तूंकारो कवि ज्यूं तवै

कवि नै शास्त्रां में स्वयंभू अर निरंकुश मान्यो गयो। यानी कवि रो दर्जो ऊंचो मानीज्यो है। आपां राजस्थानी रो काव्य मध्यकाल़ सूं लेयर आज तांई रो, वो काव्य पढ़ां जिणमें नायक रै गुणां-अवगुणां री चर्चा है तो आ बात सोल़ै आना सही है कै कवि नायक नै तूंकारै सूं ई संबोधित कियो है। काव्य रो नायक, भलांई कोई गढपति हुवो कै भलांई गडाल़पति। उण, उणांनै तूंकारै सूं ई संबोधित कियो है। डिंगल़ कवियां तो अठै तक कैयी है कै जे तमाखू में घी रल़ायर चिलम पीवोला तो जैर हुय जावैला अर जे कविता में नायक नै जी सूं संबोधित कर रैया हो तो कविता में दूषण मान्यो जावैला-
‘तमाखू में घी अर कविता में जी’
आ कोई बडाई नीं कर रैयो हूं बल्कै साची खल़का रैयो हूं जिणगत गुरु सूं विद्या ग्रहण करण सारू उणरै चरणां में बैठणो पड़सी, उणीगत जमीर वाल़ै कवि सूं आपरै गुणां री बडाई सुणणी है तो कवि सूं छोटो बणणो ई पड़सी।
कांई महाराजा रायसिंहजी, रावल़ जाम, जेहाजी भाराणी, महाराजा मानसिंहजी, खंगारसिंहजी लाडखानी, उम्मेदसिंहजी शाहपुरा आद उदार अर वीर तूंकारै में समझता नीं हा?निसचै ई समझता पण वै तूंकारै नै कवि री भाव प्रसादी मान माथै चढाय ग्रहण करता। कवि रै अपणास उदध री छौल़ा में स्नान कर खुद नै धिनोधिन मानता।
जठै तक म्हारो अल्प ज्ञान है डिंगल कविता में जीकारै सूं कविता बणावण री परंपरा नीं रै बरोबर रैयी है।
आजरा कवि किणी नेता या अफसर माथै फखत काम कढावण री जुगत में कविता बणावण रा पांपल़ा करै अर उणमें डरतो ढोली शुभराज करै री गल़ाई जीकारा थेथड़ै तो उणसूं कवि अर कविता री गरिमा एक टकै री नीं रैवै। छतापण कोई कवि तूंकारो देय ऐड़ै लोगां री कविता ठायदे ई तो उणरै रीझण अर राजी होवण री बात आगी पण खीझण री बात हाडोहाड ढूकै। खीझ ई भल़ै कैड़ी कै आ बैल म्हनै मार री बात हुय जावै।
भलांई आप जीकारां में कविता ठायदो पण ऐड़ै मनमठिये अर करकठिये नेतां-अफसरां सूं किणी रो काम काढीजै नीं। क्यूंकै काम काढै उवो संचो बीजो होवै। काम काढणियां रा काल़जा डोढ सेर रा होवै। ठगीजै वो ठाकर बाजै। ठगणिया तो ठग हुवै। नवलजी लाल़स जणै ई इज कह्यो कै-
लाखरां ठाकरां तणा माथा लुल़ै,
आखरां तणै गजबोह आगै।
म्हैं आ नीं कैय रैयो हूं कै आप किणी री बडाई में कविता बणावो अर नीं म्हैं आ कैय रैयो हूं कै किणी रा मानवीय गुणां नै देख आप बुड़द ई मत काढो यानी माठ झाललो। नीं, जे ईश्वर आपनै कविता बणावण रो गुण दियो है तो गुणां रा ग्राहक ई बणो। खैर आ व्यक्तिगत विचारधारा री बात है। कोई व्यक्तिगत बणावै अर कोई आ कैय’र नीं बणावै कै ‘आपां जिणरी कविता में बडाई करां! ठाह नीं उणरै चरित्र रा चीरड़ा कणै उडण लाग जावै या उणरै गुणां नै कणै गैण लाग जावै!
