ना तो मैं आलोचना का आदमी हूं और ना मुझे “गोडे गढ़कर सहजता से रखने का आंटा है” हम तो मुनाफे के आदी भी नहीं है अपितु भावोभाव बेचने के गुण अग्रजों से प्राप्त किए हैं अतः छोरी थारो पेट कुजरबो है ! कै हां! म्हारो सेर धान इणमें ई मावे है! की मानिंद में भी यह नहीं जानता कि मैं जिन लेखकों से प्रभावित हूं वह कौनसे वाद या विमर्श के प्रतिनिधि हैं अथवा वे अभी भी समकाल के साथ कदमताल कर पा रहे हैं अथवा नहीं? या कि वे अभी भी उत्तर आधुनिकता से काफी पाउंडे पीछे हैं या कि उत्तर आधुनिकता का चोला इन्होंने भी धारण कर लिया है? लेकिन मैं इतना अवश्यमेव जानता हूं कि इन लेखकों ने जनमानस को न केवल अपनी कहानियों में अभिव्यंजित किया है अपितु जनमानस में अपनी लेखनी की ताकत पर परिचय का स्थायित्व भी प्राप्त किया है। इसका भी कारण स्पष्ट है कि ऐसे मनीषियों ने न तो अपना खमीर बदला और न ही जमीर।

राजस्थानी कहानी में आदर्शवाद को जीते हुए भी जिन्होंने यथार्थ को अभिव्यक्त किया तो साथ ही प्रगति की गति को पहचान कर समय के सच को आरसी के सदृश पाठक के सामने उद्घाटित भी किया है। आज जहां यथातथ्य चित्रण ही लेखन का एकमेव ध्येय दृष्टिगोचर हो रहा है, वहीं मूल्यों की बात करना घिसीपिटी का द्योतक अथवा पिछड़ेपन की श्रेणी में माना जाने लगा है। अतः अपने आपको औरों से इतर दिखाने की आकांक्षा में कुछ लोग “देश री गधी और पूरब री चाल” में ढल जाते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं कि “मैं मर जाऊं बेशक पर दूध दळियो नीं खाऊं!!” वे श्रम, सदाचार, सत्य, लोक-ललक सहकार, भैळप और भाईचारे आदि मूल्यों की कसौटी पर अपनी लेखनी को कसना नहीं त्याग सकते।

मैं ऐसे ही एक राजस्थानी लेखक को पिछले 30 सालों से सतत पढ़ता रहा हूं। इन्होंने कहानी, निबंध, रिपोर्ताज संस्मरण, उपन्यास, आदि लिखे ही नहीं हैं अपितु इन्हें जिया भी हैं। इतना होते हुए भी इन्होंने कहानी के क्षेत्र में राजस्थानी को जिस श्रम-निष्ठा और समर्पण भाव से राती माती किया है वैसा अन्यों ने नहीं। ऐसे राजस्थानी लेखक का नाम है मनोहरसिंह राठौड़

राठौड़ किसी औपचारिक परिचय के मोहताज नहीं हैं। इनका लेखन ही इनका परिचय है। राठौड़ किसी एक भाषा के दायरे में बंधकर रहने वाले नहीं है। इन्होंने राजस्थानी, हिंदी, अंग्रेजी आदि भाषाओं में जो लिखा है वो श्रेष्ठतम सृजन की श्रेणी में आता है। हां, यह कोई हत्तीतत्ती बात भी नहीं है कि राठौड़ की आत्मा राजस्थानी भाषा में न केवल रमती है बल्कि रंझती भी है।

श्री राठौड़ जानते हैं कि राजस्थानी के पद्य प्रसूनों की महक सर्वत्र रही है लेकिन गद्य गजरे की सौरभ समकालीन सृजन तक अभी विस्तीर्ण नहीं के बराबर हुई है। जब तक गद्य लेखन सफल नहीं होगा तब तक राजस्थानी दिव्यांग ही रहेगी, अगर इसे समकालीन सृजन यात्रा का सहभागी बनाना है तो गद्य की कमोबेश सभी विधाओं में अपनी कलम का कड़पान, शब्द साधना और संवेदनशीलता का परिचय गांव गोरवें से बाहर निकलकर देना होगा।

यह सर्वविदित तथ्य है कि कोई भी भाषा गद्य लेखन से ही सबल बनती है, और भाषा जब सफल बनती है तब वो विकसित होकर दिग्दिगंत में विस्तीर्ण होती है। इस दिशा में श्री राठौड़ का नाम न केवल आदरणीय हैं अपितु अग्रगण्य भी हैं। अग्रगण्य होने के पीछे किसी तथाकथित ‘गॉडफादर’ का हाथ नहीं है अपितु इनके लेखन कला का ही हुनर वरदान के रूप में सिद्ध हुआ है। आपकी भाषा की सुघड़ता, विषय का प्राविण्य और लिखने की विशिष्ट हथोटी का ही कमाल है कि पाठक को लगता है कि श्री राठौड़ उनके ही जीवनानुभवों को अपने कथ्य के माध्यम से उद्घाटित कर रहे हैं।

