साख रा सबद

अंतस री पीड़ जद मांय ई मांय मोकळा भचीड़ खावती आखरां रो आधार लेय बारै नीसरै तद यूं लागै जाणै करुणा रा बादळा औसरै। खुद रै सुख में सुखी अर खुद रै दुख में दुखी होवणो तो जीवधारियां रो मूळ सभाव है पण मानखै री इधकाई आ है कै वो आपरै ‘स्व’ रो विस्तार करै अर खुद रै संकीर्ण दायरै सूं निकळ दूसरां रै सुख-दुख रो सीरी बणै। ‘राखै राग न द्वैस, भाखै नंह जीभां बुरो’ आ मिनखपणै री ओळखाण मानीजी है। पण सताजोग सूं इण वरदायी मिनखाजूण रै हरियल बड़लै री जड़ां में स्वारथ वाळी सुरसुरी इयांकली लागी कै इणरी डाळी-डाळी सुळगी अर पत्तो-पत्तो पीळो पड़तो लखावै। सगळी जियाजूण में अेक आत्मा रै निवास री बात कैवण वाळो मानखो जद मिनख-मिनख में भेद करै, छूआछूत रै नाम पर मिनखां में फांटा घालै, कोई नैं ऊंचो तो कोई नैं नीचो बता’र आपरा उल्लू सीधा करै तद लागै कै वो सरासरी सिरजणहार री सांतरी सिरजणा रो अपमान करै। मोकळै मिनखां वाळी इण धरा माथै मिनख तो लगोलग बधेपो पावै पण मिनखपणो तरतर घटतो लखावै। च्यांरां कानी स्वारथ रा भतूळिया भूंवै जका सगळां री आंख्यां में धूळ न्हाखता ठांईचै सर पड़ी चीजां नैं खबड़खत कर’र आगै निकळ ज्यावै अर लोग चितबगना हुयोड़ा खुद री चीज नैं पारकी अर पारकी नैं खुद री बतावै। अबार ओ ई तोतकरासो चालै।
बेसुमार बधतो मासखो अर धकोधकी घटतो मिनखाचारो आज दोनूं ई चिंता रा कारण है। समय रै बदळाव रै साथै ओपतो सुधार देखण री आस राखणिया लोगां नैं जद विकास री व्हाली मजलां रै कांठै कुळपतराई रा कीकर कांटा बिखेरता दीखै; मिनखीचारै वाळै मतीरां री बेलां रै भेदभाव रा बिसतूंबा (गड़तूंबा) फळता दीखै; अेकरस मीठास वाळै आंबां री डाळियां भरमावणियां अकडोड लटका-झटका करता इतरावै तो संवेदना रो समंद उफाण लेवै, करुणा रा बादळ फाटण लागै। स्वानुभूति हुवो भलां ई सहानुभूति पण उणरी गहराई सिरजण री आधार बणै। इणी अनुभूति नैं कवि सबदां रै सांचै साकार रूप देवतो आपरै मिनखपणै रो प्रमाण देवै। राजस्थानी भासा, साहित्य अर संस्कृति रा सबळा संवाहक, संरक्षक अर समीक्षक श्री लक्ष्मणदानजी कविया आज रै जुग में मिनखापणै री मिसाल है। स्वारथ वाळै खेत री सींव सूं भी अळगा रैवणियां श्री कवियाजी परंपरावां रा प्रबल पखधर होवण रै साथै जुग रै जथारथ नैं नवागत री निजरां निरखण में ई कोई गुरेज नीं राखै। राजस्थानी भासा, साहित्य अर संस्कृति री अेक अेक बात माथै आपनैं घणो गीरबो अनैं गुमेज है। राजस्थानी भासा री संवैधानिक मान्यता सारू आपरा प्रयास घणा महताऊ अर अनुकरणीय है। साहित्य सिरजणा आपरै खून में है। आप राजस्थानी री डिंगल जैड़ी विशिष्ट काव्यशैली सूं लेय आधुनिक राजस्थानी री गजलां तकात लिखतां थकां आपरी रचनात्मक प्रतिभा रो सावजोग परिचय दियो है। आपरी 20 रै लगैटगै मौलिक कृतियां प्रकाशित हो चुकी है।