ई सारू व्यक्तिगत कविता सूं यथासंभव बचणो। पण अठै बात आ नीं है कै कविता बणावणी कै नीं बणावणी। बात आ है कै कविता में तूंकारै दैणो कै जीकारो। चूंकि कवि नै वेदां में कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू कह्यो गयो है।
कवि किणी नै तूंकारै देवै उणरो मतलब है कै वो जिण माथै कविता बणाय रैयो है, उणसूं इणरी अणहद अपणास है। यानी
कविता में कवि तूंकारो जदै ई देवै जदै संबंधां में औपचारिकतावां रो कुंडाल़ियो नीं है। म्हैं आ नीं कैणी चावूं कै कवि नै बोल बिगाड़ो होवणो चाहीजै। नीं, पण कवि रो ठरको, अर घसको तो दीखणो ई चाहीजै। आ नीं होवणी चाहीजै कै कवि दबियोड़ो अर उणरी कविता आपरी गिरा गरिमा ई गमायोड़ी होवै।
ओछा बोलणियां नै लोगां वांदिया नीं बल्कै विगोया है कै-जग में नर हल़का जिकै, बोलै हल़का बोल। ओ ई कारण हो कै थल़ियां री ओछीबांण री निंदा करतां बांकीदासजी लिख्यो हो-
जीकारै बिन बोलणो, अर सिनांन बिन अंग।
मारग सीतल़ छांह बिन, बिनां धोल़ैहर ध्रंग।।
इणरै पडूंत्तर में डॉ. शक्तिदानजी कविया लिख्यो कै जठै अपणास होवै उठै औपचारिकता री जरूरत नीं हुवै क्यूंकै अपणास सूं सराबोर कवि हरेक नै कविता में तूंकारै देवै-
तूंकारौ कवि ज्यूं तवै, उर अपणायत आंण।
प्रीत छांह पड़वां प्रघल़, जका रीत थल़ जांण।।
अब सवाल उठै कै हमै कवियां नै ई आपरी भाषा में सुधार करणो चाहीजै यानी कै मोटै आदमी ज्यूं कोई मंत्री, अफसर, आद माथै कविता लिखती बखत भाषा में तूंकारो नीं आणो चाहीजै। कवि इतरो सचेतपणो राखर कविता बणावण री तजबीज करै तो पछै म्हैं मानू कै ऐड़ां री कविता कतई नीं करणी चाहीजै। क्यूंकै कवियां नै ऐड़ी सलाह किणी हकीम नीं दी है। जको कविता रा कंठ मोस, भावां नै मार’र, भाषा रो जमीर बेच आपरो खमीर बदल़ कविता बणावै। ऐड़ी औपचारिक अर सतमासकी कवितावां दीर्घजीवी नीं हो सकैला। कविता वा ही काल़जयी हुवैला जिणमें भावां री कल़कल़ करती सलिला भाषा री सुघड़ता सागै छौलां भरती प्रवहित होवैला।
म्हैं आपनै कीं दाखला जुग परवांणै देवूं। हालांकै संबोधनी सोरठां यथा तुलछिया, राजिया, चकरिया, भानिया, भंवरिया, आदिया, हीरिया, नोपला, गोरिया, मोतिया आदमें जको संबोधन है उवो कवि आपरै प्रिय हीड़ागर, मित्र, कै बेटे नै कियो है। ऐड़ै संबोधन में कवि रो फखत अर फखत ध्येय सीख देय राह-कुराह, करणीय-अकरणीय, कोजै-चोखै रो भान करावण रो रह्यो। इणमें सुणणियो छोटो कै हमझोल़ी रैयो हुवै।
आप नेठाव अर बिना पूर्वाग्रहां रै देखोला तो आपनै ठाह लागैला कै कवियां आपरै नायकां सारू संबोधन रा जिकै शब्द परोटिया है जे आपां उणांरी जागा फलाणसा, फलाणजी, आद राख दां तो कविता रो मर्म ई खतम हुय जावैला। आपरी सुविधा सारू कीं दाखला बिनां विस्तारीकरण रै-
चौबीसूं रिड़माल रा, धर लाटण अवधूत।
कीरत पूत पच्चीसमो, है तूं चंद सपूत।।
सुत बंधव चाकर सग्गा, सब भग्गा सथ छोड़।
चिता रिड़मल री चिणी, चानण गढ चित्तौड़।।
(चानणजी खिड़िया रा दूहा)
चूंडा अजमल आविया, मांडू सूं धक आग।
जोधा!रिड़मल मारिया, भाग सकै तो भाग।।
(जोधाजी नै संबोधित)
पंदरै सौ पैंताल़वै, सुद बैसाग सुमेर।
थावर बीज थरपियो, वीकै बीकानेर।।
–
प्रसणा कर पूल़ाह, ऐधूल़ा जिम उडाड़िया।
नरहर नाडूल़ा, रेखां राखण राजिया।।
(चौहान राजो़धरजी नै संबोधित-सूजाजी देथा खारोड़ा)
–
आखर ईसरियाह, तो मुख नीसरिया तिकै।
