कहाँ वे लोग कहाँ वे बातें (गाँव सींथल का एक वृतांत) – सुरेश सोनी (सींथल)

काव्य-कलरव के सभी सदस्यों को शुभ प्रभात !
आज आपके सींथल का एक वृतान्त पेश करता हूं –
सींथल गांव किसी भी कालखंड में परिचय का मोहताज नहीं रहा है, क्योंकि हर युग ने इस गांव की उर्वरा भूमि पर प्रतिभावानों, बुद्धिमानों, व्यापारियों, समर्थों व श्रेष्ठों की उत्पत्ति मन लगाकर की है।
यहां के हजारों किस्से बीकानेर, शेखावाटी, मारवाड़ व मेवाड़ तक के गांवों की हथाइयों में आज भी कहे जाते हैं और उन किस्सों के नायक आज भले ही इतिहास के अंग बन गए हैं, मगर लोगों की जुबानों पर आज भी भली-भांति जिन्दा हैं।
बात उस जमाने की है, जब मेरा तो जन्म भी नहीं हुआ था। गांव के किसरावतों के बास में रहने वाले कालूदानजी ‘बडोजी’ गांव के मौजीज आदमी हुआ करते थे।
साहित्य व वाणी में विशेष रूचि होने के कारण इनकी हथाई में भी बेहद रूचि हुआ करती थी। इन्हीं कालूदानजी के भानजे थे, कुशल जी चारण; जो कि ढाढरिया गांव के निवासी थे।
ये कुशल जी अपने नाम के अनुरूप ही थे, यानी हर विधा में कुशल थे। ये डिंगल व पिंगल के प्रकांड पंडित होने के साथ-साथ ज्योतिष, हस्तरेखा व वास्तुशास्त्र के गहन जानकार थे। ये वाणी गायन की गहरी समझ रखने के कारण गांव में होने वाले जागरणों में अधिकाधिक उपस्थित रहा करते थे।
अपने ननिहाल सींथल से इनको इतना लगाव था कि जब भी यहां आते तो कई महीनों तक यहीं रुकते। वे केवल कालूदानजी के भानजे नहीं थे, वरन पूरे गांव के भानजे थे। पीथों की तिबारी हो या सुखजी की चौकी या कोई अन्य स्थान, हर कोई उनको जबरन अपने यहां रोक लिया करता था और उनकी वाकपटुता व विद्वता के रसों में सराबोर होकर आनन्दित होता रहता था। गांव के सेठ भी उन्हें बहुत इज्जत दिया करते थे।
इसी जमाने में डीडवाना के महन्त बालमुकुन्द जी भी अकसर सींथल आया करते थे। उन्हें भी कुशल जी की तरह सींथल से इतना लगाव था कि अपनी गद्दी को छोड़कर जब मन आया, सींथल चले आया करते थे और ठठाकर कहा करते थे कि
“लोग तो महन्त की गद्दी के लिए मरने-मारने पर उतारू रहते हैं, मगर मैं तो सींथल की हथाई का आनन्द लेने के लिए उस गद्दी को जब चाहे काचर-बोर समझकर छोड़ आता हूं।”
कद्दावर काया के धनी व गौरवर्णीय बालमुकुन्द जी जाति से जाट थे, मगर मन से चारण ही थे। जब भी सींथल आते तो उन्हें गांव के गवाड़ में स्थित ठाकुर जी के मन्दिर में ही ठहराया जाता था। कुशल जी चारण से इनकी बेहद पटती थी, क्योंकि दोनों ही प्रतिभा-पुंज थे।
यह वह दौर था, जब कुशल जी व बालमुकुन्द जी के सान्निध्य में हथाई जुड़ती तो कब शाम हुई, कब रात हुई और कब दिन ऊग गया, पता नहीं चलता था। मेरे दादाजी के हाटड़े में भी वे लगातार आते थे।
ऐसे ही एक ढलते दिन में एक प्रख्यात गायक का अपने तबलची व साथियों सहित सींथल में आगमन होता है। शायद वे जोधपुर आकाशवाणी के प्रख्यात गायक रामचन्द्र गोयल ही थे, जो गांव के किसी जागरण में बुलाए गए थे।
सींथल में साहित्यिक या सांगीतिक प्रस्तुति देना हर किसी के लिए आसान नहीं होता, क्योंकि यहां के लोग इन दोनों ही विधाओं पर अपनी अच्छी पकड़ रखते हैं; मगर इस बार उनका पाला एक श्रेष्ठतम गायक से पड़ा था।