‘दलित-सतसई’ श्री लक्ष्मणदान कविया री सद्य प्रकाशित काव्यकृति है। इणसूं पैली सतसई सिरैनाम सूं आपरी रूंख-सतसई, रुत-सतसई, मजदूर-सतसई अर दुरगा-सतसई (अनूदित) आद पोथियां छपी थकी है। दूहा छंद में सिरजी आ पोथी ‘दलित-सतसई’ आपरै सिरैनाम री साख भरती दलितां री दरदभरी दास्तान रो बारीकी सूं बखाण करै। कवि रो मानणो है कै मिनख मिनख सब अेक है पण मामूली स्वारथां रै मकड़जाळ में फंसियोड़ा मिनखां मिनखाचारै पर करारी मार मारी अर मिनखां में फांटा घाल दिया। जिणसूं अेक मोटो तो दूसरो छोटो बणग्यो, अेक ऊंचो तो दूजो नीचो बणग्यो अर आपसरी रै इण भेदभाव री भावना रो परिणाम ओ हुयो कै विकास री पगडंडी पर सगळा अेकै साथै नीं चाल सक्या। कवि श्री कवियाजी नैं इण बात री पीड़ा है कै इक्कीसवीं सदी रो आदमी जद जात-धरम रै बंधनां रै आधार माथै किणीं मिनख री ओळखाण करावै तो इणसूं अजोगती बात कांई हो सकै ? जाणबूझतां किणीं अेक वर्ग विशेष नैं अछूत अर निम्न मानतां उणरी उपेक्षा करणो मानवता री तोहीन वाळो काम है, जको कवि रै संवेदनशील मन नैं आधात पूगावै। इणीं पीड़ा रो परिणाम ‘दलित-सतसई’ री सिरजणा रै रूप में आपणै सामी है।
कवि इण सिस्टी माथै जीव री उतपत रै जूनै इतिहास री बात करतां बतावै आदिमानव सूं आज लग री जातरा पर निजरां पसारै। दलित-सतसई लिखतां कवि आज रै मानखै सूं कई बातां में आदिमानव नैं ठीक बतावै। जंगळ मांय जलम अर जंगळ मांय ई सगळा किरिया-कलाप करणियै आदिमानव (बील) री विशेषता बतावतां कवि बतावै कै बील ‘संचय’ री प्रवृत्ति सूं दूर हो। कवि रै सबदां देखो-
जंगळ ‘बील’ज जलमियौ, पळ्यो खाय फळ-फूल।
संचण तणा सभाव रा, अळगा रया उसूल।।
‘बील’ तणी आ भावना, बधी जंगळां बीच।
का‘लै री चिंता नकौ, खटका जीवण खींच।।
ओ ई बील पछै आर्य रै रूप में सुरसत नदी रै कांठै विकास री मजलां नापतो आगै बध्यो अर दुनियां में सभ्यता अर संस्कृति रो फळापो हुयो। खेती अर पसु-पाळण रो काम सरू हुयो। अठै ताणी तो मामलो ठीक हो पण सभ्यता री फसलां साथै कई खरपतवारां भी पनप ज्यावै जकी फालतू हुवै। फालतू हुवै जका फोड़ा घालण में कोई कसर नीं राखै। आपणी मानवी सभ्यता मांय आ खरपतवार छूआछूत अर भेदभाव री भावना है जकी मिनख नैं मिनख सूं अळगो करै, मिनख सूं मिनख रै संबंधां री पवित्रता पर प्रश्नचिह्न लगावै, कवि नैं इण बात री घणी पीड़ा है-
भेदभाव री भावना, कुचमादी नर केक।
ऊंच-नीच रो आमनो, आयो वरग अनेक।।
छिता ऊपरां छायगी, भेदभाव री बेल।
दलितां रो सोसण दुनी, हुयो करण असकेल।।
भेदभाव री इण भावना रो परिणाम ओ हुयो कै दलित नैं दुस्ट बतावतां उणरै सुधरण रा गेला होळै-होळै बंद करणा सरू कर दिया। दलितां री पढाई पर रोक, वांरै मिंदर-देवरां जावण पर रोक, वेद-पुराण सुणण पर रोक, गांव में न्यारी बस्तियां, न्यारा कोठा-खेळी अै सगळी बातां भलां अणजाणै में हुवो का पछै जाणबूझ पण परिणाम अेक ई हो कै मानवता पर करारी मार पड़ी। समाज री इयांकली माड़ी मान्यतावां अर बुद्धिजीवी पंडितां रो बाळणजोगो व्यवहार कवि नैं अणखावणो लखावैै, तो कवि री कलम साची-साची खळकावै-
