सींथल़-सुजस इकतीसी

।।दूहा।।
सुकवी संतां सूरमां, साहूकार सुथान।
सांसण सींथळ है सिरै, थळ धर राजस्थान।।1

वंश वडो धर वीठवां, गोहड़ भो गुणियाण।
जिण घर धरमो जलमियो, महि धिन खाटण माण।।2

धरमै रो बधियो धरम, भोम पसरियो भाग।
जांगल़पत गोपाल़ जो, उठनै करतो आघ।।3

धरमावत मेहे धरा, कीरत ली कवराव।
सांगट देव हमीर सा, आसै जिसा सुजाव।।4

मही हुवो घर मेह रै, सांगट वड सुभियाण।
सांसण दीनो सांखलां, सिरहर धरा सिंहाण।।5

थाहर सिंघां री थल़ी, जाहर जगमें जाण।
नाम सिंहथल्ल़ जद निमल़, कियो प्रसिद्ध कवियाण।।6

मूल़ो सारंग पीथलो, सूरो लूण सधीर।
सुवन च्यार घर सारखा, वड सांगट रा वीर।।7

सांगड़ रै एको सधू, दिल मँझ घणो दुलार।
सिये सिंढायच नै सरस, परणाई कर प्यार।।8

बंट दियो जिणनै वसू, निज धर दियो निवास।
सिंहढायच जिणरा सकव, बसती अजलग वास।।9

मूळा सांरग रा मुदै, पिथा हमीरा पेख।
सींथळ गढवाडा़ं सिरै, टणकी राखण टेक।।10

वीसोतर विसराम री, ठावी सींथळ ठोड़।
चावी आज चकार में, मही वरण री मोड़।।11

नर लूणै सा नीपज्या, रोहड.खांप रतन्न।
सिरहर सींथळ सांसणां, धरती खाटण धिन्न।।12

जिको धरा कज जूंझियो, करनै गल़ै कटार।
कुटल़ ऊद जिण काढिया, सुजस लियो संसार।।13

सांगटिया सारा सिरै, ज्या बिच मूळा जोय।
आयां अबखी अवन पर, हितू हरावळ होय।।14

कमध जदै धर कोपिया, बीजां उपन्यो बीह।
प्रगट हरावळ पदम-सुत, आयो हणूं अबीह।।15

गणणाई सींधू गहर, रीस भूप रतनेस।
सूहडा़ई राखी सधर, पूत हणूं पदमेस।।16

पेख मूल़ै परभेस रै, लाडी लाल़स लेख।
चतरां राखी चारणी, तण कुल़ री धुर टेक।।17

चतरां कीधो चारणी, जमर उजाल़ण जात।
जिणरो अजलग जोयलो, अमर नाम अखियात।।18

सींथळ नै सदियां सुण्यो, सरणाई साधार।
अबखी वेळा ईहगां, अपणायो आधार।।19

जिणपुल़ पत जोधाण रै, कियो ऊद घण कोप।
उण कज पातां आउवै, जमर रच्यो हद जोप।।20

मुआ जिकै हुइया अमर, जिया जिकै जस जोग।
बहिया धर बीकाण दिस, लाखीणा धिन लोग।।21

राजा धिन -धिन रायसी, दुनियण भो दातार।
विदगां नै धर वांदिया, सुज मन कर सतकार।।22

सींथल़ धर रहिया सकव, मुदै अठै खट-मास।
सांगटियां कीधो कुरब, हित चित सबां हुलास।।23

संकट आयां सैण पर, ओछी तकै न एक।
विपती निज भुज बांटणा, दाटक सींथळ देख।।24

साच हितेसी सैण रा, जिण में फरक न जोय।
साचाणी सीहाण री, होड न बीजां होय।।25

गुरड़ो सींथल़ में गुणी, हुवो संत हरिराम।
बाछड़िया जिणरा बठै, रीझ चरातो राम।।26

हिव कीनी हरिराम उत, राम- राम मुख रेर।
गुरड़ो सींथल़ रो गुणी, संतां माल़ सुमेर।।27