राजस्थानी के प्रथम पंक्ति के लेखक श्री राठौड़ धैर्य और गांभीर्य के साथ लिखते ही नहीं हैं बल्कि अपने लिखे को पाठक के कळेजे की कोर तक पहुंचाने की तजबीज भी जानते हैं। श्री राठौड़ अपनी कला के ऐसे फनकार हैं जो पाठक की मनोवृत्ति जानने और उस मनोवृत्ति के अनुरूप सृजन कर पाठकीय परख के मापदंड पर खरे भी उतरते हैं। यही खरापन उन्हें अन्य लेखकों से अलग पहचान दिलाता है।

मनोहरसिंह राठौड़ राजस्थानी गद्य के क्षेत्र में शोधक, समीक्षक, लोकसाहित्य के आलोचनात्मक अध्येता होने के साथ ही इस साहित्य के प्रति इनके संरक्षण के भाव भी वरेण्य हैं। यत्र तत्र छपी कुछ कहानियों के अलावा आपके अभी तक तीन कहानी संग्रह छप चुके हैं। ‘रोशनी रा जीव’, ‘खिड़की’ और ‘गढ रो दरवाजो। ‘

राठौड़ की कहानियां समकालीन राजस्थानी समाज का दिग्दर्शन कराने का सामर्थ्य रखती हैं। आपकी कहानियों का मुख्य स्वर संवेदनशील समाज की स्थापना, मानवीय मूल्यों का रक्षण, संस्कारों का संरक्षण, गांव गौरव की व्यापकता, हिम्मत से प्रेम, विद्रूपताओं से परहेज आदि दृष्टिगोचर होते हैं। यही आपके सृजन की साख है।

राठौड़ की कहानियों में एक और शहरीकरण की विद्रुपताओं और औपचारिकताओं पर प्रहार किया गया है तो दूसरी ओर ग्राम्य जीवन की सादगी, सहजता, सरलता और स्वावलंबन उद्घाटित हुआ है। हर कहानी शिल्प के सांचे में ढली हुई प्रतीत होती है तो कथ्य की कसावट और कहन की सादगी के साथ गहन संवेदनात्मकता से भी सराबोर है।

हम यह बात प्रायः देखते हैं कि अधिसंख्य समकालीन लेखन आधुनिकता की आंधियों में आंखमिचौनी खेल रहे हैं या यूं कहें तो भी एक ही बात है कि यह अभी भी द्वंद्वात्मक स्थिति में लिख रहे हैं। इससे ऐसे में ये लेखक दोनों तरफ स्थापित नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे लेखक प्रगतिशीलता की पोशाक पहनकर जबरदस्ती लापसी में लोन डालकर पुरसने को बेताब है। ये श्लील-अश्लील के भेद को छेद कर पाठक को पढ़ने हेतु ढूंढते हैं, हमारा राजस्थानी पाठक अभी तक ऐसी रचनाओं को पढ़ने हेतु प्रकृति और प्रवृत्ति से आदी नहीं हुआ है। यही कारण है कि ऐसी रचनाओं के साथ पाठक का तादात्म्य स्थापित नहीं हो पाया है। कहने का तात्पर्य है कि पाठक ऐसी रचनाओं को पढ़ने के नाम पर पृष्ठ ही बदल रहा है। इससे राजस्थानी कहानी जगत को यह नुकसान हो रहा है कि इससे पाठक और रचनाओं के बीच आत्मीय संबंध तिरोहित हो रहे हैं। जबकि मनोहरसिंह राठौड़ की रचनाओं को पाठक इस कारण पढ़ते हैं कि पाठक को लगता है कि रचनाएं मेरी मनोदशा को ही बयां कर रही है। यानी पाठक को अपने इर्द-गिर्द अनुभूत सच दृष्टिगोचर होता है।

श्री राठौड़ सही मायने में साफल्य मंडित लेखक हैं, क्योंकि यह अपने आसपास घटित घटनाओं से कथ्य ग्राह्य कर उसे समष्टिमूलक विषय बनाते हैं या यों कह दे कि अपनी आंखों के समक्ष घटी घटनाओं से कथानक घड़ते हैं और व्यापक फलक से उसे जोड़ते भी हैं। ऐसे कथानकों से ही पाठक की संवेदना न केवल जागृत होती है अपितु हृदयस्पर्शी चित्रण भी उसके मानस पटल पर अंकित हो जाता है।

