सिध्द सन्त महात्मा ईसरदासजी


।।गीत।।
धनन्तर मयंक हणुं सुक्र धावौ,
नवसुर पाऴक आप नबड़।
एक बार की करण उठाड़ो,
वरण खट त्तणो ओ प्रागवड़।।1।।
जो तूँ आवी नहीं जीवाड़े,
सरवैयो दीना चो साम।
तूझ तणौ औषध धनवन्तर,
के दिन कहो आवसी काम।।2।।
करण जीवसी गुण माने कवि,
कैई जगत् चा सरसी काज।
अमी कवण दिन अरथ आवसी,
आपस नहिं जो ससियर आज।।3।।
आण्ये मूऴी करण उठाड़ो,
जग सह माने साच स जेम।
हणमत लखण तणी प्रभता हिव,
कवण मानसी हुयती केम।।4।।
शुक्र आसरे थारे सरवै,
नीपण टेक ज मूऴ निपाड़।
अपकज घणा असुर उठाविया,
अम कज हेकण करण उठाड़।।5।।
सुर थे सोह जीवाड़ण समरथ,
भुवन त्रणे सह साख भरे।
कोई धावौ धरम तणै कज,
करण मरे कवि साद करे।।6।।
सायर सुतन पवनसुत भ्रगुसुत,
आप आप चो धर अधिकार।
आंण संजीवण करण उठाड़ो,
सुत वजमल खट व्रण साधार।।7।।
धनंन्तर मयंक हणुं शुक्र धाया,
गुण चारण सारण गरज्ज।
वाहण खेड़ै आविया वाहरूं,
ईसर री सांम्भऴै अरज्ज।।8।।
विखमीवार लाज लखमी वर,
रखवण पण तूँ थी ज रहे।
ईसर अरज सुणी झट ईसर,
करण जीवायो जगत् कहे।।9।।
ईसरदासजी की सांची और करूण पुकार सुन कर भगवान ने करण को जीवित कर दिया और दिग दिगंत में ईसरदासजी की इस घटना की बात चली और लोकमानुष में आज भी यह बात चलती है।।
~~प्रेषित: राजेन्द्रसिंह कविया (संतोषपुरा)