स्वामी स्वरूपदास जी (शंकरदान जी देथा)

स्वामी स्वरूपदास चारण जाति की एक अप्रतिम प्रतिभा माने जाते हैं। इनका जन्म चारणों की मारू शाखा के देथा गोत्र वाले परिवार में हुआ। उन्होंने ३८ वर्ष की वय में वर्ष १८३९ ई. (तदनुसार विक्रम संवत १८९६) में हन्नयनांजन नामक ग्रंथ की रचना रतलाम शहर में की थी। इसके आधार पर उनका जन्म १८०१ ई. (वि.सं.१८५८) में हुआ। उन्होंने अपने ग्रंथ हन्नयनांजन के तृतीय सलाका के अंतिम भाग में स्वयं लिखा है-
करे राज बलवंत कमध, रतनपुरी कुल रूप।
तृतीय पदम परबत तनय, भड़ां सिरोमणि भूप।।
ताकी सभा सुचतुर तहाँ, उदयो ग्रंथ अनूप।
आदि वंश चारण अबै, स्वामी रच्यो स्वरूप।।
महिपत की पंचवीसमी, जन्मगांठि सक जान।
उमर दास स्वरूप की, अष्टत्रिस उनमान।।
राग, रतन वसु चंद्रमा, संवत् विपर्यय रीत।
माघ कृष्ण तृतिया भयो, पूरन ग्रंथ सुप्रीत।।
[मैंने वि.सं.१८९६ की माघ कृष्णा तृतीया के दिन इस ग्रंथ को प्रेम पूर्वक सम्पूर्ण किया। यह अवसर रतलाम नरेश बलवन्त सिंह राठौड़ की पचीसवीं वर्ष गांठ का है और इस समय मुझ स्वरूपदास की वय अड़तीस वर्ष है। ] यदि वि.सं.१८९६ (१८३९ ई.) में ग्रंथ प्रणेता की उम्र अड़तीस वर्ष थी तो इस हिसाब से उनका जन्म वर्ष वि.सं.१८५८ (१८०१ ई.) हुआ।
इनका जन्म नाम शंकरदान था। इनके पिता का नाम मिश्रीदानजी और काका का नाम परमानन्द जी था। इनके पूर्वजों का गांव ‘धाट’ क्षेत्र के ऊमरकोट (सिंध) परगने में अवस्थित खारोड़ा था। इनके पिता और काका खारोड़ा में ही रहते थे। कहा जाता है कि एक बार सराई मुसलमानों ने खारोड़ा गांव को लूटा और स्वरूपदासजी के काका परमानन्दजी को बहुत यातनाएं दी जिससे लाचार हो कर मिश्रीदानजी और परमानन्दजी दोनों भाई अपने वतन का परित्याग कर राजपूताना के अजमेर परगने के जोधा (राठौड़) राजपूतों के ठिकाने बड़ली चले आए। परमानन्दजी नैष्ठिक, ब्रह्मचारी, विद्वान कवि और हरिभक्त थे। बड़ली के ठाकुर दुल्हेसिंह ने परमानन्दजी का सत्कार किया और आग्रहपूर्वक दोनों भाइयों को बड़ली में बसाया। शंकरदान (स्वरूपदासजी) का जन्म इसी गांव बड़ली में हुआ। संभवत: यह परिवार बड़ली के निकटवर्ती अपने गोत्रीय भाइयों के गांव दौलतगढ़ में बसने के इरादे से आया होगा। यह भी प्रचलित है कि परमानन्दजी दोलतगढ़ भी गये थे। कदाचित वे वहाँ से अपने ही किसी गोत्रीय भाई की सन्तान को गोद लेना चाहते थे। यह भी बहुत प्रचलित है कि स्वामी स्वरूपदासजी ने अपने वंशजों के बारे में भविष्यवाणी की थी कि मेरे आशीर्वाद से प्रत्येक तीसरी पीढ़ी में एक संत होगा और अनपढ़ होते हुए भी एक विद्वान कवि होगा। ऐसा कहते हैं कि उनका आशीर्वाद आज तक फलता जा रहा है। पीढ़ियों के क्रम में और स्वामीजी की परम्परा में अब तक सरजूदासजी, सुन्दरदासजी संत हो चुके और वर्तमान में मनोहरदासजी संत हैं।
