चंडी चालीसा

।।दोहा।।
दुर्गे! दुर्गतिनाशिनी, वासिनी गिरिकैलास!
मंदहास! मृदुभाषिणी!, माॅं! काटौ यमपाश!
।।चौपाई।।
जयति! जयति! जगदंब भवानी!
शिवा! सांभवी! भवा! मृडानी!! १[…]
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।।दोहा।।
दुर्गे! दुर्गतिनाशिनी, वासिनी गिरिकैलास!
मंदहास! मृदुभाषिणी!, माॅं! काटौ यमपाश!
।।चौपाई।।
जयति! जयति! जगदंब भवानी!
शिवा! सांभवी! भवा! मृडानी!! १[…]
आरतजन अवलंबन अंबा! भुजलंबा! भयहारी! मां!
जय जगदंबा! कृपा कदंबा! सदासुमंगलकारी! मां! १
करूं आरती थांरी मां! (२)
आर्त दु:खी जनों की अवलंबन (सहारा) हे अंबा! भुजलंबा! भय को हरने वाली मां! आप ही कृपा का कदंब वृक्ष हो! आप सदैव सुमंगल करने वाली हो! हे मां मै आपकी आरती करता हूंँ!१![…]
।।छंद – त्रिभंगी।।
सूंधै सुरराई ओपत आई, गिर गूंजाई गणणाई।
कीरत कंदराई धर पसराई, संत किताई सरणाई।
करवै कविताई उर उमँगाई, संकट माई काप सबै।
जय जय चामुंडा वैरि विखंडा, फरकत झंडा आभ फबै।।1[…]
।।कवित्त।।
दुष्टन संहार कर संतन रुखार कर,
साद आद समै हूं से कष्ट सब टाल़िका।
भक्तन के भाव भाल़ जग के जंजाल जाल़,
प्रसन्न प्रसून आ पहन कंठ माल़िका।
यश को विस्तार देय कुयश को गार देय,
यशोश्वरी मेरी मात भाव दास भाल़िका।
चंडिका तुम्हारी आभ झंडी ओ सिंदूरी वर्ण,
कीरती अक्षुण्ण रहे शूल़पांणि काल़िका।।[…]
!!छंद – नाराच!!
अजं सवार, मां उदार, नेह की निहारणी!
कुठार खप्र खाग धार सर्व काज सारणी!
“रही पधार मावडी, चलो पुकारिये छडी”
भजामि कष्ट भंजनी, नमामि मात मेलडी!! १[…]
।।छंद-रैंणकी।।
मामड़ घर मात अवतरी महियल़,
सात रूप इक साथ सही।
चारण कुल़ विमल़ कियो इल चहुंवल़,
रूप दुहीता धार रही।
ओपै इणभांत सदन तव आयल,
तेज दोयदश भांण तपै।
साची सुरराय स्हाय नित सेवग, देगराय महमाय दिपै।।1[…]
…कोडा गांव की धरती के रजमे का ही कारण है कि यहां आई और जाई दोनों में देवीय गुणों के समुज्ज्वल दर्शन होते हैं। इन्होंने अन्याय, अत्याचार, शोषण, और साधारणजन के हितार्थ जमर की ज्वालाओं में अपने प्राण समर्पित करते समय किसी भी प्रकार की हिचकिचाहट महसूस नहीं करके पश्चिम राजस्थान में ‘आ कोडेची है’ के गौरवपूर्ण विरुध्द से अभिमंडित हुई। इसी श्रृंखला में एक नाम आता है कलू (कल्याण) माऊ का।
कलू माऊ का जन्म वि. की अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कोडा गांव के रतनू गजदानजी के घर हुआ था-
प्रसिद्ध डिंगल कवि कैलाशदानजी झीबा अपनी रचना ‘कलू मा रा छंद’ में उल्लेख करते हैं-
धन ऊजल़ कोडा धरा, दूथी धन गजदान।
धन्न धन्न कलु धीवड़ी, उण घर जनमी आय।[…]
हमारी संस्कृति के मूलाधार गुणों में से एक गुण है शरणागत की रक्षा अपने प्राण देकर भी करना। ऐसे उदाहरणो की आभा से हमारा इतिहास व साहित्य आलोकित रहा है, जिसका उजास सदैव सद्कर्मों हेतु हमारा पथ प्रशस्त करता है।
जब हम अन्य महापुरूषों के साथ-साथ चारण मनस्विनियों के चरित्र का पठन या श्रवण करते हैं तो ऐसे उदाहरण हमारे समक्ष उभरकर आते हैं कि हमारा सिर बिना किसी ऊहापोह के उनके चरणकमलों में नतमस्तक हो जाता है।
ऐसी ही एक कहानी है गुजरात के कच्छ प्रदेश की त्याग व दया की प्रतिमूर्ति मा पुनसरी (पुनश्री) की।[…]
» Read more…जब हम चारण देवियों का इतिहास पढ़ते हैं अथवा सुनते हैं तो हमारे समक्ष ऐसी कई देवियों के चारू चरित्र की चंद्रिका चमकती हुई दृष्टिगोचर होती है जिन्होंने साधारणजनों तथा खुद की संतति में कोई भेदभाव नहीं किया।
जिस छुआछूत को आजादी के इतने वर्षों बाद भी अथक प्रयासों के बावजूद हमारी सरकारें पूर्णरूपेण उन्मूलन नहीं कर सकी उसे हमारी देवियों ने पंद्रहवीं सदी व अठारहवीं सदी में ही अपने घर से सर्वथा उठा दिया था।
ऐसी ही एक देवी हुई है जानबाई। जिन्होंने छूआछूत को मनुष्य मात्र के लिए अभिशाप माना तथा उन्होंने इस अभिशिप्त अध्याय का पटाक्षेप अपने गांव डेरड़ी से किया।…
» Read more।।गीत – साणोर।।
उरड़ उण तार बिच बार करती ईदग।
बीसहथ लारली कार बगती।।
आंकड़े अखूं आधार इक आपरो।
सांकड़े सहायक धार सगती।।[…]