जिंदगी और बंदगी

कर रहा हूँ यत्न कितने सुर सजाने के लिए
पीड़ पाले कंठ से मृदु गीत गाने के लिए
साँस की वीणा मगर झंकार भरती ही नहीं
दर्द दाझे पोरवे स्वीकार करती ही नहीं
तू मगर हर साज से साजिन्दगी करती रही
ऐ जिंदगी ताजिंदगी तू बन्दगी करती रही
आँख का पाकर इशारा जो मचलना छोड़ती
देह की रस रागिनी को गर जरा सा मोड़ती
जीभ पे विष की जगह पर गर अमी रखती जरा
तो न तुझको देखना पड़ता मगर ये माजरा
तू हमेशा इंद्रियों की हाजिरी भरती रही
ऐ जिंदगी ताजिन्दगी तू बन्दगी करती रही
खुद से जियादा दूसरों के शौक की परवाह की
परिजनों की चाहतों पे वार खुद की चाह दी
‘क्या कहेंगे लोग तुझको’ सोच यह डरती रही
मुखर होने की जगह पर मौन ही धरती रही
तू हृदय को वेदना दे मौत बिन मरती रही
ऐ जिंदगी ताजिन्दगी तू बन्दगी करती रही।
साफगोई सज्जनाई आजकल बेकार है
दुर्जनों के द्वार सजदे कर इसी में सार है
तू भलाई कर भले पर आस कर मत और से
वक्त की कृतघ्नता को देख अब तो गौर से
विषधरों के वास्ते तू पय-सुधा धरती रही
ऐ जिंदगी ताजिन्दगी तू बन्दगी करती रही।
पात्रता परखे बिना सम्मान देना पाप है
आजकल विनम्रता भी दोष है संताप है
तू सदा छोटी बनी अरु बन विनत झुक के चली
संग लेने को सभी को तू सदा रुक के चली
दुर्भाव वालों के लिए सदभाव हिय भरती रही
ऐ जिंदगी ताजिन्दगी तू बन्दगी करती रही।
एक आने के अहम में, एक को जाने का गम
एक पाने की जुगत में, कौन है तीनों में कम?
है सभी की आँख में कुर्सी बड़ी, यह जानती
ये सियासत आदमी के सिर चढी, पहचानती
(तू) भीष्म द्रोणों के भरोसे, सिसकियां भरती रही
ऐ जिंदगी ताजिन्दगी तू बन्दगी करती रही।
~~डॉ. गजादान चारण ‘शक्तिसुत’