मेरे कहने का तात्पर्य यह कतई नहीं है कि मनोहरसिंह राठौड़ केवल आदर्शवादी लेखक हैं, जो केवल पाठक को ज्ञान घुट्टी ही देते रहते हैं। नहीं, आपकी रचनाओं में वह सब कुछ है, जिससे आज के राजस्थानी समाज का प्रतिबिंब पाठक के समक्ष स्पष्ट हो जाता है। राठौड़ की कहानियों में वक्त के बदलाव, मानवीय मनोवृत्तियां, सामाजिक विद्रुपताओं, वैषम्य के साथ ही संवेदनाओं का प्रकटीकरण है। इनके लेखन में माटी की महक तो है ही, साथ ही हमारी संस्कृति की सुगंध, पनपती अमानवीयता, अनाचार का पसरता दलदल, आचरण में आती गिरावट, अत्याचार, धवल चोले व चिलकती चादर की ओट में खोट को छिपाकर आमजन के भरोसे पर चोट करने वालों के चेहरे बेनकाब करने में श्री राठौड़ को कतई झिझक नहीं है।
श्री राठौड़ दिल और दिमाग से खुली पुस्तक हैं। या यूं कह दे तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि श्री राठौड़ अपने लेखन में दिमाग का प्रयोग नहीं करके केवल दिल का ही करते हैं। अतः जो बात दिल से निकलती है वही बात दूसरे दिल तक सहजता से संप्रेषित होती है। इसलिए हम कह सकते हैं कि राठौड़ संवेदना और विचार वैशिष्ट्य की बदौलत पाठक के अंतर्मन को स्पंद देने की कला रखते हैं। राठौड़ एक महनीय राजस्थानी कहानीकार हैं। महनीय लेखक सीमित भावों से बंधा नहीं होता है, अपितु ऐसे लेखकों की दृष्टि व्यापक होती है।

राठौड़ की कहानियां अभी तक गांव के गोरवें से बाहर नहीं निकली है, इसका यह मतलब नहीं है कि लेखक का बाहरी दुनिया से संपर्क नहीं है। इसका मतलब है कि राठौड़ जानते हैं कि लेखन की जितनी आवश्यकता सार्वभौमिकता में है उतनी ही अनिवार्यता उसकी स्थानीय रंगत की है। यही कारण है कि इनकी कहानियों में अभिजात्य वृत्तियां दृष्टिगत नहीं होकर आमजन की सहजता दिखाई देती है। स्त्री व्यथा-कथा के चित्राम जितने मार्मिक राठौड़ ने उकेरे हैं, उतने हृदयस्पर्शी कम ही लेखकों की कहानियों में दिखता है। राठौड़ के स्त्री पात्रों ने अभी तक फैशन की दुनिया के दर्शन नहीं किए हैं। यही कारण है कि वे अभी तक अपनी व्यथा-कथा कलेजे में ही समेटकर रखते हैं। जो न तो दुखती है और न ही उससे निकलता हुआ धुंआ दृष्टिगोचर हो रहा है। आज भी ये स्त्रियां अपनी-अपनी बेबसी को झेल रही हैं। राठौड़ ने ग्राम्यांचलों में स्त्री की दशा और मनोदशा को परखा है। ये स्त्री पात्र ही इनकी कहानियों में संवेदनाओं के संवाहक रूप में पाठक के समक्ष उभरती हैं। राठौड़ आंचलिकता की अंवेर, ग्राम्य जीवन का यथार्थ, यथा-योग्य, सहकार, सादगी और सहजता जिस धैर्य से देखते हैं उसी गांभीर्य से आपने अपनी कहानियों में उतारा है। आपकी कहानियों में ग्राम्यांचलों की रीति, नीति, मान-मर्यादा आदि के सहजदा से दर्शन होते हैं। यहां का मेल-मिलाप आनंद, उमंग की छवियां चित्रित है। अतः हम कह सकते हैं कि राठौड़ ग्राम्य जीवन के संजीदा तथा अनूठे चितेरे हैं।

समय द्रुतगति से भाग ही नहीं रहा है अपितु रंग भी बदल रहा है, लेकिन राठौड़ की कहानियों में गांव अभी भी परंपराएं निभाने के यत्नो में संलग्न हैं। जहां एक ओर शहरों में असंवेदनशीलता की भरमार है, संवादहीनता है, स्वार्थीपन है, वहीं गांवों ने अभी भी उक्त लक्षण ग्रहण नहीं किए हैं। गांवों ने अभी भी रागात्मकता बनाए रख रखी है तो साथ ही अपनी प्रकृति, प्रेम और संस्कृति की जड़ें सिंचन के सुभग कार्यों में भी प्रवृत्त हैं।

