चारण वंशोत्कीर्तनं – सत्येंद्र सिंह चारण झोरड़ा

।।गीत – त्रिकुटबंध।।
शुभ जात चारण सोवणी,
महदेव रे मन मोवणीं,
कंठा’ज शारद भुज भवानी, देवियां री दूत।
खग समर मांही खांचता।
भट ओज आखर बांचता।
कवि गीत डिंगल सृजन कर कर।
कहत दहुकत सबद खर खर।[…]

» Read more

चारण – डॉ. रेवंत दान बारहठ

सृष्टि रचयिता ने
स्वर्ग के लिए जब पहली
बार रचे थे पांच देव –
देवता,विद्याधर,यक्ष,चारण और गंधर्व
तभी इहलोक पर रचा था केवल
एक नश्वर मनुष्य
मगर मनुष्य ने खुद को बांट दिया था
क्षत्रिय,बामण,वैश्य और शूद्र में
कहते हैं कि राजा पृथु ने
स्वर्ग के देवताओं में से
चारण गण को आहूत किया था[…]
» Read more

लहू सींच के हमने अपना ये सम्मान कमाया है – मनोज चारण ‘कुमार’

आखे ‘मान’ सुणो अधपतियाँ, खत्रियाँ कोइ न कीजे खीज।
बिरदायक मद-बहवा बारण, चारण बड़ी अमोलक चीज।।

जोधपुर महाराजा मानसिंह का ये कथन चारण समाज के बारे में एक प्रमाणिक तथ्य प्रकट करता है कि, चारण शब्द ही सम्मान करने योग्य है। वैसे तो हर जाति का अपना इतिहास है, लगभग सभी जातियों के लोग अपने-अपने इतिहास पर गर्व करते हैं और करना भी चाहिए। चारण जाति का इतिहास बहुत पुराना इतिहास है। चार वर्ण से इतर है ये जाति, जिसे कमोबेस ब्रह्मा की सृष्टि से बाहर भी माना जा सकता है।[…]

» Read more

मारवाड़ के चारण कवियों की मुखरता

राजस्थानी भाषा के साहित्य का हम अध्ययन करते हैं तो हमारे सामने लोक-साहित्य, संत-साहित्य, जैन-साहित्य एवं चारण-साहित्य का नाम उभरकर आता है। इस चतुष्टय का नाम ही राजस्थानी साहित्य है। इस साहित्य के सृजन, अभिवर्धन एवं संरक्षण में चारणों का अद्वितीय अवदान रहा है। इस बात की स्वीकारोक्ति कमोबेश उन सभी विद्वानों ने की हैं जिन्होंने राजस्थानी साहित्य के अध्ययन-अध्यापन पर काम किया या कर रहे हैं।[…]

» Read more

गीत वेलियो चावा चारण कवियां रो

आज पुराणा कागज जोवतां अचाणचक एक बोदो ऐड़ो कागज लाधो जिणमें म्हैं एक वेलियो गीत वर्तमान चावै डिंगल़ कवियां माथै दिनांक 23/5/92 जेठ बदि 6, 2049 नै लिख्यो अर आदरणीय डॉ.शक्तिदानजी कविया नै मेल्यो। हालांकि म्हैं इणगत तारीख लिख्या नीं करूं पण आ लिखीजगी जणै याद ई रैयगी।

सांभल बात कायबां भल सांभल़,
पाल़ण डींगल़ पेख्या प्रीत।
ज्यांरो आज बुद्धिसम जोवो,
गढव्यां तणो बणावूं गीत।।1[…]

» Read more

चारणां कियौ नित अहरनिस चांनणौ – महेंद्रसिंह सिसोदिया ‘छायण’

।।दूहौ।।
सीर सनातन सांपरत, राखण रजवट रीत।
अमर सदा इळ ऊपरां, पातां हंदी प्रीत।।

।।गीत – प्रहास साणौर।।
पलटियौ समै पण छत्रियां मती पलटजौ,
राखजौ ऊजल़ी सदा रीती।
संबंधां तणी आ देवजौ सीख कै,
पुरांणी हुवै नह जुड़ी प्रीती।।[…]

» Read more

रंग मा पेमां रंग!!

