साहित राग बतीसी (रूड़ो साहित राग) – मीठा मीर डभाल कृत (डिंगळ री डणकार)

।।सोरठा दोहा।।

गावत किन्नर देव गण, उपजत हरख अथाग।।
इन्द्र सभा सूं आवियो, रूड़ो साहित राग।।१।।
शिव तांडव करतां समै, भव भव खुलेह भाग।।
भोळा रे मन भावतो, रूड़ो साहित राग।।२।।
सृष्टी हरखावत सघळी, नव कुळी रिझत नाग।।
गगन धरा गूंजायदे, रूड़ो साहित राग।।३।।
वैद चार उपनिषद वळै, अढार भाग अथाग।।
सबै शास्त्रवां हैं सही, रूड़ो साहित राग।।४।।
राग खट तीस रागणी, ऐह कुटुम्ब अथाग।।
आ सरसत रो अंश हैं, रूड़ो साहित राग।।५।।
वैद रचीया व्यासजी, कथा भुसूंडी काग।।
चार जुगां सूं चालतो, रूड़ो साहित राग।।६।।
कहत सीख जद कांमणी, तेह झट किनी त्याग।।
रचयो तुलसी रामगुण, रूड़ो साहित राग।।७।।
परथम मन पुलकित हुवै, दिल रा मिटैह दाग।।
रौम रोम मैं रम रहे, रूड़ो साहित राग।।८।।
हर भजतां हरखाय हिय, उपजै मन अनुराग।।
प्रेम वधारण मन प्रगळ, रूड़ो साहित राग।।९।।
शांत करे जो चीत ने, ओलवै तृष्णा आग।।
हलमलाय दधि हेतरो, रूड़ो साहित राग।।१०।।
कुरंग पमंग अर केहरी, किड़ीय कुंजर काग।।
सबने व्हालो हैं सदा, रूड़ो साहित राग।।११।।
बप्पैया मोर बोलता, जल्दी वैहला जाग।।
भजै नीत भगवान ने, रूड़ो साहित राग।।१२।।
प्रभात वखते सब पढै, जीव जन्तु नर जाग।।
भजतां कौय भूलै नहीं, रूड़ो साहित राग।।१३।।
कल्याण दीपक कान्हड़ा, भैरव मोटो भाग।।
श्री हमीर शिव रन्जनी, रूड़ो साहित राग।।१४।।
दिल्ली मथुरा द्वारिका, पशुपति नाथ प्रयाग।।
सहु दिश छायो हैं सदा, रूड़ो साहित राग।।१५।।
रागां दैव रिझावणा, सुन्दर अमर सुहाग।।
खटपट मैटें खांत सूं, रूड़ो साहित राग।।१६।।
असद्द निजामु औलिया, दीन मीर अर दाग।।
खुसरो वखांण्यो खांत सूं, रूड़ो साहित राग।।१७।।
भाया तणो सतन भयो, कविवर दूलो काग।।
भजेयो चीत सूं भलो, रूड़ो साहित राग।।१८।।
प्च तत्व रो पूतळो, अवनी नभ जळ आग।।
बीन वायु बैकार हैं, रूड़ो साहित राग।।१९।।
राजी हुवै न राग सूं, उणरा बड़ा अभाग।।
समझे जिकां सुहामणो, रूड़ो साहित राग।।२०।।
कर हाकल दधि कूदयो, वानर भड़ वजराग।।
संदेशो सिय सुणावियो, रूड़ो साहित राग।।२१।।
मुद्रिका दिनी मात नें, लुळै सिया पग लाग।।
लंक बाळै ललकारयो, रूड़ो साहित राग।।२२।।
धिन मीरां मन धारयो, चीत म्ह कान सुहाग।।
दैह समांणो झट द्वारिका, रूड़ो साहित राग । २३।।
सोनों वेंटयो चाव सूं, अनमी करण अथाग।।
जस ले राख्यो जगत में, रूड़ो साहित राग।।२४।।
कामण बैची सत कारणें, तिण पण कियो न त्याग।।
हरिचन्द निभायो हैत सूं, रूड़ो साहित राग।।२५।।
कमधज लड़ेयो रौष कर, खीतिपत पकरि खाग।।
दुरगै राख्यो देशमें, रूड़ो साहित राग।।२६।।
मैवाड़े धिन्न महीपति, पात न नमावि पाग।।
सहयो दुख नह छोड़यो, रूड़ो साहित राग।।२७।।
सांगो कुंभो प्रतापसिह, भूप वंका वडभाग।।
गौहिलां व्हालो हैं गजब, रूड़ो साहित राग।।२८।।
पत राखण प्रथीराज री, वणीह राजल वाग।।
अकबर सुण आळूझयो, रूड़ो साहित राग व।।२९।।
कटक जिमायो कूलड़ी, सह विध भोजन साग।।
नवघण प्रण निभावियो, रूड़ो साहित राग।।३०।।
गौरी टौड़ी गुनकली, बिलावल अर बिहाग।।
मालकौस मधुमालती, रूड़ो साहित राग।।३१।।
पिंगळा रा लिय पारखां, भैख लिख्यो जिण भाग।।
भजयो तीत सूं भरथरी, रूड़ो साहित राग।।३२।।
~~मीठा मीर डभाल

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One comment

  • chunaram vishnoi

    मीठामीर कृत “रूड़ो साहित प्रेम” रचना दिळ री ऊंचाईया न छूवै ह। बडा मिनखां री बडी दीठ /करतब सूं आ रचना उम्दा शब्दा म पिरोयी;साधूवाद

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