यक़ीनन ये गिले शिकवे – राजेश विद्रोही (राजूदान जी खिडिया)

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यक़ीनन ये गिले शिकवे अग़र बाहम हुये होते।
दिलों के फासले यारों कभी के कम हुये होते।।

कभी इक दूसरे को हमने पहचाना नहीं वरना।
न तुम शिकवा व लब होते ना हम बरहम हुये होते।।

कभी मिलकर के हमने काश खुशियाँ बांट ली होतीं।
कभी इक दूसरे के हम शरीक़ेग़म हुये होते।।

ये माना मज़हबी दंगे कुछेक शैतान करते हैं।
अकेले क्या ये करते ग़र ना पीछे हम हुये होते।।

सिसकती क्यों भला इन्सानियत दुनियां में इस दर्ज़ा।
न जो दैरोहरम होते ना ये परचम हुये होते।।

कहा था डार्विन ने सच ये नस्ल औलादे-बन्दर है।
भला हैवान बन जाते जो तिफ़्ल-आदम हुये होते।।

शराफ़त से सियासत का नहीं था वास्ता कोई।
वरन् हम भी कहीं के क़ाइदे-आज़म हुये होते।।

~~राजेश विद्रोही (राजूदान जी खिडिया)

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