स्तुति श्री सायर माँ की – कवि जयसिंह सिंढ़ायच

SayarMa

।।दोहा।।
अटल छत्र अखिलेश्वरी, लाल धजा भुजलम्ब।
सबविध मों रतनासदू, आप तणो अवलम्ब।।
पाळै पौखैं तूँ प्रतख, मात रूप जग माय।
सकल चराचर जीव में, व्यापक तूँ वरदाय।।

।।छंद–भुजंगम प्रयात।।
नमौ तूँ नमौ मंढ़ माला धिराणी।
रिधू सायरा माँ नमौ किन्नियाणी।।
तुं ही क्रनला रूप साक्षात आजै।
तुँ ही जागती जौत मालै बिराजे।।१।।
नमौ आद अन्नाद अम्बे भवानी।
नमौ विश्व वन्द्ये, नमौ रुद्रराणी।।
अजौनीश अम्बे नमौ विश्व रूपं।
निराकार आकार साकार श्रूपं।।२।।
तूं ही आद अन्नाद ऐकं अजाणी।
तूं ही ब्रह्म माया जगं रूप जाणी।।
तूं ही त्रिगुणी तीन लौका धिराणी।
तूं ही विम्मला वैद चारो बखाणी।।३।।
तूं ही पंच तत्त्वं, तूं ही जीव काया।
दसौ दीस व्यापी तूं ही मौह माया।।
तूं ही ईश्वरी विश्वरी अदिष्ठाथा।
तूं ही ब्रह्म भूतेश विष्णू विधाता।।४।।
रमे बाळ ज्यूँ ही तूं श्रृष्टि रचावे।
उपावे तूं पौखै, तूं पाछी खपावे।।
अखण्डं अदण्डं अदृष्टं अजाणी।
भुजादण्ड दण्डं प्रचण्डं प्रमाणी।।५।।
अछैहं अखैहं अदैहं अमापी।
सबै तत्व मांही सदा तूँ ही व्यापी।।
बिना थम्ब तूँ ही धरा व्यौम ढ़ाबै।
तुँ ही पौण रे रूप व्यापै इळा पै।।६।।
चला चंचला तूं गत्ती द्रुत्तगामी।
धरा रूप तूँ ही थिरा ठाम ठामी।।
नहीं आण तौरी कदै सिन्धु लौपे।
डरै काळ भारी जदै आप कौपै।।७।।
तुँ ही तैज पूँजं शशी सूर भासे।
निशा रूप तूँ भाण रो तैज नाशै।।
छँटा रूप तुँ ही घटा बीच औपे।
चमँक्कै छिना मै छिना में अलौपे।।८।।
धरा रूप धात्री अनंता अनूपं।
अति सूक्ष्म तूँ बीज बैराट रूपं।।
निशा प्रातः मध्य तुँ संध्या सृजन्तं।
ऋतू शीत ग्रीष्मं तुँ वृष्टि वसंतं।।९।।
तुँही ज्योति पुंजं तुँ ही तैज राशी।
तुँही ज्ञान विज्ञान विद्या विकासी।।
रति काम रूपं तुँ ही मौह माया।
तुँ ही कर्म बंधन तुँ ही जीव काया।।१०।।
तुँ ही आतमा रूप काया निवासे।
तुँ ही काळ रे रूप काया विनाशे।।
तुँ ही नींद रूपं सदा नैण मीठी।
तुँ ही नेह रूपं अछैहं अदीठी।।११।।
रमा रूप तूँ मात बैकुंठ राजै।
उमा रूप तूँ वाम माहेश ब्राजे।।
तुँ ही मौहनी रूप संसार मौहे।
शची रूप तूँ इंद्र रे संग सोहे।।१२।।
तुँ ही सीत रै रूप श्रीराम संगी।
तुँ ही राधिका रंग गौविन्द रंगी।।
शुभा मंगला शैल कन्या कुमारी।
तुँ ही शील लज्जा तुँ ही गैह नारी।।१३।।
