सो सुधारण ! सो सुधारण!!

रातिघाटी के युद्ध में परास्त होकर बाबर का पुत्र कामरान राव जैतसी से भयातुर होकर भागा जा रहा था। किंवदंती है कि जब वो छोटड़िया गांव से निकल रहा था कि उसके मुकुट में लगी किरण(किलंगी) गिर गई। वो बीकानेरियों के शौर्य से इतना भीरू हो गया था कि उसने उस किरण को रुककर उठाना मुनासिब नहीं समझाऔर वो बिना उसकी परवाह किए अपनी राह चलता बना।

यह गांव बीकानेर के संस्थापक राव वीका ने जीवराज सूंघा को इनायत किया था। कहतें हैं कि यहां छोटा मोयल रहा करता था। जब यह गांव सूंघों को मिला तो उसने इच्छा व्यक्त की कि इस गांव का नामकरण मेरे नाम से करें तो मुझे खुशी होगी। संवेदनशील चारण ने उसकी यह इच्छा पूर्ति की और गांव का नाम छोटड़िया रख दिया। कुछ दिन यह गांव मौखिक चला फिर कालांतर में राव जैतसी ने सुधारण जीयावत के नाम तांबापत्र जारी कर दिया।

जीवराज घोड़ों के व्यौपारी थे। उन्हें यह गांव घोड़ों की खरीद के बदले दिया गया था। बात यों है कि जीवराज अपने घोड़ें लेकर गुजरात से इधर आए और उन्होंने राव वीका को अपने घोड़े दिए। जिनका मूल्य बीकानेर शासक अपनी माली हालात पतली होने के कारण चुकता नहीं कर पाए।

बाद में करनीजी के हस्तक्षेप से यह बात तय हुई कि करनीजी जीया सूंघा के साथ स्वयं ‘बेटी का व्यौहार’ करेगी अर्थात मारू चारण इनसे वैवाहिक संबंध जोड़ेंगे तथा बीकानेर इन्हें घोड़ों के बदले एक गांव देगा।

उलेख्य है कि सूंघा मूलतः गुजरात से आए थे इसलिए यहां के मारू चारण इनके साथ रोटी व्यवहार तो रखतें थे लेकिन बेटी व्यवहार नहीं। लेकिन करनीजी ने सामाजिक समरसता स्थापित करने व ‘चारण एको धारण’ की अवधारणा को परिपुष्ट करने हेतु अपनी पौत्री सांपू का विवाह जीया /जीवराज के साथ कर दिया।

सांपू को कोई ज्यादा वैवाहिक सुख नहीं मिला। दुर्योग से जीवराज जल्दी स्वर्ग को प्रयाण कर गए। उस समय उनके कोई संतान नहीं थीं। संयोग से सांपू गर्भवती थीं। जब जीया की अंतिम यात्रा श्मशानघाट की तरफ जा रही थीं तब एक तीतर बोला। सकुनियों ने कहा कि यह बोल रहा है कि ‘सो सुधारण ! सो सुधारण’ देवीय अनुकंपा से सांपू को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई और उसका नाम ‘सुधारण’ रखा गया।

जब कामरान की भागते हुए कि किलंगी यहां गिरी तब सुधारण ही इस गांव के जागीरदार थे। उन्होंने बीकानेर आकर यह सूचना राव जैतसी को दी कि कामरान आपसे इतना डरा हुआ था कि वो अपनी गिरी हुई किलंगी भी नहीं उठा सका।

जैतसी ने उसी समय उन्हें इस गांव का तांबापत्र जारी कर दिया। ‘बीकानेर रै सांसणां रै विगत री बही’ में उल्लेख मिलता है कि:- ‘गाव छोटड़ियो सुंघे साधारण जीयावत नूं महाराय जैतसी रो दत ने सं. 1671 री बही मांहे नारायण जेते गोपे रा दीकरा नुं मंडियो छै सांसण सुंघा श्री करणीजी रा दोहीतवाण छै सु पातसाह रो किरणियो खोसियो सुं गांव रे थान खेजड़ै सूं सुरू छै।’

इस बात की पुष्टि डिंगल गीतों से भी होती हैं। कवि चिमनजी रतनू चौपासणी लिखतें हैं-

किरणियो कलम कर खोसे खेजड़ कियो,
जयो मा तुरक हिंदवाण जपियो।

जहां वो किलंगी गिरी वहां एक केलकिया(खेजड़ी का पौधा) उग आया। कालांतर में वो एक विशाल खेजड़ी बन गई। जो आज भी करनी भक्तों के लिए अगाध आस्था की प्रतीक है। वहीं पर सुधारण ने करनीजी का थान स्थापित किया। जब भी कोई छोटड़िया का चारण बीकानेर राजा के यहां जाता तो विजय की प्रतीक इस खेजड़ी का लूंख(पत्तियां) ले जाता और सकुन स्वरूप दरबार को भेंट करता। महाराजा उसे बड़ी श्रद्धा से ग्रहण करतें।

यहां आजकल बहुत ही भव्य और विशाल मंदिर बना हुआ है। जिसके नवनिर्माण का संपूर्ण श्रेय नारायणदानजी सूंघा को जाता है।

~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”

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