वीर मेहा मांगल़िया संबंधी भ्रामक धारणाएं व निराकरण

राजस्थान का जनमानस लोक हितार्थ जूझने वालों को लोकदेवताओं का दर्जा देकर सदियों से पूजता आया है। ‘गांम-गांम खेजड़ी अर गांम-गांम गोगो ‘ की कहावत ऐसे ही लोक नायकों की लोक स्वीकार्यता और लोक आस्था का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इन्हीं सधीर और गंभीर पुरुषों ने लोक स्थापित जीवन मूल्यों और जन हितार्थ आम आदमी के स्वाभिमान की रक्षार्थ रणांगण में वीरगति का वरण किया तो लोक ने इन जननायकों की पाषाण पूतलियां स्थापित कर पूजा। क्योंकि ये ही तो सही अर्थों में जननायक थे, जिन्होंने लोक भावनाओं के अनुरूप अपना जीवन यापन किया और जब आवश्यकता पड़ी तब लोकहित में समर्पित भी कर दिया।
इन महापुरुषों ने अपने गढ़ों अथवा राज्य विस्तार की लिप्सा हेतु प्राण नहीं दिए अपितु इन्होंने सुरभियों, स्वधर्म, स्वमान, स्त्री-सम्मान, गरीबों व पद-दलितों की रक्षार्थ अपना जीवन समर्पित किया था। ‘पाबूजी रा दूहा ‘ के रचयिता लधराजजी मूहता ने जो सटीक बात प्रणवीर पाबूजी के जीवन चरित्र पर लिखी वह ही बात उन तमाम महापुरुषों पर चरितार्थ होती है, जिन्होंने अपने सिद्धांतों की रक्षा की-
सबल़ तणी पख व्है सदा, खलक तणो ओ खेल।
तैं कीधी धांधल तणा, वीर गरीबां वेल।।
राजस्थान में प्रणवीर पाबूजी व तेजोजी, राष्ट्र प्रेमी जाहर पीर गोगोजी, दलितों के परम उद्धारक रामसा पीर, सकुन शास्त्री हरभूजी सांखला, प्रजा की गायों की रक्षार्थ जूझने वाले सोमसी भाटी, पनराज भाटी, मूलजी भाटी, जैत रतनू, अर्जन किनिया, बिग्गोजी, मेहाजी मांगल़िया, जातीय गौरव की अभिवृद्धि करने वाले कल्ला रायमलोत, देवालयों की रक्षार्थ शौर्य के साथ वीरगति प्राप्त करने वाले सूजाणसिंह शेखावत सहित कितने ही ऐसे नाम हैं जो लोक की ललक पर खरे उतरे और खास की जगह आमजन के गौरव बिंदु बनकर आज भी अमर हैं। यही कारण रहा है कि ये महान वीर, वीर होने के साथ पीर की संज्ञा से भी अभिहित हुए-
पाबू हरभू रामदे, मांगल़िया मेहा।
पांचू पीर पधारिया, भड़ गोगा जेहा।।
इस लोक रसना पर अवस्थित दोहे में मध्यकालीन पांच जननायकों के सुयश की सौरभ गांव-गांव, ढाणी-ढाणी में अपनी सुवास लिए आज भी संचरित हो रही है। इस दोहे में उल्लेखित पांचों नायक इतिहास-पुरुष हैं और इनकी कीर्ति में लोक काव्य और डिंगल काव्य काफी मात्रा में उपलब्ध है। जिसमें इनके उज्ज्वल चरित्र और शौर्य का गौरवान्वित करने वाला वर्णन हुआ है। उल्लेखनीय यह बात है कि गोगाजी, पाबूजी, रामदेवजी, आदि का जहां प्रामाणिक जीवन परिचय यहां की ख्यातों, बातों, लोक काव्य व डिंगल काव्य में उपलब्ध है वहीं मेहाजी मांगलिया का जीवन परिचय बातों, ख्यातों व लोक काव्य में कम ही प्राप्त होता है, परंतु डिंगल काव्य में जरूर मिलता है लेकिन वो भी प्रचुर मात्रा में नहीं, जो भी मिलता है वो भी किंवदंतियों पर आधारित ज्यादा है। जो भी काव्य वगैरह है वो आम जन तक नहीं पहुंचा। यही कारण है कि इस जननायक के विषय में जितना भी लिखा गया उसमें इनसे संबंधित जानकारी नहीं देकर मेहराज सांखला से संबंधित जानकारी दी जाती रही है। मेहाजी मांगलिया पर लिखने वाले तमाम लेखकों ने कमोबेश आम पाठक के मन मे यह भ्रामक धारण सुदृढ़ करने का काम किया कि मेहराज सांखला ही मेहा मांगलिया के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। इस भ्रामक धारणा से मेहाजी मांगलिया जैसे जननायक के चारु चरित्र से आम पाठक अमूमन अनजान या अल्पज्ञात ही रहे।