इस समय जोधपुर में महाराजा मानसिंह (वि.सं.१८६०-१९०० अर्थात् १८०३ – १८४३ ई.) थे, जो अप्रतिम वदान्य थे और चारण जाति की स्वामीभक्ति एवं विद्वता आदि गुणों पर मुग्ध थे, उन्होंने अपने जालोर के घेरे के वक्त सहायता करने वाले सत्रह चारणों को जोधपुर राज्य मिलने पर, गांव-जागीर आदि देकर तुष्ट किया था। कविराज बांकीदास आशिया (वि.सं.१८२८–१८९०) को भी इन्होंने लाखपसाव देकर उनकी विद्वता और कवित्वशक्ति की कद्र की थी।
परमानन्दजी को स्वयं किसी का याचक बनना स्वीकार नहीं था और उनके बड़े भाई मिश्रीदानजी विद्वान एवं कवि नहीं थे। अपने भाई के साथ मिल कर उन्होंने विचार किया कि मेरा भतीजा शंकरदान यदि विद्वान और कवि हो जाए तो महाराजा मानसिंहजी से अथवा अन्य किसी राजा को प्रसन्न कर अवश्य जागीर प्राप्त करने का अधिकारी हो सकता है।
यह सोच कर परमानन्द जी ने स्वयं शंकरदान को बाल्यकाल ही से विद्याभ्यास कराया और उन्हें संस्कृत भाषा में निष्णात किया। परन्तु वे स्वयं चूंकि हरिभक्त थे और संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित होने के साथ-साथ वेदान्त के प्रखर ज्ञाता थे इसलिए बालक शंकरदान पर भी वेदान्त का प्रबल प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप विद्याभ्यास पूरा होते-होते ही देवलिया के एक दादूपंथी साधु के शिष्य बन कर शंकरदान ने सिर-मुंडवा लिया और अपना नाम स्वरूपदास रख लिया। अपनी धारणा को इस प्रकार निष्फल होती निरख परमानन्द जी को बहुत खेद हुआ और उन्होंने एक पत्र शंकरदान को लिखा जिसमें निम्नलिखित सोरठा लिख भेजा-
कीधो थो किम कोल, कह पाछो कासू कियो।
बेटा थारा बोल, साल्हे निसदिन शंकरा।।
[प्रिय शंकरदान ! तूने जो मुझे वचन दिया था उससे मुकर क्यों गया? बेटा तेरे बोल रह-रह कर मुझे रात दिन कचोटते हैं]
परमानन्दजी ने बाद में स्वयं जा कर उन्हें खूब समझाया परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली, क्योंकि शंकरदान पर वैराग्य का गाढ़ा रंग चढ़ चुका था। अपने प्रयल में असफल रहने पर थोड़े दिनों बाद परमानन्दजी का देहावसान हो गया।
साधु बनने के बाद स्वरूपदासजी अधिकतर मालवा में रहने लगे। कुछ समय के लिए वे अजमेर परगने में भी रहे थे। रतलाम के महाराजा बलवन्तसिंहजी (वि.सं. १८८२-१९१४) उन्हें गुरु मानते थे इसलिए स्वामी जी रतलाम में अधिक रहते थे। महाराजा बलवंतसिंहजी द्वारा अपने गुरु स्वामी स्वरूपदासजी की स्तुति में कहा नीचे लिखा दोहा प्रचलित है
सदा हँगामी वचन सिध, भगतां नामी भूप।
हूं भामी दादूहरा, स्वामी दास सरूप।।
[ जो सदा आनन्द में रहने वाले, सिद्ध वचन और प्रसिद्ध भक्तों में अपना प्रधान स्थान रखते हैं ऐसे दादू के वंशज (दादू दयाल की शिष्य परम्परा में आने वाले) स्वामी स्वरूपदासजी पर बलिहारी जाता हूँ। ]