दुसट वरण दलितां दखै, सुदर बजै समसाण।
मैतर री मौजूदगी, पढो न वेद पुराण।।
मरियां सव लेजावणो, दलितां दीखण द्वार।
सुदरां रो अन्याव सूं, मर्यां न छूटै लार।।
धरम धजावां धूजती, दलित तणो दुख देख।
मौजां पंडित मांणता, साख सासतर पेख।।
माड़ो रहियो दलित हित, पंडितियो बरताव।
पढणो आखर पोथियां, इतिहासां अन्याव।।
इण सतसई कृति मांय दूहा संख्या 101 सूं 169 ताईं कवि भारत में रैवण वाळी दलित जातियां रा नाम गिणाया है। भारत रै न्यारै न्यारै प्रदेसां मांय रैवण वाळी दलित जांतियां रो नामपरिगणन शैली मांय इण भांत रो विवरणात्मक चित्रण अन्यत्र दुर्लभ है। ओ बरणाव कवि री इण विषय में गैरी जाणकारी रो द्योतक है। बानगी रूप दो दूहा देखो-
डंडासी, देवेकुला, हड, हसला, होलेय।
जांबुवळी, चमारजुत, कठलाडी, कथकेय।।
मंडल, मुच्ची, मोगरा, मातंगी, मलदास।
नयाड़ी, नलकेव नखां, पगदाई पैड़ास।।
कवि रो मानणो है कै समय रै साथै जीवणमूल्य बदळै, धारणावां अर मान्यतावां बदळै, परंपरावां अर विस्वास बदळै पण इतिहास इण बात रो साखी है कै दलितां साथै समाज री सोच में बदळाव नीं आयो। इणरै साथै कवि नैं आ भी पीड़ा है कै जे समाज रूढ हो तो पछै कठै ई बदळाव नीं आवतो तो समझ में आती पण पंडित पर पड़ी जद बदळाव स्वीकार हुयो अर दलितां सारू नीं हुयो आ बात कवि नैं अणहूंती लागै। कवि उदाहरण देवतो कवै कै पंडितां सारू मरजादा ही कै वै ससतर हाथ में नीं लेवैला अर कोई री हत्या नीं कर सकेला पण जियां ई विवाद री स्थिति आई स्मृतिग्रंथां मांय संसोधन स्वीकार करीज्यो कै समय री मांग नैं देखतां पंडित ससतर उठा सकै अर राजा तकात नैं मार सकै। पण दलितां री स्थिति देखतां बां नैं कोई मौको नीं मिल्यो। कवि रै सबदां धरम रा ठेकेदार बण्योड़ा इण समाज री दोगली नीत रो खुलासो देखो-
लांघी कारां धरम लग, समरथ पंडित सोय।
ससतर हाथ न लेवणो, हत्या न्रप ना होय।।
कीधो स्वारथ कारणै, संसोधन स्वीकार।
पंडित ससतर ले सकै, मार सकै न्रप मार।।
जोगा आछी जातरा, दलितां नैं दुत्कार।
धरम धाम सुवरण धणी, दीखै ठेकेदार।।
दलितां री दास्तान नैं जाण्यां ‘घाव में घोबो’ अर ‘कोढ में खाज’ वाळा मुहावरा सावळसर समझ में आवै। अज्ञात हिंदी कवि री अेक ओळी है कै ‘गरीबों का मुकद्दर तो लिखा जाता है आए दिन, कभी धनवान लिखते हैं कभी बलवान लिखते हैं’। मतलब ओ कै बियां तो गरीबी सूं बढ’र इण संसार में कोई संताप कोनी पण दलितां पर दोवड़ी मार पड़ी है। अेक तो बै गरीब है अर दूसरा दलित है। सब जाग्यां वांनैं फटकार ई मिलै-
दफ्तर में अफसर लड़ै, खेतां में जमदार।