मेहाजी मांगलिया अपने समय के उदार क्षत्रिय, वीर पुरुष, और प्रणवीर थे। राजस्थान के महान पांच जननायकों अथवा ‘पंच पीरों’ की अग्र पंक्ति के लोकमान्य नायकों में शुमार हैं, ऐसे में आम पाठक को इनकी सही और प्रामाणिक जानकारी होनी ही चाहिए, इसी बात को दृष्टिगत रखते हुए इनकी जानकारी देना समीचीन रहेगा।
मेहराज सांखला थे न कि मांगलिया
मेहराज सांखला थे, जो जांगलू के राणा आंबा सांखला के पौत्र थे। ख्यातकार नैणसी अपनी ख्यात में लिखते हैं “राणो राजसी कुंवरसी रो। राणो आंबो राजसी रो, तिणनू मूंजै राजसिंहोत घाव करनै मारनै जांगलू लीवी। गोपाल़दे बेटो हुतो, तिको जोयां कनै हुतो, आंबा नूं मूंजै मारियो तद मूंजै रै बेटे गोपाल़ नूं ऊदै मूंजावत उठै मारियो।” जब गोपालदे मारा गया उस समय उसकी पत्नी जो कि किलू/केलू करणोत की बेटी थी और सगर्भ थी, उसको साठीका के चारण धर्मे बीठू (सींथल वालों के पूर्वज) ने पिहर पहुंचा दिया। वहीं मेहराज सांखला का जन्म हुआ। इसी बात को आधार बनाकर राजस्थान के कई शोध विद्वानों, साहित्यकारों, और संस्कृतिकर्मियों ने मेहराज को ‘मांगलिया’ घोषित कर दिया। जबकि इतिहास साक्षी है कि मेहराज न तो खुद कभी भी मांगलिया कहलाए और न ही उनकी संतति। मेहराज और उनकी संतति सदैव सांखला ही कहलाए। यद्यपि वो ननिहाल में रहने के कारण वो मांगलिया कहलाते तो उनकी संतति भी मांगलिया ही कहलाती जबकि यह बात नहीं है। डॉ सोनाराम विश्नोई अपनी पुस्तक ‘बाबा रामदेव: इतिहास और साहित्य ‘ में लिखते हैं “ग्राम भूंडेल के निवासी गोपालराज के पुत्र मेहराज सांखला को अपने ननिहाल ग्राम खिंवसर में नानाजी कीलूजी मांगलिया के घर जन्म लेने तथा ननिहाल में पालन-पोषण के कारण मेहाजी मांगलिया मान लिया है जो अप्रमाणिक एवं निराधार है।” इन्हीं मेहराज सांखला का एक बेटा गोगादेव वीरमदेवोत के साथ भाटी राणकदेव (पूगल) के हाथों जोइयों से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ तो दूसरा पुत्र हरभू सांखला पांच पीरों में श्रद्धेय हैं। बाप मांगलिया कहलाता तो हरभू भी मांगलिया ही कहलाते, जबकि यह बात नहीं है। लोककाव्य में हरभू सांखला के रूप में तो मेहा का मांगलिया के रूप में स्पष्ट उल्लेख मिलता है-
सदगुण हरभम सांखलो, पुणां रामदे पीर।
मांगल़ियो मेहो मुणां, सिद्ध रँग वँदू सधीर।।
नैणसी, मेहराज सांखला की वंश परंपरा की परिचय देते हुए लिखतें हैं
“मेहराज रो बेटो हरभू पीर तिणरा पोतरा बैंगहटी। मेहराज रो बेटो (आल्हणसी) गोगादे वीरमदेवोत साथै लड़तां थकां भाटी रांणकदे रै हाथां रणखेत रैयो।” इसी आल्हणसी का वैर मेहराज सांखला ने अड़कमल चूंडावत के साथ मिलकर लिया था, जिसकी साक्षी का यह दोहा प्रसिद्ध है-
बांभण पूतन वीसरै, ज्यूं विसहर काल़ै।
आल्हणसी न वीसरै, मेहराज मूंछाल़ै।।
‘पूगल का इतिहास‘ (लेखक हरि सिंह भाटी) में मेहराज सांखला का परिचय देते हुए लिखतें हैं, “कुमार जैतसी बारात लेकर चित्तोड़ जा रहे थे। मार्ग में सुरजड़ा गांव के पूगल प्रधान मेहराज सांखला (गोपालदास का पुत्र) बारात में साथ हो गए।” भाटी राणकदे ने भाटी जेठी पाहू के साथ गांव भूंडेल के मेहराज सांखला पर आक्रमण कर दिया। सांखला वहां से निकला और ‘सिरड़’ के पास जाते उन दोनों का मुकाबला हुआ। वहां भाटी राणकदेव और मेहराज दोनों मृत्यु को प्राप्त हुए। हरिसिंह भाटी ‘पूगल का इतिहास‘ में लिखतें हैं “सिरड़ गांव के तालाब के पास शिलालेख लगा हुआ था। जिसमें इस घटना का वर्णन था
