निर्भीक कवि और शक्तिशाली सर प्रताप
सर प्रतापसिंह जी जोधपुर के महाराजा तख़्तसिंह जी के छोटे पुत्र थे, वे जोधपुर के राजा तो नहीं बने पर जोधपुर राज्य में हुक्म, प्रतिष्ठा और रोबदाब में उनसे आगे कोई नहीं था। उनके जिन्दा रहते जोधपुर के जितने राजा हुए वे नाम मात्र ही थे असली राज्य सञ्चालन तो सर प्रताप ही करते थे थे वे जसवंतसिंह जी से लेकर महाराजा उम्मेदसिंह जी तक जोधपुर के चार राजाओं के संरक्षक रहे। जर्मनी के युद्ध में उन्हें अदम्य वीरता दिखा बहुत नाम कमाया था।
सर प्रताप खुद अनपढ़ थे पर मारवाड़ राज्य में उन्होंने शिक्षा व समाज सुधर के लिए बहुत काम किये। कहते हें सर प्रताप बहुत अक्खड़ स्वभाव व कंजूस प्रवृति के थे उनके आगे जोधपुर के किसी सामंत व अधिकारी की बोलने तक की हिम्मत नहीं होती थी। उनके अक्खड़ स्वभाव का इसी बात से पता चलता है कि उनके लिए जो भी गाड़ी आती थी उसका बैक गियर निकाल दिया जाता था वे सिर्फ आगे बढ़ने में ही विश्वास रखते थे। यही नहीं उन्होंने अपने पिता महाराजा तख़्तसिंह के राज्य में से कुछ भी हिस्सा नहीं लिया उन्होंने जोधपुर राज्य की उस पुरानी परम्परा का अनुसरण किया कि राज्य तो बहादुरी से ही लिया जाता है पर अब अंग्रेजों का राज्य था सभी राज्यों की सीमाएं तय हो चुकी अत: किसी दुसरे राज्य पर कब्ज़ा किया नहीं जा सकता था सो उन्होंने अपने पूर्वजों की ईडर की जागीर जो अंग्रेजों ने छीन ली थी वही अंग्रेजों से अपने लिए वापस प्राप्त की। जोधपुर का विश्व प्रसिद्ध जोधपुरी कोट की डिजाइन भी उन्ही की देन है। सर प्रताप कट्टर सामाजिक सुधारवादी थे उन्होंने बहुत से सामाजिक सुधार किये जिससे कई रुढ़िवादी उनके खिलाफ रहते थे पर सर प्रताप को किसी की परवाह नहीं थी।
सर प्रताप के पास एक कवि जैतदानजी बारहठ रहते थे, उन्हें सर प्रताप से इनाम इकरार की बहुत सी अपेक्षाएं थी पर कंजूस सर प्रताप ने उन्हें कभी कुछ नहीं दिया जिससे नाराज हो कवि जैतदानजी ने उनके खिलाफ बहुत से दोहे लिखे, यही नहीं जिस सर प्रताप के आगे किसी की बोलने की हिम्मत नहीं होती थी उन्ही सर प्रताप के हर कार्य के विरोध में ये निर्भीक कवि दोहे बनाकर उनके सामने बोलने का कोई मौका नहीं चुकते। सर प्रताप से कुछ न मिलने पर कवि ने जेठवा को संबोधित करते हुए निम्न दोहे बनाये –
डहक्यो डंफर देख, बादळ थोथो नीर बिन।
आई हाथ न एक, जळ री बूंद न जेठवा।।
दरसण हुवा न देख, भेव बिहुंणों भटकियो।
सूना मिंदर सेव, जनम गमायो जेठवा।।
सर प्रताप समाजसुधार के लिए जो भी नए नियम बनाते बारहठ जी को बहुत अखरते, बारहठ जी वृद्ध व रुढ़िवादी थे सो सर प्रताप द्वारा बनाया कोई भी नया नियम उन्हें रास नहीं आता था वो चिढ कर उनके खिलाफ दोहे बना उन्हें सुनाते। बारहठ जी ने सर प्रताप के खिलाफ कोई सैकड़ों दोहे बना लिए और यही नहीं जब भी बारहठ जी महाराजा के पास सर प्रताप बैठे होते तब मुजरा करने जाते और दरबार के कक्ष में घुसते ही दरबार से ही पूछते – वो तख़्तसिंह वालो कपूत है के नीं (है या नहीं)?