रतलाम के अतिरिक्त सीतामऊ एवं सैलाना के दरबारों में भी स्वरूपदासजी की बहुत प्रतिष्ठा थी। सीतामऊ के महाराज-कुमार रतनसिंह जी ‘नटनागर’ (वि.सं.१८६५-१९२०) जो स्वयं अच्छे कवि थे स्वामी जी को अपना गुरु मानते थे। रतनसिंह जी की उनमें अनन्य श्रद्धा थी। हिन्दुओं के धर्मशास्त्रानुसार ईश्वर और गुरु का पद समान होता है। इसके अनुरूप रतनसिंह जी की गुरु भक्ति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि महाराज-कुमार उन्हें ईश्वर का अवतार मानते थे। राजकाज में भी वे स्वामीजी को बराबर का आसन देते थे और इनकी चरण-रज मस्तक पर धारण करते थे। इन महाराज-कुमार के सम्पूर्ण जीवन पर स्वरूपदासजी का बहुत प्रभाव था। जब स्वामीजी सीतामऊ से बाहर प्रवास पर होते तब भी दोनों के बीच पत्र-व्यवहार बराबर जारी रहता। अधिकांश पत्र-व्यवहार दोनों ओर से पद्यमय होता। नटनागर विनोद नामक अपने ग्रंथ में महाराज-कुमार रतन सिंह जी ने मंगलाचरण में ईश्वर की वन्दना न कर स्वरूपदासजी की ही वन्दना की है क्योंकि वे स्वामीजी को सिद्ध पुरूष और ईश्वर का अवतार समझते थे। गुरु वन्दना के छप्पयों में से एक इस प्रकार है
छप्पय
जय गुरु श्रूप दिनेस, जगत पाखण्ड विहंडन।
जय गुरु श्रूप दिनेस, तिमिर अघ जुत्थ विखंडन।।
जय गुरु श्रूप दिनेस, सुजस पंकज सुख मंडन।
जय गुरु श्रूप दिनेस, दुष्ट मति बुद्धी दंडन।।
जय जयति श्रूप अकरन हरन, करन करावन दास कहँ।
जय जय दिनेस अज्ञानहर, ज्ञान करन अज्ञान जहँ।।
[ नटनागर विनोदः रतनसिंह कृत]
[ हे गुरु स्वरूपदास ! आप सूर्य समान हैं, आपकी जय हो। आप जगत के पाखण्ड को मिटाने वाले हैं और पाप के घोर अन्धकार को हरने वाले सूर्य के समान हैं। सूर्य सादृश गुरु स्वरूपदास की जय हो, जो सुयश सुख के देने वाले और मुझ जैसे दुष्टमति की बुद्धि का परिष्कार करने वाले हैं। हे स्वरूपदास ! आपकी जय हो जो अकर्मों को हरने वाले और दास से सुकर्म करवाने वाले हैं। हे अज्ञान हरने वाले सूर्य सादृश गुरु स्वरूपदास ! आप मुझ अज्ञानी दास को ज्ञान कराने वाले हैं, आपकी जय हो। ]
इसी श्रृंखला में महाराजकुमार रतनसिंह का दूसरा छप्पय दृष्टव्य है –
जय जय श्री गुरु श्रूप, दास निज पंथ हलावन।
जय जय श्री गुरु श्रूप, चारि जुग धर्म चलावन।
जय जय श्री गुरु श्रूप, बाल बुद्धि बुधि दावन।
जय जय श्री गुरु श्रूप, दास के कुकृत नशावन।
जय जयति श्रूप व्यापक अखिल, सुगुन देन अवगुन हरन।
जय जयति श्रूप पंकज चरन, जग वन्दन तारन तरन।।
दादूपंथी प्रसिद्ध संत रज्जब जी के भेंट के पद्यों में उनके एकादश शिष्यों ने गुरु के प्रति जैसा भक्ति भाव दिखाया, उससे भी बढ़ कर श्रद्धा सुमन रज्जब परम्परा के संत (स्वरूपदास के) स्वयं के प्रति, सीतामऊ के महाराज-कुमार द्वारा अर्पित किये देखकर, स्वामी स्वरूपदासजी ने अपने श्रावण कृष्णा प्रतिपदा संवत् १९१७ (१८६० ई.) को लिखे पत्र में महाराज-कुमार को लिखा कि ‘आप मेरे नाम के साथ देवीय विशेषणों का प्रयोग क्यों करते हैं ?’
