इसी जमर अग्नि से तूं जलेगा

(लाछांबाई खिड़ियांणी जानामेड़ी की जमर कथा) मयूर कितना सुंदर पक्षी होता है। शायद उसे अपनी इसी सुंदरता पर गर्व भी है लेकिन जब वो अपने फटे व धूसर पैरों को देखता है तो उसे अपनी सुंदरता विद्रूप लगने लगती है, और उसे रोना आ जाता है। तभी तो यह कहावत चली है कि ‘मोरियो घणो ई रूपाल़ो हुवै पण पगां कांनी देखै जणै रोवै।’ यही बात कमोबेश चारण इतिहास संबंधी शोध करते या लिखतें समय होती है। जिन लोगों ने दूसरों पर बहुत विस्तार से लिखा लेकिन स्वयं की बातें केवल श्रुति परंपरा में संजोकर रखी। श्रुति परंपरा में एक […]

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श्री मोरवड़ा जुन्झार जी – कवि रामदान जी

।।श्री जुन्झार जी।।

सिरोही राजा सोखियो, दुश्मण लीधो देख।
जद्ध किधो महियों जबर तन मन दही न टेक।।

अहि भ्रख भूपत आदरयो, कीध भयंकर कोम।
केशर नृप उन्धी करी, सिरोही रे सोम।।[…]

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तीनूं ताल़ा दे गया

गाय वैसे तो पूरे भारत के लिए श्रद्धा का कारण रही है लेकिन राजस्थान के संदर्भ में बात करें तो हमें विदित होता है कि मध्यकाल में यहां गौ रक्षार्थ युद्ध तो लड़े ही गए साथ ही चारण देवियों ने अपनी अथवा अपने समग्र गांव के गौधन की रक्षार्थ जमर की ज्वाला में अपने आपको समर्पित कर इतिहास में नाम अमर कर दिया। ऐसी ही कहानी है हड़वेचा गांव की सुअब माऊ की।

आजसे लगभग 250वर्ष पूर्व की बात है। हड़वा व हड़वेचा गांव की सीमा पर जहां अभी सुरलाई नाडी स्थित है, वहां पर सुअब माऊ ने जमर कर अन्याय व अत्याचार का प्रतिकार करते हुए एक उज्ज्वल इतिहास रचा था।[…]

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फिर मैं जीवित रहकर क्या करूंगी?

19वीं सदी का उत्तरार्द्ध व 20वीं सदी का पूर्वार्द्ध का समय संक्रमणकाल था। इस दौर में राजाओं की सत्ता पर पकड़ शिथिल पड़ गई थी। क्योंकि उस समय के शासकों का ध्यान या तो आमोद-प्रमोद में लगा रहा या घातों-प्रतिघातों से बचाव में संलग्न रहा। जिससे मातहत लोगों ने दूरदराज के क्षेत्रों में अपनी मनमर्जी से क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर अपने अधिकारों का दुरपयोग किया।

छोटे-छोटे अधिकारियों ने सामान्य जनता पर इस कद्र कहर ढ़ाया जिसके विरोध स्वरूप शिव (मारवाड़) के हाकिम के खिलाफ जनहितार्थ व अपने स्वाभिमान की रक्षार्थ तीन चार चारणों देवियों ने जमर कर अपना विरोध दर्ज करवाया।
उन देवियों की लोकहितैष्णा को जनसाधारण ने असाधारण रूप से अपने कंठों में संजोये रखा। ऐसी ही एक कहानी है हड़वेचा गांव की करमां माऊ के जमर की।[…]

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मैं हड़वेची बैठी हूं ना!

[…]जब यह बात जोमां की मा ने सुनी तो उन्होंने कहा कि-
“मैं हड़वेचा आई हुई हूं, जाई नहीं। जमर मैं नहीं करूंगी जमर मेरी बेटी जोमां करेगी। वो भी तो तो इसी उदर में लिटी है। ”

जब यह बात जोमां ने सुनी तो उन्होंने कहा कि-
“मिट्टी लेने के लिए हड़वेचा जाने की क्या आवश्यकता है? मैं खुद साक्षात हड़वेची यहां बैठी हूं तो फिर वहां जाने की क्या आवश्यकता है? वैसे भी हड़वेची मैं हूं मेरी मा नहीं! अतः जमर मेरी मा क्यों करेगी ? जमर तो मैं करूंगी।[…]