मालिक मील’र फैक्टरी, दलित खाय दुत्कार।।
संवेदनहीनता री पराकाष्टा तो उण बखत हुवै जद दलितां नैं अछूत मानणियां लोग दलितां री औरतां री अस्मिता पर आक्रमण करै। धनबल अर भुजबल रै जोर पर अनाचार री आंधी खैंखाट करै। इज्जत री खेती में माकड़ो मारतै मदगैलै झूंठै ऊंटा रो उतपात आपरी आंख्यां रै सामी देखतां थकां भी खेतरुखाळो फगत मनमसोस’र आपरी किस्मत नैं कोस सकै, बाकी कीं नीं कर सकै। कवि रो कोमळ मन इयांकली घटनावां सूं विचलित हुवै। कवि वां दरिंदां रै करूर काळजै नैं कोसतो धिक्कारै-
दलितां वाळी डीकरी, फस जावै बद फंद।
जीवण भर पीवै जहर, धिक्कारां नर धंध।
दुसटी दलितां देह रो, सोसण करै सरूर।
खोटा मिनखां रो खलक, काळजियो ज करूर।।
पिता मात दुख पाविया, सुण खोटो संदेस।
मिनखां समरथियां मझां, पड़ै न दलितां पेस।।
‘हारे को हरि नाम’ रो आसरो लेवतो कवि लिखै कै दलितां रो जीवण इण भांत दुखी है कै आजादी रै इतरा बरसां बाद भी राज अर पुलिस सूं वांनैं कीं आस नीं है, वां री रिछ्या राम ई करै तो हुवै। बाकी तो कर कांई सकै ? परा दांत पीस’र रै ज्यावै-
राम कर्यां रिछ्या रहै, राज पुलिस ना रीस।
दलितां रो जीवण दुखी, परा दांत रै पीस।।
दलितां रै जीवण रो आधार खेती है, जिणसूं आपरो पेट भरै अर का पछै पसुवां नैं पाळ’र गुजरान करै। खेती खातर जमीन री जरूरत हुवै, जकी वां कनैं कानी, इण वास्तै जमीदारां री जमीनां हिस्सै-पांती पर लेय’र मैंणत करै। खेती अर पसू नहीं है, बै आपरी दूजी मैणत मजूरी करै। दुनियां चांद पर जावण री बातां करै, बठै बापड़ा अै राम रा मार्या रोटी कपड़ा अर मकान री प्राथमिक जरूरतां खातर ई संघर्ष कर रैया है तो पछै इयांकलै विकास रो कांई फायदो। दलितां रै कठिन जीवण रो चित्रण करतां कवि श्री लक्ष्मणदान कविया लिखै कै फगत दैनिक दिहाड़ी पर आश्रित रैवणियों दलित मजदूरी खातर मार्यो-मार्यो फिरै। लुगाई-टाबरां रै माथै छत नीं अर इज्जत ढाकण नैं कपड़ा नीं तो पछै इण आजादी रो कांई आचार घालां ? दलितां री दुभर दसा रो चितराम देखो-
मजदूरी दो’री मिलै, सो’री नीं संसार।
फोरी जीवण री फसल, पड़ै न कोरी पार।।
कांपै दलितां कायमी, हांपै जीवण हाल।
झांपे दुखड़ा जिंदगी, चांपै बिगड़ी चाल।।
जमी अडाणै मेलदी, ब्याज तीन रै भाव।
नखरा बो’रा रा नवा, दलितां लगै न दाव।।
दलितां खुसियां ना खलक, भल मांडो घर ब्याव।
करजो ब्याव कराय नैं, घणा बधावै घाव।।
मां तो आखिर मां हुवै, उणरी ममता किणी जात धरम या जूण रै आधार पर कमती-बत्ती कोनी हुवै। गरीब दलित घरां में आदम्यां रै साथै लुगाई भी रात-दिन मैंणत-मजूरी करै, घाटाघडि़यै रै फंड में खावण-पीवण रो सराजाम नीं होवण रै कारण हडसंकळ हुयोड़ी फिरै। बां भूखै पेट अर अणगिणत चिंतावां सूं जकडि़ज्योड़ी मावां रै हांचळां सूं दूध कद आवै। टाबरिया सूखा हांचळ चूसै। बीमार हुया डाकदरां कनैं जावै। डाकदर संतुलित आहार री सलाह देवै। डॉ. कविया लिखै कै डाकदर री वा सलाह दामां बिनां कद काम करै ? पाठक नैं करुणाद्र करण वाळी कवियाजी री अै ओळियां पढ़ो-
