ठाकुर कृष्ण सिंह बारहट
ठाकुर कृष्ण सिंह बारहट का जन्म सन 1849 में शाहपुरा में हुआ था। राजस्थान में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति की अलख जगाने वाले तथा अपनी तीन पीढ़ियों को क्रांतियज्ञ में आहूत करने वाले स्वनाम धन्य ठाकुर केसरी सिंह बारहट व जोरावर सिंह बारहट इनके सुपुत्र थे।
ठाकुर कृष्णसिंह बारहट विरचित पुस्तक “चारण-कुल-प्रकाश” का संपादन इनकी प्रपोत्री श्रीमती राजलक्ष्मी देवी “साधना” जी ने किया है जिसमे अपने सम्पादकीय में उन्होंने अपने प्रपितामह के बारे में निम्न वर्णन किया है जो उन्ही के शब्दों में प्रस्तुत है।
“मेरे प्रपितामह श्री कृष्णसिंहजी बारहठ, अर्ध-स्वतंत्र राज्य शाहपुरा के प्रतोली-पात्र (पोळपात), उच्च-कोटि के इतिहासकार, कवि एवं मनीषी थे। वे हिन्दी, संस्कृत, डिंगल, पिंगल के अच्छे कवि और धुरंधर विद्वान् एवं अंग्रेजी भाषा के जानकार थे। वे समाज-सेवी थे। उनका स्वाध्याय विराट था। बारहठ कृष्ण सिंह जी ने (1) महाकवि सूर्यमल जी के महान् ग्रंथ ‘वंशभास्कर’ की उदधि-मंथिनी टीका, पृष्ठ सं. 5000 (2) बारहठ कृष्णसिंह का जीवन चरित्र और राजपूताना का अपूर्व इतिहास (तीन खण्ड), पृष्ठ सं. 1000 (3) डिंगल भाषा का प्रथम शब्द-कोष, जिसमें उन्होंने अस्सी हजार शब्द एकत्रित किये थे और उसकी विशद भूमिका भी लिखी थी (4) “चारण कुल प्रकाश”, एवं (5) मेवाड़ गजेटियर आदि कई ग्रंथ लिखे थे। मेरे प्रपितामह केवल इतिहासकार, श्रेष्ठ-कवि एवं विद्वान ही नहीं थे, अपितु तत्कालीन राजपूताना के शीर्ष राजनीतिज्ञों में से थे, जिनसे उदयपुर महाराणा साहिब के अतिरिक्त जोधपुर एवं कोटा जैसे बड़े राज्यों के नरेश भी सलाह-मशवरा किया करते थे। वे बहुश्रुत थे। उनकी प्रज्ञा जागृत हो चुकी थी, उनकी मेधा बहु-आयामी थी। कृष्णसिंहजी ने राजस्थानी (डिंगल) के सर्व-प्रथम “शब्द-कोश” का संकलन किया था और उन्होंने अस्सी हजार शब्द एकत्रित किए थे, जो “राजस्थान-रिसर्च-सोसाइटी”, कलकत्ता में संग्रहीत हैं। बीकानेर के प्रसिद्ध विद्वान श्री अगरचन्दजी नाहटा ने, जब उक्त सोसाइटी से यह “शब्द-कोश” मांगा तो उन्हें केवल तीस हजार शब्द ही प्राप्त हो सके, जिन्हें “शार्दूल रिसर्च सोसाइटी”, बीकानेर में जमा करा दिए गए। इस कोश का नाम था “कृष्ण नाम-माला डिंगल-कोश”। सौभाग्य-वश, इसकी भूमिका भी “चारण साहित्य शोध संस्थान”, अजमेर में विद्यमान है। इसकी भूमिका इतनी विशद् है कि टीकाकार कृष्णसिंहजी की असाधारण विद्वत्ता को भलीभांति प्रदर्शित करती है। स्वनाम-धन्य कृष्णसिंहजी ने जोधपुर-निवास के दौरान चारण जाति का इतिहास भी लिखा था। इसके पूर्व, किसी अन्य विद्वान् द्वारा इतना विस्तार-पूर्वक चारण जाति का इतिहास नहीं लिखा गया था।
कृष्णसिंहजी ने महाकवि सूर्यमल्ल विरचित “वंश-भास्कर” की “उदधि-मंथिनी टीका” की भूमिका में लिखा है कि महाभारत के रचनाकार महर्षि वेदव्यास के पश्चात् पिछले पांच हजार वर्षों में भारतवर्ष में, सूर्यमल्ल जैसा विद्वान् नहीं हुआ! सूर्यमल्ल, संस्कृत, प्राकृत, पैशाची आदि छह भाषाओं के असाधारण-कोटि के विद्वान् थे। ऐसे ग्रंथ की टीका करने का महत्-कार्य कोई विलक्षण विद्वान ही कर सकता था और यह मेरे प्रपितामह का वैदुष्य था, जो ऐसे महत्-कार्य को सफलता-पूर्वक सम्पन्न कर सके!
