विचार अर संसार

गीली माटी मांय प्रजापत, सूखी ल्याय मिलाई।
नीर मिला रौंदण जद लाग्यो, माटी तद मुस्काई।।

बोली अरे! कुंभकार क्यूं, बर-बर और मिलावै।
रौंदी उणनैं राम सिंवर कर, क्यूं नीं चाक चढ़ावै।।

कुंभकार बोल्यो सुण माटी, आज इसी मन आई।
चिलम बणाणी छोड़ चाव सूं, घड़स्यूं अबै सुराई।।

माटी भाग सरावत बोली, करी भली करतार।
तोर विचार बदळतां म्हारो, बदळ् गयो संसार।।

जे हूं बणती चिलम हियै में, सहती आग सदीनी।
तंबाकू सिड़ती तन मांहीं, मनड़ै रहत मलीनी।।

जण जण रै मूंढै लागंती, पर नर हाथ परसतो।
सुलग-सुलग नित सहती सांसो, धुकतो धूम बरसतो।।

स्याफी बदळ-बदळ ले सुटका, बर बर जोत जगाता।
कर कर जोर काढ़ कस सारो, बळियां दूर बघाता।।

झड़ती तो भी मुख भोभर में, पड़ियो रहतो पापी।
जाती बळबळतां जिंदगाणी, सिड़तो गात सरापी।।

खुद बळती पर हिय बाळंती, धर पर आग खिंडाती।
बदबू सह बदबू पसराती, हाथां रोग बधाती।।

अब सीतळ सुरई बण सौरी, जग री प्यास बुझाऊं।
खुद सीतळ सीतळता बांटूं, कळकळ राग सुणाऊं।।

ऊंचो पण आवास ओपतो, आंगण सुरग सुहाणो।
छाण्यो नीर छांह में बासो, ऊपर कळस धराणो।।

बिण धोयै हाथां नीं परसै, कोई गात सुराई।
जूठो बासण रखै न जोड़ै, सखरी साफ सफाई।।

जिण गत कुंभकार मन बदळ्यो, उण गत बदळां आपां।
सोच बदळ संसार बदळद्यां, नव-नव मजलां नापां।।

~~डाॅ. गजादान चारण ‘शक्तिसुत’

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