भूखो कूकै बाळक्यो, चूंगै सूखी चाम।
दलितां हालत दूबळी, बदन विसूखी वाम।।
संतुलित भोजन सला (ह), दीह डाकदर देय।
बिन रोकड़ किम बापरै, कुण बड़भाग्यां केय।।
दूसरां री जमीन पर पाणत करै, आपरी मैंणत रै बळबूतै खेती रुखाळै। फसलां नै फूलती देख’र वो भी फूलै पण आखिर फसल माथै इधकार तो दूजां रो है। कवि लिखै कै हे भोळा तूं तो फिजूल ही फूल रयो है-
पाणत करता पाणती, मैंणत में मसगूल।
धन, अन रा दूजा धणी, फूलै दलित फजूल।।
रात-दिन पच-पच’र हास-पांसळी अेक कर लेवे तो ई जीवणशैली में कोई बदळाव नीं आवै क्योंकै गरीबी वाळो गैण दलितां रै भाग्य-सूरज नैं ऊगण ई नीं देवै। मरपच’र केलूड़ां रो टापरो बणावै का कोई छान-झूंपड़ी, पड़वै-छपरै री जुगत करै पण दूजां रै मेहलायत खड़ी करणियों मजदूर आपरै अठै तो गरमी में लूवां, सरदी मेें डांफर अर बरसात में फांफां री झांपां खावण सारू मजबूर है। दलितां री गंदी बस्तियां में च्यारां कानी माख्यां रा भिणभिणाट, माछरियां री मनगत मस्ती, पेटभूखा अर नागा-उघाड़ा टाबर देस रै विकास पुरखां नैं सोचण पर मजबूर करै कै बेटी रा बापां छाती पर हाथ राख’र सोचो कै रोजीना गरीबी रेखा सूं बारै काढण अर विका री रेखा रै मांय घालण री माथापच्ची कितरी फोरी है। दलित बस्तियां री दीनहीन दसा रो मार्मिक चित्रण कवि श्री कविया रै सबदां देखो-
टूटै केलू टापरा, खेलू बूढै खेल।
छेलू छूटै छांहड़ी, झेलू दलित झमेल।।
आवै छण-छण आवगी, हवा गरम ठर हूंत।
टपकै पाणी टापरां, मन दलितां मजबूत।।
भिणभिणाट माख्यां भमै, तळै माछरां तोर।
दरस इसा दलितां दखूं, जगत रैवासां जोर।।
दलितां घर-घर देखलो, छिब आभा नीं छाय।
आमद कितरी आ रही, आय जाय अंदाज।।
जिण मिनख जमारै नैं चौरासी लाख जूणियां में सिरै जूणी बताइजै। उणीं मिनख जमारै में दलित रै घरै जलम लेवणियैं सारू तो कीं सौरप दीखै नीं। कवि री तार्किक वाणी में संवेदना री सबळाई देखो-
तन ढकणो दौ’रो तदिन, सौ’रो दलितां सीर।
तिको काळ कपड़ा तणो, पड़ै सासरै पी’र।।
खावण पैरण ना खारो, मनड़ो ही मर जाय।
देख्यो सुख कांई दलित, (ईं) मिनख जमारा मांय।।
पंचांग में जियां कई बार अेक तिथ तोटै हुवै तो तीज सूं सीधी पांच्यूं आज्यावै। छठ-चवदस भेळी होवण री कैबत भी खास प्रसंगसेती चालै। दलितां रै अठै जलम सूं सीधो बुढापो ई आवतो दीखै। बाळपणै अर जवानी वाळी तिथ्यां तोटै ई रैवै। अै तो बाळपणै री बेफिक्री अर जवानी री मस्ती सूं अळगा रैय रातदिन पचता आपरी उमर पूरी करै-
बिन रामतियां बीतगो, बाळपणो हर बात।
दलित खिलोणा हित खरच, हुवै न पीसो हात।।
जिण घर खेती ना जमीं, अवर नहीं आधार।
