सोनै जेड़ी कल़ंकित वस्तू पैरी तो तीन सौ तलाक

।।जैतमाल राठौड़ अर पीठवै मीसण रै अदभुत प्रेम री कहाणी।।

पीठवो मीसण पन्द्रहवीं सदी रो मोटो चारण कवि। इण पीठवै रो गांम कोई बोगनियाई कैवै तो कोई कैवै कै पक्को नीं कै ओ कवि किण गांम रो होतो।

खैर। एकर भयंकर काल़ पड़ियो तो इण रा माईत गुजरात गया जठै जाल़िवाड़ै गांम रे झूलै समंद्रसी इण रै बाप नैं मारर इणरी बैन नैं माडै परण लीनी।  पीठवो उण दिनां आपरी मा रै कूख में हो सो इणरी मा आपरी पीठ चिराय धणी री ऐल राखण नैं इणनैं जलम दियो, अर बा आपरै धणी रो साथ करर सुरगां पूगी।

पीठवो आपरी बैन कनै रैयर ई पल़ियो। बैन-बैनोई नै मा -बाप मानै। ज्यूं पाबू राठौड़ री बैन आपरै भाई रै वैर में धुकती रैवती बिंया आ मीसण आपरै बाप रै वैर में बूकिया खावती पण लुगाई जात कीं कर नीं सकती।

दिन वीता। पीठवो मोटो होयो। जोग सूं एक दिन समंद्रसी झूलो, जोगमाया रै मढ में खाजरू करण गयो। जिकी तरवार लेयर गयो उण तरवार सूं खाजरू होयो नीं जद पीठवै नैं कैयो “जा थारी मा नैं कहीजै कै फलाणी तरवार मंगाई है। ”

पीठवै जाय आपरी मा रूपा बैन नैं कैयो कै बापू फलाणी तरवार मंगाई है। सुणंता ई मीसण री आंख्यां सूं रीस में चौसरा छूटग्या। उण कैयो “भाऊ तूं म्हारो जायो नीं, म्हारी मा रो जायो है अर आ तरवार तनै उण दिन देवूंला जिण दिन थारी छाती में अर बूकियां में संमद्रसी झूलै नैं मारण रो आपाण आ जावैला!” इण रै साथै ई उण विगतवार पूरी बात मांडर पीठवै नैं सुणा दीनी।

पीठवै कैयो “बैन वा तरवार हणै ई झला ! थारी छाती हमे म्है आगै भल़ै नीं बाल़ सकूं।” पीठवो वा तरवार लेयर गयो अर आपरै बैनोई नै बोकारियो “झूला ! संभल़! म्हारो बाप मांगूं- बापां हंदा वैर कपूतां वीसरै।”

झूलो ई समझग्यो कै पीठवै में काल़ बड़ग्यो है। बो ई संभियो पण मोटयार पीठवै री झाट नीं झेल सकियो। पीठवै रै हाथ सूं काम आयो –

जाल़ीवाडै जाय, संमद्र तैं ज संघारियो।
जिण महलां रै मांय, पवन न संचरै पीठवा।।

उठै सूं रातो रात निकल़ियो। मोटो विद्वान होयो। घणो आघ पायो। ब्याव होयो। मौज माणी। अजमेर रै गौड़ बच्छराज अरब पसाव अर वानरवाड़ो गांम दियो –

पीठवो सुकव अजमेर पत, कव थापै सुजड़ो कियो।
बच्छराज गौड़ देतां भलो, वानरवाड़ो बगसियो।।

झूलै रै दो बेटा मोटा होया। गांम रा मैणी दी जद बापरो वैर लेवण घोड़ा रा वौपारी बण अजमेर ढूका। पीठवै रै घरै रुकिया। पीठवै हाव-भाव सूं ओल़खिया पण भेद प्रगटियो नीं। रात रा दोनूं भायां नैं सलाह करतां देख, पीठवै री लुगाई उणां कनै आई अर कैयो “मीडा थे परदेसी हो, पीठवो अठै रो कवि ! सो उणनैं मारियां थांनै सोरै सास निकल़ण नीं दे। थे यूं करो नीचै दो घोड़ा म्है थांरै कारण ई बांधर आई हूं सो चढर अजेज निकल़ जाजो।”