मेहराज सांखला, मेहा मांगलिया के भानजा थे। मेहराज सांखला के नाना का नाम कीलू/केलू करणोत था। ऐसे में मेहराज सांखला जैसा वीर और राजवर्गीय पुरुष को मांगलिया लिखना और मानना न तो लोकमान्य है और न ही इतिहास सम्मत। जातीय घालमेल करके इन न तो नायकों के साथ न्याय है और न ही लोकमान्यताओं के साथ।
मेहा मांगलिया थे न कि सांखला
मेहा मांगलिया की पहचान लिखूं उससे पहले यह बात बतानी शायद ठीक रहेगी कि राजस्थानी साहित्य और संस्कृति के श्रेष्ठ विद्वानों ने मेहा मांगलिया के विषय में क्या लिखा है? राजस्थानी के श्रेष्ठ विद्वान और शोध मनीषी श्री अगरचंदजी नाहटा ‘मरू भारती वर्ष 3अंक 1′ में अपने लेख में लिखतें हैं-“मेहा मांगलिया नहीं, सांखला (पंवार क्षत्रिय) वीर थे और हरभूजी सांखला इनके पुत्र थे। जिस समय गोपाल सांखला अपने भाई उदा के हाथ मारा गया उस समय गोपाल की पत्नी सगर्भ थी। वह मांगलिया कीलू करणोत की पुत्री थी। चारण धर्म बीठू ने उसे पिहर पहुंचा दिया। पिहर में मांगलियाणी के गर्भ से मेहाजी (मेहराज) का जन्म हुआ। यही कारण है कि वे मांगलिया कहलाए।” यही बात राजस्थानी मासिक ‘माणक’ के अंक अप्रैल 1988 में स्तंभ ‘राजस्थान रा रतन‘ में यूं लिखी गई है “मेहा यूं तो सांखला (पंवार) हा पण क्यूं कै जनम सूं ई आं रो पाल़ण पोखण इणां री माता नानाणै में करियो अर माता मांगलियाणी ही सो मेहा मांगलिया रै नाम सूं चौफैर चावा हुआ।” इसी बात के देखादेखी अर्जुन सिंह उज्ज्वल अपनी पुस्तक ‘राजस्थानी संस्कृति री ओल़खाण‘ में यही बातें हैं ज्यों कि ज्यों लिखी है- “मेहाजी गोपाल़ सांखला रा बेटा हा, सांखलाजी री हत्या उवां रै भाई ऊदा करदी। बाप रै सुरग सिधाया पछै मेहाजी नानाणै रैवण लागा उवांरी मां मांगल़िया गोत्र री ही जिण कारण मेहाजी मांगल़िया रै नामसूं लोग-गीतां रै मांय जाणीजै। मेहाजी आखी उमर मायड़ भोम री रिच्छा खातर लागोड़ा रईया।” ये ही क्यों ? कुछ अन्य लोगों ने भी यही बातें लिखी हैं। विस्तार भय से नामोल्लेख नहीं करके इस बात पर आता हूं कि मेहाजी मांगलिया थे न कि सांखला! बिना किसी जानकारी और छान-बीन के अभाव में मेहराज सांखला को ही मेहा मांगलिया मान लिया गया, जिससे यह बात नहीं जानने वालों अथवा अल्पज्ञात लोगों ने मेहराज सांखला को ही मेहा मांगलिया मान लिया। कम लोगों को ही यह पता है कि पांच पीरों में शुमार मेहा मांगलिया, सांखला शाखा के क्षत्रिय नहीं होकर गहलोत शाखा के राजपूत थे। इनके पूर्वज मेवाड़ राजवंश के स्वगोतीय थे। किन्हीं कारणों से इनके पूर्वज मेवाड़ से मारवाड़ में आ गए। इनके पूर्वज खेरपाल/खींवसी ने अपने नाम से खींवसर (नागौर) बसाया व गढ का निर्माण करवाया। इन्हीं खींवसी की वंश परंपरा में कर्णसी हुए। जिनके कीलूजी/केलूजी हुए। इन्हीं केलूजी की पत्नी मायड़दे की कुक्षि से मेहोजी मांगलिया का जन्म हुआ। केलूजी ने मंडोर के राणा रूपड़ा पड़िहार के यहां शादी की थी। कर्णसी वीर पुरुष थे, उनके स्वर्गवास के बाद केलूजी कमजोर पड़ गए और खींवसर छूट गया। केलूजी गाड़ियो में अपना सामान लेकर तापू आ गए और वहीं केलूजी का स्वर्गवास हुआ। उस समय मेहाजी की आयु 7-8 वर्ष की थी। ये अपनी मा के साथ पुस्कर तीर्थ की यात्रा पर गए। वहां एक गुजरी इनकी धर्म बहिन बन गई। बड़े हुए तब मेहाजी की शादी रावल मल्लीनाथजी के यहां हुई। मेहाजी और इनके भाई दूलगजी ने अपनी वीरता के सहारे बापिणी, ईसरू, बेदू आदि कई गांवों पर अधिकार कर लिया। जहां आज भी इनकी संतति रहती हैं तथा यह इलाका ‘मांगल़़ियावटी ‘ कहलाता है। किंवदंती चली आ रही है कि पुस्कर के आस-पास अकाल पड़ा जब गुजर अपना ‘गोल़’ लेकर बापिणी (मारवाड़) आ गए। बापिणी में जिस ‘धोरे’ पर गुजर ठहरे वह जगह आज भी ‘गूजर टूंकी’ के नाम से भी जानी जाती है।