सैंकड़ों श्रोताओं की उपस्थिति में हो रहे उस जागरण में कुशल जी चारण तो उपस्थित थे, मगर उनके जोड़ीदार बालमुकुन्द जी (महन्त जी) नहीं आए थे। महन्त जी की यह कमी कुशल जी को बहुत खल रही थी कि तभी उस मेहमान कलाकार ने पेटी पर पैरवे देकर गायन प्रारम्भ कर दिया था। जैसे ही उस कंठ से स्वरलहरी निकली सींथलवासी चकित रह गए थे।
अदभुत गायन था और उतनी ही अदभुत थी हारमोनियम पर उसकी संगत और इन दो अदभुत स्वरलहरियों के साथ-साथ उस तबलची की अंगुलियां भी अदभुत गति से थिरकती-थपकती जा रही थी।
लोग-बाग मुग्ध-भाव से गर्दनों को ताल व सम के साथ अनायास ही झटकते जा रहे थे। संगीत के गहन जानकार कुशल जी भी अत्यन्त प्रभावित होने के साथ-साथ बेचैन भी हो गए थे, क्योंकि उन्हें उस गायक के चेहरे पर पसरा दर्प खाए जा रहा था। खास बात यह भी थी कि उस गायक से ज्यादा तो तबलची को गुमान होता जा रहा था।
कुशलजी को इस बात की कसमसाहट हो रही थी कि बाहर से आए एक-दो आदमी मेरे ननिहाल पर टांग फेरकर जा रहे हैं। मगर वे कुछ कर भी नहीं सकते थे, क्योंकि श्रेष्ठता की दृष्टि से वह गायक उनसे भी उत्तम था, लिहाजा वे स्वयं भी उसे नहीं ललकार सकते थे; फिर किसी और की औकात ही क्या थी? वे किसी भी कीमत पर उस गायक व उस तबलची के दर्प को दूर कर देना चाह रहे थे, मगर कोई रास्ता नहीं दिख रहा था।
तभी उन्हें कुछ याद आया और तत्काल ही उठकर चल दिए। लोगों ने इस तरह अचानक उठकर जाते देखकर उन्हें रोका, तो उन्होंने कहा कि अभी वापिस आ रहा हूं।
उस जागरण से निकलकर उस काली अंधेरी रात में कुशल जी तेजी से गांव के गवाड़ की ओर चले जा रहे थे। जल्दी ही वे ठाकुर जी के मन्दिर के द्वार तक पहुंच गए और अपने साथी बालमुकुन्द जी को पुकारा।
वे तत्काल ही बाहर आए और इस तरह आधी रात में आने का कारण पूछा तो उन्होंने सारा माजरा बताकर कहा कि आपको मेरे ननिहाल की लाज बचानी है। बालमुकुन्द जी ने सब कुछ समझकर भी पूछा कि मुझे क्या करना होगा? तब कुशल जी ने कहा कि आपको स्वयं हारमोनियम बजाकर तथा उसी तबलची की संगत लेकर एक वाणी गानी है। केवल एक वाणी, बस। बालमुकुन्द जी ने हंसकर कहा –
“तेरे ननिहाल की लाज, मेरी लाज है।”
तत्काल ही दोनों उस जागरण में जा पहुंचे, जहां समां बंधा हुआ था और अपार वाहवाही होती जा रही थी। दो चार प्रस्तुतियों के बाद कुशल जी ने उस टीम के सामने प्रस्ताव रखा कि हमारे गांव के एक छोटे-मोटे गायक भी एकाध भजन सुनाना चाहते हैं तो उस गवैये ने खिन्न-भाव से बालमुकुन्द जी को अपना स्थान दे दिया।
महन्त जी ने हारमोनियम अपनी ओर सरकाया व उसे एक विशेष कोण देकर जैसे ही अंगुलियां फिराई, वे दोनों समझ गए कि यह कोई छोटा-मोटा गायक नहीं है। जैसे ही उस सरस्वती पुत्र के कंठों से शास्त्रीय राग का सधा हुआ झरना फूटा, गायक व तबलची अवाक रह गए। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि इस छोटी सी खान में भी इतना बड़ा हीरा मिल सकता है।