श्री राठौड़ के तीनों कहानी संग्रहों में इनकी अपनी अलग हथोटी दृष्टिगोचर होती है तो कथ्य को विस्तीर्ण करने का चातुर्य भी। राठौड़ अपनी कहानियों में उपदेश या ज्ञान बगारते दिखाई नहीं देते हैं। यह तो एक कोमल कलेजे से आसपास की समस्याओं तथा वैषम्य को बताते हुए आत्मीयता, धीरज, मिठास की बात सहजता से संप्रेषित करने के प्रयत्न में तल्लीन रहते हैं।
‘रोशनी रा जीव’, ‘खिड़की’ और ‘गढ रो दरवाजो’ तीनों कहानी संग्रह ग्रामीण-जनजीवन के जीवंत दस्तावेज हैं।

स्त्री मनो-व्यथा और कोमलतम भावो का प्रस्फुटन जिस संजीदगी और संवेदना से करते हैं। जो कैसे ही पत्थर दिल वाले को भी पिघलने पर मजबूर कर देते हैं। ‘इमरती’, ‘ढिगलो’, दोमुंही’, ‘सडका रा माइत’, ‘बिणजारी’, ‘अंमुझणी’, ‘खिड़की’, ‘सुहाग’ आदि कहानियों में स्त्री की सफलता, विवशता उसके स्वप्न, उसकी मनोवृति उमंगते और कराहते कलेजे के यथार्थ चित्राम जिस खामचाई और चतुराई से उकेरते हुए अपने स्त्री पात्रों को पाठकों के समक्ष उभारते हैं वह वरेण्य है। इन कहानियों के माध्यम से राठौड़ सामाजिक विषमताओं, विद्रूपताओं, दोगलापन, आपाधापी और जीवन के अंतर्विरोधों एवं संघर्षों से दो-दो हाथ करने हेतु आप्त, हृदयों के हमराही बनते हुए दृष्टिगत होते हैं।

‘इमरती’ के बिखरते किशोर स्वप्न और उसके यौवन को तीक्ष्ण दृष्टि से बेधती नेताजी की कुदृष्टि और कुत्सित इच्छाएं तो ‘ढिंगलो’ में मांजी की मजबूरी और बहू का बांझरूप पठनीय है। ‘सडकां रा माइत’ कहानी संवेदनाओं से सराबोर है। जो मजदूर अपने यौवन के गालक बनकर अहर्निश सड़कें बनाते हैं, निर्जन वन में सांपों के फन कुचलकर कर आमजन खातिर सुगम राह बनाते हैं, वो राह ही एक दिन इनके कलेजे में आह और दाह उत्पन्न करती है। सड़क बनाने वाले ही सड़क का उपयोग नहीं कर सकते! इससे दयनीय बात और क्या होगी ? स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव, भोपों के अफंड आदि के चक्कर में एक दिन भोमो नाग के दंश से अपने प्राण खो देता है। सड़कों पर चलने वाली बसें न तो उसे चिकित्सालयों तक पहुंचा सकी और ना ही उसके पार्थिव शरीर को यथास्थान। छक जवानी में जमुना के सपने मात्र सपने ही बनकर रह गए वो मजदूरी करके भोमे के मां-बाप के सपने पूरे करने का केवल साधन भर रह गई। उसके स्वप्न तो कुंवारे के कुंवारे ही रह गए। ‘अमुझणी’ कहानी की नायिका पुरुष प्रधान पटक पंचायती की भेंट चढ जाती है। विवाह के थोड़े दिनों बाद ही वैधव्य की शिकार हो जाती है। विधवा होते ही वो दोनों परिवारों हेतु भार स्वरूप बन जाती है। जहां जन्मी, वहां मनभावन नहीं रही और जहां शादी की वहां सुहाई नहीं। काने और कुरूप देवर के साथ उसका जबरदस्ती नाता कर दिया जाता है, परंतु उसने ऐसे घरवास को अंगीकृत नहीं किया तथा असार संसार से हार मानते हुए कुएं में कूदकर आत्महत्या कर लेती है। यहां पाठक कह सकते हैं कि उसे विद्रोहणी बन जाना चाहिए था। क्योंकि इस बदलते युग में उसे पंच पंचायती का मान नहीं रखना चाहिए था। उसे परिस्थितियों की प्रतिकूलताओं से दो-दो हाथ करने चाहिए थे। लेकिन यह केवल कोरा-मोरा धैर्य बंधाना ही सिद्ध होता है। हकीकत में तो आज भी पुरुषों की पटक पंचायती चलती है। आज भी स्त्री के कोमलतम भावों को कोई न तो देखता है और न ही महसूस करता है। अद्यतन तो हम देखते हैं कि आत्मनिर्भर स्त्री पर भी पुरुषों की इच्छाएं हावी हैं तो साधारण ग्रहणियों की कौन कद्र करता है?