दिन पुरसारथ सूं दलित, परी करै वय पार।।
कविता जुग रै जथारथ रो आईनो होवण रै साथै विगत रो विश्लेषण अर आगत रो इसारो हुया करै। किणी समय री संकीर्णतावां अर विकृतियां-विद्रूपतावां रो बरणाव कवि रो प्रतिपाद्य नीं हुवै वरन ओ बरणाव तो मूळ प्रतिपाद्य ताणी पूगण सारू सीढियां रो काम करै। कवि श्री लक्ष्मणदान कविया राष्ट्रीय चिंतन अर मानवीय मूल्यां रा पैरोकार होवण रै कारण वांरै मन में सदा सामाजिक समसरता री थापणा रो चिंतन चालै। दलित सतसई रा कुल 708 दूहां में कवि जिण सोच रै साथै आगै बढ़ै, उणसूं आ बात साफ हो ज्यावै कै कवि रो उद्देश्य समाज रै इण पिछड़्योड़ै तबकै नैं विकास री मुख्यधारा सूं जूड़ण सारू प्रेरित करणो है। कवि रो उद्देश्य किणी जाति विशेष या व्यवस्था विशेष माथै प्रहार कर’र उणरी तोहीन करणो या भावनावां नैं भड़कावणो नीं होय दोनूं ई पखां नैं स्वमूल्यांकन सारू प्रेरित करणो है। कवि रो उद्देश्य सामाजिक समरसता अर जीवणमूल्यां री जोगती व्यवस्था करणो है। कवि रो उद्देश्य बखत रै बदळाव साथै सामाजिकां में सोच रै बदळाव नैं स्वीकार करण री मानसिकता रो निर्माण करणो है। कवि रो उद्देश्य समै री मार अर बेगार सूं पीडि़त दलित, गरीब, शोषित अर दुखी तबकै नैं हतासा, निरासा अर उदासीनता री काळी छाया सूं बारै निकळण सारू जीवटता रो जोस भरणो है।
कवि श्री कविया समाज री इण खोखली व्यवस्था पर प्रहार करतां समाज रै अग्रणी पख नैं सोचण पर मजबूर करै बठै ई पीडि़त दलितां नैं इण बात सारू चेतावै कै दलित रै घरै जलम अर गरीबी अै दोय तो मिलग्या तो इणमें थारो सारो कोनी पण इणरै बाद में खुदोखुदी काया रै कोढ़ लगावण जेड़ी नसाखोरी री आदत क्यों ली ? कवि रो मानणो है कै नसाखोरी री लत दलितां रै दुख नैं और दूणो करै। अखज खावै अर दारू मोलावै, वीं रो फळ ओ कै रोजीनां करज बढ़तो जावै। इण कारण कवि वां नैं नसां सूं दूर रैवण री सीख देवतां लिखै कै-
नसां मांय गड नीयतां, दलितां रो बडदोस।
दारू पी पी देखलो, हाल बिगाड़ै होस।।
उतपाती होवै अधिक, मिलियां दारू मांस।
बण अपराधी भावना, चूकै नांहीं चांस।।
खोटी आदत खलक मा, नसा करै घण नास।
दुगणा दुखड़ा दलित दिल, पीसो रहै न पास।।
पिव दारू मसती पड़्या, कुण बपरावै चून।
रींचै कामण रासना, सकी रसोई सून।।
अखज खावणी आदतां, मूंको घण मोलाय।
नित रो करज नसेडि़यां, दाळद दलित बधाय।।
दारूदरबेड़ा रै चाळां सागै ओसर-मौसर अर जीवत जिगड़्यां करणो, टाबरां रा छोटी उमर में ब्याव करणा अै काम सरकारी रोक रै बावजूद धकोधकी धड़ल्ले सूं चालै पण आं सूं गरीबां पर मोटी मार पड़ै। दो-च्यार बीघा बोझा (जमीन) हुवै जका बाप रै मौसर में अडाणै मेलीज ज्या। खावण कमावण में तो बियां ई सांसा हुवै अर पछै तो पूरी ई पोळछ आज्यावै। बाप रो औसर-मौसर कर’र मूंढै री राख उतारण री आफळ में पूरो परिवार राख में ओटीज ज्यावै पण हाल ई समझ कोनी पाया। कवि मृत्युभोज रो विरोध करतो चिंता दरसावै-
