वह समय-वे भक्त-वह बातें

ई. सन 1895-1900 के बीच बीकानेर से मेड़ता के बीच रेलवे लाईन को व्यापार तथा आवागमन के लिए खोल दिया गया था, जनता को सुविधा हो गई थी, उस समय रियासतों के खर्चे पर ही रेलवे बनती थी, महाराजा का कहा ही आदेश बनता था। राजे-महाराजे जनता का दुख-दर्द भी यथा संभव दूर करने की कोशिष करते थे, उक्त रेलकी लाईन बिछाने में गंगासिंह जी की महत्ती भूमिका थी।
रेल का जब सुचारू संचालन होने लग गया तो माँ करनी जी के भक्तगण यात्रियों को सूदूर प्रान्तों से आवागमन की सुविधा मिल गई तथा आना-जाना आसान हो गया, परन्तु रेलवे की स्टेशन देशनोक से पूर्व दिशा में तीन कोस दूरी पर गीगासर नामक गांव में बनाई गई थी। जहां से यात्रियों को पैदल या ऊँट पर सवार होकर माँ के मढ में जाना पड़ता था, सर्दी गर्मी वर्षा के दिनों में सुनसान स्टेशन पर रात्रि को रूकना भी परेशानी वाला काम था।
ऐसी परिस्थिति में माँ के संयोग से एक दिन नवरात्री पर्व पर महाराजा गंगासिंह जी माँ के दर्शन करने पधारे उससमय मंढ जन-संकुल था, महाराजा के दर्शन करके मंढ से बाहर आते ही यात्री-भक्तों ने महाराजा को अपनी परेशानी बताई तो महाराजा ने कहा कि आपकी बात से मैं सहमत हूं परन्तु माँ सा के औरण में बौरड़ी, झाड़ी के पेड़ रेल की पटरी के नीचे आने से काटने पड़तेहैं और मैं यह काम नहीं कर सकता हूं तब वहां उपस्थित भक्तगण ने कहा कि माता की जोत लेकर इच्छित आखा (अक्षत) लेलिया जावे, और जब इच्छित आखा आ जाये तो माँ की आज्ञा मिल जायेगी, यह बात सभी भक्तों ने व महाराजा ने मान ली।
—अक्षत (आखा) के बारे में—
!! दौहा !!
पंच, सत, नव, ग्यारा, प्रकट, सारा मेटण सूऴ।
आखा थारा ईसरी, म्हारा जीवण मूऴ।।
आखा थारा ईसरी, जै पलटै सुरराय।
भांण पिछम दिश उगवै, गंग अपूठी जाय।।
अर्थात हे माँ पाँच, सात, नौ, व ग्यारह के अंक के अक्षत सारे भव-भंजन है और हम भक्तगणों के जीवनके मूल आधार हैं और हे मैया मावड़ी अगर आपके अक्षत पलटते हैं, विफल मनोरथ होते हैं तो हमारे लिए तो सूर्य पश्चिम से उदय व गंगाजी वापस हिमालय पर चढती है, मातेश्वरी के आखा की इतनी दृढ आस्था भक्तों की है।
सभी भक्तगणों के साथ में महाराजा साहब नें पुनः श्रीमढ में जाकर बारीदार जी से करनी जी जोति प्रज्वलित करवाकर अपना मनोरथ ज्ञापन कर अक्षत लिए, ग्यारह के अंक में उच्च श्रैणी अक्षत मिलने पर सबको बड़ा हर्ष हुआ।
महाराजा गंगासिंहजी ने वहीं पर अपने सचिव व पी.एम. को आदेश देकर कहा कि इस लाईन को बनाने में कितना भी घुमाव देना पड़े औरण के पेड़ कम से कम कटने चाहिए, सभी सभी इंजिनियर्स ने बहुत कोशिष करने पर भी पचास बोरड़ी के पेड़ तो काटने ही पड़े, अंततः महाराजा ने सौ रूपये प्रति वृक्ष के मुआवजे के हिसाब (उस समय चांदी के कलदार चलते थे)
से श्रीमढ देशनोक के खजाने में जमा करवाये तथा चालीस किलोमीटरकी बनी हुई लाईन को उखाड़ कर पलाणा व बीकानेर के बीच में बड़ा घूमाव देकर श्रीमढ के पीछे व पास में दोबारा बिछा कर भक्तगणों के लिए सात महिने बाद में तैयार कर दी गई।
आज कहां वे दिन कहां वे प्रशासक व कहां उन जैसी भक्तिभावना, आज बीकानेर के मध्यसे गुजरने वाली रेलकी लाईन को बाईपास निकालने के न जाने कितने प्रस्ताव बने तथा न जाने कितने अफसर व सरकारें आई समस्या जस की तस पड़ी है।
और अंत में माँ सा मेहाई को नमन और उस जमाने को व उन भक्तगणों व प्रशासन को भी नमन।
~~राजेंद्र कविया (संतोषपुरा, सीकर)