मेहोजी, प्रणवीर, गौभक्त, शरणागत-रक्षक और सनातनी जीवन मूल्यों के रक्षक थे। पश्चिमी राजस्थान में इस महावीर की बहुत मान्यता है। लोककाव्य और डिंगल काव्य में स्पष्ट रूप से इस गौरवशाली वंश परंपरा का उल्लेख मिलता है। इनकी एक ‘छावली’ की दो पंक्तियां दे रहा हूं जिसमें इनके पिता का नाम केलूजी साफ रूप से आता है-
मेहो कैहीजै-कैहीजै केल़ूजी रो जोध,
घर मायड़दे जलम लियो।
मेहो कैहीजै-कैहीजै गूजरणी रो वीर,
कोई गायां रै झगड़ै जूझियो।
पश्चिमी राजस्थान में पावन प्रभात के समय में मांगलिक अवसरों पर होने वाली ‘रैयाण’ में वीरों, दातारों, जूझारों, और महापुरुषों के यश योग्य कार्यों को याद करते हुए ‘रंग’ दिया जाता है उसमें वीर मेहा मांगलिया का स्मरण करते हुए कवि रुघजी रतनू (दासोड़ी) लिखतें हैं-
केल़ू-सुत चढती कल़ा, भल़हल़ ऊगा भाण।
अमलां वेल़ा आपनैं, रंग मेहाजल़ राण।।
मांगल़ियो मेहो रटै, जिव दुख टल़ियो जाण।
अमलां वेल़ा आपनै, रंग मेहाजल़ राण।।
इसी परंपरा का पालन करते हुए डिंगल कवि गणेशदानजी रतनू (दासोड़ी) लिखतें हैं-
बणियो गायां वाहरू, जुड़ियो जायर जंग।
निरमल़ कीरत केल़नंद, रंग मेहाजल़ रंग।।
मांगल़ियो मुड़ियो नहीं, भड़ चढियो गौ भीर।
केलूसुत ली कीरती, सत रँग मेह सधीर।।
विख्यात डिंगल कवि देवकरणजी ई़ंदोकली अपनी रचना वीर क्षत्रियां रा कवत्त में इस वीर का स्मरण इस प्रकार किया है-
पाबू हड़बू पीर, गोग चहुंवाण गिणीजै।
मांगल़ियो मेहोज देव मिल़ियां चित दीजै।
ऐसी किंवदंती है कि मेहाजी की मुंहबोली बहिन गुजरनी की गायों का हरण जैसलमेर रावल दूदा और उनके भाई तिलोकसी ने मेहाजी की ‘कांकड़’ में से कर लिया था। यह खबर जब मेहाजी को मिली तो वे मांगलिया वीरों के साथ ‘वाहर’ (सहायतार्थ) चढे। इसी लड़ाई में गायों की रक्षार्थ मेहाजी ने भाटियों के हाथों वीरगति का वरण किया। ‘मांगलियां री तवारीख‘ के अनुसार “पछै किलुजी रा बेटा मेहाजी गांव तापू सूं गायां री वाहर चढिया सो झगड़ो कर काम आया।” यही बात मध्यकालीन डिंगल कवि देवीदास किनिया लिखतें हैं-
गहवंत गोग ही रूपक गैलोतां, जुगै मही रुद्र जेहो।
बधियो कील तणो वरदाई, महिमा आसत मेहो।।
आजके डिंगल कवि भंवर दान किनिया (सुवाप) लिखतें हैं-
आरत करुं हूं आपनैं, केलू सुत दे कान।
पात चाकर इ पोल़ रो, धणी राखजो ध्यान।।
इस सदी के नामचीन डिंगल कवि जसुदानजी बीठू (सींथल) अपने प्रबंध डिंगल़ काव्य वीर मेहा प्रकाश में मेहाजी के अदम्य साहस और क्षत्रियत्व के उदात गुणों का वर्णन करते हुए लिखतें हैं-
काथ कूं जिकण सूं बात इधकी करूं,
वैण विख्यात इतियास वणसी।
नैण तूं निहारै बैन नैड़ी घणी,
केल़नंद कितां रो घाण करसी।।
इन उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मेहाजी मांगलिया के पिताजी का नाम केलू/कीलू/किलु करणोत ही था न कि गोपालदे सांखला। मेहाजी जाति से मांगलिया थे न कि सांखला। मेहाजी ने अपने मांगलिया वंश के गौरव की अभिवृद्धि की थी। यही कारण है कि मांगलियों को अपने इस गौरवपुरुष पर गर्व है। यही गर्व आस्था में बदला और आज मेहाजी को पूरी मांगल़ियावटी लोक-देवता मानकर पूज रही हैं। इसीलिए तो कविराजा बांकीदासजी आसिया अपनी ख्यात में लिखतें हैं “मांगल़िया मेहाजी नूं पूजै।”