करन पन्नो सतियो सकव, पहुम हुवा वड पात।
साहित री सेवा सजी, वसू उबारण बात।।28

कव बखतो सीतल कवि, जो दुरगो जसदान।
साहित रा वड सूरमा, जाहर हुवा जहान।।29

सींथळिया साचा सगा, उर साचो अनुराग।
सगपण सींथळ सूं जुडै़, (ज्यांरा) भाळ पुरबला भाग।।30

सींथळ री सदियां सुणी, ऊजळ निरमळ ओद।
इण कारण ही आंणवै, मामां ऊपर मोद।।31

~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”

गुणनै झुरूं गंवार,जात न झींकूं जेठवा

गुण पूजा ही राजस्थान की संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। यह बात दिनांक 15/4/19 को बीकानेर जिले के गांव सींथल में प्रत्यक्ष देखी।

“बाबै रो धोरो” सींथल का गौरव बिंदू है। इसी धोरे पर स्थित “सिंह-जाल़’ जिसकी सघन छाया में महापराक्रमी वीरभाणजी चावड़ा का ‘थान’ है। वीरभाणजी चावड़ा जाति के राजपूत थे और किसी लड़ाई में इसी स्थान पर वीरगति को प्राप्त हुए थे। यहां के लोगों की मान्यता है कि ये वीरभाणजी ही इस जाल़ स्थित थाहर से यदाकदा सिंह का रूप धारण कर यत्रतत्र विचरते थे। राजस्थान तो वैसे ही वीर-पूजक रहा है, फिर चारण तो वीरता की बलैयां लेने वाली जाति रही है। यही कारण है कि सदियों से इस वीर के प्रति नतमस्तक है–

धरा विमल़ फरकै धजा, थल़-सिंह थपियो थांन।
मस्तक नत बस्ती मुदै, समझै सींथल़ शान।।

चावो वंश धर चावड़ा, कर रण पड़ियो कट्ट।
सींथल़ धर साखी अजै, रखवाल़ै रजवट्ट।।

वीरभाण कर वीरता, रण रहियो रजपूत।
नाहर बण थाहर निडर, सींथल़ दिपै सपूत।।

जद री साखी जाल़ जो, थिर बण ऊभी थंभ।
सींथल़िया मानै सधर, खिती कीरती खंभ।।

जो लोक हितार्थ रणांगण से स्वर्गारोहण करते हैं, उनके प्रति लोग जाति समुदाय से ऊपर उठकर श्रद्धावनत रहते हैं। इसका जीवंत उदाहरण वीरभाणजी का थान है।

वैसे सींथल गुणग्राही गांव है और रजबजी के इस दोहे का अक्षरशः पालना करता है-

जन रजब गुण चोर का, भला न होसी नेट।
भसमाकर भसमी भयो, महादेव गुण मेट।।

यानी गुणचोर का कभी भी भला नहीं हो सकता। जो यह बात अपने मनोमस्तिष्क में रखते हैं वे सदा गुणपूजक ही होते हैं। इसका जीवंत उदाहरण कल सींथल में प्रत्यक्ष देखा।

सींथल़ वासियों ने एक ऐसे आदमी की मूर्ति स्थापित की, जिसने उनके गांव के लिए तीन पीढ़ी तक उस समय विद्यादान किया, जिस समय शिक्षार्जन की सोच ही नहीं थी। वे थे सुरेशानंदजी।

पौड़ी-गढवाल में जाए-जन्मे पं.सुरेशानंदजी उर्फ गुरुजी की मूर्ति स्थापित कर सींथलियों ने सिद्ध कर दिया कि विद्वान सर्वत्र पूजे जाते हैं। सींथल में न तो सुरेशानंदजी का परिवार है न ही पारिवारिक सदस्य। न ही यहां इनकी जाति-बिरादरी रहती है। रहती है तो केवल सींथलियों में सुरेशानंदजी के प्रति अपने हृदय में संजोई हुई श्रद्धा–‘या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धा रूपेण संस्थिता।’ पूरा गांव जाति-पांति के भेद से ऊपर उठकर इस समारोह का साक्षी बनने हेतु लालायित लगा।

