ऐतिहासिक तेमड़ाराय मंदिर देशनोक का करंड, रतनू आसराव नै दिया था अपनी बेटी को दहेज

जैसलमेर के महापराक्रमी वीर दुरजनशाल उर्फ दूदाजी जसौड़ को गद्दीनशीन करने में सिरुवा के रतनू आसरावजी का अविस्मरणीय योगदान रहा। दूदाजी भी कृतज्ञ नरेश थे, उन्होंने आसरावजी व उनकी संतति को हृदय से सम्मान दिया।

कहतें कि एक बार दूदाजी अपनी ससुराल खींवसर गए हुए थे। खींवसर उन दिनों मांगलियों के क्षेत्राधिकार में था। वहां उनकी सालियों व सलहजों ने उनके साहस की परीक्षा लेने हेतु अपनी किसी सहेली के चोटी में गूंथने की आटी का सर्प बनाकर उनके शयनकक्ष के मार्ग में रख दिया। जब वे सोने जाने लगें तो उनके मार्ग में सर्पाकार वस्तु निगाह आई। उन्होंने बड़ी निडरता से फन को निशाना बनाकर अपना पैर रखा और कहा कि “म्हैं जाणतै मेलियो “ परंतु आगे सर्प नहीं था। खैर..

वे अपने राज्य में आए और अपने कवियों से कहा कि मेरी उक्त समस्या की पाद पूर्ति करें। वहां उपस्थित किसी कवि से यह पाद पूर्ति नहीं हो सकी आखिर यह बात साठीका (जांगलू व वर्तमान बीकानेर) के दिग्गज डिंगल कवि बोहड़जी वीठू को पता चली तो वे वहां गए। रास्ते में सिरुवा आसरावजी के यहां विश्राम किया। बड़े अफीमची थे तो साथ ही प्रोढ़ता के उत्तरार्द्ध की ओर अग्रसर व कुरूप भी।

उतारे (मेहमान के ठहरने की जगह) में ऊंग रहे थे कि इन पर आसरावजी की पत्नी की दृष्टि गई और वो अचानक बोल पड़ी कि “अर’र ई डाकी नै किणी भाग फूटोड़ी ई दही दियो होसी!” यह बात उन्होंने सुनी और तीर की तरह उन्हें चुभ गई।

वे जैसलमेर पहुंचें और पाद पूर्ति की-

म्हैं जाणतै मेलियो, पनंग तणै सिर पांव।
अणखूटी खूटै नहीं, खूटी बधै न आव।।

रावलजी अत्यंत प्रसन्न हुए और कहा कि
“बोहड़जी मांगो सो हाजर!”

बोहड़जी ने कहा “हुकम! वचन।”

“यह वचन” रावलजी ने कहा तो बोहड़जी ने कहा कि-
“हुकम! आसरावजी री बाई रो हाथ!!”

इतना सुनतें ही दरबार में सन्नाटा पसर गया। नीरवता छा गई। दरबार कुछ बोल ही नहीं पाए। बोलतें भी कैसे?
कहां चौदह-पंद्रह साल की कन्या और कहा साठ-सत्तर साल के बोहड़जी!!

ऊहापोह की स्थिति देखकर आसरावजी ने कहा कि – “बाई मेरी जैसी आपकी। आप वचनभंग नहीं कहला सकतें। आप बाई का पाणिग्रहण बोहड़जी के साथ करदें। कोई संकोच न करें।”

रावलजी ने अपने वचनों की रक्षार्थ अन्यमनस्कता के साथ आसरावजी की पुत्री बसतु की शादी बोहड़जी के साथ कर दी।

जब बारात सिरुवे से रवाना होने लगीं तो आसरावजी की पत्नी ने अपनी कुल़देवी तेमड़ाराय से करूण पुकार की और कहा कि – “हे मा! म्हारी बसतु रै साथै तूं जाई!!”

कहतें कि देवीय संयोग से उनके पूजागृह में रखा करंड बसतु की गाड़ी में आकाश मार्ग से आकर ठहर गया।

बोहड़जी ने भी उसी दिन से तेमड़ाराय को अपनी कुल़देवी के रूप में स्वीकार किया। वे इस करंड के प्रति अगाध आस्था रखतें थे।

जब करनजी साठीका वासियों की कतिपय त्रुटिपूर्ण बातों से नाराज होकर जोड़ वर्तमान देशनोक में अपना गोल़ ले जाने के लिए रवाना हुए तब वे साठीका के अपने इन्हीं कुटुंबियों से यह करंड अपने साथ ले गए।

इसी करंड को उठाने की कुचेष्टा करने पर आतताई काना राठौड़ करनीजी के कोप से काल कवलित हुआ था।

यह करंड आज भी तेमड़ाराय मंदिर देशनोक में रखा हुआ है और लाखों लोगों का आस्था बिंदु है।

~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”

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