मेहाजी मांगलिया और मेहराज सांखला दोनों ही इतिहास पुरूष और सेनानायक थे। दोनों समकालीन और वीर पुरूष थे। मेहाराज सांखला, मेहाजी मांगलिया की सगी बहिन का बेटा थे। मेहराज सांखला केलूजी करणोत के नाती थे जबकि मेहाजी मंडोर के राणा रूपड़ा पड़िहार के भानजे थे। इन दोनों वीरों की अलग-अलग वंश परंपरा थी। मेहराज सांखला के हरभू सहित छः बेटों का विवरण इतिहास ग्रंथों में मिलता हैं। जबकि मेहाजी मांगलिया के कोई संतान नहीं हुई, अतः इनका उत्तराधिकारी इनके भाई दूलगजी का पुत्र वैरसी हुए, जिन्होंने मेहाजी किनिया (लोकदेवी करनीजी के पिता) को सुवाप गांव इनायत किया था। इस संबंध में एक लोक दोहा उल्लेख्य है-
तैरै सौ पिचियासियै, मांगल़ियै मा-बाप।
वांकै आंकै वैरसी, समप्यो गांम सुवाप।।
अतः यह धारणा नितांत भ्रामक है कि मेहराज सांखला, अपने ननिहाल में रहने के कारण मांगल़िया कहलाया। मध्यकालीन इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण मिलतें हैं कि कई वीर पुरुषों ने अपने संक्रमण काल में ननिहाल में रहकर कष्ट साध्य जीवन से निजात पाई, लेकिन वे सदैव अपनी पितृ वंश परंपरा के प्रतीक पुरूष ही कहलाए। कभी भी उनका परिचय मातृ वंश से नहीं जुड़ा। अतः यह सही नहीं है कि मेहा और मेहराज एक ही नाम हैं। इन वीरों की वीरगति का कारण और समय भी अलग-अलग है। मेहाजी मांगलिया ने गायों की रक्षार्थ भाटियों के साथ युद्ध करते हुए वि.सं.1352 में वीरगति प्राप्त की जबकि मेहराज सांखला ने वि.सं.1357 में राणकदे भाटी (पूगल राव) के साथ युद्ध करते हुए मेहाजी से पांच साल बाद वीरगति का वरण किया। राजस्थान के इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण प्राप्त नहीं होता कि कोई भी साधारण या राज-वर्गीय पुरूष अपनी मां की जाति से पहचाना जाता हो! फिर वीर मेहाजी मांगलिया जैसे जननायक को लेकर यह भ्रामक धारणा कैसे चली ? समझ में नहीं आता!
मेहाजी मांगलिया की वीरगति रावल दूदा (दुर्जनशाल) के हाथों नहीं हुई
मध्यकालीन इतिहास में लोकनायक के रूप में मेहाजी मांगलिया प्रसिद्ध हैं तो ऐतिहासिक वीर पुरूष के रूप रावल दूदा और इनका भाई तिलोकसी प्रतिष्ठित। जैसलमेर के इतिहास में रावल दूदा श्रेष्ठ और गौरवान्वित करने वाला नाम। इस महान वीर ने दिल्ली सल्तनत से तलवारें टकराकर माड़धरा (जैसलमेर) को इतिहास में एक अलग पहचान दी। महाकवि पृथ्वीराजजी राठौड़, अपनी रचना ‘कल्ला रायमलोत रो गीत ‘ में महान नायकों का स्मरण करते हुए लिखतें हैं-
जिम रावल़ दूदो जैसाणै।
निहसै चुंडराव नागाणै।।
इसी प्रकार कवि-श्रेष्ठ आसाजी बारठ अपनी रचना ‘ऊमादे भटियाणी रा कवत्त ‘ में स्वाभिमानी नर-रत्नों के उदाहरण देते हुए लिखतें हैं-
जेण लाज चुंडरज, मुवो नागौर तणै सिर।
कान्हड़दे जाल़ोर, अनै दूदो जैसल़गिर।