इसी समारोह में रामदयालजी बीठू की मूर्ति भी स्थापित की गई। रामदयालजी चारण समाज के लिए ताजीवन मनसा-वाचा-कर्मणा सेवा में संलग्न रहे। जिस धोरे पर उनकी मूर्ति स्थापित की गई है उसके उद्धार के पूरा श्रेय सींथलियों ने एक स्वर में इस मनीषी को समर्पित किया।

वे वास्वत में ग्रहस्थी में रहकर भी संत थे। वीतरागी थे। गांव के गौरव इस धोरे को पर्यावरण संरक्षण का केंद्र बिंदु बनाकर इन्होंने जो पौधरोपण किया उसके फल़ “दादो बावै अर पोतो खावै” के रूप में आने वाले समय में लाभदायक सिद्ध होंगे।
जो लोग अपनी करनी और कथनी के एकाकार होकर जीवन जीते हैं, उनके प्रति लोग केवल श्रद्धा रखते हैं। यह बात कल पूर्णतया देखी। आजके समय में किसी भी कार्य के लिए मतैक्य बनाना कितना दुष्कर कार्य है यह हम समझते हैं। क्षुद्र स्वार्थों के वशीभूत होकर लोग आंख फोड़कर भी अपशकुन करने से नहीं झिझकते। वहां कल पूरा गांव एकमत होकर अपने इस महानायकों के प्रति पूरी श्रद्धा व शिद्दत के साथ एक पग फर खड़ा था।

चारण तो पूरी निष्ठा के साथ थे ही इनके अलावा इस समारोह में सींथल स्थित विभिन्न जातियों के जिला, राज्य व राष्ट्रीय स्तर के प्रतिनिधि साक्षी थे यथा-गूजरगौड़, ओसवाल, माहेश्वरी, कुम्हार, शाकद्वीपीय ब्राह्मण, सैन, लखारा, सोनार, सुथार आदि आदि।
सींथल पीठाधीश्वर क्षमारामजी महाराज के सान्निध्य में आयोजित इस समारोह की मुख्य अतिथि महा.गं.सि.वि.वि.की पूर्व कुलपति प्रो.चंद्रकला पांडिया थीं।

इस समग्र कार्यक्रम के संयोजक/आयोजक रामदयालजी के दोनों पुत्रों-डॉ.मनहर बीठू तथा पंकज बीठू को मैं आत्मिक धन्यवाद देता हूं जिन्होंने इस गरिमामय कार्यक्रम के माध्यम से गांव व समाज के समक्ष एक मिशाल कायम कर इस उक्ति को सार्थकता दी–“पितु मनसा पूरावियां, ज्यां जायां धिन जाण।।”

भाई रणजीत बीठू को भी मैं बधाई देता हूं कि इन्होंने “दिल दातार दयाल” पुस्तक का कुशल संपादन कर रामदयालजी के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों से आम पाठक को परिचित करवाया- “कवि की जबान पे चढे सो नर जावै ना।”

आखिर में मैं सींथल की सैंकड़ों की संख्या में उपस्थित मातृशक्ति को प्रणाम करता हूं जिन्होंने अपनी गरिमामय उपस्थिति देकर भावी पीढ़ी में एक सुभग संदेश देना का महनीय कार्य संपादित किया।

साथ ही सींथल की युवा पीढ़ी को इस अभिनंदनीय कार्य हेतु ‘रंग’ देता हूं।

सींथल व आसपास के गांवों से आए सैंकड़ों की संख्या में उपस्थित जनों को कोटिशः धन्यवाद ज्ञापित करता हूं जिन्होंने उपस्थित होकर गुणपूजा की परंपरा के निर्वहन हेतु एक अध्याय लिखा और यह संदेश दिया कि-

आपां बात करां औरां री, आपां री करसी कोई और।

~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी

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