‘बिणजारी’ की नायिका शारदा की बेबसी लाचारी, उसके धूल धूसरित होते सपने, उसका दमित होता स्वाभिमान, डगमगाते साहस से पाठक जिस सहजता से रूबरू होता है वहां पाठक की मानवीय संवेदनाएं जगे बिना नहीं रह सकती। ‘खिड़की’ की सेठानी की मां बनने की अतृप्त इच्छा का जिस सजीविता और संवेदनशीलता के साथ इस कहानी में चित्रण हुआ, वह अत्यंत मार्मिक है। ‘सुहाग’ की नायिका जिस तरह गृहस्थी बसाने, जमाने को उत्साहित होकर जिस तरह अपना योगदान देती है वह स्त्री जीविटता का हृदयस्पर्शी उदाहरण है। इसके विपरीत पीहर जाने के नाम पर उसके पति का क्रूर व विभत्स चेहरा पाठकों के सामने उभर कर आता है। उससे लगता है कि अभी भी स्त्री दोयम दर्जे का जीवनयापन कर रही है। इन सब बातों के बावजूद वह अपने पति का अहित नहीं सोचती। राजस्थानी स्त्री के समर्पण भाव और उच्चादर्शों को प्रतिबिंबित करती हुई यह कहानी धारदार है। राठौड़ आज की विद्रूप राजनीति के गिरगिटी चेहरों को पाठकों के समक्ष जिस प्रावीण्य से रखते हैं उससे पाठक स्थानीय राजनीति से लेकर राष्ट्रीय राजनीति के धूर्त गलियारों की शतरंजी बिसातों को अच्छी तरह पहचान लेता है। धवल चोले की ओट में खोट छिपाकर जिस तरह ये कलयुगी-देव निरीह जनता के भरोसे को कुचल रहे हैं वो न केवल पठनीय है अपितु चिंतनीय भी है। राठौड़ की कहानियां यथा ‘इमरती’ सांढ़’ ‘सड़का रा माइत’ आदि इस दिशा में उल्लेखनीय है। इमरती के नेताजी, ‘सांढ़’ का सरपंच, गोपियों आदि अत्याचार भ्रष्टाचार और दुराचार की पुतलियां दिखाई देती हैं। नेताजी की आंखें स्त्री-लज्जा भंग करने और सरपंच की आंखें आबादी की कीमती जमीन हथियाने में लगी हुई है। अपनी बच्ची की आबरू सलामत रखने के यत्नों में घिसू को अपना जमा जमाया डेरा तथा काम मन मारकर छोड़ना पड़ा तो सरपंच का विरोध करने पर बापजी को मौत और खींये दर्जी को इनाम में पिटाई का उपहार मिलता है। जिसे पाकर वह विक्षिप्त सा हो जाता है। इतना सब कुछ होने के बावजूद भी राठौड़ के पात्र विद्रूप राजनीति से डरते नहीं हैं अपितु अपनी आवाज और मुखरता से रखते हैं। यही कारण है कि कभी-कभी यह आवाज मिले ‘सुर तेरा-मेरा तो सुर बने हमारा’ में परिवर्तित हो भी जाती हैं। मानवीय पीड़ाओं या अंतर्मन की पीड़ाओं के प्रकटिकरण में राठौड़ प्रावीण्य रखते हैं। मानवीय पीड़ाओं को महसूस करने व परखने का मादा वह लेखक ही रख सकता है जिसमें कहीं ना कहीं संवेदनाएं और मनुष्यता के बीज मौजूद होते हैं और हकीकत जीवन में भी कथनी और करनी से अभेद होते हैं। राठौड़ की कहानियां ‘बड़ा बाबू, ‘ ‘गंडक, ‘ ‘गुलर रा बीज’ ‘रोशनी रा जीव’ आदि में मानवीय पीडाएं घनीभूत होकर पाठक के समक्ष उभरती है। बड़ा बाबू ने तो आजीवन इमानदारी से गुजर बसर किया परंतु अंत में अपनी बीमारी, बच्चों का मन तथा स्त्री के उपालभ्य के आगे मजबूर होकर द्वंद्वात्मक स्थिति में फंस कर यही पश्चाताप करते हैं कि इस ईमानदारी से क्या प्राप्त हुआ?

‘गंडक’ कहानी का नायक बनवारी अपने प्रेम की प्राप्ति हेतु हर हथकंडे अपनाता है। हर उपाय करता है। जिससे उसे लक्ष्य प्राप्त हो सके परंतु जातिवाद का अजगर बनवारी के प्रेम को निगल ही लेता है। भतीजे को गोद लिया, उसे अपना सर्वस्व माना, परंतु आखिर में वह अपने ही घर में गंडक की संज्ञा से अभिहित हुआ। अंत में उसका जमीर जागृत होता है तथा लोगों का डर छोड़कर अपनी बिखरी-टूटी झोपड़ी में आकर चैन की बंसी बजाता है।