तबलची भी बेहतरीन संगत दिए जा रहा था, क्योंकि उसने भी इतनी सधी हुई आवाज पहले नहीं सुनी थी। जैसे-जैसे महन्त जी ने राग ऊंची की, उनकी अंगुलियों का सहारा लेकर हारमोनियम भी उसी अंदाज से त्रुटिरहित ढंग से बजने लगा और तबलची ने भी कोई कसर नहीं रखी, मगर उस वाणी-गायक ने जैसे-जैसे संगीत के सघन-प्रदेश में प्रवेश किया, तबलची के थाप थरथराने लग गए थे।
बालमुकुन्द जी ने अपनी भौंहों के इशारों से उसे पीछे न रहने के लिए समझाया, मगर वह बार-बार लडख़ड़ाता जा रहा था। सचमुच वह बहुत शर्मिन्दा हो उठा था, मगर इसका कोई उपाय भी तो नहीं था उसके पास। बालमुकुन्द जी ने अपनी राग को विभिन्न क्षेत्रों से गुजार कर उस बिचारे को खूब पिदाया था।
जैसे ही वह वाणी समाप्त हुई, खुद गोयल साहब ने भरे गले से सराहना की तथा तबलची भी पीछे नहीं रहा। परिचय पूछने पर महन्त जी ने कहा कि भई, मैं तो इस गांव का अकिंचन नागरिक हूं। यहां की प्रतिभावों के समक्ष मेरी तो गिनती ही क्या है? इस प्रकार केवल एक वाणी सुनाकर बालमुकुन्द जी चले गए, मगर उस उस गायक व उस तबलची, दोनों के चेहरों पर दर्प के भाव फिर पूरी रात तक नहीं आए थे।
इस जोड़ी का एक किस्सा और उल्लेखनीय है, जिसे प्रस्तुत करना चाहता हूं। एक बार एक पहलवान सींथल गांव में आया। वह सींथल के किसी रिश्तेदार के साथ आया था। उसने अपने पैर में एक कड़ा पहन रखा था, जो इस बात का प्रतीक था कि आज तक उसे कोई भी नहीं हरा पाया है। लोगों ने उससे जब कड़े के बारे में पूछा तो उसने गर्व के साथ अपना परिचय देकर कड़े को पहनने का कारण बताया।
शीघ्र ही यह बात गांव के सभी बासों में फैल गई और लोग-बाग उसे देखने आने लगे। बात तो तब बिगड़ गई, जब उसने खुल्लेआम पूरे गांव को ललकार दिया और अपनी जांघों पर थपकियां देने लग गया।
कुशल जी को यह बात भी चुभ गई। वे फिर बालमुकुन्द जी के पास गए और सारा माजरा बताया। महन्त जी उसी समय उनके साथ चल पड़े। उन्होंने जाकर देखा कि वह पहलवान न केवल कद्दावर था बल्कि आत्मविश्वास से भी भरपूर था। फिर भी वे घबराए नहीं और लंगोट कसकर मैदान में उतर गए।
यह देखकर लोगों ने समझाया, मगर वे माने नहीं; क्योंकि उन्हें दूसरा कोई भी नजर नहीं आ रहा था, जो उस ललकार को स्वीकार करता। लोग महन्तजी को समझा रहे थे कि यह रोज अभ्यास करने वाला पहलवान है और आप एक साधु है, इसलिए मुकाबला बराबरी का नहीं है। मगर और कोई उपाय भी तो नहीं था। तभी किसी ने सत्तीदान जी का नाम सुझाया तो सभी ने एक स्वर में कहा कि हां, यह ठीक रहेगा।
सत्तीदान जी सींथल के पीथों के बास में रहने वाले थे। ये इतने जबरदस्त लठैत थे कि पचास आदमी भी उनके समक्ष कम पड़ते थे।
अपनी ससुराल से सपत्नीक वापिस आते समय उन्होंने हथियारों से लैस चार-पांच धाडिय़ों पर घने जंगल में अकेले ही लाठी से हमला कर दिया था, क्योंकि वे एक बारात से दुल्हन उठाकर ले आए थे तथा उस सूने जंगल में उससे दुराचार की कोशिश कर रहे थे। हालांकि उनकी पत्नी ने भी कातर स्वर में उनको इस हेतु मना किया और डकैतों ने भी चेतावनी देते हुए चले जाने को कहा, मगर सत्तीदान ने कुछ ही क्षणों में उनको ढेर कर दिया था और कतारबद्ध रूप से अपने ऊंट की पूंछ के पीछे कुत्तों की तरह बांधकर दुल्हन की ससुराल को गए व उन सबको सुपुर्द कर बिना कुछ लिए लौट आए।
