शंकर स्मृति शतक – कवि अजयदान लखदान जी रोहडिया मलावा

लीम्बडी में राजपूत समाज द्वारा लीम्बड़ी कविराज शंकर दान जी जेठी भाई देथा की प्रतिमा का अनावरण दि. ११-मार्च-२०१९ को हुआ। कविराज शंकरदान जी से स्व. अजयदान लखदान जी रोहडिया मलावा बीस वर्ष की आयु में एक बार मिले थे और उस एक ही मुलाकात में इतने अभिभूत हुए कि जब कविराज शंकरदान जी जेठी भाई देथा लीम्बड़ी का देहावसान हुआ तब उन्होंने उनकी स्मृति में पूरा “शंकर स्मृति शतक” रच डाला। जो बाद में “शंकर स्मृति काव्य ” और “सुकाव्य संजीवनी” मैं शंकर दान जी देथा के सुपुत्र हरिदान जी देथा नें संपादित काव्य में समाहित किया। पुस्तक की प्रस्तावना में प्रसिद्ध चारण जैन मुनि जिनका आश्रम मेथी ग्राम गुजरात में था ने लिखा है कि “सोचो राजस्थान के सिरोही जिले की छोटी सी रेवदर तहसील के मलावा ग्राम का चारण कवि अजय दान रोहडिया शंकर दान जी के सदगुणों से कितना प्रभावित हुआ होगा जो पूरा का पूरा शतक विरचित कर डाला। “

बाद में अजय दान जी को शंकरदान जी देथा के परिवार से उनके सुपुत्र हरिदान जी देथा का पत्र आया जिस में उन्होंने कहा कि “चूँकि मैं कोई राजा महाराजा तो नहीं कि आप के इस काव्यांजली जो आप ने मेरे पिताजी शंकरदान.जी के लिए सृजित की है उसका मूल्य चुकाने के लिए आप को ग्राम या जागीर दे सकूं सकूँ। पर फिर भी आप के इन शब्दों के लिए जो आप नें मेरे पिताजी शंकर दानजी देथा पर लिखे है उसके लिए म़ै आप का आजीवन ऋणी हूँ। “ और उन्होंने लीम्बड़ी से एक पेडे (एक प्रकार की स्वीट-मिठाई) का पेकेट उपहार स्वरूप भेजा था। मेरे नानाजी अजयदान जी लखदान जी रोहड़िया और अन्य उस जमाने के विद्वत चारण शंकर दान जी देथा को कितना आदर और मान सम्मान देते थे और शंकर दान जी कैसे बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी थे यह जानने के लिए “शंकर स्मृति शतक “चारण क्षत्रिय और चारणेतर मित्रों को सादर ताकि उन्हें पता चले शंकर दान जी जेठी भाई देथा पर अजय दान जी लखदान जी रोहड़िया के स्नेह और आदर भाव का-