झड़ आसू झरियाह, सीपां मोती सूरउत।।
—
वाघा आव वल़ैह, दुख सालैह दूदाहरा।
जासी फूल जल़ैह, वास न जावै वाघड़ा।।
—
श्रीहथ तुररो टांकियो, श्रीहथ बांधी पाघ।
कवराजा कह करन रो, अभै बधायो आघ।।
—
अक्खा लक्खा ईसरा, पात हुवा गुणपूर।
हव भैरा थारै भुजां, वरण लाज वणसूर।।
—
इकसठ सांसण आपिया, मानै गुमनाणी।।
—
धरती धीरतियाह, तो ऊभां करती अंजस।
मरतां मेड़तियाह, आज विरंगी अमरवत।।
—
जेता समझतियाह, पाधर नस रा पेखिया।
ताहरै मेड़तियाह, कांधै में बल़ केहरी।।
—
वैर मुकन रो वाल़, पछै किला में पौढियो।
थारी वेल़ा थाल़, भलो बजायो भीमड़ा।।
—
डीगा के डाणाह, जांणा नह कीरत जिकै।
रजपूती राणांह, खाटरिया थारै कनै।।
—
समदर पूछै सफ्फरा, आज रतंबर कांह।
भारथ तणै उमेदिये, खाग झकौल़ी मांह।।
–
थटगी थारोड़ीह, प्रभुता सारोड़ी प्रिथी।
भलपण भारोड़ीह, धिन-धिन राजै गोरधन।।
—
वर्तमान जुग री अपणास रा कीं दाखला–
रतनुवां वंश रा जस कल़स रेणवां,
‘अल़स’ कवि एकरूं अवस आजै।
(अल़सीदानजी रो गीत-डॉ. शक्तिदानजी कविया)
–
ऊजल़ आचार विचार ऊजल़ौ,
गांम ऊजल़ां ऊजल़ गोत।
शिवदत-सुत कैल़ास तणी शुभ,
जगमगती ऊजल़ जस-जोत।।
(कैलाशदानजी उज्ज्वल रो गीत – श. दा. कविया)
सदगुण री खांण लहर सुरसरिता,
बांण सुधा रसधार बहै।
चूंडावत पहचांण चहूंदिस,
लक्ष्मी जस अप्रमांण लहै।।
(लक्ष्मीकुमारीजी चूंडावत-कविया साहब)
जात रौ हितैषी ख्यात रो जाणगर,
बात रो कहंदौ तौर इधकौ।
धरा ढूंढाड़ मेवात में पात धिन,
अखां कवि अखौ अखियात इधकौ।।
(ठा अक्षयसिंहजी रतनू रो गीत – कविया साहब)
बात ख्यात हरजस जस वीरत,
पेख्तो धीरत धरम पकौ।
कवियण सगत पयंपै कीरत,
थूं तीरथ जीवतो थकौ।।
(डॉ. मनोहरजी शर्मा रो गीत कविया साहब)
झड़फड़िया डंठल़ झुकै, दड़प किता दलदल़्ल।
कविया भड़ तूं काढसी, कीचड़ हूंत कमल्ल।।
(शक्तिदानजी कविया माथै-देवकरणजी ईंदोकली)
—
अचलेस तनय कीरत इल़ा,
अँजस गल्लां उजासणी।
मोहना रांण मोटा मरद,
चावी करी चौपासणी।।
. .
मोहन तूं मनमीत, प्रीत अगलूणी पाल़ै।
गुण रच डिंगल़ गीत, इधक कुल रीत उजाल़ै।।
(मोहनसिंहजी रतनू माथै-गि. दा. रतनू)
—
आछो नरपत आशियो, चारण वरण चकार।
गांम गांम गुंजायदी, डिंगल री डणकार।।
(नरपतसा-मोहनसिंहजी रतनू)
—
आल़सिया ईहग सबै, समझ कवित बिन सार।
आयो नपियो आशियो, तांण करी तणकार।।
(नरपतसा-गि. दा. रतनू)
—
गिरधर कथी सु गल्ल, आद जुगां जस ऊबरी।
मुहंघा गाहड़ मल्ल, किया अमर तैं केशवत।।
(पुष्पेंद्रसा जुगतावत)
—
साहित्य धरम समाज सूं, बहे जिका विपरीत।
राह बतावै रोक नै, गिरधर थारा गीत।।
(मोहनसिंह जी रतनू)
छंदां हंदी छौळ रो, अंतस समद अथाह!
ऊफणतौ आठूं पहर, वाह गीधिया वाह!!
(नरपतसा आशिया)
ऐ कीं दाखला कवियां री अणहद अपणास, निछल़ नेह सद्भाव रो बहाव अर लगाव रा आप साम्हीं राख्या हूं।
पण तोई म्हारो सुझाव है कै आं उदाहरणां रै भरोसै उणां नै कतई तूंकारै सूं संबोधन मत करजो जिणांरै सारू कवि शंकर कह्यो कै ऐड़ां नै कविता समझावणो उतरो इज आंझो काम है जितरो. सूरज नै धरती माथै लायर पटकणो-
कविता समझायबो मूढन को, सविता गहि भूमि पे डारिबो।
सो आप मुसाफिर आपरी जोखम माथै जात्रा करण रो सुभग संदेश अंतै में राख’र ई कविता करजो।
~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी
तुकबंदी तें तूं भलो, आप भलो नह गीत ।
सतिया डिंगल साहितां, रैकारे री रीत ।
© सत्येंद्र सिंह चारण झोरड़ा