केई बखत यूं लिखिन को, मैं प्रतिषेध हि कीन।
रतन कुंवर तुम करत हो, नित नित उपज नवीन।।
महाराजकुमार ने प्रत्युतर में लिखा कि ‘मुझे ईश्वर और गुरु में कोई भेद नहीं लगता और चूंकि आप मेरे गुरु हैं इसीलिए मैं आपके नाम के साथ इन विशेषणों का प्रयोग उचित समझता हूं।’ यह उत्तर पा कर स्वामीजी निरूतर हो गए और उन्होंने पत्र में लिखा कि मैंने अपनी हार मानी, अब आप को जो उचित लगे वह लिखें।
रतन कुंवर यहि रीति सौं, हम तो मानी हार।
तुम गुरु मिस करिबो करौ, हरि की स्तुति हजार।।
सीतामऊ के महाराज-कुमार रतनसिंह जब स्वामीजी को पत्र लिखते तो पत्र के अन्त में स्वयं के लिए ‘रतना’ शब्द का प्रयोग करते थे। आज महाराज-कुमार रतनसिंह और स्वामी स्वरुपदास जी दोनों आरोग्य नहीं परन्तु जब तक साहित्य जगत में उनकी कृति “नटनागर विनोद” रहेगी तब तक शिष्य-गुरु दोनों के अनन्य प्रेम की साख भरती रहेगी। महाराज-कुमार और स्वामीजी का पत्र-व्यवहार सीतामऊ के राजकीय पुस्तकालय में अब भी सुरक्षित है।
सीतामऊ के महाराजकुमार रतनसिंह के पद्यात्मक पत्र का नमूना इस प्रकार है
स्वस्ति श्री राजत रत्न थान, जँह संत शिरोमणि मुनि महान।
उपमा अनेक लायक उदार, शुभ श्रेष्ठ गुनव के हो अगार।।
विदुषावतंस विद्या निदान, अज्ञान तिमिर हर अंशुमान।
मद मोह छोह छल दहनहार, भवसागर तारन कर्णधार।।
अतिपावन परितन पद मृणाल, जस विदित दहत दुख द्वंद्वजाल।
वाशिष्ठ व्यास से जग विख्यात, उपकार कर पर पारिजात।।
उपमा अनेक लायक अनूप, श्री श्री श्री श्री गुरुदेव श्रूप।
सत सहस कोटि श्री राजमान, भय हरन करन सुख के भवान।।
लिखितं सियापुर से सुधाम, कृत रत्नसिंह कोटिक प्रणाम।
इत आनंद श्री गुरु महामानि, उत आप रावरी खबर जानि।।
बीते बहु वासर सुधि बलीन, दिन रहत दास बिन दरस दीन।
बिन बास मधुप जल छीन मीन, घन बिन चित्त चातक मलिन।।
कीजे अब आज्ञा कृपानाथ, सिविका जुत पहुँचे सर्व साथ।
दीजिये दर्शन दीनन दयाल, कीजिये निपट किंकर निहाल।।
स्वामी जी का प्रत्युतर पद्यमय पत्र के रूप में इस प्रकार था –
स्वस्ति श्रिप सियापुरी सौष्ठवत सीखी जिन,
आप तनु संजुत व्हैं मोहनी अनत तैं।
रतनपुरी से श्रूपदास की आशीस बँचौ
यहाँ है आनन्द तुम रहियो जतन तैं।
श्रवणा मनन और कथन प्रकार यथा,
तथा प्रीति राखियो अनादिक चेतन तैं।
शत्रु मित्र गुर्वादिक यूँ ही मोल लेवो करो
रतन कुमार शुद्ध वायक रतन तैं।