।।श्री शंकर स्मृति शतक।।

।।दोहा।।
मो मन गिरि कैलाश पे, ले गणेश उत्संग।
गिरिजा पति रहे घूमते, नित गिरिजा के संग।।१
बंदहुँ बीणा वादिनी, बक्षहु बिमल बिचार।
सरजौं शंकर स्मृति शतक, निज मति के अनुसार।।२
शंकर गण शिव के रहे, हर -गिरि रहत हमेश।
देव जाति में अवतरे, आग्या पाय भवेश।।३
वर्तमान युग के महा, चारण मुनि स्वरूप।
देथा शंकरदान थे, सुकवी अजय अनूप।।४
सतकवि शुचिकवि सरस कवि, सूरकवी सिर मौड़।
देथा शंकरदान थे, युग चारण बेजोड़।।५
प्रगटे चारण जाति में, देथा तीर्थ स्वरूप।
जिनको गुरु सम पूजते, भारत के वर भूप।।६
पढने लिखने का हुआ, जबसे कुछ कुछ ग्यान।
श्रद्धास्पद मेरे रहे, तब से शंकरदान।।७
दर्शन करने को मिला, एक समय सौभाग्य।
अजयदान यह मानता, अपना है अहो भाग्य।।८
स्मरण रहेगा सर्वदा, उनका वह आतिथ्य।
अजय व्यक्त नहि कर सके, प्रेमातिथ्य सुतथ्य।।९
बीस वर्ष की आयु में, देथा मिले महान।
तब से करता आज तक, मैं उनका गुणगान।।१०
देथा शंकर है रहे, मेरे प्रिय कवि खास।
जिनके सत साहित्य से, मिटती मन की प्यास।।११
सेवक देश समाज के, आप रहे बेजोड़।
देथा शंकरदान की, जग में मिले न जोड़।।१२
वैसे चारण जाति में, कवि है कई विख्यात।
किंतु शंकर सुकवि की, अजय और ही बात।।१३
पथ दर्शक देथा रहे, कई कवियों के आप।
पाकर जिनकी प्रेरणा, सुकवि भये अमाप।।१४
शंकर काव्य पयोधि में, मेरो मन भो मीन।
रहत अहरनिश जो “अजय”, ताही में तल्लीन।।१५
देथा शंकरदान थे, सच्चे देवीपूत।
अड़ग हिमालय सा रहा, जिनका मन मजबूत।।१६
देथा शंकरदान थे, सोरठ के शृंगार।
यश परिमल जिनकी परम, पहुँची सागर पार।।१७
नृप दौलत करते सदा, दौलत का तज मोह।
कवि रवि शंकरदान की, कविता से सम्मोह।।१८
कविवर देथा का रहा, काव्य क्षेत्र सौराष्ट्र।
हुआ प्रभावित “अजय “पै, इनतें सारा राष्ट्र।।१९
निज जाती की उन्नति, येन केन विध होय।
उद्यम नित करते रहे, देथा शंकर सोय।।२०
कर कर सम्मेलन कई, निज जाति में जान।
शंकर.कवि रहे फूंकते, स्फूर्ति हेतु महान।।२१
चारण छात्रावास के, प्रिय शंकर थे प्राण।
जब तक वे जीवित रहे, करते रहे सुत्राण।।२२
अलग पड़े बोर्डिंग से, कवि शंकर अरु काग।
यही हमारी जाति का, अजय रहा दुर्भाग।।२३
भय पाते भूपति रहै, सुन देथा के छंद।
थे वक्ता निर्भीक वे, बुद्धिबाज बुलंद।।२४
कविवर शंकरदान के, छंद है आनंद कंद।
पाठक पढकर प्रेम से, पाते परमानंद।।२५
दिये सहस्त्रों भेट में, “लघु संग्रह” छपवाय।
गुरु हमीर हर्षित हुए, गुरु ऋण दियो चुकाय।।२६
“हरिरस “प्रकट सटीक कर, कहत अजय सविवेक।
पाठक के मन को लगे, ईशर-शंकर एक।।२७
पांड़व यशेन्दु चंद्रिका, करके प्रकट अनूप।
कवि देथा ऐसे लगे, जैसे दास स्वरूप।।२८
देवी भक्तों के लिए, देवीयांण सदग्रंथ।
कियो प्रकट शंकर सरस, गह ईशर को पंथ।।२९
गुजराती में लिख ललित, करणी चरित कलीत।
शंकर शुचि समझा गये, शक्ति भक्ति की रीत।।30
शंकरमाल़ा शामल़ा, गिन कंठाग्रह योग।
नाम रटण के रूप में, रटते है नित लोग।।३१
कविया करनीदान का, वरद सु “बिरद शृंगार। ”
कवि शंकर करके प्रकट, पायो सुयश अपार।।३२
“संजीवनी सुकाव्य” प्रिय, कवियन कर पहुँचाय।
देथा शंकर दान नें, आनंद दियो बढाय।।३३
जवालामुखी की स्तुति को, दे पुस्तक का रूप।
शक्ति साधक के लिए, कीन्हौ काम अनूप। .३४
कविवर देथा के कथे, भाव भरे पद गाय।
भजते जन भगवंत को, भक्ति भाव द्रढाय।।३५
देथा शंकर के सृजित, भक्त भजन नित गाय।
या भव पारावार सों, “अजय”सहज तर जाय।।३६
देथा शंकरदान में, था प्रतिभा का पुंज।