‘सिरजणहार’ का नायक भूख और बेरोजगारी की मार से संपूर्ण ग्राम के बछड़े चराकर अपना जीवन यापन करता है। जिस बच्चे के पढ़ने के दिन थे। वह उन दिनों में झाड़-झंखाडो में नंगे पैर घूमता हुआ अपनी मृत्यु से नूरा कुश्ती कर रहा था। उन्हीं दिनों गांव में आए कठपुतलियों का खेल दिखाने वालों को देखकर उसका भी बाल मन मचल उठा था। वह एक दिन अपनी मां को छोड़कर चला जाता है, परंतु जैसा कहा गया है कि ‘जे जाओ गुजरात तो भाग छिंयाड़ी साथ। ‘ यह काम भी कोई ज्यादा उसके लिए लाभदायक सिद्ध नहीं हुआ, आखिर में वह भूख, बेरोजगारी से एकाकी जीवनयापन करते हुए मां, मातृभूमि के दर्शन के बिना पश्चाताप करता हुआ मरा। यह कहानी पाठक को झकझोरके रख देती है।

‘मिनखजूण’ अत्यंत मार्मिक कहानी है। पति के अहम की भेंट चढ़कर पति-पत्नी दोनों की जिंदगी भार बन जाती है। मनुष्यों में रहकर भी मनुष्यों से दूर रहना व अमानवीय व्यवहार से प्रतीत ही नहीं होता था कि इन दोनों को मनुष्य योनि मिली है। संवादहीनता, कठोरता, कदम दंभ आदि मानवीय कमियां इन दोनों की जिंदगी को रसहीन बनाकर रख देती है। राठौड़ की कहानियों में दोगलापन पर जबरदस्त कुठाराघात हुआ तो साथ ही व्यंग्य भी किया गया है, जो लोग स्वयं ही घड़ते हैं और स्वयं ही भांजते हैं, उनकी बखिया उधेड़ने में राठौड़ कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। ‘कीरतन’ ‘, दोमुंही’ आदि कहानियों में लोगों के छद्म व्यवहार पर खुली चोट की गई है। ‘कीरतन’ में एक और लड़की होने पर बधाई देने और लेने का ढोंग परिलक्षित हो रहा है तो दूसरी ओर लड़की के जन्म पर कीर्तन करने के नाम पर गली मोहल्ले की इकट्ठी हुई महिलाएं बुरी-भली सब बातें करती हैं, परंतु कीर्तन के लिए मुंह ही नहीं खोलती, जैसी आदतों से लाचार स्त्री मनभावों की पोल खोली गई है।

दोमुंही में हालांकि नायक अपनी नौकरी पेशा पत्नी की हरकतों से द्वंद में है तो दूसरी ओर उसे नौकरी न कराने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहा है। आज जिस तरह रिश्ते रिस रहे हैं, स्वार्थीपन हावि है। मानवता, आत्मीयता स्वाभिमान जैसी बातें करने वाले हंसी के पात्र बनकर रह गए हैं। आज लोग मानवता छोड़कर धन के पीछे भाग रहे हैं तथा धनार्जन की युक्ति में नाते, रिश्ते, प्रीति, रीति, नीति आदि का तर्जन करने में कोई संकोच नहीं करते हैं।

