शिकवा! – राजेश विद्रोही (राजूदान जी खिडिया)

यतीमी थी मुक़द्दर में निगहबानों से क्या शिकवा?
ग़िला गुलज़ार से कैसा बियाबानों से क्या शिकवा??
मिले हैं ग़म के नज़राने हमें अपनों से दुनियां में ।
शिकायत ग़ैर से क्या और बेगानों से क्या शिकवा??
परिन्दों के मुक़द्दर में क़फ़स की क़ैद लिक्खी थी ।
ग़िला सय्याद से क्या और गुलिस्तानों से क्या शिकवा ??
शिकायत गर्दिशे तक़दीर की आखिर करें किस से?
फरिश्तों से मिले फ़तवे तो इन्सानों से क्या शिकवा??
न था साहिल से मिल पाना सफ़ीने के मुक़द्दर में ।
ग़िला क्या नाखुदा से और तूफानों से क्या शिकवा??
मेरे अश्आर की किस्मत में गुमनामी बदी होगी ।
ग़िला नक़्काद से क्या और क़दरदानों से क्या शिकवा??
न हो मायूस अहले अंजुमन की बेवफ़ाई से ।
निगाहें फेर ले साक़ी तो पैमानों से क्या शिकवा ??
~~राजेश विद्रोही(राजूदान जी खिडिया)