सूरां मरण तणो की सोच?

राजस्थान नै रणबंकां रो देश कैवै तो इणमें कोई इचरज जैड़ी बात नीं है क्यूंकै अठै एक सूं बध’र एक सूरमा हुया, जिणां आपरी आण बाण रै सारू मरण तेवड़ियो पण तणियोड़ी मूंछ नीची नीं हुवण दी।
उवै जाणता कै एक दिन तो इण धरती सूं जावणो ई है तो पछै लारै सुजस ई राख’र जावां, कुजस क्यूं?
ओ ई कारण हो कै अठै रै नरां धरम, धरती अर स्त्री रै माण सारू आपरी देह कुरबान करती बखत मन चल़-विचल़ नीं करता बल्कि गुमेज रो विषय मानता-
ध्रम जातां धर पल़टतां, त्रिया पड़ंतां ताव।
तीन दिहाड़ा मरण रा, कहा रंक कहा राव।।
जिण बखत पूगल रा राव शेखोजी भाटी मुसलमानां री कैद में कैदी हा अर जद उणांनै ओ ठाह लागो कै सवारै उणरो धरम पल़टासी !जणै उणां आपरी आराध्य देवी करनीजी नै मन ई मन में धरम-रक्षा कारण चितारी। शेखैजी रै भावां नै आखरां में पिरोवतां देवकरणजी बारठ जिको लिख्यो हो उवो इतरो हृदयस्पर्शी कै पढणियै रो मन स्वतः धरम रक्षार्थ द्रढ हुय जावै-
जंजीरां जड़ियोह, सूरापण की कर सकूं।
प्रतिबंधां पड़ियोह, जाय धरम हे जोगणी।।
जमी घरां सूं जाय, तिल नह जोखो तिकण रो।
(म्हनै)मोटो धोखो माय, जाय धरम हे जोगणी।।
मतलब धरम, धरती अर स्त्री री आबरू सारू मरण तेवड़णो राजा अर रंक रो समवड़ नैतिक दायित्व हो।
जद आपां अठै रो गरवीलो इतिहास पढां तो ऐड़ा केई दाखला आपांरै पढण कै सुणण में आवै। ऐड़ी ई एक अंजसजोग भूली-विसरी बात आप तक पुगाय रह्यो हूं।
मध्यकाल़ रो बखत। दिल्ली माथै क्रूर पातसाह ओरंगजेब रो राज तो मारवाड़ माथै महाराजा जसवंतसिंहजी रो राज। जसवंतसिंहजी री सेना में नीमाज ठाकुर जगरामसिंहजी ऊदावत एक सामधरमी राजपूत। सामधरमी राजपूत अर साम रो उवो ई संबंध हुवतो जिको दूध अर पाणी रो हुवै। यानी दूध अगन माथै जद तक सुरक्षित है जद तक पाणी री रंच मात्र ई मात्रा मौजूद रैवै-
साम उबेलै सांकड़ै, रजपूतां एह रीत।
तबलग पाणी आवटै, जबलग दूध नचीत।।
जगरामसिंहजी मारवाड़ रो नाम घणी लड़ाइयां में ऊजल़ कियो। एक दिन समाजोग री बात कै पातसाह रो दरबार लागोड़ो अर ठाकुर आपरै किशोर कुंवर कुशाल़सिंह/कुशल़सिंह रै साथै हाजर हुया।
कुंवर री रूपाल़ी मुखाकृति, मूढै रो नूर, आंख्यां री निश्छल़ता देख’र पातसाह प्रभावित हुयो अर कुंवर नै धरम पल़टावण री तेवड़ी। अजेज आपरै कनै बुलायो। कुंवर कनै आय अभिवादन कियो तो पातसाह आपरी कुटल़ता लुकायर मीठो बतल़ावतो बोल्यो-
“वाह! कांई खुदा नूर दियो। वाह!! थारै तेज अर आत्मविश्वास सूं म्हैं मोहित हुयो। सो तूं आज ई कलमो पढ अर म्हारै कतेब में आव।”
कुंवर आ बात सुणी तो जाणै किणी सूतै सिंघ रै डोको लगायो हुवै। भाभड़ाभूत हुय’र बोल्यो कै-
“जहांपनाह आ कीकर हुय सकै? धरम ई कोई बदल़ण री चीज है ! आ तो मा री कूख सूं पोषित अर जनमघूंटी रै साथै धारण हुवण वाल़ी चीज है। इणनै तो कोई मर्योड़ै जमीर रो कंडीर ई छोड सकै। बाकी आंख्यां में लाज राखणियो कीकर धरम छोडसी? सतहीणै री पछै पत ई कांई है?