राठौड़ की कहानियां ‘जेवडो’, ‘बळद’ आदि में इस तरह के चित्राम पाठक के समक्ष उभरकर आते हैं। जिनमें अपना स्वार्थ संध जाने पर कमाऊ पशुओं को बुढ़ापा आने की मार भुगतने हेतु लावारिस छोड़ दिया जाता है। इस कहानी के माध्यम से राठौड़ ने आज की असंवेदनशील युवा पीढ़ी पर व्यंग्य कसा है, जो अपनी पालनहार पीढ़ी को ‘अपना-घर’ या वृद्धाश्रम में क्रूरता के साथ छोड़ आते हैं। ‘जेवड़ो’ कहानी उतनी ही मार्मिक है जितनी कि ‘बळद’। ‘जेवड़ो’ भी एक प्रतीक है। जो अपनी जड़ों, परंपराओं मान्यताओं, धारणाओं और रीती के बंधनों का। घासी और गाय का आत्मीय संबंध इसी तरह के बंधनों से बंधा हुआ है। यह कहानी संवेदना, मार्मिकता और अटूट रिश्ते को जिस सहजता के साथ पाठक के समक्ष उकारा गया है, उससे पाठक का भी एक आत्मीय जुड़ाव घासी की भावनाओं के साथ एकमेक हो जाता है। अकाल की विकरालता तथा भयावहता से तंग आए लोगों के सामने यह स्थिति उत्पन्न हो गई कि आप मरते बाप किसी को याद नहीं आ रहा है, की तर्ज पर पुरुष ने स्त्री को तो स्त्री ने पुरुष को तो बच्चों ने अपने मां-बाप को छोड़ दिया ऐसी स्थिति में घासी अपनी गाय को छोड़ने ने जितना अपराधबोध, आत्मीय लगाव और जुड़ाव महसूस करता है, उससे संवेदनाओं का साकार रूप पाठक के सामने घनीभूत होकर उभरता हैऋ धर्म ध्वजा को फहराने वाले, धर्मार्थ अन्न क्षेत्र चलाने वाले और मालिक कहलाने वालों ने अकाल में अपने पशुओं को मोत के मुंह में धकेलते हुए परम संतोष की बात मानने लगे। वहीं घासी अपनी मान्यताओं से मुकर नहीं सका। भूखे पेट रहकर, बच्चों को भूखा रखकर अपनी स्त्री की बीमारी की परवाह न करके भी उसने गाय की विश्वासी आंखों में विश्वास और आशा को बनाए रखा परंतु आखिर में उसकी हिम्मत जवाब दे देती है और एक दिन वो अंधेरी रात में गाय के गले से जेवडा निकालकर अपनी गति पर छोड़ देता है, उसे अपना यह कृत्य कुकृत्य लगता है तो साथ ही अपराधबोध भी लगता है, और अपराधबोध के कारण ही अलसुबह घासी के प्राण-पखेरू उड़ गए। गाय के साथ ही उसका जेवड़ा भी खुल गया घासी दोगले समाज के साथ अपने में दोगलापन नहीं ला सका और अपने स्थापित मूल्यों की रक्षार्थ उसके प्राण निकल गए। ‘सुंदरकांड’ ‘कीरतन’ आदि कहानियां धर्म के नाम पर किसी चमत्कार की प्रतीक्षा में धर्म के नाम पर ठगाई करते वालों पर तंज कसा गया है। ऐसे दोगले लोगों की दोगले व्यवहार से राठौड़ ने आमजन को चेताया है। आज भी पुरुष हों, भलेही स्त्री दोनों के मन में बेटे का मोह है। इस मोह के वशीभूत ये न तो अपने बेटी को काबिल बना सकते और ना ही है मन में धैर्य धारण कर सकते हैं। चक्रव्यूह में फंसे ऐसे लोग द्वंद्वात्मक स्थिति में देश की जनसंख्या अभिवृद्धि में अपना अवांछित अवदान देते रहते हैं। प्रकृति की दवाई किसी के पास नहीं है प्रकृति संतुलन की बात हम सबको स्वीकार्य करनी होगी ‘सोने रो सूरज’ पश्चिमी राजस्थान में बरसात की महत्ता पर लिखी गई कहानी है। काल की तलवार और भूख की भयावहता के बीच लड़खड़ाते ग्रामीणों का यथार्थ चित्राम इस कहानी में है। रात को अथाह वर्षा और प्रभात में उदय सूरज एक आशा की कीरण लेकर आता है।

‘रोसनी रा जीव’, ‘खिड़की’, संग्रह के स्वर जितना संवेदनात्मक है उतने ही संवेदन से परिपूर्ण स्वर ‘गढ रो दरवाजो’ के हैं। इस संग्रह में 13 कहानियां हैं। इन सभी कहानियां का स्वर दो पीढ़ी के बीच आए बदलाव को प्रतिबिंबित करते हैं। जहां प्रथम पीढ़ी अपनी मान्यताओं, परंपराओं का निर्वहन दृढ़ता से करने को कटिबद्ध वहीं आजकी पीढ़ी में असहिष्णुता जिससे यह करुणा, दया, सहकार, क्षमा, धैर्य, मानवता आदि गुणों से दिनबदिन दूर होती जा रही है।

‘आधी पांती रा बाप’ कहानी असंवेदनशीलता, निष्ठुरता, और कांइयापन जीवंत दृश्य उपस्थित करती है। जिस बाप ने अपने बेटों को हैसियत से बढ़कर योग्य बनाया, वे बेटे ऐसे नाकारा निकालें कि बाप के लिए बुढ़ापे की लकड़ी बनने की जगह शूल बन गए। आखिर में वृद्ध अपनी गाड़ी एकेला गुड़काकर जीवनयापन करने लगा। इस संग्रह में घर-परिवार के पंपाल, जंजाल, स्वार्थपरता, मध्यवर्गीय परिवारों में पसरती अंधविश्वासों की आंधी, मजबूरी में होते बेमेल विवाह, फूट-फजीती, एक-दूसरे की काट, बेहूदा व्यवहार, बेबसी, व अंतस पीड़ाओं का सजीव चित्रण उकेरा गया है। गरीब बाप अपनी बेटी की शादी एक धनवान अधेड़ के साथ इसलिए मन मारकर संतुष्ट होता है कि येनकेन प्रकरेण उसके परिवार की माली स्थिति सुधर जाए। यह जोड़ा वैसा ही लगता जैसा कि बाज के तीक्ष्ण पंजों में कोई नन्ही बुलबुल पकड़ी गई हो। लड़की उमंग, राग-रंग, सब कुछ निरस बन जाते हैं। कहानी हृदयस्पर्शी व मार्मिक है।