सदग्रंथन का याहि तें, निर्मित किया निकुंज।।३७.
देथा शंकरदान के, निर्मल ह्रदय निकुंज।
“अजय”अनाथों के लिए, सदा रहा सुखपुंज।।३८
देथा शंकरदान नें, ऐसा छेड़ा राग।
जिससे उमड़ा जाति में, “अजय”अमित अनुराग।।३९
देथा शंकर दान का, “अजय” ह्रदय आराम।
मन को देता शांति था, अरु तन को विश्राम।।४०
कवि शंकर के ह्रदय नें, ऐसी उगली आग।
जिससे चारण जाति के, तन में जागा त्याग।।४१
कविवर देथा नें रचे, ऐसे सुंदर ग्रंथ।
दिखलाते जो सद दिशा, पाते राही पंथ।।४२
कवि देथा की कलम से, प्रगटे ऐसे छंद।
नरहर सूरजमल्ल सम, जो देते आनंद।।४३
देथा शंकर के रहे, जब तक तन में प्राण।
तब तक वे करते रहे, नव साहित निर्माण।।४४
देह रहे अस्वस्थ पर, चित थे स्वस्थ विचार।
देथा शंकरदान पे, “अजय “जाय बलिहार।।४५
देथा शंकर दान के, करने से आवास।
बन गई मीठी लीमड़ी, तज कर निज कड़वास।।४६
सींचों चाहे दूध से, नीम न मीठो होय।
कीनी मीठी लीमड़ी, शंकर देथा सोय।।४७
देथा शंकर दान थे, सुर तरू चारू समान।
नित नव दीन अनाथ को, करते सुफल प्रदान।।४८
कवि शंकर देथा रहे, अति संवेदन शील।
संसृति के संताप से, झुलसे जन हित झील।।४९
पाली शंकरदान नें, परंपरा प्राचीन।
मिलती जिनके काव्य में, शक्ति नित्य नवीन।।५०
कवि मानी ग्यानी गुनी, दानी दिव्य दिलेर।
देथा शंकर दान थे, कवियन माल सुमेर।।५१
देथा शंकर दान का, था मन ताल विशाल।
कवि कोविद जाते जहाँ, मनहर मिलन मराल।।52
देथा शंकर दान में, था सबका विश्वास।
कोई न इनके सदन से, लौटा कभी निराश।।53
देथा शंकर दान नें, तजी न अपनी टेक।
नित जाति उत्कर्ष को, झेले कपट अनेक।।54
देथा शंकरदान नें, जेठी भाई नाम।
अजय उजागर कर लिया, कर कर उज्जवल काम।।55
कवि मणि शंकरदान की, आभा को अवलोक।
अजय पथिक उद्भ्रान्त का, मिट जाता सब शोक।।56
दिन मणि शंकरदान से, पाकर परम प्रकाश।
“अजय”सुह्रद अरविंद का, होत सदैव विकास।।57
अमर धेनु अवनिप रहे, देथा दोहन हार।
“अजय”सुदीन अनाथ को, पायो दुध दुलार।।58
देथा शंकर दान थे, जल में कमल समान।
रहे विरक्त संसार में, मोह शोक तज मान।।59
दौलत यश दोनों रहे, तदपि रहे निर्लेप।
कविवर शंकर दान नें, नहीं देखा विक्षेप।।60
खल गण वचन प्रहार कटु, सहन करण घन चोट।
कवि शंकर देथा रहे, द्रढ एरण मन मोट।।61
कवि देथा का काव्य सुन, जाते दिग्गज डोल।
“अजय “है जिनकी सुक्तियाँ, साहित्य में अनमोल।।62
कविवर शंकर दान से, थी उज्जवल यह कौम।
करत शुशोभित व्योम में, ज्यों तारन को सोम।।63
श्रीफल ज्यों शंकर कवी, ऊपर रहे कठोर।
किन्तु भीतर से मृदुल, थे अति यह मत मोर।।64
देथा शंकर दान में, वे गुण थे विख्यात।
जो सब होनें चाहिए, कवियों में प्रख्यात।।65
कर्मवीर विख्यात थे, था व्यक्तित्व अनूप।
देथा शंकरदान थे, चारण देव स्वरूप।।66
देथा शंकरदान की, देह रही कमजोर।
पर था उनकी वाणि में, जोर रूप बरजोर।।67
देथा शंकर दान के, सुनकर कवित सपूत।
धारा तीरथ में धँसे, देश हेतु रजपूत।।68
कविवर शंकर नें किया, निज जाति उद्धार।
करना पडता है “अजय”, सबको यह स्वीकार।।69
देथा शंकर दान नित, देते रहते दान।
किन्तु उन्होनें न कभी, किया तनिक अभिमान।।70
देथा शंकरदान थे, चारण कुल की शान।
आजीवन जिनकी रही, अजय आन अरु बान।।71
कृपण कुक्षत्रिन के लिए, कवि शंकर थे काल।
दीन अकिंचन हेतु पर, “अजय”रहे वे ढाल।।72
भारत भव्य तड़ाग के, कवि शंकर थे कंज।
यश सौरभ जिनकी “अजय”, देत मिटा सब रंज।।73
देथा शंकर दान की, करे सरवरी कौन?