गोरहर (जैसलमेर किले का नाम) को गौरवान्वित करने वालों में रावल दूदा को अग्रगण्य व श्रेष्ठ मानते हुए कविराजा बांकीदासजी आसिया लिखतें हैं-“जैसलमेर दूदे-तिलोक घर जनम हुवो।” मध्यकालीन इतिहास में रावल दूदा स्वाभिमानी, साहसी, जातीय गौरव को मंडित करने वाला तथा अरियों के दर्प को खंडित करना वाला नाम है। चूंकि यह प्रवाद प्रचलित है कि मेहाजी की ‘कांकड़़’ में से गुजरों की गायों का हरण भाटियों ने रावल दूदा और उनके भाई तिलोकसी के नेतृत्व में कर लिया था। जैसे ही मेहाजी को पता चला तो ये गायों की वाहर चढे। वीकमकोर के पास ‘रातड़िये मगरै’ पर भाटियों और मांगलियों के बीच युद्ध हुआ। जिसमें मेहा के भतीजे मोहन के हाथों तिलोकसी रणक्षेत्र रहे। जैसे ही यह बात दूदा को पता चली तो वो विलाप करने लगे। दूदा ने जाल रचा। खुद साधु के वेश में झिंगोर नाडी की पाल पर धूणी रमाकर बैठ गए। दूसरे दिन मेहा नाडी पर आए और भगमा वेशधारी को देखकर प्रणाम करने को झुके तो छदम वेशधारी दूदा ने तलवार के वार से उनका सिर काट दिया। ‘वीर मेहा प्रकाश‘ में कवि लिखता है-
का गोरख कमलापति, पाई नह पहचाण।
पाव पड़्यो प्रणाम कज्ज, घाव दूदै खग घाण।।
‘वीर मेहा प्रकाश ‘ की छायाप्रति ‘श्री मेहोजी मांगलिया की महिमा ‘ में कवि भंवरदान किनिया भी यही बात लिखतें हैं-
धरे भाटी रूप भेख, धर साधु धरावै रै।
आसण लगा पाल़, झिंगोर पाठ पुरावै रै।
पंथ वैरागी पिछम देस रो, पाल़ झिंगोर कर पुर।
मेहा शीश नवावियो रै, घात करी उण धुर।।
यह दोनों पुस्तकें लोक प्रचलित प्रवाद जो कि मेहाजी में आस्था रखने वालों के घड़े हुए हैं पर आधारित हैं। परवर्ती कवियों और लोकमानस ने अपने काव्य नायक मेहा का युद्ध रावल दूदा के साथ लिख दिया। चूंकि लोक को कभी भी यह बात स्वीकार्य नहीं हैं कि उनके नायक का मुकाबला किसी साधारण पुरूष अथवा योद्धा से हुआ होगा! लोक स्वतंत्र चेता होता है, उनकी खुद की मान्यताएं होती हैं वे अपने नायक की महानता सिद्ध करने व प्रतिनायक से श्रेष्ठ ठहराने हेतु ऐसे उपक्रम करते रहतें हैं। इसी उपक्रम में शायद यह प्रवाद प्रचलन में आया हो ! लोक कल्पना के सहारे ही डिंगल कवि जसुदान बीठू ने अपनी कृति ‘वीर मेहा प्रकाश ‘ लिखी। इसी पुस्तक से कथ्य ग्रहण कर भंवरदान किनिया ने ‘श्री मेहोजी मांगलिया की महिमा ‘ लिखी।
वीर दूदा ने वि.सं.1352से वि.स़.1362 तक जैसलमेर पर प्रभावशाली शासन किया। उन्होंने कभी भी ‘धाड़े’ नहीं किए। धाड़े सदैव उनके भाई तिलोकसी ने किए। नैणसी लिखतें हैं “दूदो तो गढ में रहे नै तिलोकसी च्यारूं तरफां पातसाही धरती रो बिगाड़ करै सु कांगड़ो बलोच मारनै घोड़ियां आंणी। बाहेली गूजरों री थाट भ़ैसियां री लाहौर कनै थी आ़णी। सोना रो मथाण ले आयो।”
नैणसी ने साफ लिखा है कि दूदा गढ में रहते और उनके भाई तिलोकसी धाडा (डाका) किया करते थे। वैसे भी उस समय दूदा के मुकाबले मांगलिया इतने शक्तिशाली भी नहीं थे कि मांगलियालटी से गायों के हरण हेतु रावल दूदा को आना पड़े। चूंकि लोक प्रवाद अनुसार इस युद्ध में मोहन मांगलिया के हाथों तिलोकसी की वीरगति हुई थी। श्री मेहाजी मांगलिया की भूमिका में श्री कुंभसिंह मांगलिया लिखतें हैं- “राव तिलोक व मोहन मांगलिया वीरगति को प्राप्त होते हैं।” जबकि तिलोकसी के समकालीन कवियों की कविताओं से यह बात सिद्ध है कि तिलोकसी की वीरगति बादशाही सेनानायक से मुकाबले करते हुए दूदा की दाद के बाद अकस्मात रूप से हुई थी। यही बात जैसलमेर री ख्यात, नैणसी री ख्यात, जैसलमेर राज्य का इतिहास, और पूगल का इतिहास सहित कई पुस्तकों में वर्णित है। वि.सं.1362 में तिलोकसी ने अन्नासागर पर अलाऊदीन खिलजी की पानी पी रही घोड़ियों को जबरन ले आए और आते उनको कह आए कि जैसलमेर का भाटी तिलोकसी हूं। पीछे फौज आई। दूदा ने ‘साका’ आयोजित किया। इस युद्ध में बादशाही सेनानायक पंजू पायक के शरीर के, अपने एक ही वार से तिलोकसी ने नौ टुकड़े कर दिए थे। युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी कवि तिहणराव रतनू के अनुसार-