अपने समय में विशाल ग्रंथ वंश-भास्कर के ग्रंथ-कर्ता महाकवि सूर्यमल जी मीसण (वि.सं.१८७२-१९२५) की राजस्थान और मालवा आदि प्रांतों में विशिष्ट प्रतिष्ठा थी और वे अपने समय के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते थे। वंश-भास्कर के गुरु-वन्दना प्रकरण को देखने पर पता चलता है कि सूर्यमलजी ने बचपन में स्वामी स्वरूपदासजी से योगशास्त्र, मम्मट कृत अति-कठिन कवि-पद्धति, नाना प्रकार के अद्वैत-वेदान्त के शास्त्रों, न्याय तथा वैशेषिक तत्व युक्त ग्रंथों का अभ्यास किया था। सूर्यमलजी जीवन पर्यन्त स्वामीजी का बहुत आदर करते रहे। स्वरूपदासजी बहुत उदार-मना, वेदान्त तत्व के मर्मज्ञाता, विद्या विनीत एवं सरल चित थे। इस तत्वदर्शी महात्मा ने देखा कि मेरा शिष्य सूर्यमल अपनी असाधारण प्रतिभा के बल पर मुझ से भी आगे बढ़ गया है तब उनके हृदय में अपने शिष्य के प्रति बहुत आदरभाव जागा। वि.सं.१९०३ की ज्येष्ठ सुदि ५ के दिन सीतामऊ से लिखे गए एक पत्र में स्वामी जी ने सूर्यमलजी की असाधारण प्रतिभा को स्वीकार करते हुए विनम्रभाव से लिखा था-
तुम ग्रंथन-वेत्ता तिते, हम श्रोता न जित्तेक।
का तुम प्रति गिरवाण लिखी, बाढे मोर विवेक।।
कहियो दास स्वरूप तें, वंदन दास स्वरूप।
ज्ञान रूप वैराग्य-विधि, हो भूपन के भूप।।
[ तुम जितने ग्रंथों के सृजेता हो, मैंने उतनी संख्या में ग्रंथों का वाचन भी नहीं किया है। तुमने जो प्रायो-ब्रज-देशीय-गिरवाण आदि भाषाओं का मिश्रण कर अपनी काव्य-भाषा निर्मित की है, वह निश्चय ही मेरे विवेक को बढ़ाने वाली है। इसलिए स्वरूपदास के शिष्य को स्वरूपदास का वंदन स्वीकार हो क्योंकि अपने ज्ञान से वैराग्य की निधि प्राप्त करने वाले ज्ञानियों के भी आप अधिप हैं अर्थात् आप ज्ञानियों में सर्वोपरी हैं। ]
स्वामी स्वरूपदासजी निर्भीक एवं स्पष्ट वक्ता थे। जब महाकवि सूर्यमल मीसण ने अपनी अप्रतिम कृति वंश-भास्कर पर उनकी सम्मति मांगी तब उन्होंने उसका आदर करते हुए वि.सं.१९०४ में सीतामऊ से लिखे अपने पत्र में लिखा कि आपका ग्रंथ अति-उत्तम है परन्तु यदि आपने नर प्रशस्ति काव्य की जगह ईश्वर की भक्ति में काव्य का सृजन किया होता तो इस ग्रंथ का अधिक आदर होता। इसके अतिरिक्त चूंकि सूर्यमल का मदिरापान का व्यसन विख्यात है तथापि स्वरूपदास जी ने उन्हें इस दुर्व्यसन को छोड़ने तथा पुराने कवियों की निन्दा की आदत भी त्यागने का परामर्श दिया था।
