शक्ति बाण पर राम की मनोदशा – जगमाल सिंह ज्वाला
पाप कियो विधना तु पशुव्रत, लोक त्रिलोक ज आज सुलाने।
बांह उखाड़ लई मुझ बांधव, बाट करी मुझ काळ बुलाने।
हे ‘जगमाल’ जवाब नही अब, आगळ कोशल नंद उलाने।
काळज काढ़ रुवे करुणाकर, भ्रातज आगळ सोय भुलाने।1।
राम भरे निज अंक सहोदर, शेश सधार लछिमन सोवे।
वेणु बिखेर लई वनवासिय, लोल कपोल अश्रु जल ढोवे।
के ‘जगमाल’ बचाव करे अब, हे मुझ कोय हितेषु ज होवे।
बाण लगो निज भ्रात लछिमन, राम यु टाबर रुप ज रोवे।।2।।
थाक गयो पुरुषारथ ठेठत, संग समेत हु सीत सिधायो।
कंटक पांव झरे हूत केसर, छोड़ सबे वन माय पठायो।
रावण त्रास दई पग रे पग, तोय सयो जग मोय छपायो।
हे जगमाल सहो अब कीकर, बांधव दाह छुपे न छुपायो।।3।।
मात दई कद माखन रोटिय, भ्रात जमी निरणो हु ज आयो।
जो जननी फटकार पड़ी कबु, तोय नही मन तेज दिखायो।
में कद नाह अनीत करी भल, रंक कहे मुझ भेद उठायो।
सोय छुपाय दिया जगमाल ज, बांधव दाह छुपे न छुपायो।।4।।
रावण लेय गयो सिय को तब, दूत पठाव घणो समझायो।
खूब अनीत करी दशकंधर, रोष रती भर नाह दिखायो।
काळज ऊपर कोल जमी पर, बाहर नाय दुनी बतलायो।
सोय छुपाय दिया जगमाल ज, बांधव दाह छुपे न छुपायो।।5।।
~~कवि जगमाल सिँह ‘ज्वाला’