स्तुति श्री करणी माँ की – कवि जयसिंह सिढ़ायच (मण्डा-राजसमन्द)

।। दोहा।।
करणी घण करणी कृपा, धरणी उर धणियाप।
माँ करणी मोटा धणी, माँ करणी मां बाप।।
चार धाम करणी चरण, सह तीरथ सिरमोड़।
पद करणी चख परसता, पातक कट करोड़।।
।। छन्द – नाराच।।
नमो अनन्द कन्द अम्ब, मात मैह नन्दिनी।
निकन्द फन्द दास द्वन्द, विश्व सर्व वन्दिनी।।
कृपा निधाण किन्नियांण, बीस पाण धारणी।
नमौ धिराण दैशणोक, तीन लौक तारणी।।
माँ, सर्व काज सारणी।।१।।
बिराजमाण थाण आप, धाम यू देशाण में।
दिपायमाण भाण जैम, भौर आसमाण मे।।
सुताज मैह तू सदैव, नैण नैह धारणी।
नमौ धिराण दैशणोक, तीन लोक तारणी।।
मॉ, सर्व काज सारणी।।२।।
नयन्न नैह न्हाळ मॉ, निहाळ बाळ न करे।
मिटाण शूल पात केत, शूळ हाथ में धरे।।
दया अपार बार बार, दास हेत धारणी।
नमौ धिराण दैशणोक, तीन लौक तारणी।।
मॉ, सर्व काज सारणी।।३।।
महा समन्द मायने तूं, दास जौय डूबतां।
बधाय माय बांह बायं, दूध गाय दूवतां।।
करी सहाय छिन्न माय, नाव से निकारणी।
नमौ धिराण दैशणोक, तीन लौक तारणी।।
मॉ, सर्व काज सारणी।।४।।
पसार पाण किन्नियांण, दास ने उबारतां।
समन्द नीर भींज चीर, नाव तीर सारतां।।
निचौर चीर सीर नीर, धाम भौम धारणी।
नमौ धिराण दैशणोक, तीन लोक तारणी।।
मॉ, सर्व काज सारणी।।५।।
करी पुकार बार बार, राव शैख राज ने।
उबार मोय बैग आज, सार दास काज ने।।
दया अपार चित्त धार, शिघ्र ही सिधारणी।
नमौ धिराण दैशणोक, तीन लोक तारणी।।
मॉ, सर्व काज सारणी।।६।।
कटाण कैद शैख हैत, शैत होय सॉवळी।
भरी उडाण आसमाण, आपहो उतावळी।।
छुड़ाय लाय सिन्ध जाय, कैद मुक्त कारणी।
नमौ धिराण दैशणोक, तीन लोक तारणी।।
मॉ, सर्व काज सारणी।।७।।
बहन्त मग्ग बीच पग्ग, चौथ घघ्घ टूटियो।
अलग्ग होय संग सग्ग, वन्न माय छूटियो।।
न जोय के अधार कोय, तौय ने पुकारणी।
नमौ धिराण दैशणोक, तीन लौक तारणी।।
मॉ, सर्व काज सारणी।।८।।
सुणी अदैर दास टैर, चित्त म्हैंर, सौचगी।
करी न दैर, पाव प्हैर, छौड़ शैर पौछगी।।
सरूप धार तूं सुथार, कष्ट सर्व टारणी।
नमौ धिराण दैशणोक, तीन लौक तारणी।।
मॉ, सर्व काज सारणी।।९।।
बिकाण पे चढाण आण, की अचाण कामरो।
करी पुकार जैत कैत, आप शर्ण आ परो।।
दयाळ दास हैत तू, बडापणो बिचारणी।
नमौ धिराण दैशणोक, तीन लोक तारणी।।
मॉ, सर्व काज सारणी।।१०।।
अखन्ड जोत, मंढ होत, बौत जैत बीनवै।
बिकाण री धिराण आज, जाय लाज तो थवे।।
दया निधाण मंढ माण, पाण ने पसारणी।
नमौ धिराण दैशणोक, तीन लोक तारणी।।
मॉ, सर्व काज सारणी।।११।।
कबाण पे चढ़ाण बाण, बाण आप बोलियां।
नचीत जीत हौय तौय, हार हौय कैवियां।।
हुँ साय हौय जंग तौय, संग में सिधारणी।
नमौ धिराण दैशणोक, तीन लौक तारणी।।
मॉ, सर्व काज सारणी।।१२।।
खपाण खोज म्लैच्छ फौज, चित्त चोज तू चढ़ी।
भरी हुँकार खाय खार, शूल धार ने बढ़ी।।
हजार शीश हैक लार, वार तुर्क मारणी।
नमौ धिराण दैशणोक, तीन लौक तारणी।।
मॉ, सर्व काज सारणी।।९३।।
कृपा अपार जैत हैत, केत खैत तू करी।
खळा दळा दिया खपाय, कन्ध ब्राज कैसरी।।
हराय तुर्क कामरौ, तू जैत नै जितारणी।
नमौ धिराण दैशणोक, तीन लौक तारणी।।
मॉ, सर्व काज सारणी।।१४।।
कृपा निधान तो समान, कौन हे जहान मे।
मिटाण बंक अंक मूळ, पूर्ण आप पाण में।।
महा समर्थ बीसहथ्थ, दास हैत धारणी।
नमो धिराण दैशणोक, तीन लौक तारणी।।
मॉ, सर्व काज सारणी।।१५।।
सुणन्त टैर आ अदैर, जौर जंग माय ने।
भरैज नीर भौप घैर, माट शीश लाय ने।।
दया निधान ऐम कौन, दास दुख्ख हारणी।
नमो धिराण दैशणोक, तीन लौक तारणी।।
मॉ, सर्व काज सारणी।।१६।।
महा समर्थ, बीसहथ्थ, दास शीश धारिये।
शिशू अबौध जाण मौद, नैह सू निहारिये।।
रखाय मोय शर्ण राज, लाज री रुखारणी।
नमो धिराण देशणोक, तीन लौक तारणी।।
मॉ, सर्व काज सारणी।।१७।।
पसार पाण किन्नियांण, आण शर्ण तो गही।
सहाय माय तौ सिवाय, कौय नाय मो मही।।
सदा हि दास शर्ण जाण जन्म, ‘जै‘ सुधारणी।
नमो धिराण दैशणोक, तीन लौक तारणी।।
मॉ, सर्व काज सारणी।।१८।।
।।दोहा।।
आस काँई उण री करू, हे जिण रे दो हाथ।
मैं लीनी जिणरी शरण, (वो)बीसभुजाळी मात।
मां करणी म्हॉरे धणी, हूँ करणी रो दास।
धरणी पर करणी सिवा, करू न किणरी आस।
“क” कहता किरपा करे, “र” कहता रिछपाळ।
“नी” कहता निरभय करै, सारा संकट टाळ।।
~~कवि जयसिंह सिढ़ायच (मण्डा – राजसमन्द)