स्वार्थ रूपी होलिका की गोद में जीवनमूल्य रूपी प्रहलाद का भविष्य

रंग, उमंग और हुड़दंग के रंगारंग पर्व होली की आप सबको हार्दिक शुभकामनाएं। हमारे पूर्वजों ने जीवन के हर कदम पर कुछ प्रतीकात्मक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए हमें जीवन जीने की सीख प्रदान की है। होली से जुड़े कुछ प्रतिमानों पर आज विचार करने की जरूरत आन पड़ी है। “जमाना बदलता है तो सब कुछ नहीं तो भी बहुत कुछ बदल जाता है” यह उक्ति हर देश, काल एवं परिस्थिति पर सही-सही चरितार्थ होती रही है लेकिन हाल ही में देश-दुनिया में घटित अनेक घटनाएं संवेदनशील लोगों के लिए अत्यन्त पीड़ादायक हो गई है। जानबूझ कर जिंदा मख्खी निगलना आम चलन होता जा रहा है। महाकवि बिहारी ने रीतिकाल के दौर में लिखा था कि यह संसार उसी व्यक्ति को सम्मान देता है, जिसमें बुराई का वास होता है। भले को तो ये बस भला कहकर अपना फर्ज चुकता मान लेते हैं। दुनिया का चलन देखिए ग्रहों की पूजा में भी खोटे ग्रह यानी मंगल और शनि की ही पूजा को विशेष महत्त्व दिया जाता है, उन्हीं का जप और दान किया जाता है –

बसे बुराई जासु तन, ताही को सनमान।
भलो भलो कहि छांडि़ये, खोटे ग्रह जपु-दान।।

किसी शायर ने ठीक ही लिखा है कि “था यकीं जिनपे बनाएंगे मजार मेरा, वे ही मेरी कब्र से पत्थर चुरा कर ले गए” लेकिन आज के कर्णधारों को ऐसे ही लोगों की दरकार है। ये तो ऐसे ही लोगों का चुनाव करते हैं। जो जिसकी जितनी अधिक कब्र खोदता है, वही दूसरे दिन उसका उतना ही नजदीकी बना नजर आता है। समय का सितम देखिए जिन लोगों को ऐ.सी. (वातानुकूलित स्थान) में होना चाहिए था वे तो जे.सी. (जेल में बंद) में है और जिन्हें जे.सी. में होना चाहिए था, वे ऐ.सी. में हैं। राजस्थानी के कवि श्री मोहनसिंह रतनू, चोपासनी की पंक्तियां प्रासंगिक लगती है –

चमचे, चालाक, चाटूहार, बिना स्यान-वारे, ताके आज वारे-न्यारे, मारे मौज बेसी में।
निज को न भान, अभिमान करे औरन पे, घर को न ज्ञान, ध्यान देवे परदेसी में।
मोहन हैरान, देखि जगत जहान बीच, काग ले सम्मान अरु हंस जाय पेसी में।
करुणा-निधान देख कैसो है विधान तेरो, ऐ.सी. वारे जे.सी. बैठै, जे.सी. वारे ऐ.सी. में।।

यद्यपि दुष्टता का दौर हिरण्यकश्यपु के समय भी कम नहीं था लेकिन दुष्ट होने के बाद भी हिरण्यकश्यपु अपने वादे का पक्का था, उसने यदि भगवान का विरोध करना शुरु किया, तो किया। उसे अंत तक निभाया। उसका विरोध अवसरवादी नहीं था। उसका विरोध जनता को गुमराह करने वाला नहीं था। उसने खुली घोषणा की थी कि उसके साथ रहने वाले, उसके राज्य की सीमाओं में रहने वाले किसी और भगवान को नहीं मान सकते, उनके लिए राजा ही भगवान है। और उसने इस वादे को निभाने की दृढ़ता का पुख्ता प्रमाण दिया-खुद के ही बेटे प्रहलाद को एक आम नागरिक की तरह दंडित करके। उसने अपनी बनाई सीमा रेखाओं को पार करने वाले अपने बेटे को भी उतना ही दोषी माना, जितना कि एक सामान्य नागरिक को मानता। यह हिरण्यकश्यपु के मत का समर्थन नहीं (किसी भी दृष्टि से मैं विष्णु-विरोधी के मत का समर्थन नहीं करता) वरन एक राजा को अपने वादे पर बिना किसी भेदभाव के कैसे अडिग रहना चाहिए, इसका प्रमाण है हिरण्यकश्यपु। उसने जाति, धर्म, परिवार या पुत्र के मोह में पड़कर अपने वादे को ढीला नहीं पड़ने दिया।