स्वामीजी के एक शिष्य कवि शिवराम दाधीच ब्राह्मण थे। वे भी अधिकतर सीतामऊ के महाराजकुमार रतनसिंह के पास रहते थे। उन्होने वि.सं.१८९९ में तखत-विलास नामक नायिका भेद का एक लक्षण-ग्रंथ लिखा था। उसके मंगलाचरण में भी गुरु-स्तुति है जिसमें उन्होंने अपने गुरु स्वामी स्वरूपदासजी का पूरे आदर से स्मरण एवं स्तवन किया है।
रतलाम के महाराजा बलवन्तसिंह के उत्तराधिकारी महाराजा भैरवसिंहजी (वि.सं.१९१४-१९२०) भी स्वरूपदासजी के शिष्य थे और वे भी स्वामीजी का बहुत आदर करते थे।
वि.सं.१९२० माघ कृष्णा तृतीया को एक ही रात में सीतामऊ के अल्पवय महाराज-कुमार रतनसिंह जी एवं रतलाम के महाराजा भैरवसिंह जी दोनों का स्वर्गवास हो गया। इस प्रसंग पर स्वरूपदासजी ने अपने हृदय की पीड़ा व्यक्त करते हुए यह सोरठा कहा-
भैर रतन कुळ भूप, मिली दोनू इक रात में।
इळ सुख तज्या अनूप, कुण दुख किण आगळ कहाँ।।
[ भैरवसिंह एवं रतन सिंह दोनों कुलीन राजाओं ने मिलकर एक ही रात में पृथ्वी के अनुपम सुखों का त्याग कर दिया अर्थात् देह त्याग दी, स्वरूपदास कहता हैं कि उनके वियोग की अथाह पीड़ा को अब किससे कहूं। ]
महाराज-कुमार रतनसिंह का जब स्वर्गवास हुआ उस समय स्वरूपदासजी सीतामऊ में विद्यमान न थे। राजकुमार के पिता राजा राजसिंहजी (वि.सं.१८५९-१९२४) ने इस हृदय विदारक घटना का उन्हें समाचार सुनाया तो स्वामीजी स्तब्ध रह गए। यकायक उनके मुँह से निकला कि “रतना ने बहुत जल्दी की, मैं भी उसके साथ जाने को तैयार था। “ कहते हैं कि इसके तुरन्त बाद थोड़े दिनों में ही वि.सं.१९२१ (१८६४ ई.) में स्वामी स्वरूपदासजी का निधन हो गया।
स्वरूपदास जी रतलाम में वर्षों रहे। एक बार वे वहाँ के महाराजा बलवन्तसिंह से किसी बात पर खिन्न हो कर रतलाम से चले गये किन्तु बलवन्तसिंह की रुग्ण अवस्था में और उनके देहान्त से पूर्व वे वापिस रतलाम लौट आए। तब महाराजा बलवन्तसिंह ने अपने कृत्य पर अफसोस करते हुए अत्यन्त विनम्र भाव से यह सोरठा लिख भेजा –
धारो चरण सुधाम, बलवंत रे चित यूं बसै।
सेवक रौ सतराम, अनदाता छेहलौ अबै।।
इसके प्रत्युतर में स्वामीजी ने भी सोरठा लिख भेजा-
माणक हूंत अमोल, अंत तणों सतराम यह।
बलवंत थारो बोल, खारो निसदिन खटकसी।।
महाराजा बलवन्तसिंह के सोरठे में स्वामीजी को अन्नदाता की संज्ञा दी गई है। रज्जबपंथी संत स्वामी नारायणदास के अनुसार रतलाम, सीतामऊ, सैलाना आदि मालवा के राज्यों में स्वरूपदास जी के लिए अन्नदाता संबोधन ही प्रयुक्त होता था। यह इस संत-कवि की राज्य-मान्यता, सम्मान और जगवल्लभता का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