सत मत छोडो हे नरां! सत छोड्यां पत जाय।
कोड़ मोल रो आदमी, कवडी सटै बिकाय।।
राजपूत रो धरम तो धरम री रक्षा करणो है।”
पातसाह कुंवर री इतरी निर्भीकता देख’र बोल्यो –
“थारी बात सही है पण म्हैं तनै धरम मोफत में छोडण रो नीं कैवूं तनै इणरै बदल़ै मनमाफक धन दियो जासी।”
आ सुणतां ई कुंवर बोल्यो-
“ऐड़ै धन नै तो हूं धूड़ समझूं। धरम ई कोई बेचण री चीज है। मिनखजमारो कोई बारबार थोड़ो ई मिलै अर पछै धन कांई मरतै रै साथै चालै! जद मिनख रो धरम घटै तो सगल़ो कीं घट जावै-
धरम घटायां धन घटै, धन घट मन घट जाय।
मन घटियां महमा घटै, घटत घटत घट जाय।।
पातसाह समझग्यो कै कुंवर सीधी सलाह सूं मानणवाल़ो नीं है सो उणनै डराय’र धरम बदल़ायो जावै। उण आपरी कटारी काढी अर अजेज कुंवर री छाती माथै राखतां कह्यो कै-
“कै तो धरम बदल़ अर धरम नीं बदल़ै तो कटारी थारो काल़जो चीरती बारै निकल़ जासी।”
पण कुशाल़सिंह कटार रै तेज सूं नीं डरियो अर अविचल़ बोल्यो – “कै धरम-रक्षा रै सारू तो म्हैं मोत नै ई तुच्छ मानूं। धरम बेच’र म्हैं कठै मूंढो बताऊंलो? जगत जाणै कै लाज बायरो मिनख जीवतो ई मरियै जैड़ो है-
लाज बाहीरा मानवी,
लंबा ज्यांरां कान।
सो आ बात मोत रै डर सूं म्हैं नीं अंगेजूं क्यूंकै-
पाणी पुटक न जावजो, लोही जाजो लक्ख।
सिर जाजो सौ नाक सूं, नाक न जाजो चक्ख।।
इण पूरै वार्तालाप नै तत्कालीन कवि केशरीसिंहजी बारठ(रूपावास) आपरै एक गीत में गूंथ’र अमरता प्रदान कर दीनी।
केशरीसिंहजी आपरी बखत रा वीर अर गंभीर प्रकृति रा मिनख हा। इणांरै विषय में किणी कवि कह्यो है-
केहरियो भीमेण रो,
दुई -दुई तुररा टंकै।
कविश्रेष्ठ केशरसिंहजी लिखै कै तरवार काढ’र जद पातसाह जमरूप में कुशल़सिंह नै पूछियो कै तनै प्रण प्यारो है कै प्राण?जद कुशल़सिंह कह्यो कै म्हनै प्यारो प्रण है! क्यूंकै जको मिनख अभख भख’र आपरा प्राण उबारै उणनै लखलाणत है। क्यूंकै उवो तो जीवतो ई अजीवितो जैड़ो है। आज तांई धरम छोडणियो इण धरती माथै कोईअमर नी रह्यो। सो सूर नै, नीं तो मरण सूं शंको है अर नीं मरण रो सोच है। पछै म्हैं तो गाय अर ब्रह्म नै पूजणियो अर राम नाम जपणियो हूं सो म्हैं मक्कै री सेवना अर कलमै रो जाप किणी विध नीं कर सकूं?कवि आगै लिखै कै कुशल़सिंह री धरम रै प्रति अगाध आस्था देख’र दिल्लीपत ई ढीलो पड़ग्यो अर राजी हुवतै कुशल़सिंह रै करार नै सरायो। कवि लिखै कै कुशल़सिंह छोटी दांई में ई वडा विरद खाट’र इज्ज़त अर धरम रै साथै उण क्रूर हाथां सूं बच’र आपरै घरै कुशल़ पूगियो।
गीत रो अविकल पाठ दैणो समीचीन रैसी–
बिजड़ ग्रह ओरंगजेब बोलियो,
जाणै किर रूठो जमराण।
कुशल़ा वाल्हा हुऐ जिकूं कहि,
प्रण राखिस कै राखिस प्राण।।1
असपत सरस जगावत आखै,
आपो आंगमियो आराण।
अभख भखै आतम उबारै,
ज्यां जीवियो अजीवियो जाण।।2
अमर हुआ नहको इल़ ऊपर,
पांकै धरम जिकै नर पोच।
सूरां मरण तणी की शंका,
सूरां मरण तणो की सोच।।3
पूजूं गाय ब्रह्म हूं पूजूं,
सिर जावतै मको सहूं।
जिण मुख राम नाम म्हैं जपियो,
कलमा जिण मुख नोज कहूं।।4
देख गाढ रीझियो दिलेसुर,
सारै रंग दियो संसार।
करतां विदा साह मुख कहियो,
कुशल़ा धिन थारो करार।।5
दुभर पैस रतनसी दूजो,
वडा विरद खाटै लघुवेस।
ईजत धरम सहत आंपाणै,
कुशल़ो घर आयो कुशल़ेस।।6
ऐड़ै धरम रक्षक वीर रो सुरगवास कुंवरपदै में ई हुयग्यो हो पण आपरी बात री अडगता सारू वो वीर आज ई लोकरसना माथै अमर है अर रैसी।
~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”