तील्हरै रै घाव सूं, पांजू रो हेक नण।
नवै कुटकै हुवो, बहि गयो नीझरण।।
‘पूगल का इतिहास ‘ में हरि सिंह भाटी लिखतें हैं-“वि.सं.1362 में अलाउदीन ने आक्रमण किया। रावल दूदा और तिलोकसी सहित 1700 भाटी योद्धा काम आए“-
खिलजी अलाउदीन, दुरजनसाल तिलोकसी।
साको भारी कीन, तैरा सौ बासठ में।।
नैणसी अपनी ख्यात में लिखतें हैं कि जब तिलोकसी ने अदम्य साहस के साथ एक वार से पंजू पायक के शरीर के नौ टुकड़े कर दिए तो दूदा ने अपने भाई की प्रशंसा की और उस प्रशंसा के बाद अचानक तिलोकसी का शरीरांत हो गया। नैणसी के शब्दों में
“म्हारी दीठ लागे छै सु तिलोकसी रो तिणही वेल़ा जीव निसर गयो।” जैसलमेर में जहां तिलोकसी ने वीरगति प्राप्त की वहां आसणीकोट मार्ग पर तिलोकसी की देवली और शिलालेख मौजूद है। ऐसे में यह बात कैसे मानलें कि मोहन मांगलिया के हाथो झिंगोर नाडी (रातड़िया मगरा बीकमकोर) के पास तिलोकसी वीरगति को प्राप्त हुए थे? क्योंकि वीर मेहा और उनका भतीजा मोहन वि.स़ 1352 में वीरगति पा चूके थे जबकि तिलोकसी लगभग दस साल बाद बादशाही सेना से लड़ते हुए स्वर्ग पथ के राही बने थे। तिलोकसी के समकालीन और जैसलमेर मे युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी तिहणराव रतनू अपने एक डिंगल गीत में इस बात की पुष्टि करतें हैं-
अबिहड़ मन जसहड़ अंगोभ्रम,
वडफर वजै न विहंडै वंस।
तिल्हा तणो कोट वकारण,
हामूं करतो उडियो हंस।।
अगर दूदा जैसे वीर पुरूष के साथ मेहा का युद्ध होता तो मध्यकालीन डिंगल काव्य में कहीं न कहीं इस बात का उल्लेख अवश्य मिलता। मेहा का युद्ध किन्हीं साधारण भाटी के साथ अवश्य हुआ था। मध्यकालीन डिंगल कवि देवीदास किनिया ने अपने एक गीत में मेहा और भाटियों के बीच हुए युद्ध का वर्णन किया है परंतु उसमें कहीं भी दूदा का नामोल्लेख नहीं हुआ है-
भारथ भिड़ियो सरस भाटियां,
रूक तणी सिर रीधो।
राजकुमार घणा दिन रससी,
सुरही तणै छल़ सीधो।।
चूंकि उस समय दूदा भाटियों के मुखिया और प्रतीक पुरूष थे, जिससे लोक ने अपने नायक का नाम दूदा के साथ जोड़ दिया। यह शोध का विषय है कि किसी भी इतिहास ग्रंथ में मेहा और दूदा के बीच लड़े गए किसी युद्ध का वर्णन नहीं है। डॉ सोनाराम विश्नोई अपनी पुस्तक ‘बाबा रामदेवःइतिहास और जीवनी ‘ में लिखतें हैं-“जैसलमेर के शासक के साथ युद्ध करते हुए मेहाजी मांगलिया का वीरगति प्राप्त होना निश्चित रूप से प्रामाणिक है।” रातड़िया मगरै में दूदा और तिलोकसी के साथ गायों के लिए परम पराक्रम और वीरता पूर्वक लड़ते हुए पहले दिन ही वीरगति को प्राप्त होना विश्वसनीय, सहज और स्वभाविक तथा अपेक्षाकृत प्रामाणिक है। डॉ विश्नोई जोधपुर राज्य का इतिहास (गोरीशंकर जी औझा) से इस बात को पुष्ट मानते हैं। श्री औझाजी लिखतें हैं- “यह म़ागलिया जाति का राजपूत था। जो गुहिलोतों की ही एक शाखा है। कहतें हैं कि यह जैसलमेर के राजा के साथ वीरता पूर्वक लड़ता हुआ मारा गया।” श्री औझाजी ने अपनी इस पुस्तक में कहीं भी जैसलमेर के शासक का नाम नहीं लिखा है। वे भी ‘कहतें हैं’ शब्दों के सहारे अपनी बात को सप्रमाण पुष्ट करते नहीं दिखते ऐसे में डॉ विश्नोई की उक्त बात गले नहीं उतरती। इन्होंने जिस पुस्तक का सहारा लेकर यह बात लिखी है उस पुस्तक (श्री मेहोजी मांगलिया की महिमा”) की सारी कथा वीर मेहा प्रकाश