इसका सर प्रताप खुद ही बारहठ जी को जबाब देते – “हाँ बैठा हूँ, बोलो क्या चाहिये।”
तभी बारहठ जी झट से उनके विरोध में एक दोहा कह डालते। पर अपनी बुराई वाले दोहे सुनने के बाद भी सर प्रताप दोहा सुन “हुंकारा” देते और कभी बुरा नहीं मानते। पुराने समय में राजपूत राजाओं ने चारण जाति कवियों को बोलने की पूरी आजादी दे रखी थी, सर प्रताप भी उस परम्परा का पूरा निर्वाह करते थे इसिलए जोधपुर राज्य में सबसे ज्यादा शक्तिशाली होने के बावजूद वे कवि द्वारा की गयी आलोचना को बर्दास्त करते थे।
एक बार सर प्रताप ने अपने सिर पर पगड़ी के स्थान पर हेट लगा था, उसे देख बारहठ जी कहाँ मौका चुकते बोले-
दाढ़ी मूंछ मुंडाय कै, काँधे धरिया कोट
परतापसीं तखतेसरा, (थारे) लारे घटे लंगोट।।
एक बार जोधपुर शहर में आवारा कुत्ते काफी हो गए थे सो सर प्रताप ने उन्हें शूट करने के आदेश दिए व दो चार कुत्तों को खुद ही शूट कर मार दिया। भला ऐसे मौके पर कवि बारहठ जी कैसे चुप रहते सो बोले –
गाडा भर मारो गंडक, आड़ा फिर फिर आप
पत्ता कठे उतारसो, (अ) महा चीकणों पाप।।
हे प्रताप सिंह ! अभी कुत्तों को घेर घेर कर मारकर गाड़ियाँ भरलो, पर ये इतना बड़ा महा पाप कैसे उतारोगे।
सर प्रताप दयानंद सरस्वती से काफी प्रभावित थे उन्होंने दयानंद जी को कई दिन जोधपुर रखा और उन्होंने जोधपुर में आर्यसमाज का काफी प्रचार भी किया अत: आर्य समाज के विचारों से प्रभावित हो सर प्रताप ने मृत्यु भोज आदि सामाजिक कुरूतियों को बंद करवा दिया, यह बात रुढ़िवादी बुजुर्ग बारहठ जी को कैसे बर्दास्त होती वे बोले –
मौसर बंध मरुधर किया, अधक बिचारी आप।
भूत हुयां भरमै बड़ा, यो पातळ रो परताप।।
मारवाड़ राज्य में मृत्यु-भोज बंद करवा दिए है इस सर प्रताप के प्रताप से अब बडैरा(पूर्वज) भूत बनकर भटक रहे है।
सर प्रताप को कोई बीमारी हो गयी थी सो डाक्टर या किसी वैध के कहने पर वे कबूतर मार कर उनका मांस भक्षण करते थे इस पाप को देख बारहठ जी कैसे चुप रह सकते थे सो उन्होंने दोहा कहा-
परैवा भोला पंछी, माडैही खाधा मार।
जम माथै देसी जरा, तूं कि कैसी सरकार।।
कबूतर भोला पक्षी है आप इन्हें मारकर फ़ालतू ही खा रहे हो। जब यमराज आपके सिर पर मारकर पूछेगा तो उन्हें क्या जबाब दोगे सरकार। (सर प्रताप को सभी सरकार के नाम से ही संबोधित करते थे)
जोधपुर में उस समय कचहरी गुलाबसागर तालाब के पास थी। एक बार बारिस में वह तालाब पूरा भरा नहीं उसमे पानी कम आया। जब सर प्रताप एक दिन कचहरी गए तो देखा तालाब में पानी कम देख चिंतित होते हुए पूछा कि इस बार तालाब में कम कैसे आया ? तालाब भरा क्यों नहीं ? तभी बारहठ जी ने झट से जबाब में एक दोहा फैंका –
कनै यां रे कचेड़ीयां, तिण सूं खाली तलाव।