श्री कृष्णसिंहजी बारहठ शाहपुरा राजाधिराज नाहरसिंहजी की तरफ से उदयपुर महाराणा सज्जनसिंहजी के दरबार में वकील थे। महाराणा साहिब, कृष्णसिंहजी की योग्यता से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने कृष्णसिंहजी को शाहपुरा राजाधिराज की तरफ से वकील होने के साथ-साथ अपना सलाहकार भी नियुक्त कर दिया। ऐसा दोहरा कर्त्तव्य-निर्वहन, कोई असाधारण बुद्धि-सम्पन्न विद्वान् पुरुष ही कर सकता है। वायसराय लार्ड रिप्पन, जब महाराणा सज्जनसिंहजी को के.सी.एस.आई. की उपाधि देने चितौड़ आया, तब कृष्णसिंहजी के पांव के नारू निकला हुआ था, जिससे वे चलने-फिरने में असमर्थ थे इसलिए महाराणा साहिब स्वयं कृष्णसिंहजी का हाथ खींच कर, उन्हें अपने पास बग्गी में बैठा कर चित्तौड़ ले गये। यह महाराणा साहिब का कृष्ण सिंह जी के प्रति सम्मान का एक उदाहरण है।
कृष्णसिंहजी बचपन से ही फलित्-ज्योतिष, तीर्थ-स्थानों में स्नान आदि से पुण्यार्जन प्राप्त करना, माता-पिता की मृत्यु के बाद भोज देना और दान-दक्षिणा से स्वर्ग-प्राप्त करना आदि प्रचलित सिद्धान्तों को मानने के एकदम विरूद्ध थे। उनकी मान्यता केवल एक निराकार पूर्ण-ब्रह्म में थी। उन्होंने अन्यत्र लिखा है- “भैरव भवानी आदि, और भ्रम-जाल ऐसे। काचे को न मानों, मानों एक सांचे को।। ” उसी समय, सन् 1883 में नव-युग के पुरोधा, महर्षि दयानन्द सरस्वती का सर्व-प्रथम आगमन चितौड़ में हुआ। राजपूताना में महर्षि का यह प्रथम पद-चाप था! महर्षि से मिलते ही कृष्णसिंहजी की मानो सभी शंकाओं का समाधान हो गया और उन्होंने महर्षि के सभी सिद्धान्त आत्मसात् कर लिए। एक बार महर्षि और एक मौलवी के मध्य वैदिक-धर्म और इस्लाम-धर्म की श्रेष्ठता पर बहस हुई तो महाराणा साहिब ने कृष्णसिंहजी को एक मध्यस्थ नियुक्त किया एवं दूसरे मध्यस्थ थे, लावा-सरदारगढ़ के विद्वान् ठाकुर मनोहरसिंह। मौलवी की क्या बिसात थी कि वह महर्षि जैसे बुद्धि-मार्तंड के सामने ठहर सकता। कृष्णसिंहजी ने महर्षि को महाराणा साहिब की तरफ से उदयपुर पधारने का निवेदन किया तो महर्षि, उदयपुर पधारे, उन्हें “नौ-लखा-बाग” में ठहराया गया, जहां पर महाराणा साहिब प्रति-दिन नियमित रूप से महर्षि से मनुस्मृति, न्याय, वैशेषिक, दर्शन, मीमांसा आदि दर्शन-शास्त्र पढ़ने जाते थे। उनके साथ कृष्णसिंहजी भी जाते और महर्षि के चरणों मे बैठ कर ज्ञानार्जन करते। महर्षि नौ माह तक उदयपुर बिराजे। यहीं पर महर्षि ने “सत्यार्थ-प्रकाश” की द्वितीयावृत्ति तैयार की और चारों वेदों की टीकाएं लिखीं, जिन्हें मनीषी समर्थदानजी ने वैदिक यंत्रालय, अजमेर से प्रकाशित किया।
कृष्णसिंहजी के सम्बन्ध में इतिहासकारों ने लिखा है कि वे महर्षि दयानन्द सरस्वती के तीन प्रमुख शिष्यों में से एक थे। प्रथम, अमर-शहीद स्वामी श्रद्धानन्द, द्वितीय, महान क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा, मांडवी (गुजरात) जिन्हें महर्षि ने बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए आक्सफोर्ड भिजवाया था। और तृतीय कृष्णसिंहजी, जिनके साथ उनकी गाढ़ी मैत्री थी। श्यामजी कृष्ण वर्मा तत्कालीन भारतवर्ष के सबसे बड़े बैरिस्टर थे, जिनकी सीधी पहुंच, वाइसराय, फारेन् एवं पोलिटिकल सेक्रेट्री, ए.जी.जी., राजपूताना, माउंट आबू के यहां थी। कृष्णसिंहजी के प्रयासों से ही श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा को उदयपुर में “महदराज-सभा” का सदस्य बनाया गया था और उदयपुर में रेल्वे-लाइन लाने का श्रेय भी श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा को ही जाता है।