इसी संदर्भ में होलिका तथा रामायण के पात्र कुंभकरण का जिक्र करना चाहूंगा, जिन्होंने राष्ट्रधर्म के प्रति प्रजा के कत्र्तव्यपालन को जरूरी मानकर अपना जीवन दांव पर लगा दिया, वे सर्वांग रूप से घृणा और तिरस्कार के पात्र नहीं है। उन्होंने आने वाली पीढि़यों को सबल सीख दी है। वे ऐसे प्रतिमान गढ़ गए, जो सदियां बीतने के बाद भी जनता को सही और गलत का फासला समझाते रहेंगे। होलिका राजा हिरण्यकश्यपु की बहिन तथा उसके राज्य की प्रजा थी। अपने राजा की आज्ञा मानकर अपनी स्त्रीसुलभ कोमलता एवं भावनाओं का त्याग करके, बूआ एवं भतीजे के पवित्र रिश्ते को भुलाकर, उसने वही किया, जो राजा की आज्ञा थी। इसी तरह रावण के अनुज महाबली कुंभकरण को जब रावण ने लंबी नींद से जगाया और पूरा घटनाक्रम बताया तो कुंभकरण ने एक बार के लिए रावण को राम की शरण में जाकर लंका को बचाने का प्रस्ताव दिया लेकिन जैसे ही रावण ने कहा कि –

सुण कुंभा रावण कहै, अै विधना रा अंक।
पाय पड़्यां अब ना बचै, लाखां बातां लंक।।

रावण ने कहा कि हे कुंभकरण अब लाख यत्न करने पर भी लंका नहीं बच सकती, हमें अपने शौर्य की रक्षा करनी है। तू लंका का वीर यौद्धा है, तुझे लंकापति रावण की आज्ञा का पालन करके मातृभूमि की रक्षा करनी चाहिए और रामादळ से युद्ध करना चाहिए। कुंभकरण ने वैसा ही किया। भले ही हिरण्यकश्यपु हो, रावण हो, होलिका हो या कुंभकरण । भले ही उन्होंने गलत रास्ता चुना हो लेकिन जो रास्ता उन्होंने चुना अपने साथ वालों को भी उसी रास्ते पर चलने का कह रहे थे, अन्त तक उसी रास्ते पर वे खुद चले और अपने साथियों एवं प्रशंसकों के साथ मर मिटे लेकिन ऐसा नहीं किया कि प्रजा एवं प्रशंसकों को खड्डे में डालकर खुद दूसरे दल की गोद में जा बैठै हो।

विचार करें आज हालाते जिंदगी क्या है। होलिका रूपी कार्यकत्र्ता आज भी उसी रंग में है। अपने प्रिय नेता के कहे अनुसार अपने नजदीकी से नजदीकी को जलाने हेतु तत्पर है लेकिन क्या नेता होलिका के जलने के बाद भी हिरण्यकश्यपु की तरह अपने मत पर अडिग रहते हुए विष्णु से मुकाबला करने को तैयार है ? अधिकांशतः नहीं। होलिका स्वामिभक्ति में जल के खाक हो जाए भले ही, लेकिन दूसरे दिन हिरण्यकश्यपु विष्णु की चरणवंदना करते नजर आएंगे। इससे भी होलिका की मौत से अधिक कोई घाटा नहीं लेकिन सबसे बड़ा घाटा यह होगा के विष्णु के यहां हिरण्यकश्यपु और प्रहलाद दोनों में कोई फर्क नहीं रह जाएगा। ऐसे में प्रहलाद की भक्ति और नेकनियती का क्या मूल्य रह जाएगा। इसका दुष्परिणाम यह होगा कि विष्णु एवं हिरण्यकश्यपु को साथ देख-देख कर प्रहलाद की श्रद्धा, उसका विश्वास, उसका आत्मबल एवं उसकी संकल्पशक्ति धीेर-धीरे क्षीण होने लगेगी। दूसरी तरफ हिरण्यकश्यपु कभी विष्णु का नहीं हो सकता, वह मौका आते ही विष्णु को धत्ता कहेगा और इस बार कोई भक्त प्रहलाद उसके सामने आने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा अतः विष्णु रूपी नीतिनियंताओं को भक्त प्रहलाद एवं सुग्रीव जैसे प्रशंसकों एवं नीति-प्रेमियों को धोखे में नहीं रखना चाहिए। नेता से मेरा मतलब सिर्फ राजनीतिक नेतृत्व से ही नहीं है वरन राजनीति के साथ-साथ समाज, धर्म तथा अन्यान्य क्षेत्रों में अग्रगण्य सभी लोगों से है।