दोनूं भाई आ सुणर सेतरा बेतरा रैयग्या। पण आपरी मामी रो नेह अर आपरै बाप री गल़ती चितार मोटोड़ो भाई बोलियो “मामीसा जे मामो आ कैयदे कै पाप जाणै र हूं जाणूं! तो म्हांरो वैर आयो।”

पीठवै री लुगाई आय आपरै धणी नैं आ बात बताई तो पीठवै पाप ओढ लियो। मिनखां मे सत रो पौरो हो सो पाप ओढतां ई पीठवै नैं कोढ होयगी। पाप निवारण कारण पीठवै घणा ई तीरथ किया पण पाप झड़ियो नीं। फिरत़ो फिरतो आंती आयोड़ो एक दिन सीवाणै जैतमालजी राठौड़ रै अठै पूगियो।

जैतमालजी रै पण कै कोई भी कैड़ो ई चारण आवो उण स़ू उठर बाथ मिलाय मिलणो। ज्यूं ठाह लागो कै पीठवो आयो है तो जैतमालजी रै गूघरिया बंधग्या। आया, अर ना धणी ना! करतै करतै पीठवै नै आपरी बाथां भरर मिलिया।

किंवदंती है कै उणी बगत पीठवै रै सरीर सूं रुधर अर रस्सी पड़ता ठंभग्या अर कोढ झड़गी। पण पीठवै रै गल़ै रै च्यारां कानी कोढ रो निसाण साबत रैयग्यो। ओ अंग जैतमालजी रै गल़ै में सोनै री कंठी होवण सूं स्पर्श नीं हो सकियो। ज्यूं जैतमालजी नैं इण बात रो पतो पड़ियो उणां उणी बगत आपरै गल़ै सूं कंठी तोड़ फैंकदी अर आगै सूं कदै सोनो शरीर माथै धारण री खुद ई पण लियो अर आपरी संतति नैं दिरायो। आज ई जैतमाल राठौड शरीर माथै सोनो नीं पैरै।

ज्यूं ई पीठवै रै शरीर सूं कोढ मिटी उण जैतमालजी नैं भगवान साल़गराम जोड़ै मींढतां दसमै साल़गराम री संज्ञा सूं नवाजतां लिखियो –

प्रथम हरण प्रगट, दुवो सुद्रासण दीपत।
तीजो गिलकां तांम, चक्र चौथाद्धज चाहत।
दामोदर पंचम, ब्रह्म खट चक्र बतावत।
सेखा सांई सत्य, अष्टम विदमू आवत।
नरसिंघ नवम अलही निमै, सालगराम सप्रसियो।
कल़जुग मांय काटण कल़क, दसमो जैत दरसियो।।

इण अवसर माथै पीठवै जिको जैतमालजी नैं गीत कैयो उणरो शुद्ध पाठ इण भांत है –

इधको रुधर बहै पग आचा
काचा देखत हियो कपै।
सोच निजर आपै सल़खावत,
आव पीठवा मिल़ां अपै।।१

(पण) ग्रहियो जैत मिलण कव पातां
ए अखियातां बात अछै।
अड़सठ तीरथ पैल उगाए
पीठवो ग्यो समियांण पछै।।२

आखै कवि सुणो अनदाता
अमां मिलण नह भाग इसो।
सारै रसी बहे तन सड़ियो
कहो मिलण चो वैत किसो।।३

कहतै समां मलफियो कमधज
जग हेकंपियो देख जुवो।
ब़ाह पसार मिलतै सुख बूझ्यो
हेम सरीख सरीर हुवो।।४

धिन धिन प्रिथी कहै इक धारण
कलंक काट निकलंक कियो।
दसमा सालगराम सदोमत
दिन तिण पीठवै विरद दियो।।५

इण बात री साख भरतां कविराजा बांकीदासजी लिखै-

पावन हुवो न पीठवो, न्हाय त्रिवेणी नीर।
हेक जैत मिल़तां हुवो, सह निकलंक सरीर।।

कविराजा दयालदासजी संढायच आपरी ख्यात में लिखै – “पीठवै पालतां पालतां बगलगिरी कीवी सो सरीय री सपरस होतां पीठवै रो तन कंचन हुवो नै सुध हुवो तद पीठवै दसमै सालगराम रो विरद दियो।”

इण धरती माथै ऐड़ा ई मिनख होया है जिणां री बातां करतां आज ई मन में श्रद्धा अर मोद उमड़ै।

~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी

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