एक बार दासूड़ी गांव में उन्होंने एक बिफरे हुए पाडे पर अपनी लाठी का प्रचंड प्रहार किया तो वह भीमकाय प्राणी उसी समय मर गया व उसकी खाल दोनों ओर से फटकर धरती तक लीर-लीर होकर लटक गई व चारों खुर रेत में धंस गए। ऐसे कई किस्से हैं, मगर हम उनका जिक्र करके विषयान्तर नहीं होंगे।
गांव के गवाड़ में बुलावे के साथ ही सत्तीदान जी आ खड़े हुए थे। उन्होंने मटमैली धोती व आगे की ओर जेब वाली गंजी पहन रखी थी। बालमुकुन्द जी ने पहलवान से कहा कि पहले मेरे इस चेले से भिड़ लो। यदि इसे हरा देते हो तो फिर मुझसे भिडऩा। पहलवान छरहरी काया वाले सत्तीदान जी को देखकर कुत्सित भाव से मुस्कुराया, मगर उसे उसे यह जरा भी आभास नहीं था कि छरहरी काया वाले इस नवयुवक में अपार बल है।
उस कुश्ती के समाचार सुनकर गांव का पींपळिया गवाड़ अपार जनसमूह से भर चुका था। तत्काल ही एक गोल घेरा बना दिया गया व दोनों को अन्दर भेज दिया गया। गांव के लोग सत्तीदान जी की अतुलनीय क्षमता से तो परिचित थे, मगर वे इस बात से आशंकित थे कि पता नहीं सत्तू को कुश्ती के दाव आते हैं या नहीं।
उस गोल घेरे में आगे की ओर झुके हुए व विपक्षी की आंखों में आंखें डालकर घूमते हुए उस पहलवान ने किसी दाव की फिराक में होकर जैसे ही सत्तीदान जी के हाथों को पकडऩे का प्रयास किया, उन्होंने उसकी कलाई पकड़ी व किसी फूल की तरह अपने सिर के ऊपर से इस तरह फेंका कि वह पन्दह फुट दूर स्थित घेरे की परिधि से बाहर लुढकता हुआ जा गिरा था। वह धूलधूसरित अवस्था में हांफता जा रहा था तथा उसे विश्वास भी नहीं हो रहा था कि किसी माई के लाल में इतनी भी शक्ति हो सकती है।
वह तत्काल ही उठ खड़ा हुआ, मगर हाथ जोड़कर विनीत भाव से कहा –
हो गई कुश्ती! अब नहीं लडऩा मुझे!
लोगों ने बहुत उकसाया, मगर वह नहीं माना और बालमुकुन्द जी से क्षमा मांगकर जाने को उद्यत हुआ, तो उन्होंने मुस्कुराकर कहा कि जाने से तो हम नहीं रोकेंगे, मगर अपने पैर का यह कड़ा यहीं उतारकर जाना होगा। उस पहलवान के पास कोई दूसरा उपाय भी नहीं था। दादे लूणे के जयघोषों के बीच उस पहलवान को शर्मिन्दगी के साथ अपना कड़ा उतारना पड़ गया था।
सारांश यह है कि कुशल जी का तो सींथल में ननिहाल था। उनका सींथल के लिए इस तरह व्यग्र होना स्वाभाविक था, मगर महन्त जी तो जाति से जाट थे। उनका सींथल से कोई लेना-देना नहीं था; फिर भी उन्होंने यहां की धरती से जो लगाव रखा, उसका उदाहरण अन्यन्त्र दुर्लभ है। आज पचासों सालों बाद भी हम सब स्वयं को उस महामना के ऋणी महसूस कर रहे हैं।
ये किस्से मैंने अपने बचपन में तोळोजी के हाटड़े में कई बार सुन रखे हैं, मगर आज फिर नए हो गए; क्योंकि डॉक्टर कुलदीप जी बीठू के माताजी के मौखाण में सींथल जाना हुआ तो तोळोजी के हाटड़े में भी हाजरी लगाकर आया, जहां मोहनजी पटवारी (दाता) ने इन सब किस्सों का उल्लेख किया था।
सींथल गांव के प्रति अगाध श्रद्धा रखने वाले कुशल जी चारण तथा बालमुकुन्द जी जाट (महन्त जी) को सादर नमन करता हूं।
जय सींथल।
सोनी सिंथेलियन
23-06-2019