हुलसाया-मन-हंस

स्वर्णाभा बिखरी सुखद, अद्भुत नभ अभिराम।
लगता है वो आ रहा, फिर से मन के धाम।।१
नीला, अरुणिम, गेरूआ, श्याम श्वेत अरु लाल।
सूर्य क्षितिज के थाल से, रहता रंग उछाल।।२
प्रत्यूषा आई पहन, तुहिन-बिंदु-मणि माल।
जली शर्वरी देख यह, चली भृकुटि कर लाल।।३
सप्तपदी की ले शपथ, भरा मांग सिंदूर।
प्राची का लो कर रहा, रवि घूंघट पट दूर।।४[…]