भारत मांही भायलां, भूंडो मिरत्यु भोज।
अळगो होयो ना अजे, मिनख रुळावै रोज।।
हालत खोटी हो रही, नुकता मोसर नाम।
सकताई हूंतां थका, घूरै बसतियां गाम।।
धरम-अध्यात्म वाळी धरा आपणो भारत देस इण माथै अणगिणत संत अर सुधारक हुया। दलित जातियां में घणां संत-महात्मा जलम्या। राजस्थान में दलितां रो उद्धार करणवाहो बाबो रामसा पीर लोक रो मोटो देवता मानीजै। बाबै रै मेळा मांय अणगिणत जातरू आवै अर आपरा भाग सरावै। दलित सतसई में राजस्थान रै वां सगळै मेळां रो सांतरो बरणाव है, जका गरीबां अर दलितां सूं जुडि़योड़ा है। कीं उदाहरण देखो-
पाळा आवै प्रेमती, जाळा सह कट जाय।
रह रुखवाळा रातदिन, दलित रामसा दाय।।
मग पग-पग मनवार व्है, सेवा घण सतकार।
मेळो दलितां रो महत, रामदेव रिझवार।।
रूणीचै में रामदे, छिब बाणेसर छोर।
भारत मांही ना भरै, इसड़ा मेळा और।।
नर-नारी भेळा नमैं, सापां मांगै साय।
गोगा रै दर आयनैं, पड़ै मानखो पाय।।
जोरां मेळो झोरड़ो, हरीराम हरखाय।
चौथ भादवै उजळपख, लाखूं धोक लगाय।।
केळादेवी कारणै, हिव दलितां हरखाय।
चेत मास पख ऊजळै, नौ दिन सीस निवाय।।
पाबूजी राठौड़ प्रम, कोळूमंड कमठाण।
ओरण चंगो आवगो, ढकै दलितां ढाण।।
छोटो मेळो छाजवै, बरस मांय दो बार।
जूंजाळै गुसांई जुत, दीपै दलित दवार।।
संस्कृति अर संस्कारां रै सरोकार वाळा कवि श्री कवियाजी संयुक्त परिवार री नेहभरी व्यवस्था रा पखधर है। इण वास्तै बै परिवार री उण नारी री खुलै कंठ तारीफ करै जकी आपरै सासू-सुसरां री सेवा करै-
सासू री सेवा सजै, सुसरा दे सनमान।
तिण नारी तारीफ नैं, दाखै लक्ष्मणदान।।
आजादी रै साथै आवण वाळो अपेक्षित बदळाव अजे नीं आयो, इणरै लारै कवि नेतावां री निक्यांजोगी सोच नैं मानै। बां रो मानणो है कै आजादी रो उपहार बेजां कीमत चूक’र हाथ आयो। इणसूं बदळाव रो बायरो बाजणो चाईजतो पण हाल ई दमघोटू ऊमस रो पसारो है, जको कवि नैं अखरै अर कवि आपरी पीड़ा इण भांत व्यक्त करै-
आजादी आयां इळा, बेसक व्है बदळाव।
बौत गुलामी भोगली, लगी किनारै नाव।।
आन बान राखी इळा, भोग दासता बीर।
सहन कियो अन्याव सह, न को दलित हमगीर।।
मुसकिल सूं भारत मिल्यो, आजादी उपहार।
कसर राख दी गत कई, धर नेता धिक्कार।।
नेम धरम राख्यो नहीं, केवल कुरसी काम।
देस प्रेम सूं दूर दिल, नेता बड़ा निकाम।।
रोजीना नया-नया झांसा देवता अै नेता इयांकला जादूगर है कै कद बोतल में उतार’र ढक्कण बंध करद्यै, ठा ई नीं पड़ण देवै-
सीसी मांय उतारिया, फंसिया नेतां फंद।
मंद मंद मुसकावतां, (आं) बोतल करदी बंद।।
नौकरियां झांसा नखै, पेख्या घण पंपाळ।
नेतां ढुलमुल नीत सूं, दलितां गळी न दाळ।।
पढण हेत प्रेरित करै, ढूक गांव ढाणीह।
लास्यां मीठो आप लग, पीवण नैं पाणीह।।