लोकजीवन का जितना झीना लेखा-जोखा राठौड़ ने अपनी इन कहानियों में किया उससे लगता है कि आप लोकजीवन को गहनतम रूप से जानते हैं तथा उसका जो चित्र उकेरते हैं वह अनुभूत सदृश लगता है। राजस्थानी कहानीकारों में राठौड़ का नाम जितना आदर के साथ अग्रगण्य पहचाना जाता है उतना ही समादृत नाम संस्मरण लिखने वाले लेखकों में हैं। राजस्थानी के ख्यातनाम साहित्यकार श्रीलाल नथमल जोशी आपके प्रति लिखते हैं
“ ज्युं अंग्रेजी कवि जॉन, कीट्स बाबत लिखै कै जिण भांत वौ आपरै छह गीतां रे पाण अंग्रेजी साहित्य में सिरै औळ में मानीजै। जिणं भांत चंद्रधर शर्मा गुलेरी आपरी एक कहाणी रे पाण मान पायो है, उणी भांत राठौड़ ई जे दूजा संस्मरण नी लिखनै खाली ‘स्यांति री मां ‘ई लिखता तौ ई हरोळ मानीजता”

आपके संस्करणों की अच्छाई यह है कि आप पात्र को पाठक के समक्ष खड़ा करने में समर्थ हैं। पात्रों हाव-भाव, भाषा, रंग रुप आदि के कारण उनके अच्छे बुरे गुण दोषों की प्रशंसा जिस संजीदगी सादगी और सहजता से करते हैं उससे पाठक को लगता है कि पात्र उसका जाना पहचाना या आसपास का कोई चिर परिचित है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि राठौड़ राजस्थानी कि उन कहानीकार में माने जाते हैं, जिनकी कहानियों में राजस्थानी ढंग और रंग उपस्थित है। आप पाठक के मनोकूल सृजन करने में समर्थ हैं। आपकी कहानियों में राजस्थानी संस्कृति के स्वर्णिम चित्राम मडित है। लोकजीवन की आस्था, विश्वास रीति-रिवाज, जीवन-मूल्यों, का आप सजीव वर्णन करने में कामयाब दृष्टिगत होते हैं। आपका कहानी लेखन आधुनिकता के साथ खड़ा नजर आता है लेकिन छद्म आधुनिकता के आभामंडल से सर्वथा अप्रभावित है। राठौड़ सहज स्पष्ट और संप्रेषण के लेखन में भरोसा रखते हैं न कि नए-नए प्रयोगात्मक चोचले-बाजी में। राठौड़ की कहानी में पात्र अपनी सीमाओं, मर्यादाओं में रहकर बदलते समय के साथ कदमताल करते हैं न कि किसी छिछोरेपन के साथ। आप कहानियों में यह बात सहजता से अंकित करते हैं कि अभी भी राजस्थानी पाठक भाषाई फूहड़पन स्वीकार करने को तैयार नहीं है। राठौड़ की कहानियों में आंचलिकता का संरक्षण सावधानी के साथ सहजता साथ से हुआ है। मानवीय मनोवृत्तियों का खुलासा एक मर्यादित भाषा की सांकेतिकता के साथ सजगता से हुआ है। राठौड़ की अपने पात्रों पर भावनात्मक और मानसिक पकड़ जितनी मजबूत है, उतनी अन्य लेखकों में शायद कम है। राठौड़ भाषा गढ़ने और जड़ने में चातुर्य रखते हैं, यही कारण कि आपकी भाषा देश काल के संचे में ढलने वाली या यों कहें कि समाहित होने वाली है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आपकी कहानियों में यथा योग्य मुहावरों का मेल, कहावतों की कोरणी कहानियों के भावपरक संप्रेषण में सहायक है न कि खाली भाषाएं श्रृंगार। आपके कथा विन्यास की यह श्रेष्टता है कि इनमें प्रयोग नहीं होकर सहजदा प्रदर्शित होती है। यही सहजता सुघड़ता और संप्रेषणीयता में बढ़ोतरी करती हुई विचार, चिंतन और संवेदन को घड़ने में प्रवीणता दिखाता है। आपकी कहानियों का गद्य भाषा और कथ्य की दृष्टि से सामर्थ्यपूर्ण है। कभी-कभी तो लगता है कि पाठक मानो कहानी के साथ-साथ कोई कविता पढ़ रहा है आखिर में कह सकते हैं कि राठौड़ की कहानियों में वक्त का बदलाव, जीवन मूल्यों से जुड़ाव, सामाजिक समरसता, स्वारथ पर चोट, अंधविश्वास उन्मूलन, विद्रूप राजनीति के चित्राम, दलित, शोषित और स्त्री की सामाजिक स्थिति पर बेबाक खुला विमर्श हुआ है

~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”
प्राचीन राजस्थानी साहित्य संग्रह संस्थान दासोड़ी, कोलायत बीकानेर।

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