रात दिवस खुल्ला रहा, जिनका पर हित भौन। 74
कवि शंकर का काव्य सुन, राष्ट्र हेतु रणधीर।
अर्पण नित उद्धत रहे, अपना प्रिय शरीर।।75
देथा शंकर दान थे, सच्चे साहितकार।
अमित दिए साहित्य को, “अजय”ग्रंथ उपहार।।76
देथा शंकरदान थे, कवियों के सिरताज।
अंतर में यह अजय के, गूंज रही आवाज़।।77
जाति में सबसे अधिक, जिनका है सम्मान।
व्यक्ति वही विशिष्ठ थे, देथा शंकर दान।।78
प्रिय थे जिनको प्राण से, सज्जन साधु संत।
देथा शंकर दान थे, गढवी अति गुणवंत।।79
शिव शक्ति की भक्ति में, नित रहकर अनुरक्त।
देथा शंकर दान नें, सरजा काव्य शशक्त।।80
काव्य कृति सर्जन समय, रहते नित तल्लीन।
देथा शंकर दान थे, व्यक्ति अति ही कुलीन।।81
देथा शंकर दान थे, ब्रज साहित्य प्रबीन।
करते रहे सुकाव्य की, रचना नित्य नवीन।।82
कई अनपढ कवि बन गये, प्रश्रय शंकर पाय।
उदाहरण यदि चाहिए, देवे “अजय”बताय।।83
जिन कवियन ऊपर पड़ी, देथा शंकर छाप।
सुयश अमिट अवनि रहा, उनका “अजय”अमाप।।84
कवि शंकर बरगद तरू, द्विजवर सज्जन वृंद।
नीड़ बना नित चहकते, पाकर परमानंद।।85
“अजय ” सुयात्रिन के लिए, शंकर रहे सराय।
सुख पाते जाते जहाँ, जो भी ठहरे जाय।।86
विकल बुभुक्षित हेतु थे, शंकर सरस सु लोज।
कर भोजन जहँ सुग्य जन, करते रहते मोज।।87
दानी कवि देथा रहे, तृषातुर हित तोय।
“अजय”प्यास देते बुझा, ग्यान पिपासु जोय।।88
कवि शंकर देथा रहे, चारण तन में प्राण।
जीवन भर करते रहे, जो जाति कल्याण।।89
कवि शंकर शंकर बने, करने को विषपान।
स्मरण रहेगा सर्वदा, उनका त्याग महान।।90
कर मंथन साहित्य का, सरस सु परम पुनीत।
कवि शंकर देकर गये, कवियन को नवनीत।।91
शंकर दान जगा गये, जाति स्नेह की ज्योत।
यावत् चंद्र दीवाकरौ, रहि है जग उद्योत।।92
यद्यपि नश्वर है न अब, देथा शंकर देह।
यश तदपि उनका अचल, “अजय”है निस्संदेह।।93
कवि शंकर तन त्याग कर, पहुँच गये शिवधाम।
जीवित है पर जगत में, उनकी कीर्ति ललाम।।94
चारण को निज धर्म का, अजय सुमर्म सिखाय।
शंकर गये शिवलोक में, कीर्ति अमिट कमाय।।95
चारू चारण शब्द की, परिभाषा समझाय।
कवि देथा जाते रहे, जोति दिव्य जगाय।।96
शंकर स्वर्ग प्रयाण तें, चारण दिशा विहीन।
हा हतप्रभ अब हो गये, ज्यों बिन जल के मीन।।97
जाति में अब नहीं रहा, देथा दिव्य समान।
पर हितकारी पटु कवी, देखा खोज जहान।।98
अमर नाम कर के गये, कविवर शंकर दान।
सदा रहेगा गूंजता, जिनका गौरव गान।।99
है चारण में आज भी, सुकवि “अजय” अनेक।
पर शंकर देथा सृदश, दानी दिखा न एक।।100
जब शंकर कविवर पुन:, पहुँच गये शिवलोक।
हर्षित गण सारे हुए, शंकर सहित विलोक।।101
शंकर नहरें स्नेह की, निर्मल गये निकाल।
विकसित साहित्य वाटिका, शोभा बढी विशाल।।102
जब तक जग जीवित रहे, देथा दिव्य उदार।
लगता रहता लींमडी, कवियों का दरबार।।103
शंकर शुयश सुचंद्रिका, छिटक रही चहुऔर।
सुह्रद कुमुद विकसित शुचि, प्रमुदित रहत चकोर।।104
उमानाथ पद पद्म का, पीकर अब मकरंद।
करते है कैलाश में, शंकर कवि आनंद।।105
आशुतोष हर ह्वै प्रसन, वर दीजै यह आज।
पुन: प्रकट हो जाति में, शंकर से कविराज।।106
बीसहथी बिनती करों, दीजै यह वरदान।
जन्में चारण जाति में, देथा से विद्वान।।107
कवि मर कर भी अमर है, यह जग कथन प्रसिद्ध।
देथा शंकर दान नें, सो कर दीनो सिद्ध।।108
सुरपुर में स्वीकारना, ये श्रद्धा के फूल।
देख शतक की माल को, देथा जाय न भूल।।109
तत्व लोक नभ पक्ष सु, विक्रम संवत सौर।
कृष्ण अषाढी दूज गुरू, भयो शतक को भोर।।110