रतलाम का दादूद्वारा जो वहाँ त्रिपोलिया के पास अवस्थित है, वह स्वामी स्वरूपदास जी का स्थान था। इस दादूद्वारे के विस्तार हेतु इनके शिष्य किशनदास ने संवत् १९१७ (१८६० ई.) में निर्माण कार्य कराया था। स्वरूपदास जी रतलाम में ही ब्रह्मलीन हुए थे। संवत् १९२१ (१८६४ ई.) में उनके स्मारक के रूप में एक छतरी का निर्माण कराया गया था, जो आज भी विद्यमान है।
स्वामी स्वरूपदासजी संस्कृत, पिंगल, डिंगल आदि भाषाओं के उद्भट विद्वान और सनातन धर्म के सिद्धान्तों के बड़े ज्ञाता थे। उनके द्वारा हृन्नयनांजन, वृति-बोध, पाण्डव यशेन्दु-चन्द्रिका आदि छ: ग्रंथों की रचना करने की जानकारी तो साहित्य जगत को थी पर रतलाम के साहित्य प्रेमी स्व. लक्ष्मणदास जी साधु के संग्रह में पाण्डव यशेन्दु-चन्द्रिका के अतिरिक्त स्वरूपदास जी के ग्यारह ग्रंथों की ३९१ पृष्ठों की एक पाण्डुलिपि मिली। जिसमें (१) वर्णार्थ-मंजरी (२) पाखण्ड-खंडन (इसका एक नाम पाखंड-प्रध्वंस भी प्रचलित है) (३) मूर्खांकुश (४) चिज्जड़ बोध-पत्रिका (५) द्रष्टान्त दीपिका (६) सूक्ष्मोपदेश (इसको सूक्ष्म-बोध भी कहा गया है) (७) तर्क प्रबंध (८) साधारणोपदेश (९) अविवेक-पद्धति (१०) हृन्नयनांजन (११) वृत्तिबोध ग्रंथ बहुत सुन्दर अक्षरों में देवनागरी लिपि में लिपिबद्ध हैं। ऊपर वर्णित प्रत्येक ग्रंथ का रचनाकाल ग्रंथ के अंत में दोहों में लिखा हुआ है। इस प्रकार अब तक स्वरूपदासजी के बारह ग्रंथ मिलने की जानकारी है। इन बारह कृतियों के अतिरिक्त स्वरूपदास के दोहे, नवरस विनोद रत्नाकर और अंग्रेज श्लाघा, इन तीन कृतियों के बारे में भी जानकारी मिली है कि इनकी पाण्डुलिपियाँ सीतामऊ के ग्रन्थागार में सुरक्षित हैं।
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(स्वामी स्वरूपदासजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व सम्बन्धी अधिकांश जानकारी गुजरात के प्रसिद्ध विद्वान शंकरदान जेठी भाई देथा के संग्रह से मिली जानकारी पर आधारित है। )
~~सम्पादक: चन्द्र प्रकाश देवल
धन्यवाद,
चन्द्र प्रकाश जी देवल साहब बहुत ही शानदार जानकारी।
इस प्रकार की ऐतिहासिक एवं दुर्लभ जानकारियां समय समय पर आप शेयर करते रहना।
परमपद प्राप्त स्वामी स्वरूपदास जी देथा एवं महाकवि सूर्यमल मीषण के सदगुरू को कोटि-कोटि नमन्