आज सरकारी सुविधावां रै चालतां टाबरां नैं भणावण में घणो जोर नीं आवै। गांव-गांव में पोसाळावां बण्योड़ी है। टाबरां री फीस माफ अर पोथियां फोकट में मिलै उणरै बावजूद भी भणाई रो प्रतिशत जको होवणो चाईजै बो नीं है। दलितां मांय भी जका परिवारां में पढ़ाई रो प्रकास होयो बै परिवार आज घणां आगै बधग्या अर हरख मनावै पण घणकरा आज भी बठै रा बठै है। आरक्षण रो लाभ सगळां तांणी पूग्यो कोनी। कवि रो मानणो है कै शिक्षा इयांकली अमोध शक्ति है जकी सूं मोकळी समस्यावां डरती ओ’ला खावै। शिक्षा री ठौड़ अशिक्षा होवण रै कारण आज दलित सामाजिक कूरीतियां अर अंधविस्वासां सूं जकडि़ज्योड़ा है। छोटी उमर मांय टाबरां नैं परणाय’र ‘आ बैल म्हनैं मार’ वाळो काम करै। कवि इणसूं बचण री सलाह देवै-
टाळो करै न टींगरां, भज कर बाळ विवाह।
सरकारी कानून सह, नहीं निभावै नाह।।
पढिया-गुणिया दलित परिवारां री सुधरती हालत देख कवि नैं संतोख आवै कै अबै बदळाव आवण ढूको है। घर-घर अफसर होवण लाग्या है, राम राजी है। कवि रै सबदां बदळाव री बात देखो-
पौसाळां आछी पढ़ै, बठै विकासी पथ्थ।
आरकसण सूं आविया, दलित हुया समरथ्थ।।
हेरण पाथ हुलास रो, पैरण ड्रेसां पूर।
गेरण माड़ी गत परै, तेरण दसा जरूर।।
अफसर जिण घर बण गया, मान दलित मन मौज।
झुकै छतीसूं जातियां, आवै जीवण औज।।
राजी व्है जद रामजी, इळा रहै आणंद।
आज दलित रै आसरां, सखरी मिलै सुगंध।।
कवि प्रेरणा देवतो लिखै कै समाज नैं देखादेखी बिगाड़ वाळो रास्तो नी अपणाय’र आछा संस्कार लेवणा चाईजै, बेटै आ बेटी में फरक नीं करणो चाईजै, अेकठ राखणो चाईजै –
करो प्रेरणा देय के, संस्कार संतान।
ऊजळ भारत रो भविस, तकड़ी दलितां तान।।
छोरा-छोर्यां समझणो, सबही अेक समान।
अवसर बणबा रो अबै, देवो दलित दिवान।।
अेकट रहज्यो आवगा, इळा करो उत्थान।
दलित सतसई दाखवी, कवया लक्ष्मणदान।।
परंपरा सूं काव्यरचना अर काव्य संस्कारां में पळ्या श्री कवियाजी रो आपरी भासा माथै ओपतो इधकार है। राजस्थानी काव्यभासा री ओळखाण उणरो वैणसगाई अलंकार कवि रै अनायास ई आवै अर ओपै। ठौड़-ठौड़ तिकडि़या अर चौकडि़या अनुप्रासां री लडि़यां पाठक नैं मंत्रमुग्ध करै। मुहावरां अर लोकोक्तियां रा फबता प्रयोग पाठक नैं बांधण री खिमता राखै। सरल सहज अर स्वाभाविक बरणाव रै साथै-साथै इयांकलां आलंकारिक प्रयोग कवि री साधना रै प्रति सम्मान रो भाव प्रगटावै। दलित सतसई सूं आलंकारिक छटा वाळा कीं उदाहरण देखो-
पल-पल में पुचकारवै, धीवां भल-भल धाय।
दाझत पट ससता दलित, मलमल किम मोलाय।।
धपटा ग्रीखम रुत धजर, दलितां दुख दपटाह।
झपटा देवै जोर रा, लूवां रा लपटाह।।
साधणहीणा सांपरत, कीणा साग कराय।
धीणा ना दलितां धरा, चीणा लू चबवाय।।
हरियळ कांकड़ होयगी, माकड़ धण मजबूत।
धाकड़ धरती धान धिन, कांकड़ खुसी अकूंत।।
~~डॉ. गजादान चारण