।।सवैया दुर्मिल।।
गिरिराज हिमालय ज्यों गिरि में, विधु तारन मध्य मनोहर है।
तरु कल्प अनूप त्यो पादप में, सर में शुचि मान सरोवर है।
सरितानन में रहि देवसरी, अरु देवन में सु रहे हर है।
द्विज में वर है खगराज “अजै” कविराजन में इम शंकर है।।१

विदवान थे पिंगल डिंगल के, सदग्रंथन के सु अनुभवी थे।
कवि कोविद पंडित पंकज के, मन मोद बढावन को रवि थे।
नृप भूभृति गर्व निकंदन को, कवि “अज्जय” दिव्य कहे पवि थे।
हवि जाति सुधार महा मख की, शुचि शंकर दान महाकवि थे।।2

।।घनाक्षरी कवित्त।।
प्राचीन परंपरा के पालक प्रबल महा,
देश धर्म जाति काज कर्म सु करैया थे।
धीरज धरैया थे अधीरज जनों में सदा,
दीन दु:खीयों के दु:ख दारिद्र हरैया थे।
सुयश वरैया थे वरिष्ठ सुसाहित्यकों के,
मात भारती के भव्य कोष के भरैया थे।
शंकर के भक्त कवि शंकर “अजय” श्रेष्ठ
चारण समाज के जहाज तरवैया थे।।

~~©अजय दान जी लखदान जी रोहड़िया

प्रेषक / टंकण : नरपत आवड़दान आशिया “वैतालिक”

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