बीकानेर रो दासोड़ी गांम जीवाणंदजी/ जीवराजजी/ जीयोजी रतनू नै बीकानेर राव कल्याणमलजी दियो। बात चालै कै जद आधै बीकानेर माथै जोधपुर रा राव मालदेवजी आपरी क्रूरता रै पाण कब्जो कर लियो। गढ में उणां आपरा खास मर्जीदान कूंपा मेहराजोत नै बैठा दिया जद कल्याणमलजी अठीनै-उठीनै इणां नै काढण खातर फिरै हा। जोग सूं आपरै कीं खास आदम्यां साथै बाप रै पासैकर निकल़ै हा जद बधाऊड़ा गांम में इणांनै जीवराजजी आसकरणोत गोठ करी। जीवराजजी रो व्यक्तित्व, वाकपटुता, मेहमाननवाजी आद सूं प्रभावित हुय’र कल्याणमलजी कह्यो कै- “बाजीसा आप तो बीकानेर म्हारै गुढै ई बसो! म्हैं आपनै उठै ई गांम देऊंला। आप आवजो।”[…]

» Read more

चारणों की उत्पत्ति – ठा. कृष्ण सिंह बारहट

चारणों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में ठा. कृष्ण सिंह बारहट ने अपने खोज ग्रन्थ “चारण कुल प्रकाश” में विस्तार से प्रामाणिक सामग्री के साथ लिखा है। उसी से उद्धृत कुछ प्रमाणों को यहाँ बताया जा रहा है। ये तथ्य हमारे प्राचीनतम ग्रंथों श्रीमद्भागवत्, वाल्मीकि-रामायण तथा महाभारत से लिए गए हैं।

चारणों की उत्पत्ति सृष्टि-श्रजन काल से है और उनकी उत्पत्ति देवताओं में हुई है, जिसका प्रमाण श्रीमद्भागवत् का दिया जाता है कि नारद मुनि को ब्रह्मा सृष्टि क्रम बताते हैं, वहां के द्वितीय-स्कंध के छटे अध्याय के बारह से तेरह तक के दो श्लोक नीचे लिखते हैं :-

अहं भवान् भवश्चैव त मुनयोऽग्रजाः।।
सुरासुरनरा नागाः खगा मृगसरीसृपाः।।१२।।
गंधर्वाप्सरसो यक्षा रक्षोभूतगणोरगाः।।
पशवः पितरः सिद्धा विद्याधरश्च चारण द्रुमाः।।१३।।

» Read more

चारणों के पर्याय-नाम एवं १२० शाखाएं/गोत्र – स्व. ठा. कृष्णसिंह बारहट

प्रसिद्ध क्रांतिकारी एवं समाज सुधारक ठा. केसरी सिंह बारहट के पिताश्री ठा. कृष्णसिंह बारहट (शाहपुरा) रचित ग्रन्थ “चारण कुल प्रकाश” से उद्धृत महत्वपूर्ण जानकारी–
१. चारणों के पर्याय-नाम और उनका अर्थ
२. चारणों की १२० शाखाओं/गोत्रों का वर्णन[…]

» Read more

हमारे गौरवशाली साहित्य से युवा पीढ़ी परिचित हो

यदाकदा खर दिमागी लोगों को चारण साहित्य या यों कहिए कि चारण जाति की आलोचना करते हुए सुनतें या पढ़तें हैं तो मन उद्वेलित या व्यथित नहीं होता क्योंकि यह उनका ज्ञान नहीं अपितु उनकी कुंठाग्रस्त मानसिकता का प्रकटीकरण है। अगर कोई आदमी अवसादग्रस्त है या कुंठाग्रस्त है तो स्वाभाविक है कि उसकी अभिव्यक्ति गरिमामय नहीं होगी। यानि खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे या यों कहिए कि कुम्हार, कुम्हारी को नहीं पहुंच सके तो गधे के कान ऐंठता है।[…]

» Read more
1 2 3