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मेरे वचनों की आबरू

पश्चिमी राजस्थान में गौधन की रक्षार्थ जितने प्राण इस धरा के सपूतों ने दिए हैं, उतने उदाहरण शायद अन्यत्र सुनने या पढ़ने में नहीं आए। बांठै-बांठै के पास अड़ीखंभ खड़ी पाषाण मूर्तियों के निर्जीव उणियारों पर स्वाभिमान व जनहितैष्णा-पूर्ति की आभा आज भी आलोकित होती हुई दिखाई देती है।
इस इलाके की अगर हम सांस्कृतिक यात्रा करें तो हमें ऐसे-ऐसे नर-नारियों के निर्मल चरित्र को सुनने का सौभाग्य प्राप्त होता है जिनका नामोल्लेख किताबों में नहीं मिलता।
ऐसी ही एक अल्पज्ञात कहानी है ऊजल़ां की हरखां माऊ की।[…]

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यह तो बहन-बेटियां भी उठा सकता है

भोम परखो हे नरां, कहां परक्खो विंद?
भुइ बिन भला न नीपजै, कण तृण तुरी नरिंद।।

किसी राजस्थानी कवि ने कितनी सहज और सटीक बात कही है कि अपनी पुत्री को ब्याहने से पहले वर को परखने की आवश्यकता नहीं है बल्कि उसकी जन्मभूमि को परखने की आवश्यकता है। क्योंकि सब कुछ भूमि की भूमिका ही होती है। उसकी उर्वरा शक्ति बता देती है कि वहां कण (अन्न) तृण (घास) तुरी (घोड़ी) और नरिंद (राजा) कैसे हैं?

इस दोहे के परिपेक्ष्य में हम राजस्थान के गांवों का परीक्षण करें तो बात सोले आने सत्य प्रतीत होती। वहां की माटी में ऐसा तपोबल होता है कि सत्य, साहस, स्वाभिमान व शौर्य की जन्मघुट्टी वहां के पानी में स्वतः समाहित रहती है।[…]

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मेरा यही पश्चाताप है

…क्या कारण है कि लोक में यह मनस्विनियां देवियों के रूप में समादृत होकर सर्वसमाज में स्वीकार्य है?

इसका सीधासाधा कारण यही है कि इन मनस्विनियों ने अपना जीवन लोकहिताय समर्पित किया। जो अपना जीवन लोकहिताय जीते हैं और लोकहितार्थ ही समर्पित करते हैं। लोक उन्हीं को अपना नायक मानकर उनकी स्मृतियां अपने मानसपटल पर सदैव के लिए अंकित रखता है।

ऐसी ही एक घटना है मा सभाई की।[…]

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यह गरल है जो पच नहीं सकता!

…जब हम हमारे मध्यकालीन इतिहास के धुंधले पृष्ठों को पलटते हैं तो उन पर ऐसी-ऐसी आभामंडित कहानियां अंकित है जिन्हें पढ़कर हमारे मनोमस्तिष्क में उन हुतात्माओं के त्याग, महानता तथा क्षमाशीलता के सुभग भावों की अमिट छाप स्वतः ही छप जाती है। क्षमा वीरस्य भूषणम् की उक्ति इनके चारू चरित्र की सहगामिनी परिलक्षित होती है।

ऐसी ही एक घटना से आपको परिचित करवा रहा हूं।

कच्छ धरा में एक गांव है मोरझर। मोरझर पुराना सांसण। यहां सुरताणिया चारण रहते हैं।[…]

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गायें हारमोर नहीं करने दूंगी

जिनके घर सदाचार, शिष्टाचार, मानवता, उदारता और परोपकार के भावों की सरिता सतत प्रवहमान रहती है, उसी घर में देवी अवतरण होता भी है तो कुलवधु के रूप में भी उस घर को पवित्र करने हेतु देवी आती हैं-

देवियां व्है जाके द्वार दुहिता कलत्र हैं।

आलाजी बारठ जिन्हें मंडोवर राव चूंडाजी ने भांडू व सिंयाधा नामक गांव इनायत किए थे के घर एक ही समय में दो महादेवियों का जन्म हुआ है। उनके पुत्र गोरजी के घर सूरमदे का जन्म वि.सं. 1451 में हुआ-[…]

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