पिछले दिनों गांव के एक सज्जन को उदास देखकर जब मैंने उदासी का कारण पूछा तो उन्होंने अपना दर्द बयां करते हुए बताया कि नेताजी से मेरे बहुत पुराने तथा अच्छे संबंध है। मैंने उन्हें एक काम का कहा था, जो कि वाजिब है तथा नेताजी जब भी मिलते हैं तब मेरे कहने से पहले ही मुझे विश्वास दिलाते हैं कि दो-पांच दिन में आपका काम करवा देंगे लेकिन काम हो नहीं रहा है। यहां तक भी ठीक लेकिन जो उन्होंने आगे कहा वह अत्यन्त चिंतनीय है। उन्होंने कहा कि नेताजी के पास अनेक काम है अतः मेरा काम नहीं हुआ, इसका मुझे कोई गम नहीं है लेकिन कल नेताजी के कुछ नजदीकी लोगों ने मुझसे कहा कि “आपको काम करवाना ही नहीं आता। आप जैसे लोग कोई काम नहीं करवा सकते।” मुझे इसका बड़ा गम है। आखिर नेताजी से काम करवाने  के तरीकों का प्रशिक्षण कहां से लूं और क्यों लूं ? सज्जन एक ही सांस में इतना बोलकर मौन हो गए, आगे कुछ नहीं बोले। क्या ऐसे लोगों की पीड़ा पर समाज को चिंतन नहीं करना चाहिए ?

हे देश-समाज के कर्णधारो! याद रखो, जन-सामान्य के विश्वास को तोड़कर कभी स्थाई विजयश्री का वरण नहीं किया जा सकता। भलेही समय की नजाकत कुछ भी कहे, आपकी व्यस्ततम जिंदगी में फुर्सत मिले कि ना मिले लेकिन स्वार्थी खुशामदियों के चंगुल में फंस कर अपने आत्मीय प्रशंसकों को नजरअंदाज करने का जुर्म मत कीजिए। सबको एक तराजू पर तोलने की भूल विगत में भारी पड़ती रही है तो आगत भी उससे अछूता नहीं रह पाएगा। जो आज सब जगह आपके साथ ‘पोज’ लेने/लिवाने में आगे हैं, उन्हें आपका ‘पोत’ लेने के लिए आगे होने में भी कोई समय नहीं लगने वाला है और ना ही कोई संकोच। आज चाटुकारिता के बल पर आप ही के करकमलों से पुरस्कार ले रहे हैं, वे ही कल समय बदलते ही उसी पुरस्कार को लौटा कर आपके पथ का शूल बनेगे। जुगनुओं की क्षणिक चमक को देखकर सूरज की रोशनी को नजरअंदाज करना समझदारी नहीं हो सकती। सबरी की कुटिया में रावण का डेरा जब-जब लगेगा तब-तब प्रेम-नेम के बेर खाने वाले रघुनन्दन पर खतरा मंडराएगा और अभी जमाना इसी राह पर बढ़ रहा है। याद रखें! आंसू भी जब आंख रूपी द्वार से बाहर निकलता है तो दिल रूपी घर का सारा भेद दुनिया को बता देता है तो सोचिए आपके विश्वास रूपी घर से कोई बाहर निकलेगा तो वह आपके घर के सारे भेद दुनिया को क्यों नहीं कहेगा।

अति स्वार्थपरता के इस वीभत्स काल में जीवनमूल्यों पर गहरा संकट आया है। ‘प्राण जाए पर वचन न जाई’, ‘सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं’, जैसे जीवनमूल्य आज भयानक विषमताओं के जाल में फंसे नजर आ रहे हैं। दंदफंद का दौर ऐसा है कि होलिका भी विष्णु के दरबार में दखल बना ले तो कोई आश्चर्य नहीं। और यदि ऐसा हुआ तो इस बार स्वार्थ रूपी होलिका को लगी आग जीवनमूल्य रूपी प्रहलाद को धू-धू कर जलाने में सक्षम हो जाएगी और होलिका तथा हिरण्यकश्यपु ठहाके मार-मार कर हंसेंगे और दुनिया में हा-हाकार मच जाएगा। अतः आइए! इस होली के पर्व पर प्रण लें कि हम अपने सनातनी जीवनमूल्यों की रक्षा के लिए संकीर्ण स्वार्थों एवं अहम की दंभी भावना को त्यागने का साहस जुटाएं। राम-राम सा।

~~डाॅ. गजादान चारण ‘शक्तिसुत’

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