का डेरा कागे करो, का भेजो भांडेलाव।।
तालाब भरे कहाँ से ? पास में तो आपने कचहरी बना दी जहाँ अन्याय व रिश्वत जो चलती है। इन कचेड़ीयों को या तो कागा स्थित श्मशान के पास भेज दो या भांडेलाव श्मशान के पास बनवा दो। ताकि उन श्मशानों में जलते हुए मुर्दों को देख कचेड़ी में काम करने कम से कम ये विचार तो करेंगे कि “एक दिन हमारी भी यही गत होनी है।”
उमरकोट पहले जोधपुर राज्य के अधीन था पर जोधपुर राज्य से वहां का सही प्रबंधन न होने के चलते उसे अंग्रेजों ने अपने अधीन कर लिया उन्ही दिनों अंग्रेजो के साथ मारवाड़ राज्य का सीमांकन होना था जब पैमाइस हुई तो उमरकोट की भूमि को अनुपजाऊ समझ सर प्रताप ने अंग्रेजों से उसके लिए ज्यादा बहस नहीं की और उमरकोट की जमीन छोड़ दी अब ऐसे मौके पर भला बारहठ जी कैसे चुकने वाले थे झट से बोल पड़े-
आठ कोस रो उपलों, असी कोस री ईस।
गजबी पत्ते गमाय दी, धरती बांधव धीस।।
जो धरती आठ कोस तक चौड़ी और अस्सी कोस तक लम्बी है उस धरती को गवां कर इस प्रतापसिंह ने तो गजब कर दिया।
कई लोगों की सोच है कि राजपूत शासनकाल में राजकवि राजाओं की शान में बढ़ा-चढ़ाकर कविताएँ बनाते थे पर एसा नहीं था, ये चारण कवि बहुत निर्भीक होते थे। तभी तो सर प्रताप जैसे दबंग व शक्तिशाली व्यक्ति के खिलाफ भी कवि अपना विरोध निर्भीकता पूर्वक कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त करता रहा। जबकि जोधपुर राज्य में सर प्रताप के आगे बोलने की किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ती थी, उसकी बानगी उनके इस किस्से से पता चलती है –
एक बार सर प्रताप ने एक पार्टी का आयोजन किया जिसमे जोधपुर राज्य के सैन्य अधिकारी व सामंतगण आमंत्रित थे, कंजूस सर प्रताप ने पार्टी में खाने को राबड़ी बनवा दी और खुद पार्टी स्थल के दरवाजे पर बैठ गए और सभी को हिदायत दे दी कि कोई आवाज न करे खाना खाए और चलता बने। राबड़ी देख सभी मायूस तो हुए पर डर के मारे सबने बिना कुछ बोले चुपचाप राबड़ी खाई, पार्टी में उनकी सेना का एक जाट अफसर भी शामिल था उसने जब अपने देसी तरीके से राबड़ी खानी शुरू की तो शब्ड शब्ड की आवाज आई जिसे सुन सर प्रताप बोले – “ये किसकी आवाज है?”
जाट अफसर बोला – “सरकार ! ये आवाज मेरी है आपने चुप रहने को बोला और खाने में राबड़ी दी अब राबड़ी खाने में तो यह शब्ड शब्ड की आवाज आएगी ही।”
सर प्रताप ने उसके पास आ उसकी पीठ थपथपाई बोले – “ये हुई ना बात ! राबड़ी खावो और मुंह से शब्ड शब्ड की आवाज ना आये तो राबड़ी खाना भी कैसा। यहाँ तेरे अलावा ये राबड़ी खाना किसी को नहीं आता। सबके सब डरपोक है डर के मारे ढंग से ये राबड़ी भी ना खा सके।”
~~Authored by Ratan Singh Ji Shekhawat on gyandarpan.com (Link)