कृष्णसिंह जी के स्वतंत्र विचारों तथा प्रभाव को देख कर ब्रिटिश सरकार में उदयपुर का पोलिटिकल एजेन्ट कर्नल माइल्स कृष्णसिंहजी के विरूद्ध हो गया। कृष्णसिंहजी के खिलाफ कर्नल माइल्स ने शिकायतें, ए.जी.जी. कर्नल ट्रेवर, माउण्ट आबू से कीं। सन् 1893 में कर्नल ट्रेवर का एक गुप्त खरीता उदयपुर के पोलिटिकल एजेन्ट के नाम आया, जिसमें उसने लिखा था कि कृष्णसिंह चारण के ख़यालात अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हैं इसलिए ऐसे शख़्स का महाराणा की सेवा में रखा जाना वाज़िब नहीं। उसे फौरन महाराणा की सेवा से निकाल दिया जाए। पोलिटिकल एजेन्ट कर्नल माइल्स ने देवली कैन्टोन्मेंट-स्थित, शाहपुरा के पोलिटिकल एजेन्ट कर्नल थोरन्टन को लिखा कि कृष्णसिंह चारण, उदयपुर में महाराणा को बहकाता है और वहां शाहपुरा में राजाधिराज को बहकाता होगा इसलिए उसे शाहपुरा से भी निकाल दिया जाए। इस प्रकार कृष्णसिंह को उनकी कर्म-भूमि उदयपुर और जन्म-भूमि शाहपुरा, दोनों स्थानों से निकाल दिया गया। यह स्पष्ट-रूप से देश-निकाला ही था। कृष्णसिंहजी की अन्तरात्मा को इस बात का पूर्वाभास हो गया था कि उन पर एक दिन बहुत बड़ी आफत आने-वाली है इसलिए उन्होंने जोधपुर के दीवान महाराज कर्नल सर प्रतापसिंहजी से, जो रियासत के सर्वे-सर्वा थे, पूछा कि यदि उन्हें महाराणा उदयपुर की सेवा से निकाला जाए तो क्या वे उन्हें जोधपुर में शरण दे देंगे? इस पर कर्नल सर प्रतापसिंहजी ने, जो अंग्रेजी सरकार में सबसे अधिक प्रभावशाली भारतीय माने जाते थे, कृष्णसिंहजी को बड़ा सटीक ज़वाब दिया कि “वे हमेशा क़ाबिल आदमियों की तलाश में रहते हैं और आप बहुत-बहुत क़ाबिल आदमी हैं, सो आप जब चाहें तब जोधपुर आ जावें!” जोधपुर महाराजा जसवंतसिंहजी तो कृष्णसिंहजी पर पहले से ही इतने प्रसन्न थे कि जब कृष्णसिंहजी ने, जोधपुर महाराजकुमार सरदारसिंहजी की सगाई उदयपुर महाराणा फतहसिंहजी की राजकुमारी के साथ करायी तो कृष्णसिंहजी की योग्यता से प्रसन्न होकर उन्हें पीढ़ियां-पर्यन्त पावों में स्वर्णाभूषण पहिनने की इज्ज़त प्रदान की थी, जो उस समय बहुत बड़ी इज्ज़त का प्रतीक मानी जाती थी। महाराजा जसवंतसिंहजी, राईका-बाग पैलेस के “अठ-पहलू महल” में कृष्णसिंहजी को अपने साथ बैठा कर, चांदी के थाळों में भोजन किया करते थे और उनसे अपने अन्तर्मन की गुप्त बातें करते थे!
उनके ज़माने में अपने समय का सच्चा इतिहास लिखना आसान कार्य नहीं था। कृष्णसिंहजी ने अभूतपूर्व साहस का परिचय देते हुए जैसा इतिहास लिखा, वैसा अभी तक किसी विद्वान् ने नहीं लिखा और न आगे किसी के द्वारा लिखे जाने की सम्भावना है! उपरोक्त सत्य-इतिहास को लिखने के लिए कृष्णसिंहजी ने यह युक्ति निकाली कि इस इतिहास को उनके मरणोपरान्त ही प्रकाशित कराया जाए और अपनी “वसीयत” में इसके लिए पांच हजार रूपये अलग रखे एवं लिखा कि, जब यह इतिहास प्रकाशित होगा तो उनके सम्बन्ध में किसी का क्रोध करना वृथा होगा, मैं उन क्रोध-कर्ताओं की सीमा से बाहर जा चुका होऊंगा। ऐसा अति-मानवीय, दृढ़-संकल्प करके अपने समय का सत्य इतिहास लिखना, बिरले मनस्वियों का ही काम है!
इस इतिहास का सम्पादन श्री फतहसिंहजी मानव ने 84 से 89 की उम्र में कठोर परिश्रम के बाद संपूर्ण किया। इस इतिहास का लोकापर्ण पद्मश्री रानी लक्ष्मी कुमारीजी चूंडावत ने मार्च, सन् 2009 में किया। संक्षेप में इतना ही लिखना पर्याप्त होगा कि इस इतिहास को राजस्थान के तीन शीर्ष विद्वानों ने विश्व-स्तरीय दस्तावेज माना है।”
चारणों की उत्पत्ति
चारणों के पर्याय-नाम एवं १२० शाखाएं/गोत्र