पर आधारित है। वीर मेहा प्रकाश काव्यात्मक दृष्टि से तो स़ागोपांग कृति है परंतु ऐतिहासिक दृष्टि से काफी जगह कमजोर है। जैसे कि मोहन मांगलिया द्वारा तिलोकसी की मृत्यु, दूदा का कायरता पूर्वक विलाप, साधु वेश में दूदा द्वारा मेहा को मारना, करनीदान बोगसा द्वारा दूदा को धीरज बंधवाना, सहित कई ऐसी बातें हैं जो सहज रूप से हजम नहीं होती है। इतिहास में थोड़ी-बहुत जानकारी रखने वाला आम आदमी जानता है कि दूदा कैसा वीर पुरूष था? वो तो साक्षात मोत से भी अठखेलियां करने की हिम्मत रखता था। दूदा के साथ किसी करनीदान बोगसा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। दूदा के साथ आसराव रतनू, भोजराज रतनू, चंद्रभाण रतनू, तिहणराव रतनू, हूंफकरण सांदू, व बोहड़ बीठू जैसे श्रेण्य कवियों का प्रामाणिक वर्णन मिलता हैं तो साथ ही दूदा पर इन कवियों की रचनाएं भी उपलब्ध हैं।
तिलोकसी और दूदा द्वारा गोरहरे को गौरवान्वित करते युद्ध क्षेत्र में वीरगति प्राप्त करने का उल्लेख करते हुए आसरावजी रतनू अपनी कृति ‘रावल़ दूदा रा छंद ‘ में लिखतें हैं-
दूदो कहै तिलोकसी, तो सिर छत्र धरेह।
परतन भंजां आंपणो, गढ छल़ घणो करेह।।
इसी प्रकार मेहा की पत्नियों के साथ जैसा भाटी का आना भी इतिहास सम्मत नहीं लगता। क्योंकि मेहाजी, मल्लीनाथजी के दामाद थे जबकि जैसा राव जोधा के समकालीन।
अतः हम रावल दूदा के समकालीन कवियों की रचनाओं के आधार पर कह सकतें हैं कि वीर मेहा मांगलिया की लड़ाई रावल दूदा के साथ नहीं होकर किसी अन्य भाटी सरदार के साथ हुई होगी।
मेरे लिखने का मंतव्य कहीं भी रावल दूदा को श्रेष्ठ और मेहा को कमतर आंकने का नहीं है। दोनों इतिहास पुरूष थे। आपसी रिस्तेदार थे। दोनों वीर, अपनी आन, बान व शान के धनी थे। रावल दूदा ने अपनी मातृभूमि के गौरव की श्रीवृद्धि करते हुए अपने प्राण न्यौछावर किए तो वीर मेहा ने शरणागतों के गायों की रक्षार्थ प्राण देकर क्षत्रियत्व की रक्षा की। मेरे लिखने का आशय है कि दूदा और मेहा के बीच लड़ाई की बात इतिहास सम्मत नहीं होकर लोक मंडित है। जिसमें लोक अपने नायक को प्रतिनायक से श्रेष्ठ घोषित करता हुआ दृष्टिगोचर होता है। लोक के चलाई बात को काटना न तो सहज है और न ही संभव। फिर भी शोध विद्वानों का ध्यान किंचित मात्र भी मेरी बात की तरफ आकृष्ट हुआ तो मेरा लिखना सार्थक है।
मेरे इस आलेख से राजस्थानी साहित्य प्रेमियों, संस्कृति कर्मियों व इतिहास में रुचि रखने वालों को थोड़ी-बहुत ही सही, सही जानकारी मिलेगी तो मैं इसे ऋषि ऋण परिशोध ही मानूंगा।
~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”
(आदरणीय डॉआईदान सिंहजी भाटी के विशेष आदेश/निर्देश की पालना में लिखा गया आलेख। आपके बेबाक सुझावों की प्रतीक्षा। )
संदर्भ-
नैणसी री ख्यात – सं.ना.सिं.भाटी
वीर मेहा प्रकाश – जसुदान बीठू
बांकीदास री ख्यात – सं.नरोत्तमदास स्वामी
थार की गौरव गाथाएं – डॉ आईदान सिंह भाटी
शौर्य पथ-******
जस ना जासी जगत सूं – गिरधरदान रतनू दासोड़ी (अप्रकाशित)
बाबा रामदेवः इतिहास और साहित्य – डॉ सोनाराम विश्नोई
श्री मेहोजी मांगलिया री महिमा – भंवर दान किनिया
लेखक का निजी संग्रह
प्राचीन राजस्थानी साहित्य संग्रह संस्थान दासोड़ी, कोलायत, बीकानेर।
Mehaji Janam khiwsar
Yudh dudaji se hi hua
Veero ki shakti ka anuman nhi hota
लाल रंग में लिखे गये दोहों का सरल शब्दो मेंअथॅ किया गया होता तो अच्छा होता !