इळा आय तूँ दैह साकार धारै।
अध्रम्म न उथापै थिरा धर्म थारै।।
नमौ सींह साजी अभैदान दैणी।
तुँ ही दानवा दुष्ट रा झुण्ड खैणी।।१४।।
चमुण्डा नमौ चाटणी चण्ड मुण्डा।
द्रुगा रूप तुँ दैवणी दैत्य दण्डा।।
नमौ प्रीत री रीत थाँरी निराळी।
तुँ ही मात काळी कराळी कृपाळी।।१५।।
तुँ ही वत्सलै मण्डितम् मातृ नैहा।
तुँ ही मात रे रूप साक्षात गैहा।।
तुँ ही दास री आस पूरै प्रतंक्षं।
तुँ ही कामधैनू तुँ ही कल्प वृक्षं।।१६।।
तू ही अष्ट सिद्धि नवोनिद्ध दाता।
तुँ ही आतमानंद भक्ती प्रदाता।।
तुँ ही ज्ञानबुध्धि तुँ विद्या विवेकं।
सबै जीव मांही तूँ ही तत्त्व एकं।।१७।।
तुँ ही जग्त आधार संसार सारं।
तुँ ही शारदा ज्ञान बुद्धी भंडारं।।
तुँ ही कर्म बंधन तुँ ही मोक्षदाता।
तुँ ही ज्ञात अज्ञात तूँ सर्व ज्ञाता।।१८।।
तुँ ही बाळ री पाळनैता जणैता।
तुँ ही नेहनिद्धी तुँ ही काळजैता।।
सुणन्ता टैर न दैर धारै कदे ही।
तजी वाहणं मात धावे पगै ही।।१९।।
बहै मात पाळी उपाळी अकैली।
पुगै दास की साद सूँ मात पैली।।
छबी मौहनी मात नैहा निजाळी।
कृपाकी निधि मात अम्बे कृपाळी।।२०।।
तुँ ही आसरो एक आधार तैरो।
तुँ ही सर्व हो सार संसार मैरो।।
भरोसो बड़ो आपरो मोय भारी।
निभावो सदा मों दया विर्द धारी।।२१।।
तुँ ही दास री आस विश्वास श्रद्धा।
निधि नैह रूपं तू ही काज सिद्धा।।
तुँ ही तात तूँ मात तूँ बंधु भ्राता।
सखा मित्र संगी तुँ ही जीवत्राता।।२२।।
कविन्द्राँ मुनीन्द्राँ फणिद्राँ दि गावै।
नहीं पार तैरो कदै कोय पावै।।
अनन्तं अपारं तुहारं सु लीला।
पयौधी लहै पार कैसे पपीला।।२३।।
तुँ ही तुँज्ज जाणै गती गूढ़ तौरी।
लहै थाँह कैसे मति मूढ़ मौरी।।
करू प्रार्थना तौ जुगं पाण जौड़ी।
करौ माफ़ मैया गुना मौ करौडी।।२४।।
धरु ध्याँन तैरो हिये में हमेशा।
बिचारो दया दास “जै” पे विशेषा।।
करौ मात किर्पा सदा निज्ज जाणी।
धरौ दास रे शीश माँ बीस पाणी।।२५।।

।।छप्पय।।
अखिल विश्व आधार, थिरा अम्बर धर थाया।
अखिल विश्व आधार, आप जड़ जीव उपाया।।
अखिल विश्व आधार, उड्गण रवि चन्द्र उजासै।
अखिल विश्व आधार, पवन जळ अनळ प्रभासै।।
अखिलेश रूप अद्भुत कळा, रचना सकळ रचावणी।
वो ही आदशगत्त साम्प्रत ईळा, माँ सायर रूप सुहावणी।।

~~कवि जयसिंह सिंढ़ायच

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